उड़ी हमला : भावनाओं में बह कर कदम उठाने से बचना होगा

सैयद अता हसनैन लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) 1971 के दौर से यह स्पष्ट है कि कैसे इंदिरा गांधी ने बुद्धिमत्ता पूर्ण ढंग से भारत-सोवियत संधि पर हस्ताक्षर कर और कूटनीतिक अाक्रामकता से परिस्थितियों को अपने पक्ष में कर लिया था, जिसकी वजह से हम युद्ध जीतने में कामयाब रहे. पढ़िए तीसरी कड़ी. उड़ी सैन्य चौकी पर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 24, 2016 6:45 AM
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सैयद अता हसनैन
लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड)
1971 के दौर से यह स्पष्ट है कि कैसे इंदिरा गांधी ने बुद्धिमत्ता पूर्ण ढंग से भारत-सोवियत संधि पर हस्ताक्षर कर और कूटनीतिक अाक्रामकता से परिस्थितियों को अपने पक्ष में कर लिया था, जिसकी वजह से हम युद्ध जीतने में कामयाब रहे. पढ़िए तीसरी कड़ी.
उड़ी सैन्य चौकी पर पाकिस्तान द्वारा घात लगा कर किये गये हमले के बाद पिछले चार दिन से भारत ठोस कार्रवाई की संभावनाओं पर विचार कर रहा है. हमले में हमारे 18 जवान शहीद हो गये. विशेषज्ञों और सरकार के विचार-विमर्शों से मिल रहे अनुमानों पर गौर करना बेहद अहम है.
पहली बात तो यह कि हमें भावनाओं में बह कर कतई कोई फैसला नहीं करना है, क्योंकि इससे हमें कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि हम वही कर बैठेंगे, जो आतंकी समूह और पाकिस्तान चाहते हैं. दूसरी बात, हमें अपने स्पष्ट सामरिक लक्ष्यों के साथ खुद के द्वारा चुने गये समय और स्थान पर माकूल जवाब देना होगा, न कि किसी उकसाने पर. तीसरी बात, दोनों विकल्पों- राजनयिक स्तर पर यूएनजीए के जारी सत्र में पाकिस्तान को अलग-थलग करने और सैन्य विकल्पों के समुचित इस्तेमाल- पर एक साथ काम करना होगा. उक्त दोनों ही कदम भारत की रणनीति का हिस्सा होना चाहिए.
निश्चित तौर पर उक्त रणनीति बनाते समय कुछ मुद्दे सामने आयेंगे. क्या राजनयिक रूप से अक्रामक रुख अपनाये बिना पाकिस्तान को दंडित करने के लिए सैन्य कार्रवाई कर सकते हैं? आखिर 26 साल से जारी छद्म आतंकी युद्ध के बावजूद हमारी कूटनीति पाकिस्तान को अलग-थलग करने और प्रतिबंधों के घेरे में देखने में सफल क्यों नहीं हो पायी? इसके लिए हमें पाकिस्तान की बदनामी और सामरिक महत्व दोनों की व्याख्या करनी होगी. गौर करनेवाली बात यह है कि पाकिस्तानी जमीन दुनिया में एक महत्वपूर्ण सामरिक रीयल एस्टेट है.
यह पांच सभ्यताओं- भारतीय, चीनी, मध्य एशियाई, फारसी और अरबी- का संगम है. इन सभ्यताओं से जुड़े क्षेत्रों का पाकिस्तान के साथ सामरिक जुड़ाव है. बड़ी शक्तियों का अपना अलग ही हित है. भारत की सैन्य कार्रवाई इन शक्तियों के हितों को चोट पहुंचा सकती है. जैसे, चीन ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे’ से पाकिस्तान से जुड़ा हुआ है.
अफगानिस्तान का सहयोग स्वभाविक है. ईरान की तटस्थता पाकिस्तान को सामरिक पहलुओं पर गहराई तक प्रभावित करती है. इस पूरे खेल का अहम खिलाड़ी अमेरिका भी मजबूर है. वह अफगानिस्तान में अपने हितों के लिए पाकिस्तान की गारंटी पर निर्भर है. 15 वर्षों के प्रयास के बाद संघर्ष समाप्ति का लाभ अमेरिका को मिल रहा है, न कि तालिबान को. यहां रूस की राजनयिक भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. 1971 के दौर से यह स्पष्ट है कि कैसे इंदिरा गांधी ने बुद्धिमत्ता पूर्ण ढंग से भारत-सोवियत संधि पर हस्ताक्षर कर और कूटनीतिक अाक्रामकता से परिस्थितियों को अपने पक्ष में कर लिया था, जिसकी वजह से हम युद्ध जीतने में कामयाब रहे.
