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विश्व आदिवासी दिवस, अब भी कायम हैं चुनौतियां

आदिवासी समुदाय लंबे समय से अपने अस्तित्व, पहचान, भाषा संस्कृति अौर संसाधनों पर हक के लिए संघर्ष कर रहा है. प्रकृति के साथ लंबे समय के सहचर्य से इस समुदाय ने प्रकृति आधारित जीवनशैली विकसित की है. पर सभ्यताअों के साथ संपर्क में आने के बाद उनके जीवन में परिवर्तन आना शुरू हुआ. आज आदिवासी […]

आदिवासी समुदाय लंबे समय से अपने अस्तित्व, पहचान, भाषा संस्कृति अौर संसाधनों पर हक के लिए संघर्ष कर रहा है. प्रकृति के साथ लंबे समय के सहचर्य से इस समुदाय ने प्रकृति आधारित जीवनशैली विकसित की है. पर सभ्यताअों के साथ संपर्क में आने के बाद उनके जीवन में परिवर्तन आना शुरू हुआ. आज आदिवासी समुदाय अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति, संसाधनों पर हक के लिए अन्य समस्याअों के साथ संघर्ष कर रहा है. यहां हम झारखंड के बुद्धिजीवियों से जानने का प्रयास कर रहे हैं कि आदिवासी समुदाय के समक्ष वर्तमान समय में सबसे बड़ी चुनौतियां क्या है? इनसे बातचीत की है प्रवीण मुंडा और मनोज लकड़ा ने.

दुनिया आदिवासियों का पक्ष सुनने को तैयार नहीं

अनुज लुगुन

आज आदिवासी समाज और अन्य वैश्विक समाज के बीच स्पष्ट दार्शनिक विभाजन दिख रहा है. जिसे हम वैश्विक समाज या ‘ग्लोबल दुनिया’ कहते हैं, वह पूंजी के प्रसार के साथ जिस उपभोग की जीवन शैली को मानव समाज के बीच आरोपित कर रहा है, उसने देखते ही देखते प्रकृति को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है. आज हम स्पष्ट रूप से प्रकृति से विलग और प्रकृति से रागात्मक रूप से जुड़े दो अलग-अलग समाज को देखते हैं.

यह विभाजन सिर्फ भारत में नहीं हैं, जहां आदिवासी समाज कथित विकास के उद्घोषकों से जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहा है. अगर हम ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बात करें तो एक दुनिया ‘कोलंबस मार्गी’ है और दूसरा ‘कोलंबस विरोधी’. इन दोनों की अपनी-अपनी जीवन शैली और सांस्कृतिक विशिष्टताएं हैं. ध्यान रहे कि 1992 को अमेरिका की खोज के पांच सौ वर्ष पूरे होने पर औपनिवेशिक देशों ने विजय के रूप में ‘कोलंबस वर्ष’ मनाया था. इसके प्रतिरोध में अमेरीकी आदिवासियों के महासंघ ने ‘प्रतिरोध के पांच सौ वर्ष’ का अंतरराष्ट्रीय अभियान चलाया था़ आज एक ही देश के अंदर यह विभाजन स्पष्ट रूप से दिख जायेगा़ मक्सिको के दक्षिण में मूल मैक्सिकनों का ‘जपाता आंदोलन’ हो, या इंडोनेशिया में ‘पापुआन्स आंदोलन’ या फिर हमारे ही देश में आदिवासियों का आंदोलन हो़ नॉम चोस्की के ‘इंडिजेनस रेसिस्टेंट’ की बात को हम इससे अलग करके नहीं देख सकते हैं.

आज की वैश्विक दुनिया आदिवासियों के पक्ष को सुनने के लिए तैयार नहीं है़ दुनिया के कई देशों ने तो आदिवासियों का संहार कर उनके अस्तित्व को ही मिटा दिया है़ जिन देशों में अब भी आदिवासी बचे हुए हैं, उन्हें अपने संघर्ष की रणनीतियों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है़ इस बात को गंभीरता से समझना होगा कि बाहरी हस्तक्षेप से आदिवासी समाज-व्यवस्था और उनका गणतंत्र बिखर गया है़ इसके अवशेषों के साथ उनका दार्शनिक मूल्य ही है, जो अब भी बचा हुआ है़ वैश्विक दुनिया में अलग-थलग रह कर अपने अस्तित्व को बहुत देर तक नहीं बचाया जा सकता है़

