कीर्तन
कीर्तन के एक दिन पहले से ही घर-बाहर के लड़कों ने आसमान सिर पर उठा रखा है. बाप के मरने के बाद उनकी जगह पर रघुबर दयाल नये मुखिया साहब हुए हैं. इन्होंने कीर्तन के अनुष्ठान का संकल्प दो दिनों के भीतर लिया है. अब तक इन्होंने जो भी बुरा कर्म किया है, उसे मुखिया […]
कीर्तन के एक दिन पहले से ही घर-बाहर के लड़कों ने आसमान सिर पर उठा रखा है. बाप के मरने के बाद उनकी जगह पर रघुबर दयाल नये मुखिया साहब हुए हैं. इन्होंने कीर्तन के अनुष्ठान का संकल्प दो दिनों के भीतर लिया है. अब तक इन्होंने जो भी बुरा कर्म किया है, उसे मुखिया चुने जाने के बाद एकदम छोड़ दिया है. रामायण-मंडली के सामने जनेऊ निकाल कर कसम खायी है कि आज से पर नारी को माता समझूंगा. मगर छोटी जाति का आदमी मेरी बराबरी कैसे कर सकता है? मेरे खिलाफ उसका खड़ा हो जाना ही मेरा अपमान है. जब तेतर राम जानता था कि बाबूजी के मरने के बाद वह जगह मेरी है, तब उसने यह साहस क्यों किया? कीर्तन की आवाज जहां तक माइक से जायेगी, लोग प्रभु की भक्ति में गोता लगाते हुए भी मेरे यश का गीत जरूर गायेंगे.
असल बात यह है कि मुखिया साहब को अपने धन और गुंडई का पुराना घमंड है. इन्होंने देखा कि तेतर राम के पक्ष में सारा गांव हो गया है, तो बड़े-छोटे के भाव को उजागर करना शुरू कर दिया और तेतर के सारे वोट डंडे की चोट से अपने बक्से में डलवा लिये. परिणाम की घोषणा के फौरन बाद ही इन्होंने उपस्थित जनता के सामने ऐसे कह दिया कि जिन लोगों ने मेरे खिलाफ वोट देना चाहा है उन्हें प्रखंड से मिलने वाले सभी राहत-राशन, चीनी, परमिट, खाद, बीज सब-कुछ बंद. शहरों में तो ऐसे कीर्तन बराबर चलते रहते हैं. मगर छह-सात साल पहले जैसा बाबूजी ने कराया था, उससे भी बढ़-चढ़ कर कराने का विचार है. ऐसा शानदार कीर्तन हो कि इलाके-भर के लोगों की नानी मर जाये.
दो-तीन दिनों से मंदिर के पास खलिहान की सफाई हो रही है. शहर से बढ़िया माइक मंगाये गये हैं. बावन गांव के लोगों को कीर्तन गाने के लिए न्योता है. चौबीस घंटे का अखंड कीर्तन बहुत होता है. सब लोग अचरज से यही देख रहे हैं कि कल तक गांव के किसी की भी बेटी, बहिन, धन और जिंदगी को हड़पनेवाले मुखिया साहब अचानक कीर्तन आरंभ होने के पहले शामियाने की चौकी पर खड़े होकर भाषण दे रहे हैं – भाई रे! इस कीर्तन का महात्तम कम मत समझना. जहां तक इसकी ध्वनि रहेगी, अकाल नहीं पड़ेगा- वर्षा होगी. छोटे-बड़े किसी को भी शामियाने के अंदर घुसने की हिम्मत नहीं होती. एक तरह से कीर्तन की वजह से सारा गांव कांप रहा है.
कीर्तन के लिए घर-घर सुपारी बंटी है. झाल, ढोल, हारमोनियम, करताल गांव-जवार से मंगा कर शामियाने में रखे हुए हैं. मुखिया को पुरोहित ने सुझाया है कि बदन पर नया वस्त्र होना चाहिए. मुखिया और पुरोहित दोनों पीतांबर में पूरे भगवान श्रीकृष्ण लग रहे हैं. पुरोहित ने प्रार्थना की – ‘पुण्य-परमात्मा का काम कई साल बाद अपने गांव में हो रहा है. जिससे जो बन पड़े भगवान के चरणों में हाजिर करे. चौबीस घंटे तक, अखंड कीर्तन चलेगा. पूर्णाहुति के बाद गांव-जवार के ब्राह्मण भोजन करेंगे.’
