बल्देव भाई शर्मा
आज के दौर में किसी चीज या बात को शास्त्रीय शब्द के साथ जोड़ देने पर अधिकतर लोगों विशेषकर जो अपने को आधुनिक मानते हैं, का नजरिया बदल जाता है. वे फट से कह उठते हैं कि ये सब पुराने जमाने का है, उससे कब तक चिपके रहेंगे. शास्त्रीय संगीत हो या शास्त्रीय नृत्य अथवा शास्त्र सम्मत ज्ञान, उससे जुड़ना या उसे अंगीकार करना उन्हें पिछड़ापन लगता है. ये रफ्तार का दौर है, इसमें जरा ठहर कर सोचने, समझने की फुर्सत किसे है.
धीमा चलना तो मानो आज जिंदगी के फलसफे के साथ मेल ही नहीं खाता है. तेज रफ्तार ही जैसे जिंदगी का अर्थ हो गया है, चाहे वह औंधे मुंह ही क्यों न गिरा दे या पलक झपकते मौत से गलबहियां करा दे. इस तेज और नासमझी को इन पंक्तियों में क्या खूब दरशाया है शायर ने-‘रौ में है सबसे उम्र/देखिये कहां थमे/न हाथ आग पर हैं/न पांव रकाब में.’ न हाथ में घोड़े की लगाम है और न संतुलन साधने के लिए पैर रकाब में अटके हैं, बस जिंदगी का घोड़ा बेतहासा दौड़ रहा है.
सुर और ताल में बंधी कथक की धीमी लयात्मक गति की बजाय आज सालसा ज्यादा लुभाता है. इसी तरह शास्त्रीय गायन की सुर साधना भी जैसे बीटल्स, पॉप और जैज संगीत के जमाने में कहीं खोती सी जा रही है. वक्त बदलता है तो चीजें, आदतें और जीवन व्यवहार भी बदलता जाता है. उस बदलाव का बड़ा अच्छा विश्लेषण एक फिल्म के इस संवाद से बखूबी समझा जा सकता है-‘पहले आदमी को प्यार करते थे और चीजों का इस्तेमाल, लेकिन आज चीजों से प्यार करते हैं और आदमी का इस्तेमाल.इस बदलाव का सबसे घातक असर हो रहा है रिश्तों पर. बुजुर्ग माता-पिता या दादा-दादी एकदम अकेले से पड़ते जा रहे हैं.
जिंदगी की उड़ान बच्चों को जरा थम कर उनकी ओर प्यार भरी निगाह डालने की मोहलत भी नहीं देती. जिंदगी का शिखर छूने की चाह उन्हें देश के महानगरों के रास्ते विदेश तक ले जाती है. बुजुर्ग कहीं पीछे छूट जाते हैं, इतने पीछे कि जिन्हें कभी बड़े चाव से एक-एक शब्द बोलना सिखाया, आज वे उनका एक बोल सुनने के लिए तैयार नहीं है. आखिर धरती पर पहला कदम रखना और चलना तो उन्होंने ही सिखाया था हमें. इसीलिए कवि ने सीख देते हुए लिखा है-‘तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में/हम सिर्फ भाग रहे हैं/कुछ रफ्तार धीमी कर मेरे दोस्त/और इस जिंदगी को जियो/खूब जियो मेरे दोस्त.’
अपने साथ न हों, उनके साथ हम कदम मिला कर न चल सकें. हम आगे निकल जायें और वे पीछे छूट जायें, तो जीवन का आनंद नहीं है. सुख-सुविधा खूब जुटा ली, नाम और दान खूब कमा लिया पर अपनों के प्रति संवेदनाएं ही मर गयीं, विशेषकर उन बुजुर्गों के लिए जो हमसे ही आस लगाये हुए होते हैं तो जिंदगी में चैन नहीं रहता. यह एहसास तब होता है जब हम बुजुर्ग हो जाते हैं.
भारतीय जीवन दर्शन में कुछ बातें जीवन का ध्रुव सत्य है जिन्हें भूल जाने या ‘पुरानी हैं’ कह कर बदल देने से जिंदगी का अर्थ ही खत्म हो जाता है. ऐसा ही एक संदेश हमारे शास्त्रकारों ने दिया-‘अभिवादन शीलस्य च/ नित्य वृद्धोपसेविनम्/चत्वार वर्द्धय तस्य/आयुर्विद्या यशो बलम.’ बुजुर्गों को प्रतिदिन प्रणाम करने, उनका आदर और सेवा करने वाले की आयु, विद्या, कीर्ति और बल निरंतर बढ़ते हैं.
सरल भाषा में कहें तो बुजुर्गों की दुआएं बच्चों के लिए हर मर्ज की दवा हैं. हमारे कृत्यों और व्यवहार से उन्हें सुकून मिलता रहे तो वे खुशी से जीते हैं, वरना उन्हें मर-मर कर जीना पड़ता है.