अलग – थलग रहने के बजाय अपने मूल्यों के साथ दुनिया के सामने खड़ा होना ज्यादा कारगर रणनीति हो सकती है़ गैर आदिवासी समाज में भी आदिवासियत के मूल्य रोपे जा सकते हैं, यह विश्वास आदिवासियों की लड़ाई को विस्तार ही देगा़ पूंजीवादी सभ्यता ने मनुष्य और प्रकृति को युद्ध और विनाश के जिस छोर पर ला खड़ा किया है, वही वैश्विक परिस्थितियां आज आदिवासी मुद्दों पर बात करने के लिए दबाव डाल रही हैं. यहीं से आदिवासी समाज के लिए वैश्विक रास्ता भी खुलेगा़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परमाणु निरस्त्रीकरण, हथियारों की प्रतिस्पर्धा का प्रतिरोध और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए होनेवाले आंदोलन बिना शर्त आदिवासी आंदोलनों के ही हिस्से बन जायेंगे़.

जादूगोड़ा में यूरेनियम खनन का विरोध करनेवाले आदिवासियों का आंदोलन जापान में परमाणु हथियारों का विरोध करनेवाले संगठन से स्वत: वैचारिक साम्य रखता है़ इस तरह यदि आदिवासी समाज वैश्विक दुनिया के सामने अपना पक्ष लेकर आये, तो बृहद जन भागीदारी संभव होगी और विकास का विकल्प संभावित होगा़ इसके बावजूद स्थानीय स्तर पर आदिवासी संघर्ष ज्यादा चुनौतीपूर्ण है़ स्थानीय प्रशासन में उनकी भागीदारी क्या होगी? बृहद समाज में उनका प्रतिनिधित्व क्या होगा ? उनके अधिकारों का स्वरूप क्या होगा ? ऐसे सवाल ज्यादा जटिल हैं. आज भी दुनिया के कथित लोकतांत्रिक देश आदिवासियों को उनका वास्तविक अधिकार नहीं दिला सके हैं. इसी संबंध में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अनुबंध 169 का प्रावधान किया है, जिसमें प्रत्येक राज्य को आदिवासी अधिकारों को सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है़ लेकिन हमारे देश की सरकारों ने आज भी आदिवासियों को आत्मनिर्णय का अधिकार नहीं दिया है़ आदिवासियों को क्या करना है और क्या नहीं, यह राजधानियों में तय होता है़ यदि कोई आदिवासी राजधानी से सैकड़ों मील दूर जंगलों से अपनी असहमति जताता है, तो वह अलगाववादी और आतंकवादी हो जाता है़ पूर्वोत्तर से आवाज उठेगी, तो उसे तुरंत ही विदेशी साजिश कह दिया जायेगा और यदि यह आवाज मध्य भारत से आयेगी तो वह आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हो जायेगा़

लोकतांत्रिक देशों में जनता का हित राजनीतिक गलियारों से होकर ही सधता है़ भारत जैसे देश में जहां कई समुदायों का आंतरिक विभाजन है, वहां देश की आबादी का कुल आठ प्रतिशत आदिवासी समाज संसद में अपने अधिकारों के लिए कोई राजनीतिक दबाव नहीं बना पाता है़

आदिवासी समाज का मनोविज्ञान आज भी बाह्य समाज की मनोरचना से बिल्कुल अलग है़ यह किसी भी प्रकार की कुटिलता में दक्ष नहीं है़ परिणामस्वरूप आजादी के इतने वर्षों बाद भी मुख्यधारा की राजनीति में यह अपना केंद्रीय नेतृत्व उभार नहीं सका है़ वैश्वीकरण के आज के दौर में आदिवासी समाज चौतरफा हमला झेल रहा है़ एक ओर तो उसकी अस्मिता और अस्तित्व के आधारभूत तत्व जल, जंगल और जमीन उनके हाथ से छिनते जा रहे हैं. ‘विकास’ के कथित प्रोपेगंडा ने उसके दार्शनिक अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है़ वहीं दूसरी ओर उसके समाज से ही एक ऐसा वर्ग जन्म ले रहा है, जो बाजार की चमक से अपनी भाषा, संस्कृति और जीवन शैली से दूर हो रहा है़ यह ऐसा वर्ग है, जो समाज से जुड़े किसी भी संवेदनशील मुद्दे से खुद को अलग कर लेता है़ ऐसे में बृहद जन आंदोलन के बिना आदिवासी समाज अपने संकट से उबर पायेगा इसमें संदेह लगता है़

