सच बोलने का साहस : मैं कभी एक खतरनाक रास्ते पर था

कल आपने बांग्लादेश के एक नौजवान की आपबीती पढ़ी थी कि वह किस तरह आतंकी बनते-बनते रह गया था. उसके माता-पिता ने आतंक की राह पर जाने से बचा लिया था. आज पढ़िए पाकिस्तान के गौहर आफताब को. किशोरावस्था में ही उन्हें आतंक की घुट्टी पिला दी गयी थी. वह शहादत के जुनून से भर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 11, 2016 5:48 AM
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कल आपने बांग्लादेश के एक नौजवान की आपबीती पढ़ी थी कि वह किस तरह आतंकी बनते-बनते रह गया था. उसके माता-पिता ने आतंक की राह पर जाने से बचा लिया था. आज पढ़िए पाकिस्तान के गौहर आफताब को. किशोरावस्था में ही उन्हें आतंक की घुट्टी पिला दी गयी थी. वह शहादत के जुनून से भर चुके थे, लेकिन तभी उनकी जिंदगी में कुछ ऐसा हुआ कि ‌वह आतंक की राह से हट गये. आज वह स्कूली बच्चों के लिए कहानियां और कॉमिक किताबें लिखते हैं.
गौहर आफताब
यह मेरे साथ हो चुका है, और यह किसी के भी साथ हो सकता है. मेरे परिवार के सरल नजरिये के मुताबिक, मुझे मेरी किशोरावस्था के दौरान उग्रवाद की घुट्टी पिलायी गयी. इसका इस तथ्य से कोई वास्ता न था कि मैं एक खुशहाल जिंदगी जी रहा था-दरअसल, सारे दहशतगर्द उस गरीब और अनपढ़ वर्ग से ही नहीं आते, जिनके पास खोने को कुछ भी नहीं होता. यदि एक ईश्वरीय हस्तक्षेप न हुआ होता, तो इस वाकये ने मेरी जिंदगी ही बदल कर रख दी होती और इसे खत्म भी कर दिया होता. मैंने जो कुछ महसूस किया, वह यह था कि किसी का भी इस हद तक ‘ब्रेनवाश’ किया जा सकता है कि वह खून खराबे को अंजाम दे सके.आखिर यह सब हुआ कैसे? ऐसा कैसे मुमकिन हो सका कि एक अमीर घराने में बड़ा होता हुआ कोई इनसान गुस्से और नफरत के फलसफे से जुड़ गया?
यह सब शुरू कैसे हुआ
1990 के दशक के अंतिम वर्षों में, मेरा परिवार सऊदी अरब से वापस लाहौर आ गया. मुझे उच्चकोटि के एक आवासीय स्कूल में दाखिला दिलाया गया, जहां मेरी मुलाकात ग्रेड 9 में इसलामी तालीम देनेवाले एक मोटे और ठिगने जैसे शिक्षक से हुई, जिनकी लंबी नारंगी दाढ़ियां थीं और जो बराबर झक सफेद सलवार-कमीज पर एक काली बंडी में ही नजर आते.
उनका दावा था कि 1980 के दशक में वे रूसियों के खिलाफ भी लड़े थे और एक मुजाहिदीन लड़ाके के रूप में अपने वक्त की कहानियां सुना कर वे हमारा भरपूर मनोरंजन किया करते. उनकी भाषणबाजी का हमारे पाठ्यक्रम से दूर-दूर तक कोई रिश्ता न होता और उसमें हिंदुओं, इसाइयों, यहूदियों, सूफियों, शिया, अहमदियों और वैसे सबकी-जो उनके नजरिये से धर्मविरोधी, बहुदेवपूजक तथा काफिर हैं-दुष्टता पर पूर्वाग्रहपूर्ण और भावनात्मक उपदेश शामिल होते थे. वे प्रायः यह कहा करते थे कि एक ‘मोमिन’ वह है, जो अपने एक हाथ में कुरान तथा दूजे में तलवार लेकर चला करता है, ताकि वह अपने दुश्मनों का सर कलम कर सके.
