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सपा में ”महाभारत” : कुनबे में तलवार भांजते ‘नेताजी’

मुलायम की राजनीति के अंतर्विरोध राजनीति में 50 वर्षों से अधिक समय से सक्रिय मुलायम सिंह यादव इस वक्त अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं. उन्हें न सिर्फ अपनी पार्टी को बचाना है, बल्कि अपने परिवार को भी एकजुट रखना है. चुनौती सबसे बड़ी इसलिए है, क्योंकि पार्टी और […]

मुलायम की राजनीति के अंतर्विरोध

राजनीति में 50 वर्षों से अधिक समय से सक्रिय मुलायम सिंह यादव इस वक्त अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं. उन्हें न सिर्फ अपनी पार्टी को बचाना है, बल्कि अपने परिवार को भी एकजुट रखना है. चुनौती सबसे बड़ी इसलिए है, क्योंकि पार्टी और परिवार में कलह के बीच उनके खिलाफ विद्रोह खुद उनके बेटे अखिलेश यादव ने किया है, जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. मुलायम सिंह का कुनबा और उनकी पार्टी इस मुश्किल दौर में क्यों और कैसे पहुंची, यह सवाल राजनीति में रुचि रखनेवाले हर आम जन-मानस को मथ रहा है.

इसके जवाब का एक जरूरी हिस्सा खुद मुलायम सिंह के राजनीतिक सफर के बदलते आयामों में देखा जा सकता है. कभी डॉ राममनोहर लोहिया, राजनारायण और चौधरी चरण सिंह की छत्रछाया में समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने के संघर्ष में शामिल रहे मुलायम सिंह की छवि उनके राजनीतिक वर्चस्व के मजबूत होने के साथ-साथ परिवारवाद और भ्रष्टाचार के बड़े संरक्षक के रूप में स्थापित हो गयी. स्थिति यह है कि आज पार्टी के तमाम दागी चेहरे उनके साथ खड़े दिख रहे हैं. इस बीच जो सवाल अखिलेश यादव उठा रहे हैं, वे स्वयं में मुलायम सिंह के बारे में बहुत कुछ बयान करते हैं. देश के वरिष्ठ नेताओं में शुमार ‘नेताजी’ के राजनीतिक जीवन पर पढ़ें आज की विशेष प्रस्तुति…

अरुण कुमार त्रिपाठी,वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक

मुलायम सिंह यादव कठोर अंतर्विरोधों वाले राजनेता हैं. कभी वे सैद्धांतिक सवालों के लिए अपनी सत्ता, पार्टी और यहां तक कि जीवन को भी दावं पर लगा देते हैं और इस दौरान बहुत बड़े होकर उभरते हैं. तो कभी वे अपनी महत्वाकांक्षा और अहसानों का मूल्य चुकाने के लिए सारे सिद्धांतों को तिलांजलि दे देते हैं. यहां वे सफल भी हो जाते हैं, लेकिन उनका कद छोटा हो जाता है. इसके बावजूद इस बात में कोई दो राय नहीं कि वे आदर्शवादी नहीं, एक बेहद व्यावहारिक राजनेता हैं, जो जमाने के लिहाज से अपने पूरे कुनबे को राजनीति में सत्ता दिलाने के बावजूद डॉक्टर राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत के सबसे बड़े दावेदार भी माने जाते हैं.

मुलायम के विवादित लोगों से घिरने की पृष्ठभूमि

आज यह सवाल अहम है कि डॉक्टर राम मनोहर लोहिया और चरण सिंह की विरासत के दावेदार मुलायम सिंह कैसे शिवपाल सिंह, अमर सिंह, मुख्तार अंसारी, (डीपी यादव), गायत्री प्रजापति और दूसरे तमाम विवादित लोगों से घिर जाते हैं? क्यों मुलायम सिंह बिहार में महागंठबंधन से अलग हो जाते हैं और राष्ट्रीय स्तर की एक समाजवादी पार्टी व मोरचा बनने की संभावना को ध्वस्त कर देते हैं? इसके कुछ कारण मुलायम सिंह की क्षेत्रीय पृष्ठभूमि में हैं और कुछ कारण पीढ़ीगत और व्यवस्थागत संघर्ष में हैं.

आगरा और कानपुर के बीच स्थित उनका इटावा क्षेत्र लंबे समय से डाकुओं के प्रभाव में रहा है.

