गांठ
रामधारी सिंह दिवाकर वैशाख-जेठ की तपती दोपहरी के आकाश में जैसे अचानक बादल उमड़ आये हों, कुछ ऐसी ही सुखद थी यह सूचना कि नकछेदी गांव आ रहा है. चमरटोली का घटरा सुबह हलवाही के लिए ड्योढ़ी गया था. बाबू चंद्रमा सिंह ने सूचना दी, ”ऐ घटरा, तुम्हारे डीआइजी साहब का फोन आया है पूर्णिया से. […]
रामधारी सिंह दिवाकर
वैशाख-जेठ की तपती दोपहरी के आकाश में जैसे अचानक बादल उमड़ आये हों, कुछ ऐसी ही सुखद थी यह सूचना कि नकछेदी गांव आ रहा है. चमरटोली का घटरा सुबह हलवाही के लिए ड्योढ़ी गया था. बाबू चंद्रमा सिंह ने सूचना दी, ”ऐ घटरा, तुम्हारे डीआइजी साहब का फोन आया है पूर्णिया से.
एसपी साहब की बहन की शादी में वे पूर्णिया आये हैं. बोले हैं कि शाम तक गांव आ रहा हूं.” घटरा ने छोड़ा हर-फार और झपटता हुआ चला अपनी चमरटोली की तरफ खबर बांटने. हांफते हुए उसने सबसे पहले खबर सुनायी फगुनीराम को. बेटे के आने की सूचना से फगुनीराम, जो दो दिनों से खाट पर पड़े कुंहर रहे थे, उठ कर बैठ गये. भाग गया जर-बुखार. बस, एक ही बात उनको नहीं सुहाई कि घर पहुंचने की सूचना नकछेदी ने ड्योढ़ी को क्यों दी. अपने टोल में भी तीन-तीन टेलीफोन हैं. एकदम बगल में ही टीटी बाबू के घर में टेलीफोन है. नंबर भी दिया हुआ है नकछेदी को. फिर ड्योढ़ी को फोन करने क्या जरूरत थी?
थोड़ी ही देर में खबर पूरे दक्षिण टोले में फैल गयी. दक्षिण टोला यानी चमरटोली के साथ दुसाध टोली, मुसहरी और डोम-धरकार टोली. घंटे भर में यादव टोले के प्रखंड प्रमुख दयानंद यादव, कु्र्मी टोले के मुखिया जी शिव कुमार प्रसाद, बाजार में जूते-चप्पलों की मरम्मत करने वाले दियादी रिश्ते के टेटनराम भी आ गये.
हर घटना में राजनीति की गंध सूंघने वाला टोले का गुलटेन भी फगुनीराम के दुआर पर आ गया. फगुनीराम का सूना पड़ा घर-आंगन सुहावना बन गया. उल्लास की लहर सी फैल गयी दक्षिण टोले में. नकछेदी गांव आ रहा है. नकछेदी नहीं, एनसी राम. प्रखंड प्रमुख और बबुआन टोली के लोग कहते हैं कि नकछेदी नाम से इनको कोई जानता ही नहीं है पटने में. दक्षिण टोले के लोगों को इससे मतलब नहीं है कि नकछेदी का अफसरी नाम एनसी राम है. कुछ भी हो, नाम और कुछ भी हो ओहदा मगर इतना तो है कि एसपी भी सैल्यूट मारता है नकछेदी को. हाल ही में प्रखंड प्रमुख मुख्यमंत्री निवास से आये हैं. कहते हैं कि मुख्यमंत्री नकछेदी के कान में बतिया रहे थे. सुनी हुई बात नहीं, देखी हुई बात है.
अपनी आंखों से देख आये हैं प्रमुख साहब. मामूली बात है क्या मुख्यमंत्री का किसी अफसर के कान में बतियाना? क्या मुकाबला करेंगे बबुआन टोली के बाबू-बबुआन? बड़ा फचर-फचर करते थे राम सिंहासन सिंह. साल-दो साल के लिए उनके दलबदलू समधी मंत्री क्या बन गये कि लगता था आसमान में सीढ़ी लगा देंगे! यह नहीं समझते कि गुलटेन ने भी दुनिया देखी है. पांच साल सुखदेव पासवान एमपी के साथ दिल्ली में रहा है. कितने मंत्रियों-संतरियों को उठते-गिरते देखा है. बोला, ”हौ मालिक, ई तो बताइए कि कै दिन के लिए मंत्री बने थे जयविजय सिंह. मंत्री-पद जाने के बाद कितने मंत्री पटना के चौक-चौराहा पर रिक्शा खोजते मिल जायेंगे. पूछिए न जाकर प्रमुख साहब से. देख कर आये हैं मुख्यमंत्री रह चुके जगन्नाथ मिश्र की दुर्दशा. माछी भनभनाती है जगन्नाथ मिश्र के क्वार्टर में. अकेले बैठे झख मारते हैं बलुआ बजार के जगन्नाथ मिश्र.”