एक बार फिरसे आदिवासी हाशिये पर

फादर जेवियर सोरेंग

झारखंड सरकार ने पिछले वर्ष अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस को उत्सव के रूप में मनाने का आमंत्रण दिया और सरकारी धन- जन के साथ जगह-जगह समारोह संपन्न भी किया. इसके पीछे सरकार की मंशा भले ही कुछ रही हो, लेकिन एक बात स्पष्ट हुई कि अब इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस देश में आदिवासी भी रहते हैं. पर हर आदिवासी के जेहन में यह टीस रहेगी कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सभा में उनके अस्तित्व से इनकार किया गया था. अब भी यही सच है कि आदिवासियों को एक संवैधानिक शब्द, जनजाति का दर्जा मात्र दिया गया है.

इसमें कोई दो मत नहीं है कि आदिवासी झारखंड के प्रथम निवासी हैं. उन्होंने जंगल- झाड़ काटकर इसे खेती योग्य बनाया और यहां बसते गये. यह स्थान खूंटकट्टीदार और भूईंहर (भूमिहार नहीं) लोगों का देस बना. अब सिर्फ 2482 भूईंहर मौजा ही झारखंड में रिवीजनल सर्वे रिकॉर्ड में बचे हैं, जो बिहार भूमि सुधर अधिनियम 1950 के दायरे में नहीं आता. इसी तरह खूंटकट्टी व्यवस्था के भी अवशेष मात्र ही रह गये हैं. यह भूमि व्यवस्था न सिर्फ आदिवासियों के जिंदगी की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक पहलुओं से जुड़ी है, बल्कि उनके अस्तित्व और पहचान का पर्याय भी है.

राज्य सरकार की स्थानीयता नीति ने आदिवासी को एक बार फिर से हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया है. यहां के आदिवासी और मूलवासी ही यहां के ‘स्थानीय व्यक्ति’ हो सकते हैं. लेकिन, वर्तमान नीति में जिस तरह ‘स्थानीय व्यक्ति’ को परिभाषित किया गया, उससे प्रतीत होता है कि ‘स्थायी पता’ और ‘पत्राचार के पता’ में कोई फर्क नहीं किया गया. ऐसा लगता है कि यहां की नौकरियों और संसाधनों का फायदा बाहरी लोगों को देने के लिये यह नीति बनायी गयी है. अलग राज्य के गठन का यही मकसद था कि यहां के प्रशासन व संसाधनों की बागडोर यहां के आदिवासियों और मूलवासियों के हाथों में हो. मौजूदा स्थिति में ऐसा नहीं दिखता.

आदिवासी समाज अपने अस्तित्व और पहचान के लिये सदियों से संघर्षरत रहा है. आज जिस मुकाम पर यह समाज खड़ा है और मौजूदा हालात को देखते हुए यही लगता है कि इसे अपने अधिकार व अस्तित्व की लड़ाई जारी रखनी होगी. क्या आदिवासी समाज इस तरह की लड़ाई के लिये गोलबंद हो सकेगा ?

लेखक एक्सआइएसएस के फैकल्टी और सोसाइटी ऑफ जीसस के पूर्व प्रोविंशियल हैं.

खत्म हो रही अखड़ा धुमकुड़िया व्यवस्था

पद्मश्री सिमोन उरांव

हम आदिवासियों की पुरानी व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो रही है. यह बड़ी समस्या है. पहले गांवों में अखड़ा अौर धुमकुड़िया में लोग नियमित रूप से बैठ कर अपनी समस्याअों पर चर्चा करते थे. मिल-जुल कर समस्या का समाधान भी निकाला जाता था. इससे गांव में लोगों का आपसी संबंध बना रहता है. पर अब ऐसा नहीं होता. लोग अखड़ा में नहीं बैठते. मेरा मानना है कि सप्ताह में एक दिन गांव वालों को अखड़ा/ धुमकुड़िया में जरूर बैठना चाहिए. मेरे क्षेत्र में अभी भी छह- सात गांवों में यह बैठक चलती है अौर वहां काफी अच्छी व्यवस्था है. चाहे गांव में रास्ता बनाना हो, गंदगी साफ करनी हो, झगड़ा, मनमुटाव सुलझाना हो. बैठ कर बात करने से समस्या आसानी से सुलझ जाती है. आपसी एकता भी बनी रहती है. अभी सरकार कई तरह की योजना बना रही है. पर जब तक गांव के लोग नहीं बैठेंगे, किस तरह से इन योजनाओं को पूरा किया जा सकता है. मुखिया, पंचायत प्रतिनिधि आदि को सरकार ने नियुक्त किया है. पर वे लोग क्या कर रहे हैं? जब तक अपनी व्यवस्था पर नहीं भरोसा करेंगे, चीजें नहीं बदलेंगी.

