जीवन दीप जले ऐसा, जग को ज्योति मिले
बल्देव भाई शर्मा श्रीराम भारत के जन-मन में बसे हैं. रामनवमी हो, दशहरा या दीपावली, हर पर्व उनके आख्यानों से जुड़ा है. ‘निशिचरहीन करों मही के अपने संकल्प को पूर्ण कर लंका विजय के बाद जब श्रीराम अयोध्या लौटते हैं तो राम आगमन की खुशी में पूरी अयोध्या जगमगा उठती है. सभी जन दीपोत्सव मनाते […]
बल्देव भाई शर्मा
श्रीराम भारत के जन-मन में बसे हैं. रामनवमी हो, दशहरा या दीपावली, हर पर्व उनके आख्यानों से जुड़ा है. ‘निशिचरहीन करों मही के अपने संकल्प को पूर्ण कर लंका विजय के बाद जब श्रीराम अयोध्या लौटते हैं तो राम आगमन की खुशी में पूरी अयोध्या जगमगा उठती है. सभी जन दीपोत्सव मनाते हैं.
हर घर के द्वार-मुंडेर पर प्रकाशमान दीपों की पांत संदेश देती है कि अब अज्ञान-अधर्म, अन्याय-असत्य जैसी बुराइयों का अंधकार छंट गया, चारों ओर सत्य-धर्म-न्याय और ज्ञान के दीपों का उजाला फैला है. अब मानवता का त्रास दूर हो गया, सब ओर आनंद ही आनंद बिखरा है.
दीपावली वास्तव में आनंदोत्सव ही तो है. दरिद्रता केवल धन की ही नहीं, सुख के साधनों की ही नहीं बल्कि मन में घिरी संकीर्णता, स्वार्थ, कलुष रूपी दरिद्रता भी दूर होगी तो जीवन आनंद से सराबोर हो उठता है. दीपावली पर घर-घर में जगमगाते दीये इसी आनंद की अभिव्यक्ति है.
महाकवि निराला ने भी ‘वीणावादिनी वर दे’ में यही प्रार्थना की है- ‘कलुषय भेद तम हर प्रकाश भर जगमगजण कर दे.’ राम सद्गुण-सदाचार का समुच्चय है, जीवन के आदर्शों के प्रतिमान हैं. ऋषि वाल्मीकि ने रामायण से उन्हें ‘रामो विग्रवान धर्म:’ यानी धर्म का साक्षात रूप कहा है. उनका भाव बोध जब दीपमालिका बन कर ह्दय में जगमगा उठे, व्यक्ति के आचरण में कृतित्व बन कर चमक उठे, तो कलुष-भेद-तम सब भाग जाता है, तब सिर्फ आनंद की लौ दपदपाती है. हम चाहें तो ऐसी दीपावली हर रोज मनायी जा सकती है.
वृहदारण्यकोपनिषद में दिया संदेश ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ यही है कि अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़े. भारतीय संस्कृति का तेजोमय रूप है यह, जो समूची मानवता में समाहित होकर अखिल विश्व को शांति, सद्भाव और कल्याण का मार्ग दिखाता है. दीपोत्सव इसी की अभिव्यक्ति है.
दीपक प्रतीक है शुभता का, मंगल का, प्रकाश का, हर तरह के अंधकार से अनवरत संघर्ष कर उसे परास्त करने का. सूर्य का प्रतिनिधि है दीप जो रात्रि के घने अंधेरे में भी रोशनी फैलाता है और सूर्य के आगमन का संदेश देने वाली पौ फटते ही अपनी लौ को समेट लेता है. स्वयं जल कर दूसरों को प्रकाशमान करना ही दीपक की जीवन यात्रा है. इसीलिए किसी कवि ने बड़ी सुंदर पंक्ति लिखी है-‘जीवन दीप जले ऐसा सब जग को ज्योति मिले.’ हमारी संस्कृति का यही दर्शन जहां तहां फिल्मी गीतों के माध्यम से भी खूब प्रसारित हुआ है, बशर्ते हम उसे समझें और ग्रहण कर सकें. फिल्म बादल में ऐसा ही एक गीत है-‘अपने लिए जीये तो क्या जीये/तू जी ये दिल जमाने के लिए.’उधार की रोशनी कब तक काम आयेगी, धीरे-धीरे बाती भी खत्म होती जायेगी और दीये का तेल भी.
तब क्या फिर अंधेरे में भटकना पड़ेगा ? इसलिए अपने दिल में जोत जलानी होगी जो हर भटकाव में हमें रास्ता दिखाये और हम बुराइयों के अंधेरे में खोएं नहीं बल्कि जिंदगी की सही राह पकड़ लें. भगवान बुद्ध की आखिरी घड़ी आ गयी, सब चिंतित अब क्या होगा, बुद्धके बिना तो अंधेरा ही अंधेरा, इस अंधेरे में रास्ता कौन दिखायेगा. आनंद 40 साल तक बुद्ध की छाया बन कर रहा, अब उसे कुछ सूझ नहीं रहा, अब किसके उजाले में आगे बढ़ेगा. बुद्ध की ज्योति तो विलीन होने को है. अचानक बुद्ध कहते हैं ‘अप्प दीपो भव’ अपने दीपक आप बनो. और निराशा का, दुख का, ज्ञान का सब अंधेरा छंट गया, बुद्ध सबके ह्दय में प्रकाशमान हो उठे.
