उड़ी हमले का प्रतिकार कैसे?
उड़ी में 18 जवानों की शहादत कई सवालों के जवाब मांग रही है. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आतंकियों के हाथों अपने जांबाज सैनिकों की शहादत पर शोकजदा होने के लिए यह देश और कब तक अभिशप्त रहेगा? ऐसे हमलों के वक्त मुंहतोड़ जवाब देने और सुरक्षा चाक-चौबंद करने के दावे हर बार […]
उड़ी में 18 जवानों की शहादत कई सवालों के जवाब मांग रही है. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आतंकियों के हाथों अपने जांबाज सैनिकों की शहादत पर शोकजदा होने के लिए यह देश और कब तक अभिशप्त रहेगा? ऐसे हमलों के वक्त मुंहतोड़ जवाब देने और सुरक्षा चाक-चौबंद करने के दावे हर बार किये जाते हैं, लेकिन हमलों का सिलसिला थमता नहीं है.
तो फिर पाकिस्तान पोषित आतंकियों, जिन्हें चीन की भी शह हासिल है, की मंशा को नाकाम करने और ऐसे हमलों के प्रतिकार करने के लिए भारत के सामने आखिर क्या है सही रास्ता, बता रहे हैं जाने-माने रक्षा विशेषज्ञ.
पहले अपनी खामियां तो ठीक कर लें
अफसर करीम
मेजर जनरल (सेवानिवृत्त)
जम्मू-कश्मीर के उड़ी में भारतीय सैन्य कैंप पर हुए हमले के कई पहलू हो सकते हैं. एक तो यह कि यह हमला सीमा पार से आये घुसपैठियों द्वारा किया गया एक रणनीतिक हमला था. ऐसे हमलों को अंजाम देनेवाले लोग बहुत ही अच्छी तरह से प्रशिक्षित होते हैं.
लेकिन, इसका दूसरा पहलू यह है कि हमारी इंटेलिजेंस, विजिलेंस और सुरक्षा एजेंसियों को ऐसी किसी अनहोनी के घटने की जानकारी होते हुए भी हमारी कार्रवाई में कैसे कमी रह गयी. यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि घुसपैठिये कैसे घुस गये, क्योंकि सीमा को पार कर उड़ी क्षेत्र में पहुंचने के लिए उन्हें नाले, जंगल और पहाड़ को पार कर भारतीय सेना के कैंप पर पहुंचना होता है. यह किसी के लिए आसान नहीं है, क्योंकि अगर सीमा पर भारतीय जवान मुस्तैद हैं, तो वहां किसी के घुसने की भनक फौरन लग जाती है.
ऐसे में किसी ऐसी जगह से घुसपैठियों का भारतीय सैन्य कैंप में घुस जाना, इस तरह कि किसी को कानोकान पता न चल पाये और हमला करना, यह हमारी सतर्कता की कमी रही है. एक और पहलू है, जहां तक रात में सेना के जवानों के सोने की बात है, तो कोई न कोई घंटे-दो घंटे के हिसाब से ड्यूटी पर मुस्तैद रहता ही है, जो घनघोर रात के सन्नाटे में ऐसे किसी भी हमले की आहट की सूचना देने और बाकी साथियों को आगाह करने का काम करता है. क्योंकि, सैन्य कैंपों पर सुरक्षा की दृष्टि से बहुत ही ज्यादा चौकसी रखी जाती है. इस सैन्य व्यवस्था के बावजूद हमारे जवान मार दिये जाते हैं, तो हमारे लिए यह चिंता का विषय है कि आखिर हमारी सैन्य व्यवस्था में क्या कमी रह गयी है.
अपनी इन कमियों के लिए हमें पाकिस्तान को जिम्मेवार नहीं मानना चाहिए. पाकिस्तान की तरफ से जो कुछ भी किया जा रहा है, वह क्षम्य नहीं है, फिर भी पाकिस्तान को जिम्मेवार मान कर हमें कोई बहाना नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह देश की सुरक्षा का मामला है. हमें पहले अपनी सुरक्षा खामियों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए. सेना में तो वसूल ही यही होता है कि कोई बहाना नहीं चलेगा, लड़ाई या तो हारें या जीतें.
