किसी को इनसानियत में अपनी उम्मीद न खोने दें
धीरे-धीरे कट्टरपंथ की असर में आनेवाले एक नौजवान की आपबीती आतंकवाद से त्रस्त भारतीय उपमहाद्वीप की मुश्किलें कम होती नजर नहीं आ रही हैं. आतंकी वारदातों का सिलसिला जारी है. भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश में आतंक के नये सिपहसालार कम उम्र के आधुनिक युवा हैं और पढ़े-लिखे हैं. आखिर ये नौजवान किस तरह और क्यों आतंकियों […]
धीरे-धीरे कट्टरपंथ की असर में आनेवाले एक नौजवान की आपबीती
आतंकवाद से त्रस्त भारतीय उपमहाद्वीप की मुश्किलें कम होती नजर नहीं आ रही हैं. आतंकी वारदातों का सिलसिला जारी है. भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश में आतंक के नये सिपहसालार कम उम्र के आधुनिक युवा हैं और पढ़े-लिखे हैं. आखिर ये नौजवान किस तरह और क्यों आतंकियों के प्रभाव में आते हैं और उनके कारकुन बन जाते हैं? आज पढ़िए एक ऐसे नौजवान की कहानी, जो लगभग आतंकी बन ही गया था, मगर उसके माता-पिता की सचेत और निरंतर नजर ने उसे आतंकी बननेे से रोक दिया.
अहमद मुहम्मद
मैं 1990 में ढाका में पैदा हुआ. बचपन में मैं खुशमिजाज तथा ऊर्जावान था. मैं एक ऐसे वक्त में बड़ा हुआ, जब बहुत कम परिवारों के पास केबल टीवी था, केवल पेशेवर लोग ही कंप्यूटर का इस्तेमाल करते, किसी को भी इंटरनेट का पता न था और स्मार्टफोन वजूद में ही नहीं आया था.
मुझे असर की अजान का उत्सुकता से इंतजार रहता, जिसे सुनते ही मैं घर से बाहर खेल के मैदान को भाग साथियों के साथ खेलों में मशगूल हो जाया करता. आज के ढाका के विपरीत, तब पड़ोस में बड़े मैदान होते थे, जहां हम गरमियों में दोपहर की तपती धूप में क्रिकेट खेलते और बरसातों में फुटबॉल के पीछे भागते हुए छोटे-छोटे गड्ढों में लगे पानी में भी छप-छप करते जाते.
सर्दियों की ठिठुरती शाम में हम बैडमिंटन खेला करते थे. जूनियर स्कूल तक की पढ़ाई मैंने पुराना पलटन स्थित एक छोटे किंडरगार्टन में की.
जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, चीजें बदलने लगीं. मैं आंसुओं में डूबा घर वापस आने लगा. खेल के मैदान में जब-तब झगड़े होने लगे. पीछे देखने पर मैं यह पाता हूं कि यही वह वक्त था, जब मेरे स्वभावगत झक्कीपन की वजह से मेरे साथ दबंगई के बरताव किये जाने लगे.
मेरे माता-पिता ने, जो सरल और सीधे स्वभाव के थे, कभी मुझे किसी पर हमला करने को प्रोत्साहित न किया. मुझे अपने साथियों के साथ पेश आती मुश्किलें देख कर उन्होंने मुझे पढ़ने को किताबें दीं. हमारे पास ढेरों किताबें थीं. जल्दी ही मुझे ईसप की कहानियों, सुकुमार रे तथा ठाकुरमार झूलि (बांग्ला लोककथाओं तथा परी कथाओं का संग्रह) की दुनिया में मजा आने लगा. यह खेलने
जाने और चोट लिये लौटने से कहीं बेहतर था.
मिडिल स्कूल के वक्त हमने घर बदल लिये और मैंने एक विख्यात मिशनरी स्कूल में दाखिला लिया. उस तरह के स्कूल में पढ़ना इज्जत की बात समझी जाती और मेरे माता-पिता अब मुझे लेकर खुश थे. मगर यह खुशी टिक न सकी.
मेरे माता-पिता ने मेरे नये स्कूल से कभी मुझे रोते-शिकायत करते वापस आता न देखा और इस तरह, वहां भी मेरे साथी तथा सीनियर छात्रों द्वारा मेरे साथ होती दबंगई से वे अनजान थे. होमवर्क के भारी बोझ ने मुझे एक अलग ही सदमे में डाल दिया. इससे भी बदतर यह था कि स्कूल के शिक्षक मुझ पर यह दबाव डालने लगे कि मैं उनकी कोचिंग कक्षाओं में जाया करूं. जल्दी ही, स्कूल की कड़ी दिनचर्या के साथ ही कई कोचिंग कक्षाओं और होमवर्क के भारी बोझ तले मेरे दिन दब कर रह गये.