दुनिया के विभिन्न संघर्षरत क्षेत्रों में छद्म युद्ध (हैब्रिड वारफेयर) एक दिन की खुशफहमी दे सकता है, जो पाकिस्तान हमारे साथ कर रहा है, वह इसका सबसे अच्छा उदाहरण है. हमें कदम उठाने से पहले सभी पहलुओं पर विचार करना होगा, जिससें हमें ही सहूलियत मिलेगी और इसके लिए कूटनीति का खेल सबसे अहम है.
इसका कोई ठोस जवाब हमारे पास नहीं है कि आखिर हम 26 सालों में क्यों अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा पाकिस्तान पर धूर्त देश का लेबल लगवा पाने में सफल नहीं हुए. शायद हमने इसे बहुत हल्के में लिया या हमारा प्रयास गलत मंचों पर केंद्रित रहा. ऐसे समय में हमारे सामने भूल सुधारने का अच्छा मौका है, जब बड़े देश बढ़ते आतंकवाद, अवैध कारोबार और नशीले पदार्थों को तस्करी के खिलाफ खड़े हैं. साथ ही सैन्य व नाभिकीय हथियारों के खतरे को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा इस पर झटका दिया जाना चाहिए.
यह माना जाता है कि कूटनीतिक विकल्पों का इस्तेमाल करने के साथ-साथ मजबूत सैन्य कार्रवाई का मतलब पाकिस्तान के जाल में फंसना हो सकता है, जिसका मकसद ही जम्मू-कश्मीर के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करना है. इसके दो अलग-अलग आयाम हैं. कश्मीर से जुड़ी सीमा के अंतरराष्ट्रीयकरण का मसला निश्चित ही भारत के पक्ष में नहीं है, यह शिमला समझौते के खिलाफ होगा. जबकि सीमापार आतंकवाद और छद्मयुद्ध, ऐसा मसला है जिसके अंतरराष्ट्रीयकरण से पाकिस्तान को घेरा जा सकता है.
जन उत्तेजना और सैन्य कार्रवाई का विकल्प संवेदनशील मुद्दा है. आम जनता अर्थव्यवस्था पर पड़नेवाले बुरे प्रभावों और नाभिकीय हथियारों को नहीं समझ सकती है. ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि अब आकस्मिक योजनाओं पर काम चल रहा है. एक बार सही दिशा पकड़ लेने पर स्थितियां हमारे पक्ष में होंगी. योजनाओं पर पहले से ही काम पूरा हो जाना चाहिए और वार्षिक युद्ध के लिए अपडेट होते रहना चाहिए.
ऑपरेशन स्तर पर किसी प्रकार का संशय नहीं होना चाहिए. सामरिक स्तर पर कम ऊर्जा दिखती है, राष्ट्रीय स्तर पर युद्ध रणनीति में राजनीतिक, कूटनीतिक, सैन्य और नौकरशाही की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. सूचना और संचार क्षेत्र हमारे योजनाओं में सबसे कमजोर कड़ी हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उठाया गया बलूचिस्तान का मुद्दा और जी-20 और आसियान सम्मेलन में जोरदार ढंग से उठाया गया अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का मुद्दा कम्युनिकेशन स्तर पर हाल के वर्षों किसी भारतीय नेता द्वारा किया गया पहला और बेहद महत्वपूर्ण प्रयास है. विवेकपूर्ण और प्रभावी राष्ट्रीय रणनीति सैन्य विकल्प को दो तरफ से- राजनयिक स्तर पर और कार्रवाई के पहले व बाद में- बचाव करते हैं. आखिर में छोटे-मोटे छद्म हमलों के खिलाफ प्रतिक्रिया आमतौर पर व्यापक राष्ट्रीय शक्ति की आड़ में झूठ होता है. चूंकि, प्रतिक्रिया आशंकित है, ऐसे में राजनयिक और सैन्य शक्ति के साझा प्रयास से लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है.
(लेखक श्रीनगर स्थित 15 कॉर्प्स के पूर्व जीओसी (जनरल ऑफिसर कमांडिंग) हैं और उन्होंने उड़ी ब्रिगेड का नेतृत्व किया है.) (साभार: टाइम्स ऑफ इंडिया)
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