वे मानते थे कि इसलाम के दुश्मनों से लड़ना हमारा ईश्वर निर्धारित फर्ज है. अगर हम कहीं भी एक धर्मविरोधी को पाकर उसे मार नहीं गिराते, तो हम उन मर्दों से बेहतर नहीं, जो ‘पैरों में मेहंदी लगाये और कलाइयों में चूड़ियां पहने’ हैं, यानी, हम औरतों से बेहतर नहीं.
वे सम्मान के नाम पर खून-खराबे के लिए की गयी इस व्यापक पुकार को ‘जिहाद’ का नाम देते. मेरे जैसे एक 13-वर्षीय किशोर के लिए यह संदेश प्रेरक था. उनके ठप्पे से मैं भी अपमानित हुआ था-मैं स्त्रैण तो हरगिज न था और मेरे पास निश्चित रूप से चूड़ियां भी न थीं.
उन्होंने मेरे सम्मानबोध को उकसाया और यह मुझे कुछ करने में लगा देने को काफी था. मुझे इसमें सिर्फ एक महीने का ही वक्त लगा कि मैं उनके पास पहुंच कर उनसे पूछ बैठा कि मैं किस तरह ‘जिहाद’ का उद्देश्य पूरा कर सकता हूं. उन्होंने पैसे दान करने की सलाह दी. यदि मैं अल्लाह के लिए रु.10 बचा सका, तो मैं कश्मीर में एक काफिर का सीना चीर डालने के लिए एक ‘गोली’ तो खरीद ही सकता था.
मैं बाकी पैसे कैंटीन में खर्च कर डालने के पहले, चाहे जितना भी कम बचा सकूं-50 रुपये, 10 रुपये या 5 रुपये- उसे उन्हें दे देता. मुझसे उनका वादा था कि मैं उस बुलेट के ‘सवाब’ का एक हिस्सा जरूर पाऊंगा. उसके बाद, मैंने कुछ ज्यादा जानकारी हासिल करना चाहा. मेरे शिक्षक ने कहा कि यदि तुम उन्हें खरीद लो, तो मैं तुम्हे किताबें दे सकता हूं. चूंकि मैं उर्दू भलीभांति नहीं पढ़ सकता था, अतः मैं पवित्र कुरान तथा सही बुखारी (हदीस का एक संकलन) के अंगरेजी अनुवाद पढ़ने में डूब गया.
मगर शहादत के जुनून में पड़े एक किशोर के लिए फिर रोजाना की स्कूली पढ़ाई से तालमेल बिठा पाना मुश्किल था. आखिरकार, मैं अपने शिक्षक के सामने पहुंच कर उन्हें काफिरों से लड़ने कश्मीर जाने का अपना फैसला बताया. उन्होंने तुरंत कुछ न कह कर कुछ हफ्तों के लिए यह बात टाल दी. मैं उनके पास तब तक बार-बार जाता ही रहा, जब तक वे तैयार न हो गये.
योजना यह बनी कि स्कूल के अंतिम दिन मैं आजाद कश्मीर के एक ट्रेनिंग कैंप के लिए रवाना होऊंगा. मुझे 700 रुपये के साथ आकर शिक्षक से उनके घर पर मिलना था. तब हम दोनों मीनार-ए-पाकिस्तान स्थित बस स्टेशन जाते, जहां मुझे अपने सफर के एक और साथी से मुलाकात होती. जब एक बार मैं कैंप में पहुंच जाता, तो मुझे अपने माता-पिता को एक खत की मार्फत अपने फैसले की जानकारी देते हुए उन्हें जिहाद की राह पर शहादत को गले लगाने के अपने मंसूबे से वाकिफ कराना था.
ईश्वरीय हस्तक्षेप : होनी ने कुछ ऐसा किया कि जिस दिन मुझे घर से निकलना था, उसकी पिछली रात में मेरी दादी संगीन रूप से बीमार पड़ गयीं. शायद यह ईद या फिर जाड़े की छुट्टियों से पहले स्कूल का आखिरी दिन था और अपन हॉस्टल पहुंच कर मैंने यह पाया कि मेरा परिवार वहां पहले से मेरा इंतजार कर रहा है.