इस हमले को अंजाम देने के लिए पाकिस्तानी घुसपैठियों ने जो कुछ भी किया है, यह उसकी बहादुरी कतई नहीं है. सोते आदमियों को मारना कोई बहादुरी नहीं होती. दूसरी बात यह है कि उसका हमेशा यही इरादा रहता है कि भारत में फसाद फैलाये. उड़ी हमले से इस बात की तस्दीक हो जाती है. अगर घुसपैठियों की चेतावनी के बाद हम अपने सैनिकों को नहीं बचा पाये, तो इसमें पाकिस्तान का कोई दोष नहीं है, बल्कि हमारी कमी है. दरअसल, कश्मीर में या सीमा पार पाकिस्तान में जो भी आतंकी हैं, वे भारतीय सेना के जवानों को मार कर यह दिखलाना चाहते हैं कि वे सेना के ऊपर भी हमला कर सकते हैं.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ रविवार को न्यूयॉर्क पहुंचे थे, जहां वे संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दे को उठायेंगे. नवाज शरीफ इस आनेवाले बुधवार को संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में अपना भाषण देनेवाले हैं. जाहिर है उड़ी हमला अंतरराष्ट्रीय समुदाय (इंटरनेशनल कम्युनिटी) की नजर में आ चुका होगा. यानी जिस वक्त में नवाज शरीफ इंटरनेशनल कम्युनिटी में बात करने गये हों, उस वक्त में उड़ी हमले का होना इस बात की ओर इशारा करता है कि आतंकी ध्यान भटकाने की कोशिश में हैं. इससे नवाज शरीफ का ही नुकसान होगा, क्योंकि अपने संबोधन में कश्मीर मसले पर वे जो कुछ भी कहेंगे, उस पर किसी को यकीन नहीं आयेगा.
पाकिस्तान में ये आतंकी अब हद से आगे बढ़ गये हैं. इनके खिलाफ भारत को अब कोई ठोस कार्रवाई किये बगैर काम नहीं चलेगा. यह सोचना कि पाकिस्तान से बात करने या उसको अंतरराष्ट्रीय समुदाय में शर्मसार करने से वह यह सब छोड़ देगा, यह बिल्कुल गलत ख्याल होगा. मैं पिछले चालीस साल से यही सब होते देखता आ रहा हूं. वे लोग इस बात की कोई परवाह नहीं करते कि कौन क्या कहता है. आतंक फैलाने का उनका अपना यही एक तरीका है. अमेरिका और रूस तो पाकिस्तान की मदद कर ही रहे हैं और अब चीन भी उसके साथ है. ऐसे में पाकिस्तान तो सुधरने से रहा. इसलिए भारत को रक्षात्मक रहने के बजाय अब थोड़ा सा आक्रामक होना पड़ेगा.
सैन्य इतिहास में अक्सर यही देखा गया है कि जो देश सिर्फ रक्षात्मक मुद्रा अपनाता है, वह हार जाता हैरक्षात्मक मुद्रा के चलते आज तक कोई ऐसा किला नहीं बचा, जिस पर दुश्मनों के सहमले के बाद कब्जा न हो गया हो. इसी तरह से आज की हमारी सैन्य व्यवस्था में अगर हम यह सोचें कि हम बातचीत की पहल करके सबकुछ सुलझा लेंगे, तो मेरे ख्याल में यह मुमकिन नहीं है.
हमारी सेना को भी सीमा पार जाकर दखल बढ़ाना होगा, और यह किस तरह से होगा, क्या कार्रवाई करनी होगी, इसके तौर-तरीके पर हमें सोचना होगा. पठानकोट या उड़ी जैसे हमले न हों, इसके लिए बचाव की नीति बनानी ही पड़ेगी और वह नीति सिर्फ बातचीत वाली नहीं, बल्कि वह नीति यह होगी कि घुसपैठियों के सीमा में घुसने से पहले ही मार गिराया जाये. अभी कुछ लोग यह कह रहे हैं कि उड़ी हमले का बदला लेना चाहिए. ऐसा हर बार कहा जाता है, जब कोई आतंकी हमला होता है.
लेकिन सेना की नीति में किसी से बदला लेने जैसी कोई बात नहीं होती. सेना का काम है कि अपनी ताकत से अपने दुश्मनों को वह इस तरह से दबा दे कि दुश्मन के अंदर डर बन जाये कि अगर कुछ किया तो बहुत नुकसान होगा. इसलिए अगर हम पाकिस्तान के आतंकियों के खिलाफ जब तक कार्रवाई नहीं करेंगे, तब तक ऐसे हमले होते रहेंगे. पाकिस्तान फिदायिन का इस्तेमाल कर हमले करता है, भारत को भी ऐसी कोई तरकीब सोचनी होगी.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
मिसाइल क्षमता
भारत के पास पांच हजार किलोमीटर दूरी तक मार कर सकने की मिसाइल क्षमता है, तो पाकिस्तान के प्रक्षेपास्त्रों की ताकत ढाई-तीन हजार किलोमीटर तक है. चीन के पास 14 हजार किलोमीटर तक मार कर सकनेवाली मिसाइलें हैं. तीनों देशों के मिसाइल सिस्टम परमाण्विक हथियार ढो सकते हैं.
