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ऐतिहासिक मोड़ पर मोदी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने ‘सिजर्कल ऑपरेशन’ के बाद चैन की सांस लेते हुए कहा, ‘हम सभी को जिसका इंतजार था वह हो गया!’ मैंने खुद से पूछा, ‘क्या हो गया?’ और यह भी कि ‘हमें किस बात का इंतजार था?’ रात के अंधेरे में पाकिस्तान की या पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर की […]

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने ‘सिजर्कल ऑपरेशन’ के बाद चैन की सांस लेते हुए कहा, ‘हम सभी को जिसका इंतजार था वह हो गया!’ मैंने खुद से पूछा, ‘क्या हो गया?’ और यह भी कि ‘हमें किस बात का इंतजार था?’ रात के अंधेरे में पाकिस्तान की या पाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर की सीमा में घुस जाने का हमें इंतजार था? क्या इस उपमहाद्वीप सरीखे महान देश को इंतजार इस बात का था कि उधर के दो-चार-दस लोगों को मार आएं? जिस सर्जिकल ऑपरेशन की इतनी चर्चा चल रही है, उसमें इससे अधिक या इससे अलग हमने किया क्या है?

अगर नियंत्रण रेखा के उस पार का कश्मीर हमारा है, जैसा कि कई मंत्री कह रहे हैं, तो मेरे जैसा आम हिंदुस्तानी पूछता है कि अपनी फौज को, अपनी सरकार के आदेश से, अपनी सीमा में घुसने के लिए रात के अंधेरे का सहारा लेना पड़ा और सुबह की किरण फूटने से पहले लौट भी आना पड़ा तो क्यों?

नैतिक बल हमारी सेना की असली ताकत

हम भूलें नहीं कि विभाजन के बाद अपने जिस हिस्से को हमने पाकिस्तान के नियंत्रण में मान कर छोड़ दिया, उसमें घुस कर हमने एक नहीं, तीन बड़े-बड़े युद्ध लड़े ही नहीं हैं, बल्कि हर युद्ध में उस पाकिस्तान को निर्णायक मात दी है. सारी दुनिया मानती है कि भारत के पास पाकिस्तान से कहीं ज्यादा सामरिक बल है. लेकिन, इतिहास जिस बल की परीक्षा लेता है और बार-बार लेता है, वह सिर्फ सामरिक बल नहीं है. मैं सामरिक बल के साथ खड़ा उस बल को न कमतर आंकता हूं और न किसी हाल में देश को भूलने देना चाहता हूं कि हमारे सैन्य बल की असली ताकत यह है कि उसके पास नैतिक बल भी है. बंदूक के पीछे, ट्रिगर पर अंगुली दबाये जो जवान बैठा होता है, वह सौ गुना बलशाली होता है, जब उसे पता होता है कि वह न्याय की, नैतिकता की और मानवीयता की लड़ाई लड़ रहा है. झूठ और मक्कारी से भरी अनैतिक लड़ाई में झोंक दिया गया हर पाकिस्तानी सैनिक भीतर से कितना खोखला और हतवीर्य होता है, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. अपने देश की इस नैतिक टेक को, जिसकी बात करना हम भूलते जा रहे हैं, कमजोर करना या पीछे डाल देना बहुत बड़ा अपराध होगा. इसलिए मोहन भागवत को जिसका इंतजार था और सारे मुल्क को जिसका इंतजार है, वे दोनों दो अलग-अलग चीजें हैं.

अंतिम उपाय के तौर पर गांधी भी युद्ध के पक्ष में

26 सितंबर, 1947 की तारीख थी. विभाजन का जहर हर कहीं घुल रहा था और चौतरफा जख्मों से रक्त रिस रहा था. नवजात पाकिस्तान अपनी जन्मजात शैतानियों में लगा था और हवा में युग की सनसनी थी. बूढ़े गांधी अपने अस्तित्व का सारा बल लगा कर देश की उस नैतिक शक्ति का क्षय रोकने में लगे थे, जिसकी अनदेखी का साफ खतरा सामने था. उस रोज की अपनी प्रार्थना सभा में अपनी कमजोर, लेकिन नि:संशय, आवाज में वे बोले- ‘मैंने उनसे कह दिया है कि अगर आप इस पक्के नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि पाकिस्तान सरकार की तरफ से न्यायप्रद बात हो ही नहीं सकती और वे किसी हाल में अपनी गलती नहीं मानेंगे, तब हमारा अपना मंत्रिमंडल है, जिसमें जवाहरलाल,
सरदार पटेल और दूसरे कई अच्छे लोग हैं. अगर ये सभी इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि वे पाकिस्तान सरकार को बेजा हरकतें करने से नहीं रोक सकते, तो अंतिम रास्ता यही बचता है कि वे युद्ध में उतरें!’

