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कालेधन की घोषणा है माफी का ही दूसरा नाम

विश्लेषण : बड़ी मछलियां सामने नहीं आयीं या नगण्य हिस्से ही घोषित किये प्रो अरुण कुमार अर्थशास्त्री केंद्र सरकार ने इस वर्ष एक जून से 30 सितंबर तक आय घोषणा योजना (आइडीएस) चलायी़ इसके तहत हजारों लोगों ने स्वेच्छा से अपने काले धन की घोषणा की़ कितनी कारगर रही यह योजना, इस बारे में बता […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 14, 2016 12:55 AM
विश्लेषण : बड़ी मछलियां सामने नहीं आयीं या नगण्य हिस्से ही घोषित किये
प्रो अरुण कुमार
अर्थशास्त्री
केंद्र सरकार ने इस वर्ष एक जून से 30 सितंबर तक आय घोषणा योजना (आइडीएस) चलायी़ इसके तहत हजारों लोगों ने स्वेच्छा से अपने काले धन की घोषणा की़ कितनी कारगर रही यह योजना, इस बारे में बता रहे हैं जाने-माने अर्थशास्त्री और जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर
अरुण कुमार.
2016-17 के बजट में उल्लिखित आय घोषणा योजना (आइडीएस) 1 जून, 2016 से शुरू होकर गत 30 सितंबर तक चली. वित्त मंत्रालय ने बताया कि इसके अंतर्गत 64,275 लोगों ने कुल 62,250 करोड़ रुपयों का खुलासा किया, जो भारतीय कराधान के इतिहास में अब तक घोषित कालेधन की सबसे बड़ी राशि है.
अतः यह स्वाभाविक ही है कि सरकार इसे अपनी एक बड़ी सफलता के रूप में प्रचारित कर रही है, खासकर इसलिए भी कि पहले तीन महीनों में इसकी उपलब्धि दर बिल्कुल ही उत्साहजनक नहीं थी. यदि औसत की दृष्टि से देखें, तो यह प्रति खुलासा एक करोड़ रुपये ठहरता है, जो इस तथ्य के आलोक में निश्चित ही नीचा है कि लगभग रोज ही सैकड़ों करोड़ रुपयों की काली आय पकड़े जाने के समाचार आते रहते हैं.
इसलिए संभावना यह बनती है कि बड़ी मछलियां या तो सामने आयीं ही नहीं, या उन्होंने अपनी आय के केवल नगण्य हिस्से ही घोषित किये. यह भी रिपोर्ट आयी कि आयकर अधिकारियों ने अंतिम तीन सप्ताह में अपने क्षेत्राधिकार में लोगों पर इस हेतु दबाव बनाये कि वे इस योजना के अंतर्गत खुलासे करें. फिर, चूंकि काली आय अर्जित करनेवाले बहुत सारे लोग कोई कर नहीं देते, इसलिए वे आयकर के लिए अदृश्य रहते हुए ऐसे किसी दबाव से छूटे रहे.
इसके पूर्व, इस तरह की अंतिम योजना 1997 में स्वैच्छिक आय घोषणा योजना के नाम से लायी गयी थी, जिसके अंतर्गत 33,000 करोड़ रुपयों के खुलासे तथा 10,000 करोड़ रुपयों के कर संग्रहित किये गये थे. चालू वर्ष की योजना भी ‘स्वैच्छिक’ ही है, हालांकि इसे वैसा कहा नहीं गया. पिछली योजना के अंतर्गत कर की दर नीची रखे जाने की वजह से उसे माफी योजना के नाम से भी पुकारा गया, पर इस बार की योजना में चूंकि कर-दर खासी ऊंची थी, अतः इसे वैसा नहीं कहा गया. 1997 में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह वचन दिया था कि वह फिर वैसी कोई भी माफी योजना नहीं लायेगी, जिसकी वजह यह थी कि असल में ऐसी माफी योजनाएं ईमानदार करदाताओं के लिए अनुचित हैं, क्योंकि उनके फायदे उठा कर टैक्स चोरी करनेवाले अपनी पिछली आय के खुलासे करके रियायत हासिल कर लेते हैं.
मगर सच तो यह है कि आइडीएस भी एक माफी योजना ही है, क्योंकि इसके अंतर्गत वसूला जानेवाला जुर्माना उससे कम ही है, जितना यह योजना लागू करने के पहले लिया जाता था. जून 2016 के पूर्व यदि किसी व्यक्ति की आय काली मानी जाती, तो जुर्माने की राशि चुराये गये कर के 100 प्रतिशत से लेकर 300 प्रतिशत तक वसूली जाती थी. चूंकि कर की दर 30 प्रतिशत है, इसलिए उपर्युक्त जुर्माना चुरायी गयी आय के 30 प्रतिशत से लेकर 90 प्रतिशत तक ठहरता था, जबकि आइडीएस के अंतर्गत यह आय का सिर्फ 15 प्रतिशत ही है. इस अर्थ में यह योजना सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट को दिये गये वचन के विरुद्ध ही कही जायेगी.