न्यूक्लियर वार हेड्स
भारत चीन पाकिस्तान
110 260 120
(अगस्त, 2016 की स्थिति) स्रोत- आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन
सुरक्षा बलों को आधुनिक और तकनीक संपन्न बनाना होगा
सुशांत सरीन
रक्षा विशेषज्ञ
इसमें कोई दो राय नहीं कि उड़ी हमले के पीछे पाकिस्तान ही दोषी है. लेकिन, दूसरी बात यह भी है कि अगर पाकिस्तानी घुसपैठिये भारत के फौजी ठिकाने पर हमला कर पा रहे हैं, तो हमें अपने लूपहोल और कमजोरियों को भी देखना पड़ेगा. हम चप्पे-चप्पे की सुरक्षा नहीं कर सकते, हर चार कदम पर एक आदमी को बंदूक देकर खड़ा नहीं कर सकते, लेकिन अपने सुरक्षा-तंत्र को चौकस और सुरक्षित तो बनाना ही होगा. अगर हम हर चार-कदम पर सैनिक नहीं खड़ा कर सकते, तो जरूरी यह है कि हम आधुनिकतम सामरिक तकनीक के सहारे से चप्पे-चप्पे पर निगरानी रखें.
किसी भी देश में सीमा के आसपास के क्षेत्रों में सुरक्षा को पुख्ता और चाक-चौबंद करने की जरूरत तो होती ही है. फिर पाकिस्तान से लगती सीमा और नियंत्रण रेखा तो दशकों से संवेदनशील है.
चाहे वह पठानकोट हमला हो या उड़ी हमला, हमले के बाद दीवार कुछ ऊंची और मोटी कर देने भर से सुरक्षा मजबूत नहीं होती, क्योंकि दुश्मन भी इस फिराक में रहते हैं कि ऊंची से ऊंची और मोटी से मोटी दीवार के घेरे को वह पार कर जायें. चोर का तो काम ही यही है कि मजबूत से मजबूत ताले को तोड़ने की कोशिश करता रहे. इसलिए हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम कैसे नित नयी-नयी तकनीक वाले मजबूत तालों का इस्तेमाल करते रहें. हमारी सैन्य-व्यवस्था में भी इसी नजरिये के मद्देनजर अपने हथियारों और सामरिक तकनीकों को अपडेट करते रहने की जरूरत है. फौजी ठिकानों में बहुत से ऐसे सुरक्षा सिस्टम हैं, जिनको लगे हुए दस-बारह साल हो गये हैं. ऐसे में इसकी बहुत संभावना है कि आतंकियों ने उन सुरक्षा सिस्टम के तोड़ निकाल लिये हों. इसलिए हमारी सैन्य-व्यवस्था का आधुनिक और तकनीक-संपन्न होना बहुत जरूरी है.
देखना होगा कि उड़ी के फौजी ठिकाने पर हमला करने के लिए आतंकियों ने एलओसी को कहां से पार किया? क्या वे नाले वगैरह के रास्ते आये? क्या वे रात के अंधेरे में उस जगह से घुसे, जहां सेना की कोई पेट्रोल बॉडी नहीं रही हो? क्या वे जंगल के रास्ते आये? ऐसे कई सवाल हैं, जिन्हें हमें समझना होगा. साथ ही सीमा क्षेत्र की भौगोलिक स्थितियों पर गौर करना होगा.
अमूमन फौजी ठिकानों पर सुरक्षा के इंतजाम होते हैं. कुछ क्षेत्रों में ये इंतजाम चाक-चौबंद होते हैं, तो कुछ ठिकानों पर सुरक्षा के कुछ कम इंतजाम होते हैं. घुसपैठिये अकसर ऐसे ही क्षेत्रों को अपने हमलों के लिए चुनते हैं. पिछले दो महीने के अंदर सीमा पर घुसपैठ की दर्जन भर वारदातें हुई हैं, जिन्हें हमारी सेना ने विफल कर दिया. घुसपैठ के इन दर्जन भर प्रयासों में किसी तरह से उन्होंने एक लूप होल तलाश लिया होगा और इस तरह से उड़ी हमला हो गया.
