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परंपरा : धन, धनवंतरि और धनतेरस

धन और वैभव का भोग बिना बेहतर सेहत के संभव नहीं सदगुरु स्वामी आनन्द जी आज धनतेरस है. यह दो शब्दों से बना है- धन और तेरस. ऐसी मान्यता है कि इस दिन खरीदे गये धन (स्वर्ण, रजत) में 13 गुना अभिवृद्धि हो जाती है. धन का भोग करने के लिए लक्ष्मी की कृपा के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 28, 2016 7:07 AM

धन और वैभव का भोग बिना बेहतर सेहत के संभव नहीं

सदगुरु स्वामी आनन्द जी

आज धनतेरस है. यह दो शब्दों से बना है- धन और तेरस. ऐसी मान्यता है कि इस दिन खरीदे गये धन (स्वर्ण, रजत) में 13 गुना अभिवृद्धि हो जाती है. धन का भोग करने के लिए लक्ष्मी की कृपा के साथ ही उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु की भी जरूरत होती है. यही अवधारणा धनवंतरि के वजूद की बुनियाद बनती है.

स्वास्थ्य और समृद्धि के बीच की जागरूकता का पर्व है धनतेरस, जो प्रत्येक वर्ष कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है. आध्यात्मिक मान्यताओं में दीपावली की महानिशा से दो दिन पहले जुंबिश देनेवाला यह काल यक्ष यक्षिणियों के जागरण दिवस के रूप में प्रख्यात है. यक्ष-यक्षिणी स्थूल जगत के उन चमकीले तत्वों के नियंता कहे जाते हैं, जिन्हें जगत दौलत मानता है.

लक्ष्मी और कुबेर यक्षिणी और यक्ष माने जाते हैं. यक्ष-यक्षिणी ऊर्जा का वो पद कहा जाता है, जो हमारे जीने का सलीका नियंत्रित करता है. सनद रहे कि धन और वैभव का भोग बिना बेहतर सेहत के संभव नहीं है, लिहाजा ऐश्वर्य के भोग के लिए कालांतर में धनवंतरि की अवधारणा सहज रूप से प्रकट हुई. आम धारणा दीपावली को भी धन का ही पर्व मानती है, जो सही नहीं है. दिवाली तो आंतरिक जागरण की बेला है. यह सिर्फ धन ही नहीं, बल्कि हर प्रयास के सिद्धि की घड़ी है. धन का दिन तो धनतेरस को ही माना जाता है, जो औषधि और स्वास्थ्य के स्वामी धनवंतरि का भी दिन है.

इसके नाम में धन और तेरस शब्दों के बारे में मान्यता है कि इस दिन खरीदे गये धन (स्वर्ण, रजत) में 13 गुना अभिवृद्धि हो जाती है. प्राचीन काल से ही इस दिन चांदी खरीदने की परंपरा रही है. चांदी चंद्रमा का प्रतीक है और चंद्रमा धन व मन दोनों का स्वामी है. चंद्रमा शीतलता का प्रतीक भी है और संतुष्टि का भी. शायद इसके पीछे की सोच यह है कि संतुष्टि का अनुभव ही सबसे बड़ा धन है.

जो संतुष्ट है, वही धनी भी है और सुखी भी. धन का भोग करने के लिए लक्ष्मी की कृपा के साथ ही उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु की भी जरूरत होती है. यही अवधारणा धनवंतरि के वजूद की बुनियाद बनती है.

भगवान धनवंतरि को हिंदू धर्म में देव वैद्य का पद हासिल है. कुछ ग्रंथों में उन्हें विष्णु का अवतार भी कहा गया है. धन का वर्तमान भौतिक स्वरूप और धनवंतरि, दोनों के ही सूत्र समुद्र मंथन में गुंथे हैं. पवित्र कथाएं कहती हैं कि कार्तिक कृष्ण द्वादशी को कामधेनु, त्रयोदशी को धनवंतरि, चतुर्दशी को महाकाली और अमावस्या को महालक्ष्मी का प्राकट्य हुआ. प्राकट्य के समय चतुर्भुजीधनवंतरि के चार हाथों में अमृत कलश, औषधि, शंख और चक्र विद्यमान हैं. प्रकट होते ही उन्होंने आयुर्वेद का परिचय कराया.