माता-पिता, बुजुर्गों के प्रति सेवा-सत्कार की भावना, उनको सुख देने वाला आचरण जिस भारतीय अध्यात्म दर्शन और संस्कृति की पहचान है, वहां वृद्धाश्रमों का बढ़ता चलन बेचैन करने वाला है.
माता-पिता और बुजुर्ग जीवित तीर्थ होते हैं, उनका प्रेमपूर्ण भाव से दर्शन, उनकी सेवा, उनका सम्मान, प्यार व अपनत्व से उनकी देखभाल करना, उन्हें संभालना इससे बड़ा तीर्थाटन और क्या हो सकता है? इस भाव को कितने सुंदर तरीके से इन पंक्तियों में पिरोया गया है-‘जिन माता-पिता की सेवा की/ उन तीरथ स्नान कियो न कियो.’ माता-पिता के प्रति हमारे शास्त्रकारों ने आदर, प्रेम और अपनत्व बनाये रखने के लिए ही उन्हें ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव’ कहा ताकि हम उनमें देवत्व के दर्शन कर सकें और उनकी सेवा कर स्वयं को धन्य व कृतज्ञ बना सकें. श्रवण कुमार की कथा इस सेवा भाव का आदर्श है.
संतति के इसी कृतज्ञ भाव को बनाये रखने के लिए पितृ पक्ष की अवधारणा आयी. वायु, विष्णु और बराह पुराण आदि में अपने पूर्वजों के प्रति इसी कृतज्ञता को व्यक्त करने के लिए पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म का विवरण आता है. कल यानी भाद्रपद पूर्णिमा (16 सितंबर) से शुरू हुआ पितृपक्ष आश्विन मास की अमावस्या (पितृ अमावस्या) तक चलेगा. इस कृतज्ञता को व्यक्त करते हुए माता-पिता से आशीर्वाद मांगने का उल्लेख करते हुए वेद मंत्र है-‘ऊं अर्यमा न त्रिप्त्याम् इदंतिलोदकं तस्मै नम:/ ऊं मृत्योर्मा अमृतं गमय./ पितरों के देव अर्यमा को प्रणाम/पिता, पितामह, पितामह और माता, प्रपितामही आपको बारंबार प्रणाम. आप हमें मृत्यु से अमरता की ओर ले चलें.
श्राद्धकर्म केवल कर्मकांड नहीं है, यह अपने पितरों के लिए हमारे मन की श्रद्धा, प्यार, कृतज्ञता का निवेदन है कि उन्होंने हमें जीवन दिया, सब प्रकार की उन्नति कर सुखोपभोग करने योग्य बनाया, उनके प्यार और आशीर्वाद से हम फूले-फलें. ‘श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम’ पितरों की तृप्ति के लिए सनातन विधि से श्रद्धापूर्वक जो कर्म किये जाते हैं, उन्हें श्राद्ध कहते हैं.
श्रीराम जैसे आदर्श पुत्र ने भी गया में फल्गु नदी के किनारे अपने पिता व अन्य पितरों का श्राद्ध किया, पिंडदान किया, इसका उल्लेख बड़ा मार्मिक है. युधिष्ठिर ने महाभारत युद्ध में मारे गये सभी परिजनों का श्राद्ध हरियाणा के कैथल के करीब सरस्वती नदी के किनारे स्थित पृथुदक तीर्थ (अब पेहवा) में किया. पितरों की मुक्ति के लिए तो श्राद्ध पक्ष में तर्पण किये जाने का विधान शास्त्रों में है, यह अपने पूर्वजों के प्रति संतति का कृतज्ञता निवेदन भी है.
अपने पूर्वजों के सत्कार्यों का स्मरण हमें सदा प्रेरणा देता है न केवल इसके लिए कि हम उसके अनुसार जीवन में आगे आएं बल्कि इसके लिए भी कि हम अपनी आनेवाली संतानों के लिए भी कुछ ऐसा जीवनादर्श प्रस्तुत करके जाएं जिसे वह गौरव के साथ याद कर सकें और स्वयं भी वैसा करने को प्रेरित हों.
पूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया विजन 2020’ में लिखा है कि ‘हम अपने बच्चों के लिए कैसी दुनिया छोड़ कर जाना चाहते हैं, इसका विचार करें.’ इसलिए केवल पितरों का श्राद्ध ही श्रद्धापूर्वक न करें, बल्कि जीवित तीर्थ माता-पिता और बुजुर्गों की प्यार और आदर के साथ सेवा भी करें ताकि हमारे बच्चे भी उससे सीख लें और हमें अपने बुढ़ापे में उनकी बेरुखी व उपेक्षा का शिकार न होना पड़े.