युद्ध से पहले सामनेवाले का विवेक जगाने के हरसंभव उपाय जरूरी
यह वह गांधी हैं, जिनकी बात न हम करते हैं, न समझते हैं! और देश में एक तबका ऐसा है, जो प्राणपन से इस कोशिश में लगा रहा है कि गांधी का यह स्वरूप न देश देख सके और न पहचान सके. गांधी न युद्ध से डरते हैं,नेयुद्ध से बचते हैं. वे अपनी सरकार से कहते हैं कि युद्ध से पहले सामनेवाले का विवेक जगाने के हरसंभव रास्ते की तलाश कर लेना अनिवार्य है. लेकिन, मुल्क युद्ध में उतरे- ऐसा कहते हुए गांधी
कितने ‘अगर’ की लक्ष्मण-रेखा खींचते हैं, यह हम क्षणभर को भी न भूलें. वह ‘अगर’ ही है, जो देश का मेरुदंड है. हमयुद्ध को अपनी चाहत की पहली और आखिरी मंजिल मानते हैं.

गांधी युद्ध को हमारे राजनीतिक नेतृत्व की विफलता से पैदा हुई अनिवार्यता की तरह कबूल करते हैं. वे यहां अहिंसा की बात ही नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वह प्रसंग यहां है ही नहीं. यहां तो वे उस सरकार से बात कर रहे हैं, जो फौज के बल पर निर्भर है और उसके सहारे पाकिस्तान (या दूसरे किसी भी मुल्क) को सबक सिखाना चाहती है. वे सरकार से पूछना चाहते हैं शायद कि अगर युद्ध ही एकमात्र रास्ता है, तो राजनीति और कूटनीति जैसे रास्तों का मतलब ही क्या रह जाता है? और फिर लोगों की चुनी हुई सरकार का भी क्या संदर्भ रह जाता है? युद्ध ही करना है, तो फौजी नेतृत्व नागरिक नेतृत्व से कहीं प्रभावी और परिणामकारी होता है. पाकिस्तान ने कबाइलियों की आड़ में जो पहला हमला हम पर किया था, उसका मुकाबला करने जाती फौज को महात्मा गांधी ने इसी भाव से आशीवार्द दिया था.

‘नेता’ युद्ध से ज्यादा युद्धोन्माद को पसंद करता है
युद्धसे भी ज्यादा खतरनाक होता है युद्धोन्माद! युद्ध बड़ी संजीदगी से लड़ा जाता है, जिसमें दिल और दिमाग का गजब का संतुलन जरूरी होता है. युद्धोन्माद में भीड़बाजी और उन्माद का जैसा कॉकटेल बनाया जाता है, वह विवेक को कहीं दफना देता है. इसलिए हर ‘नेता’ युद्ध से ज्यादा युद्धोन्माद को पसंद करता है, क्योंकि उन्माद की जहरीली हवा बहा कर वह हर तरह की पूछ-परख, जांच-जवाब और सही-गलत के विवेक को दबाव से मुक्त हो जाता है. हम गौर से देखें तो समझ पायेंगे कि युद्ध में उतरने का फैसला कोई एक व्यक्ति या नेता या देश नहीं लेता है. आज के जमाने में और युद्ध के आज के आधारभूत तत्वों की रोशनी में राष्ट्रीय परिस्थिति, देश के भीतर राजनीतिक समर्थन का आकलन, फौज की अपनी तैयारी व मन:स्थिति का ख्याल, जिस पर हमला करना है उसके यहां की परिस्थितियों का भी और अंतरराष्ट्रीय दबावों का आकलन, यह सब कुछ युद्धके किसी भी फैसले के पोछे छिपा होता है. पाकिस्तान हर युद्ध में पिटा है, तो इसलिए कि उसने ऐसा आकलन कभी नहीं किया और उन्माद जगा कर युद्ध छोड़ बैठा. हमारी संसद पर जब हमला हुआ, तबके प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहलीप्रतिक्रिया थी कि अगली सुबह आर-पार की लड़ाई में उतरना है. लेकिन, उन्होंने फिर सारी बातों का आकलन किया और फिर तब से आज तक कितनी ही सुबहें आयीं-गयीं, लड़ाई न आर गयी, न पार!

