खास बातचीत : कश्मीर का हल चिरौरी से नहीं
भाजपा व संघ में पूर्व में कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके विचारक केएन गोविंदाचार्य एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने रांची आये हुए हैं. उनका मानना है कि कश्मीर समस्या का समाधान चिरौरी करने से नहीं होगा. इस पर ठोस निर्णय लेना होगा. देश की एकता और अखंडता से समझौता नहीं हो सकता है. देश […]
भाजपा व संघ में पूर्व में कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके विचारक केएन गोविंदाचार्य एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने रांची आये हुए हैं. उनका मानना है कि कश्मीर समस्या का समाधान चिरौरी करने से नहीं होगा. इस पर ठोस निर्णय लेना होगा. देश की एकता और अखंडता से समझौता नहीं हो सकता है. देश और झारखंड में विकास के जो मॉडल अपनाये जा रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं. इससे सबका विकास नहीं हो सकता है. राजधानी प्रवास के दौरान प्रभात खबर के वरीय संवाददाता सतीश कुमार व मनोज िसंह ने उनसे कई मुद्दों पर बात की. पेश है बातचीत के अंश :
केएन गोविंदाचार्य
देश की 45 करोड़ जनता की आय सवा डॉलर (लगभग 90 रुपये) प्रतिदिन है
50% बच्चे आज भी कुपोषित
जीडीपी को विकास का पैमाना नहीं माना जाना चाहिए
जेहादी अतिवाद से कोई समझौता नहीं होना चाहिए
आपकी नजर में कश्मीर के क्या हालात हैं?
इसका समाधान क्या हो सकता है?
कश्मीर की स्थिति अभी कुछ अलग है. इसे वाजपेयीजी के शासनकालवाली स्थिति से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. अभी स्थिति ज्यादा खराब है. जेहादी अतिवाद तेजी से बढ़ा है. इससे कश्मीर के कुछ हिस्सों की रंगत बदली है. जेहादी अतिवाद से कोई समझौता नहीं होना चाहिए. कश्मीर में पत्थर फेंकनेवालों का डोजियर बनाना चाहिए. सीएम महबूबा मुफ्ती को भी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए. सिर्फ यह कहना कि मोदी सरकार में ही कश्मीर समस्या का समाधान संभव है. यह भ्रम फैलानेवाली बात है. उन्हें इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत को स्पष्ट करना चाहिए.
लेकिन, सरकार तो आज भी पड़ोसी देशों से
अच्छे संबंध रखना चाहती है?
संबंध जरूरतों से बनते हैं. बातचीत के लिए अपनी ओर से रुचि दिखाने की जरूरत नहीं है. भारत को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए. देश की संप्रभुता प्रमुख है. इसके साथ समझौता नहीं हो सकता है.
आप झारखंड में रहे हैं, अापकी नजर में यहां के विकास का मॉडल क्या हो सकता है?
करीब 18 साल झारखंड में काम करने का मौका मिला. वर्ष 2000 सितंबर से हम सत्ता और राजनीति से छुट्टी लेकर चले गये. राज्य गठन के शुरुआती दिनों में तत्कालीन राज्यपाल प्रभात कुमार और मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी (तत्कालीन) से मिलकर काम करने की कोशिश की. झारखंड के लिए विकास का मॉडल एक नहीं हो सकता है. यहां की भौगोलिक संरचना अलग-अलग है. संताल, कोल्हान और पलामू प्रमंडलों के लिए अलग-अलग प्लान तैयार करना चाहिए.
कहते हैं कि अापने ही रघुवर दास को पहली बार विस चुनाव लड़वाया था?
यह महज एक संयोग था. वहां प्रत्याशी को लेकर विवाद थे. आडवाणी जी ने मुझे मामला सुलझाने को कहा. मैंने उन्हें कहा कि वहां जाकर स्थिति देखने के बाद ही कोई फैसला करूंगा. मैं दिल्ली से खाली सिंबल लेकर जमशेदपुर आया. वहां दीनानाथ पांडेय के साथ कुछ विवाद था. मैंने वहां पहुंच कर सभी वर्ग के लोगों की राय जानी. पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच वोटिंग करायी. इसके बाद रघुवर दास को टिकट दी गयी. कार्यकर्ताओं को ही उनको जिताने का जिम्मा भी दिया.
केंद्र सरकार के विकास के तौर-तरीकों को आप किस रूप में देखते हैं?
सबको भोजन, सबको काम ही विकास का एजेंडा होना चाहिए. गांव-गांव तक विकास की किरण पहुंचनी चाहिए. पलायन रुकना चाहिए. राजनीतिक क्षेत्र में प्रदूषण बढ़ा है. नेताओं में भी आर्थिक स्थिति सुधारने की होड़ है.
बाजारवाद के चकाचौंध का असर शहरों पर है. इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी व अपराध बढ़ेंगे. खेती में लोगों की रुचि घटी है. ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है, जिससे की इसमें रुचि बढ़ायी जाये. देश की करीब 58 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है, लेकिन जीडीपी में हिस्सेदारी मात्र 16 फीसदी है. आज भी देश की 45 करोड़ जनता की आय सवा डॉलर (लगभग 90 रुपये) प्रतिदिन है. 50 फीसदी बच्चे आज भी कुपोषित हैं. जीडीपी को विकास का पैमाना नहीं माना जाना चाहिए.
तो क्या होना चाहिए विकास का मॉडल ?
केंद्र और राज्य सरकार को ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव के लिए कृषि पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. भारत पर जनसंख्या का दबाव है. यहां की कृषि की तुलना अमेरिका से नहीं हो सकती है. वहां मात्र एक फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है. 200 साल पहले भारत में कारीगरी, खेती और गाय प्रमुख थे. पहले एक व्यक्ति पर एक गाय का अनुपात था.
आज यह सात हो गये हैं. बाद में इसका स्थान मशीनों और रासायनिक खेती ने ले लिया. इसके एक मॉडल पर हम काम कर रहे हैं. महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के कई जिलों में इस पर काम भी हो रहा है. यह प्रयोग हो सकता है. यही प्रयोग सभी राज्यों को अपनाना चाहिए.
आप लंबे समय तक राजनीति में रहे? क्या फिर सक्रिय राजनीति में आयेंगे?
फिलहाल ऐसा कोई विचार नहीं है. मैं एक विशेष मुहिम में जुटा हूं. लोगों को जागरूक करना मेरा काम है. इस दिशा में कई काम हो रहे हैं. दल और सत्ता की राजनीति से मैंने अपने को अलग रखा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो साल के कार्यकाल को कैसे देखते हैं?
वर्ष 2003 में मेरी मुलाकात नरेंद्र मोदी से हुई थी. इसके बाद उनसे नहीं मिला हूं. अमित शाह से मेरी मुलाकात वर्ष 2013 में चुनाव के दौरान ही हुई थी. सत्ता और राजनीति से अवकाश लेने के कारण मैं राजनीतिक गतिविधियों पर बहुत नजर नहीं रखता हूं.