पचास-साठ साल पहले इसी जमीन पर अखाड़े की पूजा हुई थी. इस बार भी उतना ही बड़ा अनुष्ठान है. गांव की मर्यादा का सवाल है. परंतु, इससे भी बड़ा सवाल यह है कि मुखिया साहब का आदेश है. इनके सामने किसकी जबान हिलाने की हिम्मत है! बगल में हलवाहा खुशीराम खड़ा है.
‘तुम काहे खड़े हो? ब्राह्मण-भोज के लिए लाओ न कुछ घर से.’ मुखिया साहब टोकते हैं.
‘मालिक का ही तो सब दिया हुआ है. हमारा कहां कुछ है.’ खुशी रोने लगता है.
‘जा ससुर अभागे! भाग यहां से! कुकर्मी!’
– वे दांत पीसते हैं.
‘अपनी कसम घर में कुछ नहीं है.’
‘तब ठीक है. बीमारी होगी और रात-भर में मरोगे.’
खुशी के मन में भय करंट की तरह फैलता है, जैसे मुखिया साहब जो कुछ भी कह रहे हैं, सच-सच कह रहे हैं. धरती पर हो तो स्वर्ग-नरक सब कुछ है. तब परमात्मा भी किसी-न-किसी रूप में कहीं आसपास ही होगा. यह भी कोई अचरज की बात नहीं – परमात्मा मुखिया साहब की ही आत्मा में निवास करता हो! अगर ऐसी बात नहीं तो मुखिया साहब से डर क्यों लगता है? खुशीराम को सांप सूंघ गया है. जहां खड़ा है, उसके इर्द-गिर्द ईश्वर का भय है. कीर्तन शुरू होने ही वाला है. पुरोहित मंत्र उच्चारते हैं. धीरे-धीरे झाल और ढोल की आवाज उठ रही है. एकबाल मिसिर फिल्मी धुन पर कीर्तन बहुत अच्छा गाते हैं. सबकी आंखें उनकी तरफ लगी हैं. इसी बीच मिसिर झाल को बड़े जोर से टकराते हैं और नयी तर्ज पर चीखने लगते हैं – ‘जय सियाराम जय-जय सियाराम, जय सियाराम जय-जय सियाराम.’
सन सड़सठ में भी गांव में अखंड कीर्तन हुआ था. तब मुखिया साहब के बाप जिंदा थे और मुखिया साहब उन्मुक्त सांड़ की तरह सर्वत्र विचरते रहते थे. उस वक्त तक इनका गृहस्थ-स्वभाव पनपा भी नहीं था. समूचे सूबे में भयानक सूखा और अकाल था. बारिश की एक बूंद भी कहीं नहीं हुई. उसी साल अपने यहां कांग्रेस की सरकार पहली बार हारी थी और संयुक्त विधायक दल की सरकार बनी थी. गांव-गांव में कुएं और नल-कूप गाड़े जा रहे थे. संविद सरकार ने भी जी खोल कर राहत पहुंचायी थी. मुखिया साहब के बाप का संकल्प था.
जब तक बारिश नहीं होगी – अखंड कीर्तन जारी रहेगा. जो लोग शामियाने में नहीं पहुंच सके थे, उन्होंने अपने घर-आंगन में ही कीर्तन शुरू कर दिया था. घर-घर यही लगता था कि मंदिर बना हुआ है. आंखों देखी बात है – कीर्तन अभी सात दिन भी पूरा नहीं चला था कि आकाश में बादल छाने लगे. थोड़ी ही सही परंतु बारिश हुई. जवार-पथार के लोग भौंचक ताकते ही रह गये. मुखिया साहब के खानदान को ही कीर्तन का महत्व मालूम है. अगर ऐसी बात नहीं थी तो उन्हीं का गांव छोड़ कर आसपास गांवों में बारिश क्यों नहीं हुई? खुशी उसी साल से इस खानदान की शक्ति को जानता है. इस साल तो ऐसी कोई खास बात नहीं है.
खुशीराम को देश-वेश क्या मालूम? उसके लिए तो मालिक रघुबर दयाल ही देश हैं, ईश्वर-सुख हैं. क्योंकि वह जो कुछ भी चाहते हैं, हो जाता है. तेतर राम भी खुशी के खानदान से ही आता है. चुनाव में तेतर का खड़ा होना ही गुनाह है. मालिक को आभास हो गया था कि इन पर उंगली उठानेवाले कुछ पैदा हो गये हैं! एक दिन उन्होंने खुशीराम से पूछा था.
‘इधर सुन तो खुशिया।’ ‘का बात है, मालिक!’ खुशीराम डर गया था.
