भारत विभाजन के सात दशक बाद भी इस विभाजन का उद्देश्य अधूरा है. माना गया था कि अपने लिये अलग राष्ट्र की इच्छा रखनेवाले मुसलमानों की मुराद पूरी हो जायेगी, तो आशंकाओं के धुंध छंट जाएंगे, दोनों देश शांति के साथ विकास के पथ पर अग्रसर होंगे. दोनों देशों के पहले सत्ता-प्रमुखों- पंडित जवाहर लाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना- की घोषित आकांक्षाएं यही थीं, लेकिन भारत-पाक संबंधों का इतिहास गवाह है कि हुआ ठीक इसके विपरीत. आजादी के बाद से ही पाकिस्तान भारत से बैर रखने लगा और कश्मीर पर कब्जा करने के इरादे से युद्ध के मैदान में भारत को ललकार कर कई बार मात खायी. जब उसे आभास हो गया कि सीधे युद्ध में भारत को पराजित करना या कश्मीर पर कब्जा करना संभव नहीं है, तब आतंकवाद को पाल-पोस कर छद्म युद्ध की राह पर चल पड़ा. एक ओर पाकिस्तान का भारत से बैर आजादी के बाद से आज तक निरंतर जारी है. दूसरी ओर, भारत में सरकारों के बदलने के साथ-साथ नीतियों में उतार-चढ़ाव आता रहा. पाकिस्तान के साथ दोस्ती के मकसद से नये-नये प्रयोग हुए, उदारता दिखाते हुए कई एकतरफा समझौते किये गये. लेकिन, आज स्वतंत्र भारत की तीसरी पीढ़ी भी पाकिस्तान के साथ संबंधों को सामान्य करने की चुनौतियों से जूझ रही है. इतिहास में ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं कि दो राष्ट्र आम जनजीवन में गहन और विस्तृत समानताओं के बावजूद आपसी संघर्ष की स्थिति में ठहर से गये हों. ऐसे में उड़ी हमले के बाद पसरे तनाव और गम के पल में पिछले सत्तर सालों के कूटनीतिक प्रयासों की विफलताओं पर भी गौर करना मौजूं होगा…
हमारी कूटनीति को सफल नहीं होने देगा पाकिस्तान
सबसे पहली बात तो यह कि पाकिस्तान का गठन ही सबसे बड़ी कूटनीतिक गलती थी. यह गठन हमारे हाथ में नहीं था, बल्कि अंगरेज करके गये थे. पाकिस्तान का गठन औपनिवेशिक सत्ता का एक बड़ा षड्यंत्र था. पाकिस्तान एक स्वाभाविक (नेचुरल) देश नहीं है. भारत की जमीन पर सीमा खींच कर उसे बनाया गया है. इस तरह से कोई देश बनता नहीं है. कोई भी स्वाभाविक देश सैकड़ों-हजारों सालों की अपनी भौगोलिक और राजनीतिक अस्मिताओं को सजाते-संवारते हुए एक संप्रभु राष्ट्र की शक्ल लेता है. एक स्वाभाविक देश की हजारों बरसों की अपनी एक सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान होती है. लेकिन, पाकिस्तान की बुनियाद ही एक कूटनीतिक गलती से पड़ी है, जिसे अंगरेजों ने धर्म के नाम पर बांट कर भारत से अलग कर दिया था. पाकिस्तान बनने के मूल में नफरत थी, जो खत्म होने के बजाय और बढ़ती ही गयी और आखिर में वह अब एक दहशतगर्दी फैलानेवाले देश की शक्ल में हमारे सामने है.
भारत के ऐतबार से देखें तो पाकिस्तान का बनना ही एक कूटनीतिक गलती थी. इसीलिए भारत-पाक के आपसी मसलों को हल करने के लिए भारत जो भी कूटनीतिक रास्ता अपनाता रहा, वह सब फेल होते चले गये. अब तो यह कहना उचित होगा कि पाकिस्तान के साथ संबंधों की विडंबना यह है कि भारत की कोई भी अच्छी कूटनीति सफल नहीं हो सकती, क्योंकि पाकिस्तान इसे होने नहीं देगा.