पिछले साल गांव के लोगों ने भी देखा था कि बाबू चंद्रमा सिंह की बेटी के ‘फलदान’ में वकील साहब और नकछेदी साथ-साथ गांव आये थे. अलग-अलग कारों में एक साथ. पहली बार नकछेदी के दोनों बच्चे भी ड्योढ़ी में आये थे. चौदह-पंद्रह साल का बेटा और दस-ग्यारह साल की बेटी. बेटा दिल्ली में पढ़ता है और बेटी देहरादून में. जींस-पैंट पहने दोनों बच्चे पहली बार गांव आये थे. अजनबी आंखों से वे गांव को देख रहे थे. चमरटोली के लोगों को उम्मीद थी कि बच्चे अपना घर देखने भी आयेंगे, लेकिन पता चला कि वे ड्योढ़ी की सुख-सुविधाओं में ही मगन हैं. दक्षिण टोले, खास तौर से चमरटोली के मर्द और स्त्रियां, नकछेदी के दोनों बच्चों की एक झलक पाने के लिए बेचैन थे.
ड्योढ़ी में झांक-झूंक कर दोनों बच्चों को देख आने वाले चमरटोली के लोगों की खुशी का क्या कहना! टेटनराम ने चुनौती के लहजे में कहा था, ”है कोई ऐसा लड़का या लड़की पूरी बभनटोली या बबुआन टोली में? जेतना सुंदर बेटा, उतने खूबसूरत बेटी! एन-मेन बभनी-रजपुतनी जैसी”. घटरा ने अनुमान लगाते हुए कहा, ”देखना है कि ड्योढ़ी से नकछेदी अपने घर आता है या नहीं.” फगुनीराम के मन में दुष्टात्मा की तरह बैठी ड्योढ़ी अचानक प्रकट हो गयी थी. लक्खन गुरुजी की ओर देखते हुए उन्होंने कहा, ”आपको याद है न गुरुजी! यह दूसरी बार है जब वकील साहब नकछेदी को साथ लेकर पटना से आये हैं. नकछेदी के दोनों बच्चे भी हैं. सुना है कि पटने में दोनों का एक-दूसरे के यहां आना-जाना, खाना-पीना होता है.” बोलते-बोलते वाक्य उनके गले में अटक गया था. खंखारते हुए उन्होंने कहा, ”पता नहीं काहे, मुझे विश्वास नहीं होता है.” टेटनराम, लक्खन गुरुजी और घटरा, तीनों फगुनीराम का चेहरा देखने लगे. लक्खन गुरुजी ने पूछा, ”काहे? विश्वास काहे नहीं होता है आपको?”
बहुत दिनों के बाद फगुनीराम के दुआर का सन्नाटा टूटा. रामू साह ने फ्री में अपना जेनेरेटर दिया. शाम होते ही कुर्मी टोली और दक्षिण टोले की भजन मंडलियां फगुनीराम के दुआर पर आने लगीं. तभी दुआर के सामने एक जीप आकर रुकी. लोग उधर देखने लगे. जीप से बाबू चंद्रमा सिंह और उनके समधी विधायक सदानंद सिंह उतरे. दुआर भरा हुआ था. बायें किनारे से रास्ता बनाते हुए दोनों उन कुर्सियों के पास पहुंच गये. जहां नकछेदी बैठा था. प्रखंड प्रमुख और टीटी बाबू कुर्सी छोड़ कर खड़े हो गये. नकछेदी के बगल में नीचे बिछी हुई दरी पर माई बैठी थी. बाबू चंद्रमा सिंह ने माई को पहचान कर प्रणाम किया, ”प्रणाम माताजी.” बाबू चंद्रमा सिंह की तरफ माई अकचकाकर देखने लगी.
