विचार से ज्यादा संस्कार जरूरी

बल्देव भाई शर्मा शास्त्रकारों ने कहा है ‘आचरति इति आचार्या’ यानी जो अपने आचरण से ज्ञान को परिभाषित करे, वह आचार्य है. आज तो ज्ञान डिग्रियों से मापा जाता है, लेकिन आये दिन ऐसी खबरें अखबारों में छपती हैं कि अमुक डिग्रीधारी ने अपने दोस्तोें के साथ मिल कर गिरोह बना लिया और लूटपाट करने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 27, 2016 2:04 AM
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बल्देव भाई शर्मा

शास्त्रकारों ने कहा है ‘आचरति इति आचार्या’ यानी जो अपने आचरण से ज्ञान को परिभाषित करे, वह आचार्य है. आज तो ज्ञान डिग्रियों से मापा जाता है, लेकिन आये दिन ऐसी खबरें अखबारों में छपती हैं कि अमुक डिग्रीधारी ने अपने दोस्तोें के साथ मिल कर गिरोह बना लिया और लूटपाट करने लगा, जरूरत पड़ी तो हत्याएं भी. ऐसे गिरोह ठगी के नये-नये तरीके अपना कर कितने ही लोगों को करोड़ों का चूना लगा चुके होते हैं. डिग्रीधारी कभी तो अपनी डिग्री के अनुरूप नौकरी न मिलने पर बेरोजगारी से तंग आकर ये सब अपराध करते हैं या कभी मौज-मस्ती या अपनी गर्ल फ्रेंड को महंगे उपहार देने के लिए.

ये भी खबरों का हिस्सा होता है कि इस तरह अपराध विलासिता या कहें महंगी लाइफ स्टाइल पर खर्च होता है. इससे यह उक्ति भी बेमानी हो जाती है कि ‘भूखा क्या पाप नहीं करता’ या ‘ए हंग्री मैन कमिट्स ऑल सिन.’ जाहिर है ऐसे ज्यादातर मामलों में पेट की भूख उन्हें ऐसा करने के लिए नहीं उकसाती.

भारतीय जीवन दर्शन में गर्भाधान से लेकर मृत्यु के उपरांत अंतिम संस्कार तक मनुष्य के सोलह संस्कारों का विधान रखा गया है. संतानोत्पत्ति केवल दैहिक सुख का नतीजा भर नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक दायित्व है कि व्यक्ति अपने उत्तराधिकारी के रूप में एक सुयोग्य और सद्गुण-सदाचार से युक्त जीवनव्रती संतान को समाज का घटक बनाये ताकि वह मानव मूल्यों का विस्तार कर सके.

इसीलिए गर्भवती माताओं को डॉक्टरों की भी सलाह रहती है कि वे उन दिनों में अच्छे विचार मन में लायें और श्रेष्ठ लोगों के चित्र अपने शयनकक्ष में लगायें ताकि मां के अच्छे मनोभावों का संस्कार गर्भस्थ शिशु पर हो.

माता सुभद्रा के गर्भ में पल रहा अभिमन्यु पिता अर्जुन द्वारा मां को चक्रव्यूह भेदने की कथा सुनाई जाने पर किस तरह उसे सीख लेता है, यह प्रसंग आज मनोविज्ञानियों की गर्भवती माताओं को सलाह की पुष्टि करता है.

मन के अच्छे संस्कार जब बुद्धि को परिचालित करते हैं तो ज्ञान के पथभ्रष्ट होने की गुंजाइश नहीं रहती. इसीलिए हमारे पुरखों ने यह उक्ति बनायी होगी ‘जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन.’ श्रीकृष्ण दुर्योधन के छप्पन भोग छोड़ कर खुशी से विदुर के घर साग खाते हैं, तो इसका यही तात्पर्य है. महाभारत की यह कथा बड़ी रोचक और प्रेरक है. व्यक्ति का ज्ञान जब मन के सद्संस्कार से विहीन होकर क्रियाशील होता है तो आइएएस जैसे महाज्ञानियों के बीच भी महाभ्रष्ट जैसी उपाधियां दी जाती हैं.

उत्तर प्रदेश में ऐसे प्रसंगोंं की शायद अभी भी कुछ लोगों को याद होगी. इनमें से कुछ उपाधिधारी आज जेल में हैं. आइएएस बनना ज्यादातर उच्च शिक्षित लोगों का सपना होता है, कई तो आइपीएस बन कर भी संतुष्ट नहीं होते और करियर में आइएएस का तमगा लगाने के लिए जी-जान एक कर कड़ी मेहनत से पढ़ाई करते हैं. वे आइएएस बन कर फर्क महसूस करते हैं तो जाहिर है ये सबसे बड़ी डिग्री हुई, लेकिन इसे पाकर भी व्यक्ति महाभ्रष्ट कहलाये या किसी दूसरे अपराध में जेल जाये तो उसकी बुद्धि में खोट नहीं माना जा सकता, उसके मन का खोट ही उसकी ये दुर्गति कराता है.