दरअसल, पाकिस्तान के पास एक ठोस मुद्दा है- भारत के खिलाफ नफरत रखना और यह दिखाना कि एक दिन वह कश्मीर को भारत से छीन लेगा. इस मुद्दे पर ही पूरा पाकिस्तान एकजुट होता है. हमेशा से पाकिस्तान का यही लक्ष्य रहा है, जिसे वह अपनी कूटनीतिक चालों के जरिये साधने की कोशिश करता रहता है. पाकिस्तान पहले यह सोचता था कि वह युद्ध करके भारत से जीत जायेगा और इसलिए उसने 1965 और 1971 के युद्ध लड़े, लेकिन वह दोनों युद्ध हार गया और 1971 में तो बांग्लादेश के रूप में वह दो टुकड़े भी हो गया. यहां पाकिस्तान से बांग्लादेश का अलग होना भारत के लिए बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत मानी जा सकती है.
हर प्रधानमंत्री की सोच के हिसाब से नीति मे कुछ बदलाव भी आते रहे
हर प्रधानमंत्री की विदेश नीति में अपनी कूटनीति होती है, लेकिन इसमें दो बातें हैं- निरंतरता और बदलाव. पाकिस्तान को लेकर जो विदेश नीति नेहरू के समय में थी, वही आज भी है, बस इसमें थोड़ा-थोड़ा बदलाव आता रहा. बदलाव समय के हिसाब से जरूरी था. पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक स्तर पर बातचीत की निरंतरता जारी तो रही, लेकिन हर प्रधानमंत्री की अपनी सोच के हिसाब से कुछ बदलाव भी आते रहे. जैसे अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर डिक्लरेशन किया और उसके बाद लगा कि भारत-पाक के मसले पर बहुत से मसले हल हो जायेंगे, लेकिन हुआ कुछ नहीं. इसलिए इसे कूटनीतिक गलती कही गयी.
इसी तरह से गुजराल डॉक्ट्रिन में भी सभी पड़ोसी देशों के साथ बातचीत और सहयोग की नीति अपनायी गयी, लेकिन वह डॉक्ट्रिन सफल नहीं हो पायी, जिसके चलते गुजराल की काफी आलोचना भी हुई. इसलिए इसे भी कूटनीतिक गलती कही गयी. यहां तक कि पाकिस्तान के गठन के समय नेहरू ने कहा था कि दोनों देशों में दोस्ताना रिश्ते रहेंगे, कोई वीजा-पासपोर्ट नहीं लगेगा. लेकिन, ऐसा नहीं हो पाया और नेहरू की यह सोच असफल हो गयी. अब आप चाहें तो इसे भी नेहरू की कूटनीतिक गलती मान सकते हैं. नरेंद्र मोदी जी ने भी प्रधानमंत्री बनते ही पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की पिछले दो साल में बहुत कोशिशें कीं. लेकिन, पाकिस्तान ने हमें पठानकोट, ताजपुर और उड़ी जैसे हमले दिये. कश्मीर की हालत अब और भी खराब हो गयी है. हो सकता है कि इसे भी लोग मोदी जी की कूटनीतिक गलती मान लें कि उन्होंने पाकिस्तान जाकर उससे रिश्ते सुधारने का असफल प्रयास किया.
कहने का अर्थ है कि कोई भी प्रधानमंत्री अपने स्तर पर कूटनीतिक गलती नहीं करता, हां जब वह कूटनीति सफल नहीं होती, तब उसे कूटनीतिक गलती करार दे दिया जाता है. पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की कूटनीति बार-बार विफल होने का बड़ा कारण यह है कि पाकिस्तान की सेना वहां की सरकार चलाती है और उसके साथ हैं मौलवी-मुल्ला. पाकिस्तान की नागरिक सरकार के हाथ में बहुत कुछ है नहीं. पाक जनता भले भारत से अच्छे रिश्ते रखना चाहे, लेकिन पाक सेना और उसकी शह वाले दहशतगर्द भारत-पाक रिश्तों के लिए हमेशा अड़चन बने रहेंगे.