दूसरी बात यह है कि जब भी किसी फौजी ठिकाने पर हमला होता है, तो सेना के जवानों को चार-पांच मिनट तो यह समझने में निकल जाते हैं कि हमला कौन और किधर से कर रहा है. ऐसे में सेना को एक्शन लेने में थोड़ा वक्त लग जाता है, जिसका फायदा सीधे तौर पर घुसपैठियों को मिल जाता है. फिर भी, एलओसी पार कर दूसरे देश के फौजी ठिकाने पर हमला करने की सोचना, जहां काफी मजबूत पहरा होगा, तो मैं समझता हूं कि इसे रोकने के लिए तो हमें जरूरत से कहीं ज्यादा तैयारी करनी पड़ेगी. वह तैयारी आधुनिक साजो-सामान और बेहतरीन तकनीक से ही हो सकती है.
बीते दस साल के दौरान यूपीए की सरकार में जब रक्षा मंत्री एके एंटनी थे, तब उन्होंने सेना की सैन्य साजो-सामान और हथियार-खरीद में सेंध लगायी थी. कहने का अर्थ है कि जिस स्तर का साजो-सामान सेना के पास होने चाहिए, भारतीय सेना के पास अब भी इसकी कमी है.
सुरक्षा-व्यवस्था तो है, लेकिन उस स्तर की नहीं है, जिस स्तर की सुरक्षा-व्यवस्था एक भारत जैसे देश की होनी चाहिए. जाहिर है, ऐसी व्यवस्था तो रातोंरात हो नहीं सकती कि उड़ी हमले के बाद अब हम जल्दी से वैसी व्यवस्था कर लेंगे. इसके लिए तो समय लगेगा.
मौजूदा सरकार के भी दो साल से ज्यादा हो गये हैं, लेकिन अब भी बहुत से ऐसे लूपहोल्स हैं, जिन्हें दूर करने को लेकर हमारी सैन्य नीतियां पाइपलाइन में हैं. दरअसल, बीते दस साल में सामरिक स्तर पर जो आधुनिकीकरण नहीं हो पाया, वह सब अब किया जा रहा है. लेकिन, इसमें वक्त तो लगेगा ही और खर्च भी पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा आयेगा. कोशिशें तो की जा रही हैं, लेकिन वह
पर्याप्त नहीं हैं.(बातचीत पर आधारित)
अब और चोट खाने की बजाय चोट देने की जरूरत
अशोक मेहता
मेजर जनरल (सेवानिवृत्त)
आतंकवाद से निपटने के लिए रास्ता बहुत ही लंबा है. हम एक ही रास्ते पर अटके हुए हैं. हम मार खाते हैं और पाकिस्तान हमें मार खिलाता रहता है. इसको रोकने के लिए हम कोई कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं. अगर हम रोक नहीं सकते, तो हमें कम-से कम जवाब तो देना चाहिए. अभी की यह कोई नयी बात नहीं है, यह 20 वर्षों से चली आ रही समस्या है. हमारी सरकारों ने 71 वर्षों की लड़ाई जीतने के बावजूद इस स्थिति में फौज को डाला हुआ है कि हम चोट खाते रहते हैं, लेकिन चोट नहीं मार सकते.
संक्षेप में हमें दो बातें करनी पड़ेंगी, यह कोई नयी बात नहीं बता रहा हूं, लेकिन अब मुझे लगता है कि आतंकवाद की लड़ाई बहुत लंबी है. हाल ही में मैं एंटी-टेरिरिज्म कॉन्फ्रेंस में भाग लेने इजरायल गया हुआ था. मेरा अनुभव यही बताता है कि आतंकवाद की लड़ाई 21वीं सदी की लड़ाई है. यह पूरी सदी चलेगी.
आतंकवाद का सहारा लेकर पाकिस्तान जैसे देश हमें नुकसान पहुंचाते रहेंगे. आज की हजार चोटें लाखों चोटों में तब्दील हो जायेंगी. इससे पहले हमें एक रास्ता खोजना होगा. पाकिस्तान जिस रास्ते से हमें चोट मार रहा है, हमें उसी भाषा में जवाब देना होगा, जिससे पाकिस्तान को समझ आये कि यदि वह हमारे जवानों पर हमले के लिए आतंकवादियों का सहारा लेगा, तो हम भी सबक सिखाने में पीछे नहीं रहेंगे. यह सब कैसे होगा, यहां बता पाना संभव नहीं है.