अनहोनी बात. बाबू चंद्रमा सिंह प्रणाम कर रहे हैं? चैता की कड़ी टूट गयी. एकाएक थम गयी शृंगार रस की वेगवती धारा. विधायक सदानंद सिंह ने खुसर-पुसर क्या बतियाना नकछेदी से, यह तो किसी ने नहीं सुना, लेकिन जब विधायक जी और चंद्रमा सिंह कुर्सी से उठे, तो नकछेदी टीटी बाबू से बोला, ”ड्योढ़ी में बेगूसराय के योगेंद्र सिंह अाये हैं. अरे वही योगेंद्र सिंह, जिनकी सौ-दो सौ बसें चलती हैं पूरे बिहार में. उन्हीं के बेटे से वकील साहब की बेटी बंटी का रिश्ता मेरे सामने ही तय हुआ है डेढ़ दो महीने पहले. लड़का अमेरिका में है.”
संशय में सारे लोग चुप थे. क्या बात हुई? नकछेदी ने कहा, नया रिश्ता है. ड्योढ़ी से बुलाने आये हैं. बगल में खड़े बाबू चंद्रमा सिंह ने मुस्कुराते हुए कहा, ”खस्सी काटा गया है. शाम में पोखर से दस-बाहर किलो की रेहू मछली निकाली गयी है. बाकी सामान लाने के लिए आदमी पूर्णिया गया है.” ”चला जाए सर.” विधायक जी ने अनुनय के स्वर में कहा. नकछेदी उठ कर खड़ा हो गया, जाना ही पड़ेगा. रामप्रताप की बेटी के रिश्ते की बात है. बड़ा नाजुक मामला होता है शादी ब्याह का. नकछेदी ड्योढ़ी जाने के लिए कुर्सी से उठा. दुआर पर उपस्थित सैकड़ों लोगों को जैसे सांप सूंघ गया हो. विधायक जी और बाबू चंद्रमा सिंह आगे निकल गये थे आैर वे जीप के पास खड़े थे. लोग भी उठ कर खड़े हो गये थे लेकिन नकछेदी को मना कौन करे? आखिर लक्खन गुरुजी ने हिम्मत की, ”तुम्हारे दुआर पर सैकड़ों लोग जमा हैं छेदी. रात भर चलेगा प्रोग्राम. भोज की तैयारी है.”
”क्या किया जाये गुरुजी. नये समधी वाली बात है. मैं नहीं गया ताे क्या कहेगा रामप्रताप? खुद योगेंद्र बाबू ने दर्शन मांगा है. बोले हैं कि मैं नहीं आऊंगा तो वे खुद चले जायेंगे.” नकछेदी अपनी कार के पास चला गया. ड्राइवर और बॉडीगार्ड सन्नद्ध मुद्रा में खड़े थे. घटरा ने हाथ मलते हुए कहा, ”अच्छा, भोर में आ रहे हो न?” ”हां, लौटने के पहले आऊंगा सुबह में.”
”तो कल भोर का नाश्ता-पानी मेरे घर.” नकछेदी हंसते हुए कार में बैठ गया, ”आप नाश्ता-पानी वाली बात भूलते नहीं हैं काका.” जलती हुई आग पर जैसे पानी गिरा दिया गया हो. सारा उमंग-उत्साह मर गया नकछेदी के जाते ही. लोग फगुनीराम की तरफ देखने लगे. गुलटेन बोला, ”आप मना काहे नहीं किये काका? आप तो बाप हैं.” फगुनीराम एकदम दयनीय और निरीह जैसे दिख रहे थे. कुंहरते हुए बाेले, ”मेरा क्या कसूर….” बल्ब की रोशनी में उनका चेहरा देख कर लगता था, वो रो देंगे. खुद काे संभालते हुए वे लक्खन गुरुजी से बोले, ”कहिए लोगों से कि खाकर जायें. इतना भात बना है. दाल, तरकारी है. क्या होगा इसका?” बोलते-बोलते वे बरामदे की खाट पर लुढ़क गये. अपने घर लौटते हुए गुलटेन ने जैसे खुद से कहा, ”पोलटिस फेल. जीत गयी ड्योढ़ी. सदा से जीतती आयी है…”
वहां नकछेदी वर्षों बाद दोस्ती रोटी देख रहा था. वे तीन-चार रोटियां एक-दूसरे में सटी हुई ऐसी दिखती थीं, जैसे बिल्कुल एक हो. लेकिन तोड़ते ही बिखर जाती थी. यह दोस्ती रोटी तुमने बनायी है क्या काकी? नकछेदी ने पूछा तो काकी हंसने लगी, ”नहीं, हमको ई सब लूर-हुनर कहां. टीटी बाबू की बहू ने बनायी है. बड़ी हुनरवाली है. शहर की है न. पढ़ी-लिखी भी है.” बगल में खड़े टीटी बाबू गर्व से मुस्कुराये. ”तरह-तरह का खाना बनाना जानती है बहू.”