मेरे सामान बांधे गये और हमने तुरंत अस्पताल का रुख किया. अस्पताल में मेरी दादी को लगाये गये एक मामूली से इंजेक्शन से उन्हें हेपेटाइटिस सी की एक असाध्य छूत लग गयी और वे अगले कुछ महीने और जीवित रह कर भयानक दर्द की तकलीफ भोगती रहीं. उनकी इस बीमारी से बहुत ज्यादा परेशान मेरे माता-पिता ने यह फैसला किया कि अपने स्कूली वर्ष के बाकी बचे वक्त में मैं घर से ही स्कूल जाया-आया करूं.
मैंने घर पर रहना शुरू कर दिया. दादी की बीमारी से मेरी मां को बहुत भावनात्मक चोट लगी और मेरे परिवार के लिए एक बहुत मुश्किल वक्त आ गया. मायूसी और सदमे के इस हाल में मैं उन्हें छोड़ कर नहीं जा सकता था.
अब स्कूल के आहाते में मेरे पास इतना वक्त नहीं बचता कि मैं अपने शिक्षक से मिलने की सोच भी सकूं. इस तरह, किसी न किसी वजह से मेरा उनके घर जाना टलता ही रहा. गरमियों की छुट्टियां खत्म हो जाने तक, मैं जिहाद के लिए जाने की योजना पूरी तरह मुल्तवी कर चुका था.
जिहाद तक पहुंचने की राह पाना : मैं जिसे तब ‘जिहाद’ के रूप में जानता था, उसका असर मुझ पर बना रहा और आज के दिन भी वही मेरी जिंदगी तय किया करता है. यह परम सत्य की उस बुनियाद से मेरे जुड़ाव की असलियत तथा निश्चितता का एक ताकतवर अहसास था. खास तौर पर, जब मैंने कुरान और हदीस को मुझे समझ आनेवाली भाषा में पढ़ा, तो मुझे उनसे रहम और माफी का जज्बा फूटता सा महसूस हुआ.
सबसे बढ़ कर, मुझे संतुष्टि महसूस हुई : मैं जिंदगी की छोटी से छोटी बारीकी और वाकये में भी अपने रचयिता को ही महसूस करता रहा. मगर तब ऐसा और भी बहुत कुछ था, जिसे मैं आज संगीन रूप से गुमराह करनेवाला मानता हूं. जिन्होंने ‘कमतर’ आस्था को चुन रखा था, मुझे उनके खिलाफ नफरत महसूस करना सिखाया गया. मैं जिनसे लड़ना चाहता था, उन्हें मैंने मानवता से महरूम कर दिया और मैंने एक जिंदगी ले लेने की क्रिया को इस हद तक मामूली बना दिया, जैसे वह कोई चीज थी ही नहीं-मानों हम बस किसी फतिंगे को हटा रहे हों.
जब मैंने यह महसूस किया कि मैं कभी एक खतरनाक रास्ते पर था, जो अंधेरे और रोशनी दोनों से भरा था, तो मैंने इस हद तक पढ़ने और सीखने की भरपूर कोशिश की कि मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल सकें और मैं सच्चाई जान सकूं. मुझे यह कहना ही चाहिए कि हरेक जवाब मुझे पहले से भी ज्यादा सवालों तक ले गया और मैं बस इसे जान लेने जितना ही सीख सका हूं कि सचमुच मैं कुछ भी नहीं जानता.
मैं अब इसलाम को ज्ञान, फलसफे और सच्चाई के एक विशाल समंदर के रूप में देखता हूं और अपनी अब तक की पापमयी जिंदगी में मैं सिर्फ इसकी सतह ही खरोंच सका हूं.
मैं कोई विशेषज्ञ होने की दावेदारी नहीं कर सकता, मगर एक खोजकर्ता और छात्र के रूप में यह मुझे साफ हो चुका है कि इसलाम को करने योग्य और न करने योग्य कार्यों की एक फेहरिस्त में समेट देना हमारे धर्म का एक महान भ्रष्टाचार है. शायद यही वह वास्तविक वजह है कि आज मुसलिम इतने सारे विरोधी खेमों में बंट कर आपसी नफरत और दुश्मनी के शिकार बन बैठे हैं.
