वनों के संरक्षण व सुरक्षा के लिए नया कानून

विकास तथा पारितंत्र के बीच संतुलन बिठाने का रास्ता भूपेंद्र यादव प्रतिपूरक वनीकरण निधि (सीएएफ) विधेयक संसद के मॉनसून सत्र में पारित हो गया है. पहली बार वनों से संबंधित पारंपरिक विचारों तथा नीतियों से परे जाकर पारितंत्र के पुनर्जीवन के लिए समग्र योजना तैयार की जा रही है. समय बीतने के साथ यह अत्यंत […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 18, 2016 6:26 AM
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विकास तथा पारितंत्र के बीच संतुलन बिठाने का रास्ता

भूपेंद्र यादव

प्रतिपूरक वनीकरण निधि (सीएएफ) विधेयक संसद के मॉनसून सत्र में पारित हो गया है. पहली बार वनों से संबंधित पारंपरिक विचारों तथा नीतियों से परे जाकर पारितंत्र के पुनर्जीवन के लिए समग्र योजना तैयार की जा रही है. समय बीतने के साथ यह अत्यंत महत्वपूर्ण विधान पारितंत्र को पुनर्जीवित करने एवं उसका संवर्द्धन करने में तथा सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले और अभी तक अनदेखा किये गये समुदायों के उन्नयन में सरकार का सबसे बड़ा योगदान सिद्ध होगा. पढ़िए एक टिप्पणी.

संसद में 2015 में पेश किया गया प्रतिपूरक वनीकरण निधि (सीएएफ) विधेयक वर्ष 2016 के मॉनसून सत्र में पारित हो गया है. केंद्र सरकार के पास लंबे समय से पड़ी हुई 42,000 करोड़ रुपये की राशि को जारी करने तथा उसका प्रयोग करने की अनुमति देने वाले प्रावधानों के कारण यह विधेयक बहुप्रतीक्षित विधेयक बन गया था. इस विधेयक में राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरों पर प्रतिपूरक वनीकरण निधियों की स्थापना का प्रावधान है. इसमें राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय निधियों से धन के प्रयोग के प्रबंधन तथा नियमन के प्रावधान हैं तथा देश के सुदूर भागों में रह रहे लोगों के लाभ हेतु राशि के वितरण का मार्ग भी इससे प्रशस्त होता है.

वन पारितंत्र को हानि पहुंचाने की क्षतिपूर्ति के रूप में संग्रह किये गये भुगतान से ये निधियां तैयार की जायेंगी. अतीत में गैर-वन उद्देश्यों, विशेषकर औद्योगिक एवं बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए वन्य भूमि का प्रयोग तथा उन क्षेत्रों में रहने वालों पर उसका प्रभाव बहस का मुद्दा रहा था. सीएएफ विधेयक उन समस्याओं के समाधान की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है. इस विधेयक के माध्यम से निधियों की स्थापना का यह कदम एक तरह से उस सिद्धांत को संवैधानिक जामा पहनाना है, जिसके अनुसार ‘प्रदूषणकर्ता को कीमत चुकानी होगी.’

वनों पर निर्भर लोगों की आजीविका की पूर्ण चिंता करने के अतिरिक्त यह विधेयक पारितंत्र के संरक्षण, प्रबंधन एवं संवर्द्धन के प्रति सरकार की चिंता को भी दर्शाता है. धन का प्रयोग स्थानीय समुदायों के सक्रिय सहभाग के साथ वनों, चारागाहों एवं दलदली भूमि समेत प्राकृतिक पारितंत्र के संरक्षण, सुरक्षा एवं पुनर्वास में ही हो, यह सुनिश्चित करने के लिए एक प्रणाली की व्यवस्था भी इसमें है.

सीएएफ विधेयक औद्योगीकरण एवं विकास के कारण पर्यावरण पर पड़े नकारात्मक प्रभाव को कम करने का आश्वासन देता है. विकासशील देश होने के कारण भारत ऐसी गतिविधियों की आवश्यकता की अनदेखी नहीं कर सकता. प्रतिपूरक वनीकरण एवं संबंधित गतिविधियां निस्संदेह इस दिशा में स्वागत योग्य कदम कहलायेंगी. पर्यावरण के प्रति गंभीर चिंता इस बात से भी स्पष्ट है कि विधेयक में प्रतिपूरक वनीकरण का प्रावधान है और जहां यह व्यावहारिक नहीं है, वहां उसने मौद्रिक क्षतिपूर्ति का नियम बना दिया है.

भारत में दुनिया की सबसे बड़ी वनों पर आश्रित जनसंख्या है. अधिकतर अनुसूचित जनजातियां एवं अन्य पारंपरिक वनवासी अपनी आजीविका के लिए वनों पर ही निर्भर हैं. वन उनके जीवन का अभिन्न अंग है. अन्य बातों के साथ ही विधेयक में स्वीकार किया गया कि वन ‘पर्यावरण से जुड़ी सेवाएं’ करते हैं, जैसे कार्बन को कैद करके रखना, बाढ़ की विभीषिका कम करना, मिट्टी का कटाव रोकना, मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाना और जल तथा वायु को शुद्ध करना.

अतः वन भूमि का प्रयोग गैर-वन उद्देश्यों के लिए करने के समुदायों, उनकी आजीविका एवं उनकी पहचान पर गंभीर दुष्प्रभाव होते हैं. यह इस बात को सुनिश्चित करने का प्रयास है कि वनों का उपयोग जब भी गैर-वन उद्देश्यों के लिए किया जाये, तो क्षतिपूर्ति के उपाय करते समय पर्यावरण सेवाओं को ध्यान में रखा जाये.