भगवान बुद्ध ने अपने एक उपदेश में कहा है-‘सभी बुरे काम मन के कारण उत्पन्न होते हैं.

अगर मन परिवर्तित हो जाये तो क्या अनैतिक कार्य कर सकते हैं? शायद इसीलिए भारत के मनीषियों ने मन का संस्कार अच्छा करने वाले जीवन मूल्य गढ़े और वैसी ही कथाएं रचीं. गीता तो मानो मन के संस्कार को ही ठीक करने का आख्यान है. श्रीकृष्ण के समझाने पर अर्जुन कहता है प्रभु इस मन को कैसे नियंत्रित करूं यह तो वायु के वेग से भी तेज दौड़ता है. केशव कहते हैं ‘अभ्यासेन तु कौन्तेय:’ हे अर्जुन निरंतर अभ्यास से ही मन को काबू में रखा जा सकता है.

संस्कारों की प्रक्रिया जन्म से लेकर मृत्यु तक मन को संभालने का ही अनवरत अभ्यास है. इसलिए कहा गया ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’. बुद्धि चंगी नहीं कही गयी, क्योंकि बुद्धि का शिक्षण व्यक्ति को विद्वान बना सकता है, विचारवान बना सकता है, विद्यावान नहीं.

गांवों में अक्सर कुछ पढ़े-लिखे लोगों काे बुजुर्ग कह दिया करते थे ‘तुम पढ़े हो, गुने नहीं’. यह जो गुनना यानी गुणवान होना है, यही विद्यावान होना है. विद्यावान तो अशिक्षित भी हो सकता है विद्यावान होना माने मानवीय सरोकारों के प्रति समर्पित होना. पढ़ा-लिखा या डिग्रीधारी व्यक्ति बड़ा विद्वान हो सकता है, विद्यावान तो जैसे मन का संस्कार बनाता है. कोई भी श्रेष्ठ विचार जो सामाजिक मानवीय सरोकारों से जुड़ा है, वह सद्गुण-सदाचार से युक्त मन में ही पल्लवित हो सकता है और जब तक वह विचार आचरण में नहीं उतरता तब तक निरर्थक है. यह तो अपराधी भी जानता है कि भ्रष्टाचार, चोरी, हत्या, बलात्कार गैरकानूनी है.

लेकिन वह जो जानता है वह केवल उसके विचार तक है उस पर वह अमल नहीं करता. अमल करने पर ही विचार की सार्थकता है. उल्लेख आता है कि रावण वेदों का ज्ञाता था, महाज्ञानी था, विद्वान या लेकिन शायद विद्यावान नहीं था यदि होता तो उसके द्वारा ऋषियों की हत्या नहीं की जाती. इसी के विरुद्ध तो भगवान श्री राम को ‘निशिचर हीन करों मही भुज उठाइ प्रण कीन्ह’ का उद्घोष करना पड़ा. हनुमान को विद्यावान कहा गया है. ‘विद्यावान गुणी अति चातुर, रामकाज करिबे को आतुर’. राम तो धर्म के मूर्तरूप है.

वाल्मीकि ने कहा है ‘रामो विग्रहवान धर्म:, मानवीय मूल्यों के संस्थापक मर्यादा पुरुषोत्तम हैं.’ रावण ज्ञानी होकर भी अहंकार में उनका शत्रु बन गया और हनुमान उनके भक्त जो कहते हैं ‘राम काज कीन्हें बिना मोहि कहा विसरल’ राम का काज माने मानव चेतना का संरक्षण. यह विचार जब संस्कार यानी आचरण में उतर आता है तक जीवन बदलता है समाज और देश की तसवीर बदलती है.

आज तो सब तरफ बाजार की ताकतें हावी हैं. वहां डिग्रियां को ही अहमियत है संस्कार की नहीं. फायदा कमाना ही बाजार का मूल मंत्र है चाहे वह इंसानियत की कीमत पर ही क्यों न हो. बाजार ने नौजवानों में लोकप्रियता पाने के लिए श्रीकृष्ण को मैनेजमेंट गुरु बना कर धर्म को बाजार का चोला पहना दिया. श्री कृष्ण तो जीवन का महामंत्र है. जिसका जन्म ही घोर विपत्तियों में हुआ.

जिसे अनेक बार लोक कल्याण के लिए विस्थापित होना पड़ा, जो जन्म लेते ही मां की ममतामयी गोद से छिटक कर दूर हो गया वह कैसे लीला पुरुषोत्तम से योगेश्वर कृष्ण बनकर धर्म की स्थापना का निमित्त बना, यह कोई व्यावसायिक प्रबंध नहीं है. बल्कि जीवन का प्रबंधन है, मानवीय चेतना की सृष्टि है. यह जीवन दृष्टि जब संस्कार का रूप लेती है तभी वह मानव हितों का संपोषक करती है अन्यथा वह विचारों का पिंड भर है.

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