एक प्रशिक्षण शिविर में दाखिल होने की अपनी नाकाम कोशिश के बाद के इन सालों में मैंने उस चीज की पुकार महसूस की है, जिसे अब मैं वास्तविक जिहाद मानता हूं. मैंने कई तरह के करियर में काम किये, जैसे वित्तीय सेवाएं, दूरसंचार, विज्ञापन, प्रकाशन, और यहां तक कि अपने पुराने स्कूल में एक अंशकालिक वाद-विवाद कोच के रूप में भी. मगर हर बार, एक करियर में जम जाने के बावजूद, मैंने अपने सामने मौजूद रास्ते को छोड़ कर एक नयी राह पकड़ी है. मैं इतना बेकरार रहा हूं कि सांसारिक कर्मों में संतुष्टि और शांति नहीं पा सका.
16 दिसंबर, 2014 के बाद, मेरे दिल ने एक बार फिर जिहाद की बहुत पहले भुला दी गयी पुकार महसूस की. इस दफा इस पुकार का खिंचाव इतना तेज था कि मैं इसका प्रतिरोध न कर सकता था. अब मैं पहले के तौर-तरीकों तक वापस नहीं हो सकता था और इसलिए, मैंने खुद को कॉरपोरेट जिम्मेदारियों से बिल्कुल अलग कर लिया. इसकी बजाय, मैंने एक नये मिशन पर पूरी तरह केंद्रित हो जाने का फैसला किया, जो हमारे समाज में धार्मिक उग्रवाद की समस्याओं से जूझना है.
अब मैं स्कूली बच्चों के लिए कहानियां और कॉमिक किताबें लिखता हूं. मेरी किताबें धार्मिक उग्रवाद के मुद्दे को इस उम्मीद में उजागर करती हैं कि बच्चे उस विषाक्त नफरत को खारिज कर सकें, जो समाज हमें देता है. मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि मैं खुद को उन सभी बेकसूर मर्दों, औरतों और बच्चों के प्रति आंशिक रूप से जिम्मेवार मानता हूं, जो दहशतगर्द हमलों में अपनी जानें गंवा चुके हैं. मैं ऐसा इसलिए भी करता हूं कि मैं उनका कर्जदार हूं, जिन्होंने हमारी हिफाजत के लिए खुद को कुरबान कर दिया और मैं वैसे लाखों लोगों की सेवा करना चाहता हूं, जिन्हें इसलाम के असली और शाश्वत सच्चाइयों की बजाय, धर्म के एक झूठे और नुकसानदेह रूप के द्वारा गुमराह किया जाना जारी है.
आप में से जो लोग इस बहुत लंबे लेख को यहां तक पढ़ चुके हैं, मुझे उम्मीद है कि आपने भी एक पुकार महसूस की होगी. यदि आप यह पुकार महसूस करते हैं, तो पहले जानकारी हासिल करें, और फिर आपको जो भी उचित लगता हो, उसे अपनी पूरी योग्यता तथा क्षमता से अंजाम दें. जो सच बोलने का साहस करते हैं, उनके लिए यह एक खतरनाक वक्त है, इसलिए अगर आप कुछ कर सकते और बोल सकते हैं, तो आपको अपनी भूमिका जरूर निभानी चाहिए.
मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि जब किसी अगले 16 वर्षीय किशोर का दिमाग इस तरह बदला जा रहा हो कि वह किसी 12 वर्षीय बालक को मौत के घाट उतार कर यह समझने लगे कि वह जन्नत जायेगा, और फिर उस पर एक दहशतगर्द का ठप्पा लगा कर किसी दूसरे इनसान द्वारा उसे गोली मार दी जाये या उसे किसी दूसरे देश से संचालित ड्रोन का शिकार बना दिया जाये, तो मैं चुप नहीं रह सकता.
मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि कल अगर, अल्लाह न करे, आपके किसी बच्चे अथवा प्रियजन को कोई नुकसान पहुंचता है, तो मैं आईने में देखते हुए यह न महसूस करूं कि मैं इसे रोकने को कुछ कर सकता था, कुछ कह सकता था.
(गौहर आफताब सीएफएक्स कॉमिक्स में ‘पासबान-दि गार्डियन’ नामक कॉमिक पुस्तक शृंखला के लेखक है.)
(पाकिस्तान की प्रमुख अंगरेजी न्यूज वेबसाइट डॉन डॉट कॉम से साभार)
(अनुवाद: विजय नंदन)
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