यदि हम पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर और पाकिस्तान में जवाबी कार्रवाई नहीं करेंगे, तो हम ऐसे धोखे खाते रहेंगे. उड़ी में जहां तक जवानों पर हमले की बात है, वहां हमारे जवान 70 सालों से दिन-रात तत्परता से लगे हैं, जब 24 घंटे जवान तैनात रहेंगे, तो रात में सिक्योरिटी गार्ड की कभी-न-कभी आंख बंद हो सकती और ऐसे में धोखे से हमला हो जाता है.
दरअसल, जो काम राजनीति और कूटनीति का है, वह सभी काम सरकार फौज से करवा रही है. फौज का काम ऐसी स्थिति पैदा करना है, जिससे राजनीतिक और कूटनीतिक हल हो सके. ऐसी स्थिति फौज ने कश्मीर में एक मर्तबा नहीं, बल्कि चार मर्तबा पैदा की है. लेकिन, हमारी राजनीतिक व कूटनीतिक इच्छाशक्ति कमजोर रही.
आज फिर से कश्मीर में गवर्नेंस की स्थिति बहुत ही खराब है. हालात जब बिगड़ चुके हैं, तो फौज को फिर से कहा गया कि अब हालात नियंत्रित करो. जाहिर है, मौजूदा हमले सेना की तैयारी और इंटेलिजेंस की कमी की वजह से नहीं हो रहे हैं, बल्कि ऐसी स्थिति पैदा होने में कूटनीतिक और राजनीतिक तैयारी की बड़ी कमी रही है.
समस्या का हल तो छोड़िए, बल्कि समस्या और बिगड़ती जा रही है. आगे इतनी बिगड़ेगी कि पाकिस्तान, जिसे आतंकवाद के लिए गोल्ड मेडल मिला हुआ है, ऐसी स्थितियों का फायदा उठायेगा.
ऐसी स्थिति से बचने के लिए सबसे पहले हमें अपने घर को ठीक करना होगा. कश्मीर के हालात सुधारने होंगे. इसके लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकार और नौकरशाही को अहम भूमिका निभानी है. हमें ऐसी स्थिति में होना चाहिए कि इन चुनौतियों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए सोचना न पड़े.
जहां तक अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को घेरने की बात है, इससे कुछ भी हासिल होनेवाला नहीं है. संयुक्त राष्ट्र में आप भाषण दोगे, वह भी देकर आ जायेंगे. जब हम 1971 की लड़ाई लड़ रहे थे, तो हमारे पास रूस का समर्थन था, ऐसे ही आज चीन पाकिस्तान का खुलेआम समर्थन कर रहा है.
संयुक्त राष्ट्र में कूटनीतिक स्तर पर बदनामी तो है, लेकिन पाकिस्तान उससे बहुत आगे जा चुका है. पाकिस्तान को कोई परवाह नहीं है. सभी कहते हैं- पाकिस्तान आतंकवाद का केंद्र है, ओसामा बिन लादेन को छुपा कर रखा हुआ है, आतंकवाद की फैक्ट्री है, क्या मिला. आप संयुक्त राष्ट्र स्तर पर काम कीजिये, लेकिन किसी ठोस हल निकलने की उम्मीद नहीं है. पाकिस्तान को जो देश समर्थन कर रहे हैं, वह अप्रत्यक्ष तौर पर आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं. चीन पाकिस्तान को समर्थन भारत के सामने समस्याएं खड़ी करने के लिए करता है. उसने पाकिस्तान को अपने गोद में ले रखा है. पाकिस्तान के जरिये भारत के लिए परेशानियां खड़ी कर रहा है. इससे भारत का अलग-अलग मोर्चों पर नुकसान हो रहा है.
इस समय, जल्दबाजी में कोई निर्णय करने के बजाय ठोस रणनीति पर काम करना होगा. रक्षा तैयारी कीजिये, इंटेलिजेंस को मजबूत कीजिये, अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को अलग-थलग कीजिए, लेकिन इन सबसे पहले जरूरी है कि पाकिस्तान को तमाचा मारिये और उसको ऐसी हरकतों के लिए सबक सिखाइये.
इसके लिए फौज को जवाबी हमले की छूट दे देनी चाहिए. जब हम चोट खाने के बजाय चोट देंगे, तभी हमारी फौजों का मनोबल ऊंचा होगा. उन 18 जवानों के मां-बाप के दुख को महसूस कीजिये. यह बहुत दुखद घड़ी है. यह पहली बार नहीं हो रहा है. इससे पहले पठानकोट, गुरदासपुर जैसे जख्म मिल चुके हैं. ऐसी चुनौतियों का हल निकालने के लिए हमें हर स्तर पर तैयार होना होगा.
(ब्रह्मानंद िमश्र से बातचीत पर आधारित)