कमर आगा
रक्षा एवं विदेश
मामलों के विशेषज्ञ
राजनीतिक चूकों का खामियाजा
पड़ोसी देशों से संबंध बेहतर करने और दक्षिण एशिया में स्थायी शांति बहाल करने की दिशा में पूर्व प्रधानमंत्री आइके गुजराल का प्रसिद्ध सिद्धांत ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ चाहे जितना महत्वपूर्ण कदम रहा हो, पर पाकिस्तान के खिलाफ भारत की खुफिया एजेंसी रॉ की गतिविधियों पर अंकुश लगाने के उनके निर्णय को लेकर सवाल उठाये जाते रहे हैं. पूर्व रॉ अधिकारी आरके यादव ने मीडिया के साथ साझा किये गये अपने संस्मरणों में बताया है कि गुजराल ने न सिर्फ पाकिस्तान में रॉ की गतिविधियों को बंद कर दिया, बल्कि भारत के अंदर पाकिस्तानी जासूसी नेटवर्क पर नजर रख रही आइबी के काम को भी सीमित कर दिया गया. उनका मानना है कि 11 महीनों के अपने कार्यकाल में गुजराल ने अपने शांति प्रयासों को आगे बढ़ाने के क्रम में पाकिस्तान में बने रॉ के नेटवर्क को पूरी तरह समाप्त कर दिया. यादव के मुताबिक, रॉ की गतिविधियों पर अंकुश लगाने के गुजराल के निर्णय के कुछ महीनों बाद रॉ के नेटवर्क ने ही यह जानकारी भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को दी थी कि पांच आतंकवादी पंजाब के जालंधर में गुजराल के काफिले पर हमला कर सकते हैं. भारत में आइबी के काम में स्थानीय राजनेताओं के दखल के नुकसान की चर्चा भी यादव करते रहे हैं.
एक अन्य दिलचस्प वाकया का जिक्र करते हुए यादव ने बताया है कि एक अन्य पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक जनरल जियाउल हक से फोन पर बात करते हुए कह दिया था कि भारत को पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम की जानकारी है. इसके बाद जिया के आदेश पर पाकिस्तान में रॉ के नेटवर्क को खत्म करने की मुहिम चलायी गयी थी, जिसे गुजराल के कार्यकाल में लिये गये निर्णयों ने अंजाम तक पहुंचा दिया था.
विवादों का सिलसिला
साल 1947 ने जहां एक ओर सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में आजादी के सुखद सवेरे का अहसास कराया था, वहीं बंटवारे का कभी न भरनेवाला जख्म भी दे दिया. बंटवारे के कुछ ही महीनों बाद भारत और पाकिस्तान की सेनाएं आमने-सामने आ गयी थीं, कारण था- कश्मीर को हथियाने का पाकिस्तान का धूर्त प्लान. कश्मीर को हासिल करने के मकसद से पाकिस्तान चार बार भारत के सामने दम भरता नजर आया, लेकिन हर बार मुंह की खाने के बाद भी अपनी छद्म हरकतों से बाज नहीं आ रहा है. पिछले 70 वर्षों के कुछ बड़े विवादों पर एक नजर…
1947 : विभाजन और स्वतंत्रता
अंगरेजों ने हिंदू बहुल पंथनिरपेक्ष भारत और मुसलिम राष्ट्र पाकिस्तान के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप को विभाजित कर दिया. इससे उपजे दंगे और विस्थापन से लाखों लोगों की हत्या हुई और लाखों बेघर हो गये. बंटवारे के कुछ दिनों बाद जम्मू-कश्मीर ने भारत का हिस्सा होना स्वीकार किया, लेकिन पाकिस्तान धर्म के नाम पर कश्मीर पर दावा करता रहा, जो दक्षिण एशिया में अशांति का बड़ा कारण बना.