मैं बदलने लगा. मैं अब वह खुशमिजाज और घुलने-मिलनेवाला बालक न रहा. पढ़ाई के भारी बोझ से मुझमें अवसाद तथा चिंता के शुरुआती लक्षण प्रकट होने लगे. अंतिम प्रहार मेरे वर्ग शिक्षक के द्वारा तब हुआ, जब वे मुझे अपने कोचिंग में दाखिला लेने को तैयार न कर सके (क्योंकि मैं पहले से ही तीन-तीन कोचिंग कर रहा था) और इस पर ‘असंतुष्ट’ होकर उन्होंने मुझे इतने घटिया ग्रेड दिये कि स्कूल अधिकारियों ने मुझे अगले ग्रेड में प्रवेश करने से साफ मना कर दिया. इसके बाद तो जैसे आफत ही आ गयी.
मेरे माता-पिता तथाकथित सफल ‘सफल स्कूलों’ की असलियत से वाकिफ हुए और उन्होंने यह फैसला किया कि मुझे कहीं दूसरी जगह पढ़ना चाहिए. उन्होंने दूर-दूर तक एक स्कूल से दूसरे स्कूल तक काफी तलाश की, उनके अधिकारियों से अनुरोध किया कि वे मुझे अपने स्कूल में पढ़ने का एक मौका दें, पर सभी ‘नामचीन’ स्कूल अपने इस रुख से टस से मस नहीं हुए कि एक बुरे ग्रेड हासिल किये बालक को अपनी पढ़ाई जारी रखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि मैं उनकी नेकनामी के लिए बोझ बन जाता.
मैं किशोरावस्था में प्रवेश पाकर अंतर्मुखी होते हुए भी मित्रता के लिए मरा जा रहा था. अपने कमरे की दीवारों से घिरा मैं अवसाद तथा निराशा से जूझने को मजबूर हो गया. मैं इतना शर्मिंदा था कि न खेलने को बाहर जाता, न ही किसी से अपनी पढ़ाई और रोजाना की जिंदगी के बारे में बातें करने की तबीयत होती. बहुत मुश्किल से पुराने ढाका के एक स्कूल में मेरा दाखिला हुआ, पर उसकी रैंकिंग और वहां पढ़नेवालों का सामाजिक-आर्थिक स्तर इतना निम्न था कि इसने मेरी शर्मिंदगी तथा हीनता की भावना में इजाफा ही किया.
मैं कक्षाएं छोड़ने लगा, हिंसक वीडियो गेम्स का आदी बन बैठा और खुद को बराबर शारीरिक नुकसान पहुंचाने लगा. मेरे माता-पिता मेरी मानसिक अवस्था समझते थे, इसलिए उन्होंने मुझे कक्षाएं तो छोड़ने दीं, पर मुझे एक कोचिंग सेंटर में तो जाना ही पड़ता था, जहां की उन्नीस छात्राओं के बीच मैं एक अकेला छात्र था. चूंकि अकेलेपन में बड़ा होने की वजह से मुझे लड़कियों से बातें करने में बहुत शर्मिंदगी होती, मेरी सहपाठिनियां मुझे बेदर्दी से चिढ़ाती रहतीं.
नजदीक ही एक मसजिद थी, जहां मैं प्रायः इबादत के लिए जाया करता. मेरे घर, स्कूल तथा कोचिंग सेंटर ने मुझसे मेरा चैन छीन लिया. पर मसजिद में मुझे एक अजीब से सुकून का अहसास होता. जितने लंबे समय तक संभव हो सके, वहां मैं मौन बैठा रहता. 25 वर्षों के आसपास की उम्र का एक व्यक्ति वहां एक दिन मेरे निकट पहुंचा. मैंने उसे वहां अल-कुरान पढ़ते और अपने पास हमेशा एक बैग रखे देखा था.
कुछ छोटी-मोटी बातों के बाद उसने बेतकल्लुफी से यह जानना चाहा कि मैं कहां रहता, कहां पढ़ता हूं और मेरे माता-पिता क्या करते हैं. उसने कहा कि मैं प्रायः यह देखता हूं कि तुम यहां आते हो और अकेले बैठे रहते हो. शुरुआत में मुझे कुछ शक तो हुआ. मेरे माता-पिता ने अजनबियों से कटने की ताकीद कर रखी थी. मगर यह इनसान तो खासा नेक दिखता था.