यह निर्विवाद तथ्य है कि वन वृक्षों का समूह भर नहीं है, बल्कि यह जीवित पारितंत्र है, जो जैव विविधता को सहारा देता है और ऐसी पारिस्थितिक सेवाएं प्रदान करता है, जिन्हें आर्थिक रूप में आंकना कठिन है.

कैंपा निधियों का लक्ष्य चारागाहों या घास वाले प्रदेशों के संरक्षण एवं सुरक्षा के लिए काम करना है, जो पारितंत्र को विभिन्न प्रकार की सेवाएं तो उपलब्ध कराते ही हैं, विश्व के सर्वाधिक उत्पादक पारितंत्र भी हैं. वे वन्यजीवों को निवास और ग्रामीण तथा आदिवासी समुदायों को आजीविका प्रदान करते हैं. भूजल का स्तर बढ़ाने वाली दलदली और जलीय भूमि के संरक्षण से स्थानीय जलवायु स्थिर होगी और आजीविका तथा जैव विविधता को सहारा मिलेगा. वन्यजीव गलियारों तथा पर्यावास की सुरक्षा में भी यह महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है.

इस महत्वपूर्ण विधान द्वारा स्थापित की गयी निधियों का प्रयोग जलीय/दलदली भूमि एवं चारागाह वाली भूमियों को पहचानने, उनका संरक्षण करने तथा उन्हें पुनर्जीवित करने में और मानव-वन्यजीव संघर्ष के एवज में लोगों को क्षतिपूर्ति देने, वन्यजीव गलियारों को सुरक्षित करने, जंगल की आग से निपटने एवं उसका प्रबंधन करने के लिए अस्थायी आधार पर ग्रामीण युवाओं से काम लेने के लिए उन्हें प्रशिक्षित करने में किया जायेगा. विकास तथा पारितंत्र के बीच संतुलन बिठाने के लिए निस्संदेह यह सर्वश्रेष्ठ रास्ता है. कैंपा सुनिश्चित करेगा कि भारत के प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग राष्ट्र के विकास के लिए हो किंतु पारितंत्र, वन्यजीव अथवा प्रकृति के निकट रहने वाले लोगों की आजीविका के साथ किसी भी प्रकार का समझौता नहीं हो.

यह भी याद रखना चाहिए कि पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री अनिल माधव दवे ने संसद को संबोधित करते हुए आश्वासन दिया था कि सीएएफ विधेयक के प्रावधान पंचायती राज प्रणाली तथा उसके निर्णयों को न तो खारिज करेंगे और न ही उन पर हावी होंगे. पंचायत की भूमिका सर्वोपरि है और विधेयक उनके द्वारा निर्धारित प्रक्रियाओं के अनुसार कार्य करेगा. माननीय मंत्री ने यह भी कहा कि संघीय ढांचा होने के कारण राज्य सरकारों एवं प्रशासन पर यह विश्वास करना ही होगा कि वे अपने कर्तव्यों को निष्ठा के साथ पूरा करेंगे.

सरकार यह भी सुनिश्चित करेगी कि आवश्यकता पड़ने पर क्षति को नियंत्रित करने के सभी उपाय आजमाये जायेंगे. उनके इस बयान की सराहना की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार को इस मामले में राज्य सरकारों पर पूरा विश्वास है कि निधियों का वितरण एकदम निचले स्तर पर निष्पक्ष एवं उचित तरीके से किया जायेगा. आखिरकार राज्य भी तो हरे-भरे एवं सुंदर दिखना चाहते हैं तथा कार्बन का स्तर भी घटाना चाहते हैं. पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री को उनके इस बयान के लिए भी बधाई मिलनी चाहिए कि सरकार इसे जल्द से जल्द पूरा करने के लिए कटिबद्ध है तथा नियम एवं प्रक्रियाएं यदि पूर्णतया सहायक सिद्ध नहीं हुए, तो एक वर्ष के बाद उनकी समीक्षा की जायेगी.

विधेयक में कहा गया है कि सभी व्यय राष्ट्रीय एवं राज्य प्राधिकरणों के खाते में जायेंगे. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि विधेयक वन संरक्षण के विरुद्ध नहीं है और पर्यावरण कानूनों के मान्य सिद्धांतों को ही उसने अपना आधार बनाया है. इसके प्रावधान वन संरक्षण अधिनियम के अनुरूप हैं. विधेयक में मूल्यांकन एवं क्षतिपूर्ति की व्यवस्था है, जिससे समाज को पर्यावरण के साथ समझौता किये बगैर ही विकास का अवसर प्राप्त होगा.

हमें इस विधेयक को पर्यावरणीय सेवाओं एवं इस तथ्य के दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है कि वन एवं प्राकृतिक पारितंत्र का संरक्षण विकास का अभिन्न अंग है. वनों द्वारा की जाने वाली पर्यावरणीय सेवाओं को वैधानिक मान्यता प्रदान करने के लिए इसकी सराहना की जानी चाहिए. हम अनंत काल से ही वनों से विभिन्न लाभ प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन उन्हें श्रेय नहीं दे रहे हैं. वनों के योगदान को स्वीकार कर पहली बार हम वनों से संबंधित पारंपरिक विचारों तथा नीतियों से परे जाकर पारितंत्र के पुनर्जीवन के लिए अधिक समग्र योजना तैयार कर रहे हैं.

सरकार को उसके प्रयासों के लिए सराहना मिलनी चाहिए. समय बीतने के साथ यह अत्यंत महत्वपूर्ण विधान पारितंत्र को पुनर्जीवित करने एवं उसका संवर्द्धन करने में तथा सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले और अभी तक अनदेखा किये गये समुदायों के उन्नयन में इस सरकार का सबसे बड़ा योगदान सिद्ध होगा.

(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं.)

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