1947-48 का पहला युद्ध
आजादी के चंद दिनों बाद ही कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा भेजे गये मुसलिम चरमपंथियों के हमले की वजह से अक्तूबर, 1947 में भारत को महाराजा के बचाव में आना पड़ा. महाराजा ने तय शर्तों के आधार पर भारत में शामिल होना स्वीकार किया. संयुक्त राष्ट्र द्वारा युद्ध विराम रेखा (सीजफायर लाइन) तय कर दिये जाने के बाद 1 जनवरी, 1949 को युद्ध समाप्त हो गया. पाकिस्तान इसके कुछ महीनों बाद ही छद्म हमलों का सहारा लेना शुरू कर दिया.
1965 का युद्ध
अप्रैल, 1965 में गुजरात के कच्छ के रण के पास सीमा गश्ती दलों के बीच विवाद पैदा हो गया. अगस्त माह में स्थानीय कश्मीरियों के वेश में 26 हजार पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा में घुस गये. दोनों देशों के बीच युद्ध छिड़ गया और भारतीय सेना लाहौर स्थित अंतरराष्ट्रीय सीमा तक पहुंच गयी. कई दिनों तक चले युद्ध के बाद 22 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र की दखल के बाद युद्ध समाप्ति की घोषणा कर दी गयी.
1971 का युद्ध
पूर्वी पाकिस्तान के मुद्दे पर तीसरी बाद दोनों देश फिर युद्ध के मैदान में आमने-सामने थे. पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच उभरे मतभेद से गृहयुद्ध की स्थिति बन गयी थी. ढाका में पाकिस्तानी सेना की ज्यादतियों के खिलाफ भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी. इस युद्ध के परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश के रूप में नया राष्ट्र बना. 1972 में शिमला समझौता शांति बहाली के दिशा में एक सराहनीय प्रयास माना गया.
1989 : कश्मीर में चरमपंथी उभार
कश्मीर घाटी में 1989 में कुछ इसलामिक चरमपंथी गुटों ने आजादी की मांग को लेकर और कुछ गुटों ने पाकिस्तान में शामिल होने को लेकर विद्रोह कर दिया. इन विद्रोही गुटों को उकसाने और हथियार मुहैया कराने में पाकिस्तान की बड़ी भूमिका थी.
À 1999 का कारगिल युद्ध
तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर समझौता करके संबंधों को सुधारने की दिशा में ठोस प्रयास कर रहे थे, लेकिन कारगिल में छद्म पाकिस्तानों के हमलों के बाद परिस्थितियां एकदम उलट गयीं. परमाणु शक्ति संपन्न होने के बाद दोनों देशों के बीच यह पहला युद्ध था. इसी साल के अंत में पाकिस्तान में जनरल परवेज मुशर्रफ तख्तापलट कर सत्ता पर काबिज हो गये थे.
कुछ प्रमुख समझौते
जिन्ना- माउंटबेटन वार्ता (1947) : पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना और भारत के गवर्नर जनरल लुइस माउंटबेटन के बीच कश्मीर मसले पर नवंबर, 1947 में वार्ता.
कराची समझौता (1949) : दोनों देशों के सैन्य नेतृत्व के बीच 27 जुलाई, 1949 को सीजफायर समझौता.
लियाकत-नेहरू समझौता (1950) : लियाकत-नेहरू पैक्ट या दिल्ली पैक्ट के तहत दोनों देशों के बीच शरणार्थी, संपत्ति, अल्पसंख्यकों के अधिकार के मुद्दों पर समझौता.
सिंधु जल-संधि (1960) : सिंधु और उसकी अन्य सहायक नदियों के जल बंटवारों को लेकर 19 सितंबर, 1960 को समझौता.
ताशकंद समझौता (1966) : 1965 में भारत-पाक युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच 10 जनवरी, 1966 को शांति समझौता.