बुद्ध ने भी तो बचपन में नगर भ्रमण के दौरान रोग, बुढ़ापे और मृत्यु की भयावहता से डर गये दुखी और निराश मन को आत्मज्ञान से ज्योतित किया. तभी वह निराश, दुखी और डरा हुआ बालक सिद्धार्थ बुद्ध बन सका. जीवन में सद्गुण-सदाचार की बाती से ही आत्मज्ञान का दीपक जलाया जा सकता है. सेवा-प्रेम-भेद इसी आत्मज्ञान की निशानी है. यहीं से जीवन की निर्भरता, निरोगता का मार्ग खुलता है और व्यक्ति सुख शांति पा सकता है.
दुर्गा सप्तशती में सौभाग्य मंत्र है-‘देहि सौभाग्यमारोग्यं देहिमे परम सुखम/रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि. हे माता मुझे सौभाग्य दो, आरोग्य दो और परम सुख प्रदान करो. मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान), जय (मोह आदि दुर्गुणों पर विजय), वश (सुकर्मों की कीर्ति) दो और काम-क्रोध, ईष्या जैसे शत्रु जो मेरे ही अंदर बुराइयों के रूप में मौजूद हैं, उनका नाश करो. इस मंत्र में जीवन की एक उदात्त अवधारणा है.
दीपावली पर लक्ष्मी-पूजन का वही सार्थक भाव है. इस भाव भावना से सब सराबोर हो जाएं जो न कहीं दरिद्रता रहे, न बैर और न कोई भेद.
देवासुर संग्राम के दौरान हुए समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों में शामिल महालक्ष्मी विष्णु को मिली. लक्ष्मी सुख-समृद्धि की अधिष्ठात्रि देवी मानी गयी. उनका विष्णु के साथ होना बड़ा प्रतीकात्मक है. विष्णु धर्म का प्रतिरूप है. धर्म का आशय लक्ष्मी को न मिले तो वह दुर्बुद्धि व व्यसन देती है जो व्यक्ति के दुख व विनाश का कारण बनते हैं. अनैतिकतापूर्वक, दूसरों का हक छीन कर और गलत स्रोतों से कमाया हुआ धन संपन्नता लेकर तो आता है, लेकिन वह सुख-शांति प्रदाता नहीं होता. आज नहीं तो कल उसका नतीजा बेहद दुख व अपमान देने वाला होता है. ऐसी लक्ष्मी हमें ही नष्ट कर देती है.
भारतीय जीवन दर्शन में चार पुरुषार्थ बताये गये हैं. धर्म, अधर्म, काम, मोक्ष. धर्म इनका आधार है, यह जीवन में सद्गुण-सदाचार की दृष्टि देता है.
धर्ममय जीवन का अर्थ है अपनी सुख समृद्धि-शांति के साथ-साथ दूसरों का हित चिंतन करना. धर्म भाव पर जब लीक से खड़ा हो जाता है तो अर्जित की गयी धन-संपदा भी सुखकारी होती है क्योंकि वह अनैतिकता के रास्ते से नहीं आती. वह दूसरों को लूटने का लालच नहीं जगाती, सेवा की प्रेरणा देती है. उसका उपभोग व्यसनी, कुमार्ग गामी और रोगी नहीं बनाता बल्कि जीवन की संतुष्टि देता है. ऐसी धनलक्ष्मी सबके लिए मंगलकारी होती है. कहते भी हैं ‘जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन.’
चाणक्य ने लिखा है-वित्तातुराणां पिता ने बंधु यानी धन के लालची व्यक्ति का कोई सगा नहीं होता, वह संपत्ति के लिए किसी के साथ कुछ भी कर सकता है, हत्या भी. आज ऐसा होता हुआ चारों ओर दिखाई दे रहा है. धन के लालच में व्यक्ति कोई भी कुकर्म करने या किसी भी रिश्ते का खून करने को तत्पर हो जाता है. मन पर धर्म का संस्कार होने से जीवन में शुभ दृष्टि और संयम आता है तब लक्ष्मी हमारे मन में विकृति पैदा नहीं करती. लक्ष्मी-गणेश का पूजन भी साथ में इसीलिए किया जाता है कि गणेश बुद्धि की निर्मलता प्रदान करते हैं.
दुर्बुद्धि का नाश करते हैं तभी धन लक्ष्मी का होना भी सार्थक है. महालक्ष्मी के आठ स्वरूपों में धन लक्ष्मी, यज्ञ, लक्ष्मी, गृह लक्ष्मी प्रमुख हैं. धर्ममय और सद्गुण में धन लक्ष्मी, यश लक्ष्मी, गृहलक्ष्मी प्रमुख हैं. धर्ममय और सद्गुण-सदाचार से युक्त जीवन में ही यश लक्ष्मी निवासी करती है. सुयश न हो तो जीवन निरर्थक है. इसीलिए कहा गया-य: सकीर्ति स: जीवित:. इसी तरह धनधान्य से परिपूर्ण जीवन में, घर में गृहलक्ष्मी को प्रेम-आदर न मिले तो परिवार सुखी नहीं रहता, बिखर जाता है. घर में धन की कमी हो तब भी गृहलक्ष्मी सुख-शांति बनाये रखती है.
इसलिए समाज में स्त्री स्वरूपा इस गृहलक्ष्मी को भी सम्मान-सुरक्षा मिलना जरूरी है, यही उसकी पूजा है. स्त्री घर और बाहर यदि अपमानित हो, असुरक्षित हो, कोई भी मनचला कभी भी उसकी इज्जत से खेलने का हौसला पाता रहे, तो घर-घर में महालक्ष्मी का पूजन निरर्थक है.