सप्ताह गुजरते गये. मैं मसजिद में प्रायः उससे मिलता और हम बातचीत किया करते. एक दिन मेरी एक सहपाठिनी ने उससे बातें करने में रुचि न लेने की वजह से मुझे अपमानित किया. नतीजतन, मैं मसजिद में भी मायूस बैठा था और उस व्यक्ति ने यह भांप लिया कि मैं रो रहा हूं. उसने उसकी वजह पूछी और कमजोरी में मैंने उससे अपना दिल खोल कर रख दिया. मैंने अपनी सारी तकलीफें बयान कीं, और वह सुनता गया. मैंने उसे बताया कि मैं इस दुनिया, अपने शिक्षकों, अपनी जिंदगी से कितनी नफरत करता हूं और मुझ पर दबंगई करनेवालों को नुकसान पहुंचा कर उनसे अपना बदला चुकाने की मुझे कितनी दिली तमन्ना है. वह व्यक्ति सुनता रहा और उसने कहा कि लड़कियां दुष्ट प्राणी होती हैं, जो लड़कों को पापमय कर्मों में प्रवृत्त करती हैं. तुम सही रास्ते पर हो और अल्लाह तुम्हारी मदद करेगा. मैंने महसूस किया, अरसे बाद पहली बार किसी ने मुझे समझा. हम मित्र बन गये.
रमजान निकट था. एक दिन, स्कूल जाते वक्त वह व्यक्ति मुझे मिल गया. उसने मुझे युवा मुसलिमों के एक जमावड़े का आमंत्रण देता एक परचा थमाया और मुझे भी उसमें शिरकत करने को कहा. मेरे माता-पिता मुझे अजनबियों के साथ अनजान जगह जाने से हमेशा मना किया करते, और हालांकि हम मित्र बन गये थे, मुझे उसका कहा मानने में थोड़ी हिचकिचाहट हुई. मैंने उससे कहा कि मेरी मां मेरी चिंता करेगी और वह मुझे इसकी इजाजत नहीं देगी.
तब उसने मुझसे कहा कि इसलाम में अल्लाह का काम सबसे ऊपर होता है और यदि किसी की मां उसके विरुद्ध है, तो उसे उसका भी हुक्म न मानने की इजाजत है. मैंने उससे पूछा कि क्या यह सच नहीं है कि हमारे पैगंबर ने कहा है कि बच्चों की जन्नत उनकी मां के पैरोंतले होती है. तब उसने अरबी का कोई उद्धरण देते हुए कहा कि यह मेरे कथन की पुष्टि करता है. मुझे कुछ असमंजस तो हुआ, पर मैंने उससे कह दिया कि मैं आऊंगा.
घर वापस होकर मैंने मां से पूछा कि क्या इसलाम में अल्लाह के काम के लिए मां की भी हुक्मउदूली की इजाजत है. मेरी मां एक अत्यंत अध्ययनशील और धर्मनिष्ठ महिला है. यह सवाल सुनकर वह उलझन में पड़ गयी. ‘मगर तुम ऐसा सवाल उठाओगे ही क्यों?’ उसने पूछा.
अपने अवसाद और अंतर्मुखता के बावजूद मैं माता-पिता से ईमानदारी बरतने और खुले होने की शिक्षा के साथ बड़ा हुआ था. मैंने उसे बताया कि मसजिद में जिस एक युवा से मेरी मुलाकात हुई, उसने ही मुझे यह बताया. उसकी भौंहें सिकुड़ उठीं और उसने उसके संबंध में मुझसे कई सवाल किये. जब मैंने उस व्यक्ति से अपनी मुलाकात की तफसील सुनाते हुए उसके न्योते की बाबत बताया, तो उसने मुझसे वह परचा दिखाने को कहा. मैंने उसे वह दिखाया जो युवा मुसलिमों से की गयी एक अपील थी, जिन्हें इस मुद्दे पर विचार हेतु बुलाया गया था कि वे दुनिया में सर्वशक्तिमान अल्लाह की हुकूमत स्थापित करने और मुसलिमों को अत्याचार से मुक्त करने में किस तरह मदद कर सकते थे. इसे हिज्ब उल तहरीर बांग्लादेश नामक एक संगठन द्वारा आयोजित किया गया था.
यह 2004 का वाकया था. जमात उल मुजाहिदीन ने जिस देशव्यापी बम-विस्फोटों की शृंखला अंजाम दी थी, उसके एक ही साल पहले. फिर भी, मेरी मां यह समझ गयी कि इस व्यक्ति और इस संगठन के साथ कहीं कुछ गड़बड़ है, जिसे बाद में, इसलामी दहशतगर्द समूहों के लिए भरतियां करनेवाले संगठन के रूप में जाना गया.
मां मेरी हिफाजत को लेकर चिंतित हो उठी, मगर आतंकित होने और अजनबियों से बातें करने को लेकर मुझ पर चीखने की बजाय उसने मेरे साथ बैठ मुझसे इन मुद्दों पर बातें कीं कि मैं क्या करता और महसूस करता था. एक लंबी बातचीत के बाद, मेरी मां ने मुझसे कहा कि मुझे चालू वक्त के लिए पुराना ढाका जाने की कोई जरूरत न थी, पर मुझे उस व्यक्ति से बातें करने से हर कीमत पर बचना होगा. कई सप्ताह तक मैं घर में ही बना रहा, मेरी पढ़ाई की दिनचर्या ढीली कर दी गयी और मैं हैरी पॉटर की किताबें पढ़ते हुए अपना वक्त काटने में लग गया.