आयुर्वेद के संबंध में कहा जाता है कि सर्वप्रथम ब्रह्मा ने एक सहस्त्र अध्याय तथा एक लाख श्लोक वाले आयुर्वेद की रचना की, जिसे अश्विनी कुमारों ने सीखा और इंद्र को सिखाया. इंद्र ने इसे धनवंतरि को कुशल बनाया. धनवंतरि से पहले आयुर्वेद गुप्त था. उनसे इस विद्या को विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत ने सीखा. सुक्षुत विश्व के पहले सर्जन यानि शल्य चिकित्सक थे. धनवंतरि के वंशज श्री दिवोदास ने जब काशी में विश्व का प्रथम शल्य चिकित्सा का विद्यालय स्थापित किया, तो सुश्रुत को इसका प्रधानाचार्य बनाया गया.

पुराणों के अनुसार, समुद्र मंथन से प्रकट होने के बाद जब धनवंतरि ने विष्णु से अपना पद और विभाग मांगा, तो विष्णु ने कहा कि तुम्हें आने में थोड़ा विलंब हो गया. देवों को पहले ही पूजित किया जा चुका है और समस्त विभागों का बंटवारा भी हो चुका है. इसलिए तुम्हें तत्काल देवपद नहीं दिया जा सकता. पर तुम द्वितीय द्वापर में पृथ्वी पर राजकुल में जन्म लोगे और तीनों लोक में तुम प्रसिद्ध और पूजित होगे. तुम्हें देवतुल्य माना जायेगा. तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन करोगे. इस वर के कारण ही द्वितीय द्वापर युग में वर्तमान काशी में संस्थापक (मूल काशी के संस्थापक भगवान शिव कहे जाते हैं) काशी नरेश राजा काश के पुत्र धन्व की संतान के रूप में भगवान धनवंतरि ने पुनः जन्म लिया. जन्म लेने के बाद भारद्वाज से उन्होंने आयुर्वेद को पुनः ग्रहण करके उसे आठ अंगों में बांटा. धनवंतरि को समस्त रोगों के चिकित्सा की पद्धति ज्ञात थी. कहते हैं कि शिव के हलाहल ग्रहण करने के बाद धनवंतरि ने ही उन्हें अमृत प्रदान किया और तब उसकी कुछ बूंदें काशी नगरी में भी छलकी. इस प्रकार काशी कभी न नष्ट होने वाली कालजयी नगरी बन गयी.

धनतेरस में धन शब्द को धन-संपत्ति और धन्वंतरि दोनों से ही जोड़ कर देखा जाता है. धनवंतरि के चांदी के कलश व शंख के साथ प्रकट होने के कारण इस दिन शंख के साथ पूजन सामग्री, लक्ष्मी गणेश की प्रतिमा के साथ चांदी के पात्र या बर्तन खरीदने की परंपरा आरंभ हुई. कहीं-कहीं इस कलश को पीतल का भी बताया जाता है. कालांतर में चांदी या पीतल के बर्तनों की जगह कीमत और सुगमता के कारण स्टील का प्रचलन शुरू हो गया. हालांकि पारंपरिक रूप से स्वर्ण और चांदी को ही श्रेष्ठ माना जाता है.

तंत्र शास्त्र में इस दिन लक्ष्मी, गणपति, विष्णु व धनवंतरि के साथ कुबेर की साधना की जाती है. इस रात्रि में कुबेर यंत्र, कनकधारा यंत्र, श्री यंत्र व लक्ष्मी स्वरूप श्री दक्षिणावर्ती शंख के पूजन को सुख समृद्धि व धन प्राप्ति के लिए अचूक माना गया है. इस दिन अपने मस्तिष्क को स्वर्ण समझ कर ध्यानस्थ होने से धन अर्जित करने की आंतरिक क्षमता सक्रिय होती है, जो सही मायने में समृद्धि का कारक बनती है.

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