वे लोग राजनीति में समय-समय पर इस्तेमाल भी होते रहे हैं. इसलिए वहां राजनीतिज्ञों और अपराधियों के बीच किसी तरह का छुआछूत का भाव नहीं रहा है. यही कारण है कि 1977 में जब मुलायम सूबे के सहकारिता मंत्री थे, तो एक सभा में उनके मंच पर डाकू को देख एक महिला चीख पड़ी. 1980 के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने मुठभेड़ों में डकैतों के सफाये का अभियान चलवाया. इस अभियान का सबसे तीखा विरोध मुलायम सिंह ने ही किया और फर्जी मुठभेड़ों का मामला उठाया था. विश्वनाथ प्रताप सिंह का वह अभियान तभी शांत हुआ, जब बांदा में डकैतों ने उनके भाई और हाइकोर्ट के तत्कालीन जज की जंगल में हत्या कर दी.

कभी सिद्धांत की, तो कभी व्यावहारिक राजनीति

मुलायम सिंह का दूसरा पक्ष यह है कि उन्होंने चौदह साल की उम्र में लोहिया के कहने पर सिंचाई की लगान बढ़ने के विरुद्ध गिरफ्तारी दी थी. तब के जेलर ने उन्हें जेल में लेने से यह कह कर इनकार कर दिया था कि वे नाबालिग हैं. लेकिन, मुलायम यह कहते हुए भिड़े रहे कि वे देश के नागरिक भी तो हैं. उनके गुरु नत्थू सिंह ने उन्हें लोहिया से मिलवाया था और लोहिया ने कहा था कि हमें ऐसे ही जुझारू युवा की जरूरत है. संयोग से मुलायम सिंह जब पहली बार विधानसभा के लिए 1967 में चुने गये, तो लोहिया दूसरी बार कन्नौज लोकसभा सीट से चुने गये थे. मुलायम सिंह का विधानसभा क्षेत्र विधूना लोहिया के लोकसभा क्षेत्र कन्नौज का ही एक हिस्सा था. मुलायम सिंह बताते हैं कि समान नागरिक संहिता के समर्थन में बयान देने के कारण डॉक्टर लोहिया को किस तरह चुनाव में मुश्किल आयी थी. इसलिए वे महज सिद्धांत नहीं व्यवहार की राजनीति भी करते हैं.

उन्हें यह भी मालूम है कि समाजवादी सिद्धांत का तब तक कोई मतलब नहीं है, जब तक आप चुनाव न जीतें और आप के साथ विधायक और सांसद न हों. इसलिए वे चुनाव जीतने का इंतजाम पहले करते हैं और सिद्धांत की चिंता बाद में. लेकिन, मुलायम सिंह ने 1990 में अयोध्या में बाबरी मसजिद की हिफाजत के लिए कारसेवकों पर गोली चलवा कर सिद्धांत के लिए अपनी सरकार और अपनी जान दोनों जोखिम में डाल दी. तब प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा था कि उनकी जान को खतरा है और उनके आवास कालीदास मार्ग के लिए एनएसजी भेज दी थी. उसी ने उन्हें हरकिशन सिंह सुरजीत, ज्योति बसु, प्रकाश करात, करुणानिधि, फारुक अब्दुल्ला और देश के तमाम सेकुलर नेताओं का नायक बना दिया था.

चुनावी जीत के लिए हर दावं आजमाने को तैयार

अपने निजी करिश्मे से पार्टी चला रहे मुलायम सिंह की सोच यही दिखती है कि दल में हर तरह के लोग होने चाहिए. वे राजनीति को सिर्फ अच्छे और भले लोगों का कर्म नहीं मानते. उनके लिए राजनीति कर्मठ लोगों का काम है और जीत के बिना उसकी कीमत नहीं है.