ऐसा ही आज भी है. कभी हर रैली, चौक-चौराहे की सभा में गरज-गरज कर तब की सरकार को ललकारने और पाकिस्तान को उसकी ही भाषा में जवाब देने का उन्माद जगानेवाले आज के प्रधानमंत्री को उन सारे मौकों पर गम खाकर रह जाना पड़ा, जब यहां-वहां आतंकी हमलों से उनका आमना-सामना हुआ. फिर पठानकोट का हमला हुआ, फिर उड़ी का हमला हुआ. इस बार 18 जवान शहीद हो गये. बात आपे से बाहर हो गयी. दूसरे तो दूसरे, भाजपा के भीतर से भी सवाल उठने लगे कि अब भी जवाब नहीं दिया तो फिर कब दोगे? निरुत्तर थी सरकार और निरुत्तर थी पार्टी! इंतजार के बाद प्रधानमंत्री प्रकट हुए केरल की सभा में. वे पूरी तैयारी से आये थे. उनकी चीखती आवाज बार-बार यही बता रही थी कि वे पाकिस्तान को रगड़ने का मौका खोज रहे हैं. वे जो भावोद्रेक जगा रहे थे, भीड़ उसे पहचान रही थी. युद्ध-युद्ध-युद्ध की मांग और उस आग में घी डालती नेता की मुद्रा! ‘एक दांतके बदले पूरा जबड़ा’ यह नारा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने राम माधव के द्वारा दिया. देशभक्ति का यह सबसे सस्ता सौदा है.

पाक को मात देने के लिए कौशलता से उठे कूटनीतिक कदम
हम यह न भूलें कि यह सब एक तरफ चल रहा था, तो दूसरी तरफ इससे भी एक बड़ा ‘युद्ध’ चल रहा था और वह था पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अलग-थलग करने का युद्ध! हमारे प्रधानमंत्री बड़ी कौशलता से गोटियां चल रहे थे और हर चाल के साथ पाकिस्तान किनारे होता जा रहा था. बड़े वक्त बाद ऐसा हो रहा था कि पाकिस्तान की आवाज भी बंद थी और वह निरुपाय दिख रहा था. स्थिति ऐसी बन गयी थी कि चीन ने उसे समर्थन दिया भी तो बड़ी बेजान आवाज में. पाकिस्तान के हुक्मरानों के चेहरे का रंग उड़ता जा रहा था. संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन को संबोधित करने आये नवाज अपनी शारीरिक भंगिमा और आवाज दोनों से ही किसी अपराधी सरीखे दिखाई व सुनाई दे रहे थे. फिर ‘सर्जिकल ऑपरेशन’ हुआ! फौजी जुबान में कहें तो यह फोड़े का ऑपरेशन करने जैसी कार्रवाई है. बीमारी का इलाज नहीं, बीमारीके कारण कहीं फोड़ा बना है, तो उसकी चीर-फाड़! इससे बीमारी का कोई नाता नहीं है. बीमारी का इलाज तो अलग से करना ही होगा. फौज को इस बात का श्रेय है कि उसे जो ऑपरेशन करने को कहा गया था, उसे उसने सबसे अच्छी तरह पूरा कर दिया.

अब पाकिस्तान को बातचीत के लिए लाचार करें

अब बीमारी का इलाज कौन करेगा? जैसे बीमार को ऑपरेशन टेबल पर ले जाना पड़ता है, वैसे ही दो देशों के बीचके विवाद को, युद्ध तक पहुंचे विवाद को भी, बातचीत के टेबल पर ले जाना पड़ता है. पाकिस्तान में इतना नैतिक खम नहीं है कि वह इसकी पहल भी करे. और यह भी सच है कि बातचीत तो दो रजामंदों के बीच ही संभव है. लेकिन रजामंदी भी दो तरह की होती है. एक वह जो आपकी स्वाभािवक नेकनीयति से निकलती है और दूसरी वह जो आपकी लाचारी में से पैदा होती है. पाकिस्तान ने जब शिमला समझौता किया था, तब वह लाचारी का समझौता था, नेकनीयति का नहीं. प्रधानमंत्री की कौशल कूटनीतिक चातुरी से आज पाकिस्तान फिर वैसी ही लाचार स्थिति में है. इस दबाव को और भी बढ़ाते हुए उसे बातचीत की मेज पर ला खड़ा करना है. यह काम युद्धोन्माद से नहीं होगा, बल्कि बिगड़ेगा. इसलिए संयम और अनुशासन के साथ हम अपनी सरकार के साथ खड़े रहें और पाकिस्तान को आमने-सामने की बातचीत के लिए लाचार करने के हर कदम का समथर्न करें. परिस्थितियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक ऐतहािसक मोड़ पर ला खड़ा किया है. यहां से वे किधर मुड़ते हैं, इस पर पूरी दुनिया की नजर है.

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