ब्रिक्स : सोने की ईंट या खड़ंजा?

अंतरराष्ट्रीय आर्थिक एवं वित्तीय संस्थाओं पर अमेरिकी-यूरोपीय एकाधिकार को चुनौती देने के प्रयोजन से 2006 में ब्राजील, रूस, भारत और चीन ने एक संगठन बनाया, 2010 में दक्षिण अफ्रीका के जुड़ने के बाद इसे ब्रिक्स पुकारा गया़ इस समूह का उद्देश्य एक वैकल्पिक वैश्विक आर्थिक संगठन की स्थापना और सदस्य देशों के आर्थिक विकास, आपसी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 20, 2016 6:46 AM

अंतरराष्ट्रीय आर्थिक एवं वित्तीय संस्थाओं पर अमेरिकी-यूरोपीय एकाधिकार को चुनौती देने के प्रयोजन से 2006 में ब्राजील, रूस, भारत और चीन ने एक संगठन बनाया, 2010 में दक्षिण अफ्रीका के जुड़ने के बाद इसे ब्रिक्स पुकारा गया़ इस समूह का उद्देश्य एक वैकल्पिक वैश्विक आर्थिक संगठन की स्थापना और सदस्य देशों के आर्थिक विकास, आपसी व्यापार को बढ़ावा देना था़ विश्व अर्थव्यवस्था के एक चौथाई और जनसंख्या के लगभग दो-तिहाई भाग का प्रतिनिधित्व करने वाले इन पांच देशों ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक पर अपनी निर्भरता घटाने के उद्देश्य से ब्रिक्स बैंक स्थापित किया़.

सदस्य देशों की भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विविधता से ऊपर उठ कर, ब्रिक्स बहुपक्षीय आर्थिक सहयोग को संस्थागत स्वरूप देने का एक अभिनव प्रयोग माना गया है़ अपनी स्थापना के बाद से सदस्य देशों के आर्थिक सहयोग और आपसी व्यापार में उत्तरोत्तर वृद्धि के बावजूद गोवा में ब्रिक्स का आठवां सम्मेलन, भारत के लिए एक जटिल प्रश्न पर समाप्त हुआ़ क्या ब्रिक्स, एक सोने की ईंट है या सिर्फ खड़ंजा है?

गोवा में ब्रिक्स के इस सम्मेलन के ठीक पहले कुछ महत्वपूर्ण सामरिक परिवर्तन देखे गये थे, भारत ने पहली बार पाकिस्तान की सीमा में किसी सैन्य कार्यवाही को अंजाम दिया, पाकिस्तान ने रूस के साथ साझा सैन्य प्रशिक्षण आयोजित किया, ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी पर चीन के बांध बनाने की पुष्टि हुई और संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने के भारत के प्रस्ताव को चीन ने निष्फल कर दिया़ इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में यह मानना कि ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान केवल आर्थिक उन्नति, सामूहिक समृद्धि और समावेशी सहयोग पर चर्चा हो, एक निरर्थक दलील है़

भारत ने पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर कूटनीतिक दबाव बनाने के अभियान के अंतर्गत ब्रिक्स सम्मेलन में आतंकवाद को सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बनाया और पाकिस्तान को आतंकवाद की जन्मभूमि (मदरशिप) करार दिया़ पाकिस्तान को वैश्विक स्तर पर ‍अलग-थलग करने और चीन ‍्को अपने पक्ष में दिखाने के उद्देश्य से भारत ने ब्रिक्स सम्मेलन के घोषणा पत्र में पाकिस्तानी आतंकी संगठनों का नाम जोड़ने का प्रयास किया़ भारत की इन तमाम कोशिशों के बावजूद ब्रिक्स शिखर सम्मेलन केघोषणा पत्र ने पाकिस्तान के आतंकवाद या उसके आंतकी संगठनों लश्कर-ए-तैय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद के नाम तक शामिल नहीं किये गये़ आश्चर्यजनक तौर पर इस ब्रिक्स घोषणा पत्र में आतंकी संगठनों के तौर पर इसलामिक स्टेट और सीरिया के जमात-अल-नुसरा के नाम का उल्लेख किया गया़

यह सर्वविदित तथ्य है कि चीन, पाकिस्तान को घेरनेवाले भारत के किसी भी कूटनीतिक अभियान को निष्फल करने हेतु कटिबद्ध है और ब्रिक्स घोषणा पत्र में पाकिस्तानी आतंक का नाम रोकने में चीन सफल रहा़ पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद भले ही भारत की बड़ी समस्या हो, लेकिन यह चीन या रूस के लिए कोई समस्या नहीं है, और इन दोनों देशों के लिए भारत एक उपयोगी बाजार भले हो लेकिन एक सामरिक साझेदार कतई नहीं है़ भारत की इस कूटनीतिक मुहिम को नाकाम करने में चीन से कहीं अधिक बड़ी भूमिका रूस की तटस्थता थी़ सीरिया के गृह युद्ध में रूस ने जमात-अल-नुसरा को अपना बड़ा प्रतिद्वंद्वी माना है और रूस ने इसके नाम का उल्लेख केवल अपने सामरिक लाभ हेतु किया है़ संभवतः पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के नाम हटाने के लिए चीन और रूस में आपसी रजामंदी बनी हो़ 1950-60 के दशकों के ठीक उलट आज रूस अपनी सामरिक और आर्थिक जरूरतों के लिए चीन पर निर्भर है़ भारत और अमेरिका के बढ़ते संबंधों के प्रति रूस अपनी चिंता पहले से ही व्यक्त करता रहा है़ अमेरिका और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव के दौरान, रूस अब पाकिस्तान के साथ संबंध बढ़ाने को आतुर है़ एक बड़े ग्राहक के रूप में रूस भले ही भारत को बड़ी मात्रा में हथियार बेच रहा हो, लेकिन रूस और भारत के सामरिक उद्देश्य एकदम अलग हैं. ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के लिए पाकिस्तानी आतंकवाद कोई मुद्दा नहीं है, ये दोनों देश केवल अपनी आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए ब्रिक्स से जुड़े हुए हैं. चीन की आर्थिक शक्ति के कारण ये दोनों देश किसी भी मुद्दे पर चीन की नाराजगी नहीं मोल लेना चाहेंगे़

भारत को यह मान लेना चाहिए कि पाकिस्तानी आतंकवाद का सबसे बड़ा प्रायोजक चीन है, और जब तक इस पाकिस्तानी आतंक का लक्ष्य चीन स्वयं नहीं बनता तब तक चीन से किसी भी सहयोग की आशा व्यर्थ है़ वैसे चीन अपने मुसलिम बहुल शिनजियांग प्रांत में तथाकथित आतंकवाद से निबटने के लिए ब्रिक्स घोषणापत्र में सर्वसम्मति की प्रतीक्षा नहीं करता है, तो आतंकवाद से निबटने के लिए भारत के लिए चीन की सम्मति क्यों अनिवार्य है?

रविदत्त बाजपेयी

Next Article

Exit mobile version