स्टील के बरतन की तरफ देख कर नकछेदी मुस्कुराया, ”मुझे खिलाने के लिए बरतन मांग कर लाने की क्या जरूरत थी काका? क्या मैं आपके बरतन में नहीं खा सकता था? घटरा ने अपनी घरवाली की तरफ मुस्कुराकर इस तरह देखा जैसे कोई भेद खोलने जा रहा हो, बरतन कहीं से मांग कर लाये हुए नहीं हैं छेदी न खरीदे हुए है.”
नकछेदी को हंसी आ गयी, ”सुना आपने टीटी बाबू, न खरीदे हुए हैं, न मांग-कर लाए हुए हैं, तब तो यही कहा जायेगा कि किसी ने यूं ही दे दिये हैं.” ”हां, यही बात है.” घटरा कहने लगा, ”पिछले साल तुम आये थे न ड्योढ़ी में बच्चों को लेकर.” तुम्हारे जाने के बाद दूसरे या तीसरे दिन बड़की मालकिन ने मुझे आंगन में बुलाया. मैं रोज की तरह हरवाही के लिए ड्योढ़ी गया था. आंगन में बड़का मालिक थे. वकील साहब थे, वकील साहब की मेम साहब थी. बड़की मालकिन बोली, ”रे घटरा, हे ई बरतन ले जाओ. तुम्हारे ही दर-दियाद का जुठारा हुआ है. तुम नहीं ले जाओगे तो डोम को दे दूंगी.”
दोस्ती रोटी का कौर मुंह के पास पहुंचा भी नहीं था कि नकछेदी के हाथ रुक गये. लगा जैसे सब कुछ अचानक स्थिर हो गया हो. हतप्रभ-सा वह घटरा काकी का चेहरा देखता रहा. निर्निमेष… अविचल. एकाएक जैसे अघटित जैसा कुछ घट गया हो या पिछली कितनी ही सदियां निमिष से सिमट आयी हों. उसने थाली में हाथ धोये और बिना कुछ बोले, बहुत आहिस्ता-आहिस्ता चल कर आंगन से बाहर आ गया. बगल में अपने घर की तरफ आते हुए उसे फगुनीराम मिल गये. बेटे का चेहरा ऐसा दिख रहा था जैसे श्मशान से लौट रहा हो. पीछे-पीछे घटरा आ रहा था.
उन्होंने अपने बेटे से नहीं, घटरा से ही पूछा, ”क्या हुआ रे?” साथ चल रहे सारे लोग चुप थे. ”पूछता हूं, क्या हुआ? बोलते क्यों नहीं?” फगुनीराम ने पूछा ताे जवाब में घटरा गूंगे की तरह गों-गों करने लगा. लक्खन गुरु जी बोले, ”मैं बताता हूं फगुनी भाय.” फगुनीराम को लक्खन गुरुजी ने रास्ते में ही राेक लिया. नकछेदी अशक्त-सा चलता बरामदे में आया और खाट पर चित लेट गया. एकदम गुमसुम… आत्मपराजित और क्लांत.
बरामदे की छत को वह एकटक देखता रहा. दरवाजे के बाहर मरिया कुएं के पास फगुनीराम लक्खन गुरुजी की बांह में अपनी बांह गूंथे आंगन की दहलीज के पास ओट में आ गये. गुलटेन भी वहीं पहुंच गया. फगुनीराम ने अपनी हंसी को जबरन छुपाने की कोशिश करते हुए कहा, ”कमाल हो गया गुरुजी! नशा उतर गया मेरे बेटे का. चमार होकर चला था बाबू-बबुआन बनने. ठीक हुआ… एकदम ठीक.” गुरुजी को भी शायद यही महसूस हो रहा था जैसे सिर पर वर्षों का रखा बोझ उतर गया हो.
फगुनीराम के कंधे पर अपना दाहिना हाथ रखे वे खुल कर हंसने लगे. गुलटेन ने मुस्कुराते हुए कहा, ”हम कहते थे न काका, नकछेदी बबुआनी पोलटिस में फंस गये हैं? कहते थे न? असल में ओहदे के कारण आंख की पुतरी पर माड़ी छा गयी थी.” गुरुजी ने गुलटेन की पीठ थपथपाई. टीटी बाबू थोड़ी दूरी पर खड़े सब देख रहे थे. वे भी हंसने लगे. दुआर के एक कोने में अपराधी की तरह खड़ा घटरा समझ नहीं पा रहा था कि नकछेदी के मन को इतनी गहरी चोट लगी है, तो फिर ये अपने ही लाेग हंस क्यों रहे हैं!