आज फिर है एक हूल की जरूरत

निर्मला पुतुल

संतालपरगना में आदिवासियों की जमीन लीज पर लेकर क्रशर चलानेवाले गैरआदिवासियों की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं खड़ी हैं. वहीं जमीन देनेवाला किसी तरह गुजर-बसर कर रहा है. आदिवासियों को जमीन के बदले कुछ पैसे थमा देने से उनका विकास नहीं हो सकता. सिर्फ बिचैलिये ही दिन दूनी, रात चैगुनी तरक्की करते हैं. आदिवासी जीवन कृषि पर आधारित है और इसे विकसित करने के लिए सिंचाई व अन्य सुविधाएं मुहैया करानी चाहिए. ऐसा नहीं होने से साल में सिर्फ एक खेती होती है, जिसके बाद लोग आजीविका के लिए पलायन को मजबूर होते हैं. जंगल भी कट रहे हैं, जिससे उनके भोजन व आजीविका की समस्याएं बढ़ी हैं. जंगल की चीजें लेने पर उन्हें चोर कहा जाता है. स्थिति का प्रतिकार करने पर ‘नक्सली’ बन जाते हैं. आदिवासियों के संरक्षण की बात सिर्फ कागजों तक सीमित रह गयी है. उनपर चैतरफा हमला जारी है. उनके जनजीवन पर गैर आदिवासियों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ा है. राजनीति में भी उन्हें सिर्फ कोरम पूरा करने के लिए रखा जाता है. इसमें भी गैर आदिवासियों का ही वर्चस्व है.

आदिवासी हर परिस्थिति में खुश नजर आते हैं, पर आंतरिक स्थिति इसके ठीक विपरीत है. सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक परिदृश्य में झारखंड के इन मूल लोगों को लगातार हाशिये में धकेला जा रहा है. यदि सरकार वास्तव में उनकी खुशहाली चाहती है, तो उसे ईमानदारी से उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति में सुधार का प्रयास करना चाहिए. अन्यथा आदिवासियों को एक और हूल की तैयारी करनी होगी.

लेखिका संताल आदिवासी कवयित्री हैं

शोषण की प्रक्रिया अब भी जारी है

महादेव टोप्पो

रांची. जिस तरह से सरकार के कार्यक्रम हैं, भविष्य में आदिवासियों का अस्तित्व खतरे में नजर आता है. कुछ ऐतिहासिक घटनाअों को देखें-तकरीबन 400-500 वर्ष पहले जब यूरोपीय लोग अमेरिका, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया में गये, वहां के मूल निवासियों (आदिवासियों) के साथ दुर्व्यवहार किया. उनकी हत्याएं कीं, उन्हें गुलाम बनाया. वह प्रक्रिया अभी भी झारखंड, छत्तीसगढ़, नार्थ ईस्ट में दुहरायी जा रही है. सरकारी नीतियों से ऐसा लगता है, जैसे वे आदिवासियों को खत्म करना चाहते हैं. उनकी मांगों को गंभीरता से नहीं देखा जाता, न उन्हें ही गंभीरता से लिया जाता है. ऐसा लगता है कि अगर आदिवासी नहीं चेते तो भाषा, साहित्य, संस्कृति, जल, जंगल और जमीन खतरे में पड़ जायेंगी. अब जल-जंगल या संसाधनों को लेकर आदिवासी दर्शन को विश्व स्तर पर मान्यता मिल रही है. दूसरे स्वरूपों में लोग उसे अपना भी रहे हैं. उदाहरण के तौर पर स्वीडन अौर सिंगापुर में अब ऐसी बिल्डिंग बन रही है, जहां पेड़ भी लगे हैं. मेरा मानना है कि मनुष्यता, धरती और प्रकृति को बचाने के लिए आदिवासी जीवन दर्शन ही सबसे सार्थक है. चूंकि संदर्भ विश्व आदिवासी दिवस है, तो बता दूं कि वर्ष 1993 अगस्त महीने में पहली बार रांची में संत जेवियर्स कॉलेज में इंडीजिनस वीकेंड मनाया गया था. उस कार्यक्रम में मैंने अपने कार्यालय से छुट्टी लेकर हिस्सा लिया था. कार्यक्रम में छउ नृत्य के माध्यम से सिद्धो-कान्हो के संघर्ष को दिखाया गया था.