इसीलिए वे अपनी पार्टी में कभी अमर सिंह को ले आते हैं, कभी आपराधिक तत्वों को संरक्षण देनेवाले शिवपाल यादव को अहमियत देते हैं, कभी डीपी यादव को लाने का प्रयास करते हैं, तो कभी मुख्तार अंसारी को, ताकि वे हर हाल में चुनाव जीत सकें. मुलायम सिंह जब पांच-छह साल पहले यह काम करते थे, तब उनके साथ जनेश्वर मिश्र, बृजभूषण तिवारी और मोहन सिंह जैसे लोहिया के निकट सहयोगी खड़े रहते थे. वे लोग बेदाग थे और सिद्धांत व संघर्ष में तपे तपाये थे. उनके होने से अमर सिंह की तिकड़में और शिवपाल की गुंडागिरी के कारनामे दब जाते थे. हालांकि, वे शिवपाल की दबंगई का इस्तेमाल कभी डीपी यादव से चुनाव जीतने में करते थे, तो कभी मोहन सिंह के माध्यम से डीपी यादव को पार्टी में लेने को भी तैयार रहते थे. बाद में उन्हीं डीपी यादव को आने से रोक कर अखिलेश यादव प्रदेश नायक बन गये थे. लेकिन आज मुलायम सिंह के सिर से नैतिकता की वह छतरी हट गयी है. इसलिए जब उनके साथ मुख्तार अंसारी या अमर सिंह खड़े होते हैं, तो वे उनकी छवि को ज्यादा दागदार बनाते हैं. उसी दाग को कभी जनेश्वर मिश्र धो डालते थे.

राजनीति में बस एक झिझक!

मुलायम की दूसरी दिक्कत व्यवस्थागत है. जो समाजवाद संपत्ति और संतति की परवाह न करने का नारा देता था, उसे परिवारवाद के रास्ते पर ढालने के बाद उनके सामने कामयाबी के लिए हर तरह के उपकरण अपनाने का मार्ग खुल गया है और वे किसी भी झिझक से दूर हो गये हैं.

मुलायम सिंह के सामने एक ही झिझक है और वह है भाजपा से गंठजोड़ की. उन्हें मालूम है कि वैसा करने के बाद वे खत्म हो जायेंगे. बाकी वे कभी गैर-कांग्रेसवाद तो कभी गैर-भाजपावाद के नाम पर किसी से भी हाथ मिला सकते हैं. मुलायम की पार्टी मंडलवाद और भूमंडलवाद के बीच फंसी हुई है. पार्टी के एक हिस्से ने उसे वैश्वीकरण के हाइटेक रास्ते पर डाल दिया है, जिसमें कभी अमर सिंह आगे थे और उनके पार्टी से बाहर होने पर अखिलेश यादव ने युवाओं को लैपटॉप बांटने से लेकर स्मार्टफोन देने का वादा करके और एक्सप्रेस-वे व मेट्रो बना कर दिखा दिया है कि वे मंडल के जनाधार में मध्यवर्ग को जोड़ सकते हैं.

मुलायम की दिक्कत यह है कि वे मंडल के उस जनाधार के प्रति अनुराग रखते हैं, जिसमें पिछड़ा वर्ग के मतदाता का देसीपन, अपराध और एक तरह से सामंती सोच भी है. यही वजह है कि वे कभी दुष्कर्म करनेवाले युवाओं को माफी देने की अपील करते हुए कह जाते हैं कि लड़के हैं, गलती हो जाती है. जबकि उनके बेटे अखिलेश उस पढ़े-लिखे मध्यवर्ग की नब्ज पर हाथ रखते हैं, जो साफ-सुथरी छवि के साथ तीव्र विकास चाहता है और नैतिकता कापाखंड भी.

एक निजी व अनैतिक मेल

जहां तक मुलायम और अमर सिंह के रिश्ते का सवाल है, तो उसे पूंजीवादी और समाजवादी नेता के एक निजी और अनैतिक मेल के रूप में देखा जा सकता है. अमर सिंह जब कहते हैं कि वे समाजवादी नहीं मुलायमवादी हैं, तो साफ है कि वे पूंजीवादी हैं और समाजवाद को इस पूंजीवाद की जरूरत है. अगर मुलायम सिंह की आत्मा में किसी तरह का समाजवाद रहा होगा, तो मुलायम ने पूंजीवादी प्रेरणा से उसे नष्ट और भ्रष्ट किया है. या फिर यह समाजवाद के प्रति मुलायम का अविश्वास है, जो उन्हें पूंजीवाद के एजेंट के बिना राजनीतिक रूप से जीने का भरोसा नहीं देता. यही वे अंतर्विरोध हैं, जो राजनीतिक रूप से कठोर मुलायम को सिद्धांत और नैतिकता की कसौटी पर कमजोर बनाते हैं और भ्रष्ट व अपराधियों के साथ उठने-बैठने में झिझकने नहीं देते.

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