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नदियों को बहने दो
टिप्पणी : ब्रह्मपुत्र को छोड़ कर भारत की अधिकतर नदियां मर रही हैं श्रीश चौधरी वर्षा न होने पर भी जिन नदियों में सालों भर पानी रहता था, नावें चलती थीं और खेतों को पानी मिलता था, वे अचानक सूख गयीं या गंदे नाले में तब्दील हो गयीं. जिन नदियों को जीवन का साधन तथा […]
टिप्पणी : ब्रह्मपुत्र को छोड़ कर भारत की अधिकतर नदियां मर रही हैं
श्रीश चौधरी
वर्षा न होने पर भी जिन नदियों में सालों भर पानी रहता था, नावें चलती थीं और खेतों को पानी मिलता था, वे अचानक सूख गयीं या गंदे नाले में तब्दील हो गयीं. जिन नदियों को जीवन का साधन तथा मोक्ष का मार्ग कहा जाता था, उनकी हालत ऐसी क्यों? दो कड़ियों वाली इस बेबाक टिप्पणी का पहला भाग आज पढ़ें.
अभी 11-12 मई को काशी के पास एक ग्रामीण आम सभा में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने कहा कि गंगा अविरल बहेगी, तभी निर्मल होगी. ऐसा कहनेवाले नीतीश जी, प्राय: पहले राजनेता हैं.
बाकी सारी जनता, सभी नेता एवं आजकल हाइकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के जज भी यही कहते हैं कि गंगा की सफाई होनी चाहिए, पर यह नहीं कहते हैं कि यह काम कैसे हो सकता है. एक बहुत बड़ा एवं संगठित प्रोपेगैंडा चल पड़ा है, जिसके प्रभाव से लोग यह सोचने लगे हैं कि गंगा एवं देश की अन्य नदियां अगर गंदी हो गयी हैं, तो वे साफ हो सकती हैं, कुछ साबुन-डिटर्जेंट जैसी चीज कुछ लाख डॉलर एवं कुछ करोड़ रुपये खर्च करके नदियों में डाल देंगे एवं ये नदियां साफ हो जायेंगी. कोई यह नहीं पूछ रहा है कि ये नदियां गंदी, इतनी गंदी हुई कैसे. बिना यह प्रश्न पूछे उत्तर एवं समाधान प्रस्तुत किये जा रहे हैं.
इस तरह के उत्तर कि ये नदियां साफ हो जायेंगी एवं उत्तम अभिप्राय एवं आकांक्षा से अधिक कुछ भी नहीं है. किसी भी समस्या का समाधान संभव है, परंतु समस्या के कारण का ज्ञान इसके लिए पहला आवश्यक कदम है.
आज गंगा ही नहीं, भारत की अधिकांश नदियां, ब्रह्मपुत्र को छोड़ कर मर रही हैं. छोटी-छोटी नदियां भी. काठमांडू से निकल कर, दरभंगा के पास से गुजरती हुई, बागमती समस्तीपुर के पास गंडक में मिल कर गंगा तक और फिर समुद्र तक पहुंच जाती थी. उत्तर भारत की अन्य अधिकतर नदियां भी ऐसे ही चलती थीं. वर्षा हो या ना हो, इन नदियों में सालों भर पानी होता था.
नावें चलती थीं, मनुष्य एवं मवेशी को स्नान एवं पीने तथा खेती योग्य सिंचाई का पानी मिलता था. नदियां जीवन का साधन तथा मोक्ष का मार्ग थीं. परंतु अचानक ऐसा क्या हुआ कि ये नदियां गंदी हो गयीं, सूख गयीं, अगर पानी आया भी, तो किसी पतले शहरी नालों की तरह काला पीला पानी लेकर, जिसमें मनुष्यों के पीने तथा स्नान करने की बात तो और है, मवेशी भी नहीं धो सकते हैं.
पश्चिम-दक्षिण भारत की नदियों की यह दुर्दशा बहुत पहलेे ही हो गयी. अनवरत एवं शान से बहनेवाली कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, महानदी, नर्मदा, ताप्ती आदि सभी हमारी खुली आंखों के आगे पतली तथा गंदा होते-होते एक दिन समाप्त हो गयी, और हम बैठे यह सोचते रहे कि इससे हमें क्या फर्क पड़ता है.