1997 तथा 2016 की योजनाओं में तुलनात्मक दृष्टि से बाद की योजना कोई अच्छी नहीं कही जा सकती. लेखक के अनुमान के अनुसार, काली अर्थव्यवस्था का चालू आकार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 60 प्रतिशत है, जो वर्तमान कीमतों के हिसाब से 2016-17 में 90 लाख करोड़ रुपयों तक जा पहुंचता है. इस तरह, जो कुछ खुलासा किया गया है, वह इस वर्ष अर्जित काली कमाई का केवल 0.7 प्रतिशत ही है. इसकी तुलना में, पहली योजना के तहत उस वर्ष की काली आय के पांच प्रतिशत का खुलासा किया गया था.
प्रतिवर्ष की गयी काली कमाई के एक हिस्से का तो उपभोग हो जाता है, जबकि बाकी बचा लिया जाता है. एक अरसे में इकठ्ठा बचत का आकार वार्षिक आय से भी बढ़ जाता है.
धनाढ्यों के लिए कमाई की बचत भी ऊंची होती है, सो उनकी कुल जमा काली संपदा उनकी वार्षिक काली आय से कहीं अधिक हो जाती है. आंकड़े यह बयान करते हैं कि माफी अथवा घोषणा योजनाओं के अंतर्गत इस काली दौलत के सिर्फ एक मामूली हिस्से का ही खुलासा किया जाता है.
इस प्रकार, 2016 की इस योजना के अंतर्गत इस दौलत का केवल 0.2-0.3 फीसदी ही घोषित किया गया. पिछली योजना के अंदर किये गये खुलासों की तादाद चार लाख से भी ज्यादा थी, जबकि इस बार यह इसका केवल छठा हिस्सा ही रही. इस दरम्यान देश में व्यवसायों, पेशेवरों तथा भ्रष्ट अधिकारियों और राजनीतिज्ञों की संख्या बढ़ी ही है, जिस वजह से काली आय और दौलत की बड़ी रकमों की संख्या 1997 की संख्या से कहीं अधिक होनी चाहिए. यदि यह भी मान लिया जाये कि शिखर पर स्थित एक फीसदी आबादी ही बड़ी काली आय अर्जित करती है, फिर भी उसमें एक करोड़ तीस लाख लोग शामिल होने चाहिए.
सरकार ने यह साफ कर दिया है कि वह नियंत्रक एवं महा लेखापरीक्षक (कैग) सहित किसी भी एजेंसी को इस योजना के अंतर्गत संग्रहित आंकड़े नहीं देगी. यह एक विचित्र बात है, क्योंकि कैग एक वैधानिक निकाय है, जिसे सरकारी लेखा की परीक्षा करने की शक्ति दी गयी है. कैग ने ही 1997 की योजना की विभिन्न खामियां उजागर की थीं और उसे ये आंकड़े देने से कोई भी गोपनीयता भंग नहीं होती. खुलासा करनेवाले सोने की हालिया खरीदारी को भी 20 वर्षों पहले की खरीदारी बताते हुए अपनी 90 प्रतिशत काली संपत्ति सफेद कर ले सकते हैं. केवल एक स्वतंत्र लेखापरीक्षक द्वारा की गयी समीक्षा से ही ऐसे छल सामने आ सकते हैं.
आइडीएस के अंतर्गत घोषित आय अपेक्षा से कम होने की कई वजहें हो सकती हैं. यदि ऐसी धनराशि को उसकी पांच से दस प्रतिशत लागत पर ही विदेश भेज कर फिर वहां से देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रूप में सफेद किया जा सकता है, तो फिर उसके लिए आइडीएस के अंतर्गत 45 प्रतिशत का भुगतान कोई क्यों करे? इसके अलावा, जब सरकार ‘कारोबारी सुगमता’ बढ़ाने की अपनी नीति के तहत कारोबारियों के पीछे न पड़ने का वचन दे रही है, तो फिर उन पर पारदर्शी दिखने का दबाव भी नहीं रह जाता है. यदि किसी व्यक्ति द्वारा इकठ्ठा काली कमाई केवल एक छापे के द्वारा ही पकड़ी जा सकती है, तो वह उसकी स्वैच्छिक घोषणा तब तक नहीं करना चाहेगा, जब तक उसे अघोषित रखने की कीमत न चुकानी पड़े.
अंतिम तीन सप्ताहों में आइडीएस की सफलता से यह भी साफ होता है कि यदि आयकर विभाग दबाव डाले, तो काली कमाई उजागर हो सकती है. सच तो यह है कि सरकार काला धन तलाशने तथा कारोबार पर दबाव न डालने के बीच एक असमंजस में फंसी लगती है. आखिर यह दुविधा क्यों?
(अनुवाद : विजय नंदन)
(इंडियन एक्सप्रेस से साभार)

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