शिमला समझौता (1972) : 1971 में हुए बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के बाद विवादों खत्म करने के लिए शिमला में 2 जुलाई, 1972 को दोनों देश सहमत हो गये थे.
दिल्ली समझौता (1973) : 28 अगस्त, 1973 को हुआ यह तीन देशों भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच समझौता था.
इसलामाबाद समझौता (1988) : नॉन-न्यूक्लियर एग्रीमेंट के नाम से भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के बीच 21 दिसंबर, 1988 को समझौता हुआ था.
मौलाना आजाद को था पाक की हरकतों का पूर्वाभास
पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित कई देशों में भारत की नुमाइंदगी करनेवाले अनुभवी राजनयिक जेएन दीक्षित (1936-2005) ने अपनी किताब ‘भारत-पाक संबंध : युद्ध और शांति में’ में आजादी के बाद से कारगिल युद्ध तक के घटनाक्रमों और कूटनीतिक फैसलों का विश्लेषण किया है. उनकी किताब के कुछ अंश हम यहां साभार प्रस्तुत कर रहे हैं.
भविष्य का अनुमान लगानेवाले एकमात्र राजनेता थे 1947 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष और भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद. उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि पाकिस्तान का निर्माण भारत के मुसलमानों को नुकसान पहुंचायेगा और सीमा के दोनों ओर उनकी इसलामी पहचान के बारे में संकट उत्पन्न करेगा. उन्हें पूर्वाभास हो गया था कि जातीय-भाषायी और कट्टरवादी शक्तियां भारत और पाकिस्तान, खासकर पाकिस्तान को प्रभावित करेंगी. उनकी स्पष्ट धारणा थी कि भारत एवं पाकिस्तान एक दीर्घकालीन शत्रुतापूर्ण संबंधों के रास्ते पर चलेंगे.
भारत को विखंडित करना ही पाकिस्तान का लक्ष्य
ब्रिटेन द्वारा भारत के विभाजन का उद्देश्य यह था कि हिंदू क्षेत्रों को छोटे-छोटे राजनीतिक भूभागों में विखंडित कर दिया जाये और उपमहाद्वीप में सबसे बड़ी व सुसंगत राजनीतिक शक्ति के रूप में पाकिस्तान का उद्भव हो. पाकिस्तान का आखिरी लक्ष्य भारत को विखंडित करना है. सन् 1948 में कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ और क्रमिक युद्ध इसी प्रयास का हिस्सा हैं. कारगिल युद्ध और जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध इसी प्रयास के ताजा उदाहरण हैं.
भारत निर्णायक और सख्त नहीं रहा है
पाकिस्तानी गतिविधियों का विरोध करने में भारत निर्णायक और सख्त नहीं रहा है. भारत सभी बड़े युद्धों में पाकिस्तान को हराने के बावजूद पाकिस्तान के प्रति स्वैच्छिक रूप से उदार रहा है. दूसरी ओर, पाकिस्तान का दीर्घकालीन रणनीतिक उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत दक्षिण एशियाई क्षेत्र में सबसे प्रभावी ताकत के रूप में न उभरे. पाकिस्तानी सत्ता व्यवस्था भारत में हिंदू बहुल आम समाज के प्रति शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण रखती है. पाकिस्तान ने बहुत से मुसलिम देशों, एशियाई और पश्चिमी शक्तियों का समर्थन हासिल कर लिया है, ताकि भारत को सुरक्षात्मक रुख अपनाने पर विवश कर सके. भारतीय धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थानों पर पाकिस्तान का बार-बार सवाल उठाना भारत में मतभेद पैदा करने का समझा-बूझा प्रयास है. जम्मू-कश्मीर, पंजाब और भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में अलगाववादी तथा विध्वंसक शक्तियों को पाकिस्तान का सहयोग भारत की इस धारणा की पुष्टि करता है.