‘सुना तेतर तुम लोगों से कह रहा था कि सरकार में तमाम जगह मुखिया के ही लोग हैं. इसलिए मांगने से न्याय नहीं मिलेगा. आखिर तुम लोग चाहते क्या हो?’
‘मुझे क्या मालूम?’ ‘भगवान की तरफ हाथ उठा कर कहते हो?’
‘जी हां, मालिक.’ वह बिल्कुल सीधे आसमान की ओर हाथ उठा देता है. खुशीराम ने स्वर्ग की ओर हाथ उठा दिया था, मगर भीतर-भीतर डर भी गया था कि झूठ बोल रहा है. झूठ बोलने से खुशी को कई दिनों तक नींद नहीं आयी थी. घर में औरत को मालूम हुआ, तो उसने भी खुशी को बहुत बुरा-भला कहा. रात-भर मुर्दे की तरह पड़ा रहा – अगर मालिक को यह विश्वास हो गया कि उसकी भी तेतर से बातचीत होती है, तब उसका क्या होगा? तेतर की एक ही बात उसके दिमाग से नहीं उतरती – काका! तुम इनका काम करते हो, मिहनत करते हो और रघुबर की सेवा करते हो, तब भी तुम्हारे बच्चे अन्न-वस्त्र के लिए क्यों तरसते हैं? दुनिया का यह दस्तूर है – जितना सहोगे, उतनी ही जल्दी मरोगे. परंतु ऐसी-ऐसी स्थितियां आती रहती हैं कि खुशी उसकी बातें भूल जाता है और मालिक को ईश्वर मान कर खौफ खाने लगता है.
फिर खुशीराम को मुखिया साहब के बाप की बातें याद आने लगती हैं. उन्होंने कहा कि स्वर्ग-नरक सब इसी धरती पर है. ‘तब मालिक, यह कैसे पता चलेगा कि कौन पापी है, कौन पुण्यात्मा?’ उसने पूछा था.
‘दाने-दाने के लिए तरसते हो फिर भी मालूम नहीं हुआ?’
‘सो तो है. मगर इसका फैसला धरती पर कौन करता है?’
‘अपना कर्म. जैसे कोई राजा होता है, कोई भिखारी बन जाता है.’
‘इसे मिटाने का कोई उपाय?’
‘भजन और भक्ति. नहीं तो और क्या?’
इसी वजह से खुशीराम को डर लग रहा है. अकाल और सूखे के साल की तरह इस साल भी कम भय नहीं है. इस बार तो मुखिया साहब की विजय पर कीर्तन हो रहा है. उस साल जो कीर्तन में शामिल नहीं हुआ, उसकी जमीन परती रह गयी-सूखा पड़ गया. इस साल तो मुखिया साहब का कहना है कि महामारी फैलेगी. भुखमरी और गरीबी इसलिए है कि जनसंख्या दुगुनी रफ्तार से बढ़ती जा रही है.
जवार-पथार से लोग कीर्तन स्थान की ओर सोनभद्र की तरह उमड़ते जा रहे हैं. माइक से कीर्तन-धुन आकाश और पाताल के भीतर बड़े जोर से गहराती जा रही है. खुशीराम उस पूरे माहौल में खुद को अकेला अपराधी महसूस कर रहा है. उसे रह-रह कर यही टीसता है कि वह भगवान की सेवा में कहीं से शामिल नहीं हो रहा है. मुखिया साहब के शब्द हथौड़े की तरह शरीर पर गिरते हैं. लोगों की बाढ़ के बावजूद वह घर की ओर लौट रहा है. घर पहुंचते ही अपनी औरत से पूछता है, ‘घर में थोड़ा भी अन्न है.’
‘था. अभी पका दिया है. लड़के खा कर कीर्तन सुनने चले गये हैं. तुम भी खा लो. कीर्तन में नहीं जाओगे क्या?’
खुशी को गुस्सा आता है. ‘इसीलिए तो पूछ रहा हूं.’
‘घर में कुछ नहीं है तो क्या करूं?’ औरत बिल्कुल डबडबा जाती है.
‘मैं आज नहीं खाऊंगा.’
खुशी की औरत मना कर थक गयी. खुशी को भीतर से कुछ भी इच्छा नहीं हो रही है. वह आंगन में ही जमीन पर चित्त पड़ा हुआ है. यहां भी कीर्तन साफ सुनाई पड़ रहा है. जब तक उसकी आंखें खुली हुई हैं, वह बुदबुदाता रहता है – जय सियाराम जय-जय सियाराम. आधी रात तक तो खुशी कीर्तन में शामिल ही रहा है. सुबह औरत ने देखा कि खुशी आंगन में मुर्दा पड़ा हुआ है.