यह तो मेघा पाटकर जी की समस्या है, हम तो सुरक्षित हैं. फिर जब दिल्ली के आगे यमुना नदी नहीं बढ़ पायी, मथुरा में मकर संक्रांति के स्नान के लिए लॉरियों से पानी लाया गया एवं प्रयाग के संगम में डुबकी मारने को कमर भर पानी भी नहीं मिला, सुलतानगंज की गंगा में बैद्यनाथ के लिए जल नहीं मिला, तब भी हमने यह नहीं पूछा कि कहां भूल हो गयी है. हम यह सोचते रहे कि कोई तो कुछ करेगा ही, और यह समस्या भी समाप्त हो जायेगी. परंतु यह एक दुराशा थी. स्थिति अब यह है कि अपनी 2700 किमी की लंबी यात्रा में गंगा रुद्रप्रयाग के आगे प्राय: कहीं भी पचास वर्षों पहले जैसी भी नहीं तो गहरी है, न निर्मल है. ऐसा क्यों हुआ है? क्यों जो यमुना जी ताजमहल की पिछली सीढ़ियों को धोती निकलती थी, ताज की परछाई दिखाती थी, छवि एवं प्रतिबिंब दिखाती थी, ऐसे रूठकर काफी दूर एवं नीचे चलीं गयीं. वर्षा अचानक इतना कम तो नहीं होने लगी है. फिर क्या हुआ है?
आज भारत की सारी नदियों की दुर्दशा का पहला कारण उनके अविरल प्रवाह में बाधा है, जो नदियों के बीचो-बीच बैराज तथा बांध बना कर डाली गयी है. बिजली के लिए, सिंचाई के लिए, बड़े शहरों के लिए, सुगमता से पर्याप्त पानी उपलब्ध कराने की जरूरत ने इन बांधों को जन्म दिया है. इस सोच ने परिणामों की चिंता नहीं की है, तत्काल हो रही सुविधा-मात्र से प्रेरित रही है.
बड़े शहरों में पीने एवं धोने के पानी की बड़ी समस्या है. शहरों के आकार निरंतर बढ़ रहे हैं. 1947 की दिल्ली में दस लाख लोग थे, पटना में दो लाख लोग थे, दरभंगा में पचास हचार से कम लोग थे.
आज इन सभी शहरों में कई गुना अधिक लोग रह रहे हैं. साथ ही इनकी आवश्यकताएं बदली हैं. पहले कुछ ही शौचालयों को पानी से फ्लश किया जाता था, अब कुछ ही को नहीं किया जाता है. यदि औसत एक बार फ्लश करने में 10 लीटर भी पानी लगता है, और एक परिवार में चार लोग चार बार भी ऐसा करते हैं तो 160 लीटर जल तो सिर्फ इसी काम के लिए एक परिवार को चाहिए. फिर कई और तरह से पानी का खर्च बढ़ा है.
बरतन, कपड़े, कार और घरों की सफाई, धुलाई में दर्जनों लीटर पानी निकल जाता है. पीने एवं खाना पकाने में पानी का खर्च काफी नहीं बढ़ा है. परंतु हर बड़ा शहर एक औद्योगिक शहर बन गया है, एवं औद्योगिक कारणों से पानी का खर्च बहुत ज्यादा बढ़ा है.
कारखाना, संस्थान, नया उपनिवेश, कॉलोनी, उपनगर बनाते हुए किसी ने भी यह नहीं सोचा है कि इन्हें यहीं रखना क्यों आवश्यक है और इनके लिए पानी कहां से आयेगा. दिल्ली के चारों किनारे नये-नये शहर बने हैं. पुराने शहर जैसे दिल्ली, अागरा, मथुरा आदि के लिए यमुना में काफी पानी था.
परंतु इसी नदी के सहारे नयी दिल्ली और नोएडा बने. पुराने शहर, जैसे गुड़गांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद आदि भी बढ़ते चले गये. स्वयं दिल्ली के अंदर अनेक प्रकार की संस्थाएं/संस्थान बनाये-बसाये गये. दिल्ली-नयी दिल्ली के अंदर लगभग दर्जनों विश्वविद्यालय अवस्थित हैं. कोई कारण नहीं है, क्यों इग्नू, आइआइटी, जेएनयू आदि दिल्ली में ही बनाये गये. न तो, ये ऐसा कुछ करते हैं, जिनसे इनका दिल्ली में होना आवश्यक था, न ही दिल्ली में ऐसा कुछ था, जिसके कारण यहां होने से इन्हें कुछ विशेष लाभ था.
पहला आइआइटी बंगाल के एक छोटे से कसबा, खड़गपुर, में बना था और इसने इतना अच्छा काम तो किया ही था कि इसका अनुकरण एवं अनुसरण करते हुए और भी नये आइआइटी बने. परंतु ये नये आइआइटी मद्रास, बंबई, दिल्ली में क्यों बने, क्यों नहीं कानपुर से बाहर, कलकत्ता से बाहर वाले आइआइटी की तरह इन्हें भी किसी सी जगह पर बनाया गया, जहां ये स्थानीय साधन को और अधिक दुर्लभ न कर दें.
(जारी)
(लेखक सेवानिवृत प्रोफेसर,आइआइटी मद्रास हैं और संप्रति जीएलए यूनिवर्सिटी में डिश्टिंगविश्ड प्रोफेसर हैं.) श्रीश चौधरी
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