लेखक साहित्यकार हैं

जल, जंगल और जमीन से जुड़ा है आदिवासी अस्तित्व

डॉ रामेश्वर उरांव

जल, जंगल और जमीन के मालिक आदिवासी है़ं इससे इनका अस्तित्व जुड़ा है़ यूएनओ ने भी माना है कि इस पर आदिवासियों का हक है़ यही नहीं, जमीन के अंदर के खनिज के मालिक भी आदिवासी है़ं हम नौ अगस्त को आदिवासियों की बात करते हैं, लेकिन इनके भविष्य को बचाने के लिए गंभीरता नहीं दिखाते़

जंगल के जंगल उजड़ रहे है़ं आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हो रहे है़ं सरकार मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि आदिवासियों का भविष्य जमीन से जुड़ा है़ आजादी के बाद देश का विकास हुआ़ विकास होना भी चाहिए, लेकिन इसकी सबसे ज्यादा कीमत आदिवासियों ने चुकायी़ बोकारो स्टील हो, एचइसी हो, राउरकेला स्टील प्लांट हो, सभी जगह गांव के आदिवासी विस्थापित हुए़ आज इनकी हालत कोई इन गांवों मेें जाकर देखे़ जमीन से बेदखल होने के बाद आदिवासी कहीं के नहीं रहे़ विस्थापन का ख्याल सरकारों ने नहीं किया़ आज भी जहां विकास की बात होती है, आदिवासी सहम और डर जाते है़ं सरकार पर विश्वास नहीं होता़ पहले ही आदिवासी इतना भुगत चुके हैं कि इससे उबर तक नहीं पाये. विकास होना चाहिए, लेकिन आदिवासियों को उजाड़ने की कीमत पर नही़ं आज आदिवासी का एक वर्ग पढ़-लिख कर नौकरियों में भी आया है, लेकिन ये पूरे आदिवासी समाज का चेहरा नहीं है़ं बहुसंख्यक आदिवासी आज भी बदहाल है़ं सरकार इनके लिए जो भी कानून या अधिकार देने की बात करती है, वह ग्रास रूट तक नहीं पहुंच पाता़ वन अधिकार का कानून आया़ लेकिन उसको लागू करने में राज्यों ने रुचि नहीं दिखायी़ आदिवासियों या मूलवासियों को जंगल पर अधिकार नहीं मिला़.

लेखक केंद्रीय जनजातीय आयोग के अध्यक्ष हैं


विकास की बलिवेदी पर चढ़ती आदिवासी आबादी

दयामनी बरला

अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस सिर्फ उत्सव मनाने के लिए नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व, संघर्ष, हक-अधिकारों और इतिहास को याद करने के साथ-साथ अपनी जिम्मदारियों और कर्तव्यों की समीक्षा करने का भी दिन है. आजाद देश के राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों एवं संविधान निर्माताओं ने यह अनुभव किया कि देश का विकास और शांति व्यवस्था एक तरह के कानून से संभव नहीं हैं. इसलिए देश में दो तरह के कानून बनाये गये. एक सामान्य कानून, जो सामान्य क्षेत्र के लिए, और दूसरा विशेष कानून, जो विशेष क्षेत्र यानी आदिवासी बहुल इलाकेे के लिए बनाया गया. आदिवासी-मूलवासी बहुल एरिया को विशेष क्षेत्र में रखा गया. इन क्षेत्रों को पांचवी अनुसूची तथा छठी अनुसूची के अतंर्गत रखा गया. आदिवासी बहुल क्षेत्र में आदिवासी समाज का अपनी धरोहर, अपने पारंपरिक सामाजिक मूल्यों और अधिकारों के साथ ही विकास हो, इसके लिए भारतीय संविधान ने प्रावधान किया. आदिवासी समाज को जल-जंगल-जमीन विहीन होने से बचाने के लिए ही सीएनटी तथा एसपीटी एक्ट बनाया गया. यह एक्ट अंग्रेजों का गिफ्ट नहीं है, बल्कि आदिवासी नायकों के संघर्ष की देन है. यह अलग बात है कि इनके मूल भावनों में सत्ता पक्ष हमेशा अपने हित में संशोधन पर संशोधन करते आ रहा है. हर संशोधन आदिवासी सामाज के प्रतिकूल ही हुआ है.