परिणाम की उम्मीद नहीं, फिर भी आगरा में बात
आगरा शिखर वार्ता मध्य जुलाई 2001 में हुई और अनिर्णित रही. अनुमान यह था कि भारत और पाकिस्तान के बीच के संबंध आगरा की विफलता के फलस्वरूप उत्पन्न विकट परिस्थितियों पर केंद्रित रहेंगे. आगरा वार्ता से पहले भी भारतीय राजनेताओं से बातचीत में मैंने यही महसूस किया. मुझे सम्मेलन से पहले प्रधानमंत्री वाजपेयी, विपक्ष की नेता सोनिया गांधी और विदेश मंत्री जसवंत सिंह से बात करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. मैं प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा दिये भोज के दौरान पाकिस्तान के विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार और खुद मुशर्रफ से भी मिला. इन वरिष्ठ राजनेताओं की सार्वजनिक मुद्रा जो भी रही हो, वे आगरा में नाटकीय परिणामों की अपेक्षा नहीं कर रहे थे. उनका यह मानना था कि बातचीत को बरकरार रखना एक कठिन प्रक्रिया होगी, जिस पर दोनों देशों की सरकारों को अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए. ये पूर्वानुमान 11 सितंबर, 2001 के आतंकवादी हमले के बाद नाटकीय तरीके से बदल गये. दो माह बाद भारतीय संसद पर हमले के बाद भारत-पाकिस्तान तनाव चरम सीमा पर पहुंच गया.
कांधार विमान कांड के बाद मनन नहीं
कांधार विमान अपहरण समाप्त होने के बाद जन-प्रतिक्रिया को देखते हुए भारत को इस बात पर मनन करना चाहिए था कि उसने विमान अपहरण के मामले पर कैसा रवैया अपनाया. लोगों के एक वर्ग और मीडिया ने इस बात पर बल दिया कि अपहरणकर्ताओं के आगे झुकने से भारत की छवि खराब हुई है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदि कुछ संगठनों ने यहां तक कहा कि भारत ने कायरोंवाला तरीका अपनाया. कुछ अन्य का विचार था कि भारत ने नरम देश की अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि को और मजबूत कर लिया है. तो क्या कांधार में विमान के उतरने के बाद कोई अन्य विकल्प भी आजमाया जा सकता था?
पोखरण से पाक को सैन्य शक्ति बढ़ाने में मदद मिली
सन् 1974 व 1975 में भारत-पाक संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली दो घटनाएं हुई थीं- 18 मई, 1974 को पोखरण में भारत का सफल भूमिगत परमाणु परीक्षण और 15 अगस्त, 1975 को मुजीब की हत्या. पोखरण परीक्षण ने भुट्टो को भारत के खिलाफ पाकिस्तानी जनमत तैयार करने का मुद्दा प्रदान किया. इसने भुट्टो को अमेरिका व चीन के सहयोग से पाकिस्तान की सैन्य शक्ति बढ़ाने में मदद की, क्योंकि ये देश भारत के परमाणु संपन्न होने की आशंकाओं के मद्देनजर पाकिस्तान की सहायता के लिए तैयार थे. उन्होंने संकल्प किया कि पाकिस्तानी एक परमाणु अस्त्र बनायेंगे, चाहे उन्हें घास खाकर क्यों न रहना पड़े.
उसके बाद हुए सैन्य विद्रोहों और प्रतिरोधी विद्रोहों का अंत स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल रहे समूचे बांग्लादेशी नेतृत्व के खात्मे के साथ हुआ और इसने पाकिस्तान को बांग्लादेश के साथ एक अंतर्संबंध स्थापित करने में मदद की. मुजीब की हत्या के छह वर्षों के अंदर बांग्लादेश की सत्ता पाकिस्तान के समर्थक और चरमवादी इसलामी प्रवृत्तियोंवाले लोगों के हाथ में
चली गयी.