हैरी पॉटर ने मुझे मेरे अवसाद तथा अकेलेपन से निपटने में मदद की. स्कूल और कोचिंग सेंटर में अनियमित रहते हुए भी मैं अंततः काफी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने में कामयाब रहा. हालांकि मैं सदमे तथा अवसाद से कभी भी पूरी तरह उबर न सका, पर मैं यूनिवर्सिटी में भी अच्छा कर सका. मुझे ऐसे शिक्षक मिले, जो मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसे दोस्त, जो मेरा खयाल रखते हैं.
सबसे बढ़ कर, मेरे माता-पिता कठिन वक्त पर हमेशा मेरे मार्गदर्शन की कोशिशें करते हैं. मैं एक निष्ठावान मुसलिम हूं और अल्लाह के प्रति शुक्रगुजार हूं कि उसने मुझे एक भयावह भविष्य से बचा लिया. मगर मैंने अपने आसपास के लोगों को शिकार होते देखा है. मैंने अपने एक वरीय छात्र को एक ऐसी लड़की से ठुकराये जाने पर, जिसे वह पसंद किया करता था, उग्रवाद की ओर मुड़ते देखा है. मेरे बचपन में मेरे साथ दबंगई करनेवाला एक सहपाठी, जो इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ता था, इसलामी दहशतगर्द संगठन के साथ संबद्ध होने के आरोप में गिरफ्तार हो गया. मैं पांचों वक्त की नमाज पढ़ता हूं, मगर मसजिद जाने के प्रति अनिच्छुक रहता हूं. यदि मैं कभी वहां जाता भी हूं, तो देर तक न ठहरने और किसी से बातें न करने की कोशिश करता हूं.
हालांकि कभी-कभी मुझे इसलाम और नैतिकता पर बातें करने की इच्छा महसूस होती है, मगर मैं किन्हीं वैसे लोगों के साथ उस पर चर्चा करने से बचने की पूरी कोशिश करता हूं, जिन्हें मैं भलीभांति नहीं जानता.
यह 2016 है. दहशतगर्दी के लिए भरतियां करनेवाले उस व्यक्ति से मेरी मुलाकात से लेकर अब तक काफी कुछ बदल चुका है. हाल के वर्षों में इसलामी उग्रवादी संगठन पहले से कहीं अधिक ताकतवर हो चुके हैं.
जब तक मैंने होली आर्टीजन हमले में शामिल युवकों की कहानी न पढ़ी, मैं अपने जीवन के उन महीनों की बातें लगभग भूल ही चुका था. मगर इस वाकये की तफसील पढ़ कर मेरे जेहन में जो पहला खयाल आया, वह यह कि मैं भी उनमें से एक हो सकता था. सोच समझ कर ऐसा जुर्म करनेवाले नौजवानों के लिए निंदा और नफरत के खयाल हमारी सोच में कुदरती तौर पर आ जाते हैं. मगर ऐसे में हम यह हकीकत बमुश्किल ही मंजूर कर पाते हैं कि कभी-कभी हम खुद ही इन शैतानों को पैदा करते हैं.
अगर आप और अधिक नौजवानों को इस तरह भटक जाने से सचमुच रोकना चाहते हैं, तो मुझे बस एक ही बात कहनी है. किसी को भी डराने-धमकाने से बाज आयें. दहशतगर्दी के लिए भरतियां करनेवाले टूटे हुए लोगों की तलाश करते हैं. ऐसे लोग जो अकेलेपन तथा अलगाव के शिकार हों. ऐसे लोग जो अवसाद और खुदकुशी की मानसिकता में पहुंचे हुए हों. ऐसे लोग जिन्होंने सामाजिक अन्याय की पीड़ा झेली हो और जिनके दिलों में बदले की आग धधक रही हो.
वे हमें जितने ही ज्यादा वर्गों में विभाजित करेंगे, एक दूसरे से जितना ही बांटेंगे, उनके लिए हमला करना और अपनी तादाद में इजाफा करना उतना ही आसान होता जायेगा. किसी को भी इंसानियत में अपनी उम्मीद न खोने दें. मुहब्बत करें. मनमानी तरह से नहीं, बल्कि करुणा से. क्योंकि सिर्फ मुहब्बत ही हमें इस जंग में जीत दिला सकती है.(साभार: ढाका ट्रिब्यून डॉट कॉम)
(अनुवाद: विजय नंदन)