सीएनटी तथा एसपीटी एक्ट में कैसे-कैसे संशोधन

1908 : सीएनटी एक्ट की धारा 49, क्या थी पहले : इस धारा के तहत सरकार की ओर से सिर्फ उद्योग और खनन कार्यों के लिए ही जमीन ली जा सकती थी.

2016 का संशोधित एक्ट : अब क्या होगा : अब इसमें संशोधन करते हुए आधारभूत संरचना, रेल परियोजना, कॉलेज, ट्रांसमिशन लाइन आदि कार्यों को जोड़ दिया गया है. अर्थात, सरकार अब विकास कार्यों के लिए भी जमीन ले सकेगी. इस कानून के तहत अब सरकार विकास के नाम पर कॉरपोरेट कंपनियों के लिए भी जमीन अधिग्रहण करेगी.

1908 : सीएनटी एक्ट की धारा 71-ए(2), क्या थी पहले : इस धारा के तहत एसएआर कोर्ट से कंपनसेशन के सहारे आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासियों को हस्तांतरित की जाती थी.

2016 का संशोधित एक्ट: अब क्या होगा : इस धारा को समाप्त कर देने से कंपनसेशन के सहारे आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासियों को हस्तांतरित नहीं की जा सकेगी. साथ ही एसएआर कोर्ट में दायर होंगे आदिवासी जमीन वापसी के मुकदमे. सीएनटी एक्ट की धारा 71-ए की उपधारा -2 को समाप्त करने के बाद भी एसएआर अदालतें चलेंगी.

1908 : सीएनटी एक्ट की धारा 21 और एसपीटी(1949) एक्ट की धारा 13 : क्या थी पहले : मालिक को जमीन की प्रकृति बदलने का अधिकार नहीं था अर्थात जमीन की प्रकृति अगर कृषि है, तो मालिक उसका इस्तेमाल कृषि कार्य के अलावा किसी अन्य कार्य में नहीं कर सकता था.

20016 का संशोधित एक्ट : अब क्या होगा : कैबिनेट ने इन धाराओं में संशोधन करते हुए मालिक को जमीन की प्रकृति बदलने का अधिकार देने का निर्णय लिया है. इससे अब कोई जमीन मालिक अपनी कृषि योग्य जमीन का व्यावसायिक उपयोग कर सकेगा. इस जमीन पर मकान, दुकान आदि का निर्माण कर सकेगा.

अमेरिका के रेड इंडियन की पंक्ति में लाकर खड़ा करने का किया जा रहा है प्रयास

किसी भी जाति-समाज के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए राज्य व्यवस्था में जनसंख्या का एक बड़ा आधार है. झारखंड आदिवासी बहुल राज्य है. आदिवासी समाज के सामाजिक मूल्य, यहां की भाषा-संस्कृति, जीवनशैली तथा इनके इतिहास बोध ही झारखंड के जीवंत और सशक्त मापदंड है. आज विकास के दौर में देश के आदिवासी समाज को राज सत्ता द्वारा अमेरिका के रेड इंडियन की पंक्ति में लाकर खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है. इसका गवाह देता है देश का यह आंकड़ा. वर्तमान में भारत की जनसंख्या 104 करोड़ में मात्र 8.6 प्रतिशत आदिवासी आबादी है.

देश के विभिन्न राज्यों में आदिवासी आबादी

झारखंड 26.2 %

पश्चिम बंगाल 5.49 %

बिहार 0.99 %

शिक्किम 33.08%

मेघालय 86.01%

त्रिपुरा 31.08 %

मिजोरम 94.04 %

मनीपुर 35.01 %

नगालैंड 86.05 %

असम 12.04 %

अरूणाचल 68.08 %

उत्तर प्रदेश 0.07 %

हरियाणा 0.00 %

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