शिमला समझौते के बाद विवाद और शत्रुता के नये दौर की नींव
सन् 1974 और 1977 के बीच की अवधि, जब भुट्टो के हाथ से सत्ता निकलने वाली थी, भारत-पाक संबंधों में एक संक्रमण की अवधि थी , जिससे शत्रुता और तनाव में बढ़ोत्तरी हुई. युद्धबंदियों को रिहा करवाने और भारत के कब्जे से अपनी भूमि छुड़ाने के उद्देश्य को प्राप्त करने के बाद भुट्टो शिमला समझौते में निहित कुछ प्रतिबद्धताओं से विचलित होने लगे थे. शिमला समझौते के केवल दो माह बाद 7 सितंबर, 1972 को बोलते हुए शिक्षा मंत्री पीरजादा ने कहा, ‘राष्ट्रपति ने स्पष्ट रूप से कहा था कि शिमला समझौते के अंदर संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों की वापसी के बारे में पाकिस्तान कटिबद्ध नहीं था.’ संयुक्त राष्ट्र को अपने पर्यवेक्षक वापस बुलाने के लिए कहने का कोई इरादा सरकार का नहीं था. (द न्यू पाकिस्तान – लेखक – सतीश कुमार, 1978, पृष्ठ 243).
यदि भारत-पाक संबंधों की प्रवृत्ति के गुण-दोषों का आकलन किया जाय तो स्पष्ट होगा कि भारत के दृष्टिकोण से वर्तमान विवाद और शत्रुता की नींव उसी अवधि के दौरान रखी गयी. शिमला वार्ता के दौरान किये गये अपने वादों के बावजूद भुट्टो ने जम्मू एवं कश्मीर पर अपने दावों को फिर से दृढ़ करते हुए संबंधों के सामान्यीकरण में इस मुख्य बाधा (जम्मू एवं कश्मीर के मुद्दे) को पुनर्जीवित किया. उन्होंने लरकाना तक डॉ. अब्दुल कादिर की गुप्त यात्रा के साथ पाकिस्तान को परमाणु अस्त्र से संपन्न राष्ट्र बनाने के उद्देश्य से परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत की. ओआइसी (ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इसलामिक कोऑपरेशन) को भारत के खिलाफ पाकिस्तान की नीतियों के एक साधन के रूप में प्रयुक्त करने की शुरुआत सन् 1974 के लाहौर शिखर सम्मेलन से हुई. हालांकि लोग पाकिस्तानी शासन व्यवस्था के इसलामीकरण के लिए सामान्यत: जिया उल हक को दोषी ठहराते हैं, लेकिन यह प्रक्रिया भुट्टो ने अपने व्यक्तिगत जनवादी उद्देश्यों के कारण शुरू की, जिनका नकारात्मक प्रभाव भारत के साथ संबंधों पर पड़ा. भुट्टो ने ही मनोयोगपूर्वक व उद्देश्यपूर्वक पाकिस्तानी सैन्य बलों की शक्ति को पुनर्निर्मित किया और सन् 1971 के अपमान का बदला लेने के लिए प्रेरित किया.
हमारे कदम इतने ठोस होते हैं कि उठ ही नहीं पाते!
उड़ी हमले ने एक बार फिर भारत-पाक संबंधों को नाजुक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है. भारत सरकार पर अत्यधिक दबाव है कि प्रतिक्रिया में कोई ठोस कदम उठाया जाये. लेकिन, इस देश की विडंबना यही है कि हमारे ठोस कदम इतने ठोस होते हैं, कि कभी उठ ही नहीं पाते. पाकिस्तान-नीति हमारी विदेश-नीति का सबसे अप्रिय और अस्थिर हिस्सा रहा है और पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधानमंत्री को इससे दो-चार होना पड़ा है. हाल में प्रधानमंत्री मोदी ने एक टीवी चैनल को दिये साक्षात्कार में कहा था कि समस्या यह है कि पाकिस्तान में यदि शांति प्रक्रिया के लिए बात की भी जाये भी तो किससे? चुनी हुई सरकार से, या सेना या फिर आइएसआइ से? इस मुश्किल को स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें भारत-पाक संबंध के इतिहास के कुछ पन्नों को खंगालना होगा. हमें यह भी याद करना होगा कि आखिर हमसे कहां-कहां चूक हुई, जिसकी वजह से यह समस्या जटिल होती चली गयी.
शुरुआती फैसले ही विवाद की जड़
नेहरू के आदर्शवाद ने हमें जख्म ही जख्म दिये. जब अक्तूबर 1947 में पाकिस्तानी कबायलियों ने कश्मीर पर हमला किया, उस वक्त ही सरदार पटेल ने सेना भेज कर मामला सुलझाने का सुझाव नेहरू को दिया था, लेकिन नेहरू ने उनकी बात नहीं मानी. वह इस मसले को लेकर संयुक्त राष्ट्र चले गये, जिसकी वजह से आज भी कश्मीर का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है.
1966 के ताशकंद समझौते पर राजनीति हावी
1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद जब 1966 के ताशकंद समझौते पर दस्तखत हुए, उसमें भी राजनीति राष्ट्रनीति पर हावी रही. समझौता करने की वजह से भारतीय सेना, जो अंतरराष्ट्रीय सीमा पर करके लाहौर तक पहुंच चुकी थी, उसे वापस उसी स्थान पर जाना पड़ा, जहां वह युद्ध के पहले खड़ी थी.
1971 में बड़प्पन में कर बैठे एक और भूल
1971 में जब भारत ने पाकिस्तान को युद्ध में हराया था, तब भारतीय सेनाएं लाहौर तक जा पहुंची थी. उस समय भी मौका था, जब हम 1947 और 1965 की भूल को सुधार सकते थे, लेकिन इंदिरा जी के ‘बड़प्पन’ के कारण हम यहां भी चूक गये और अपना कश्मीर लिये बिना ही 90,000 पाक युद्ध-बंधक सैनिकों को छोड़ दिया.
बहुचर्चित‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ के बाद कमजोर हुए गुप्त और सामरिक संसाधन
फिर बहुचर्चित ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ ने जिस प्रकार भारत के सभी गुप्त और सामरिक संसाधनों को कमजोर किया, जो आगे चल कर आत्मघाती ही साबित हुआ. उसका नतीजा यह मिला कि कई राज्यों में आतंकी हमले झेलने पड़े. पिछले 70 वर्षों में हर बार भारत की ओर से किये हर विश्वास बहाली के प्रयास का पाकिस्तान ने हिंसा के रूप से उत्तर दिया है. हर बार उसने छल से भारत की पीठ में छुरा घोंपा है.
िवश्वास की कोशिशों पर िवश्वासघात
वर्ष 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी की ऐतिहासिक लाहौर यात्रा का जवाब पाक ने कारगिल युद्ध के रूप में दिया. मौजूदा सरकार बनने के बाद गत वर्ष मोदी अनियोजित पाक यात्रा गये, बदले में चंद दिनों बाद ही पाकिस्तानी शह पर पठानकोट एयरबेस पर फिदायीन हमला हो गया. अब उड़ी हमले के बाद लोगों में तीव्र आक्रोश है. दरअसल, पाकिस्तान-समर्थित और पोषित आतंकवाद और अलगाववाद ने 1990 से कश्मीर में एक खूनी जंग छेड़ रखी है, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान आम कश्मीरियों को झेलना पड़ा है. राज्य-प्रायोजित आतंकवाद पाकिस्तान की विदेश नीति का अभिन्न अंग है, जिसका प्रयोग वह अपने पड़ोसी मुल्कों- भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ छद्म युद्ध के रूप में करता है.
राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर न हो राजनीित
अब राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर कोई भी राजनीति न हो, यह हमारे राजनीतिक कुलीन वर्ग को सुनिश्चित करना होगा. सबको िमलकर सरकार और सेना का मनोबल बढ़ाना होगा, जिससे आतंक के इस खूनी खेल को सदा के लिए विराम दिया जा सके.
अम्बा शंकर वाजपेयी
रिसर्च स्कॉलर, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू