भगवान की बनायी राजमार्ग हैं नदियां

सिकुड़ रहीं नदियां, क्योंकि उनकी राह में कई रोड़े श्रीश चौधरी दुर्गा पूजा और दीपावली के बाद अब छठ पर्व की तैयारियां शुरू हो गयी हैं. ‌छठ पर्व के लिए प्रशासन के साथ व्रतियों के परिजन भी घाट की सफाई में लग गये हैं. छठ पर्व एक ऐसा अवसर है, जब हम आराधना के लिए […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 1, 2016 8:04 AM
सिकुड़ रहीं नदियां, क्योंकि उनकी राह में कई रोड़े
श्रीश चौधरी
दुर्गा पूजा और दीपावली के बाद अब छठ पर्व की तैयारियां शुरू हो गयी हैं. ‌छठ पर्व के लिए प्रशासन के साथ व्रतियों के परिजन भी घाट की सफाई में लग गये हैं. छठ पर्व एक ऐसा अवसर है, जब हम आराधना के लिए अपनी नदियों के पास जाते हैं. आज नदियों की गति क्या हो गयी है, यह छिपी नहीं है. इस पर्व ने हमें यह अवसर प्रदान किया है कि हम अपनी नदियों के बारे में सोचें-विचारें. आज पढ़िए पहली कड़ी.
गोस्वामी तुलसी दास जी ने पूछा था कि एक साथ हंसना एवं गाल फुलाना संभव है क्या– “ दोउ न होइ एक संग भुवालू. हंसब ठठाई फुलाइब गालू.” परंतु आज यदि गोस्वामी जी बिहार में होते तो प्राय: ऐसा नहीं कहते. बाढ़ एवं सूखा एक साथ होना प्रकृति में असंभव सा ही है. लेकिन, लगातार पांचवें–छठे वर्ष सूखे की मार झेलता बिहार इस बार भी सूखे की ही चपेट में है. साथ ही इस बार बिहार बाढ़ का भी कहर झेल रहा है.
गोस्वामी जी के ही सहारे में यह कहूंगा कि बिहार की नदियां उथली हो गयी हैं एवं थोड़ी-सी वर्षा में ही अपने तट पार कर उछल गयी हैं– “छुदरु नदी भरि चली उतराई. जस थोड़े धन खल बौड़ाई.” गंगा जी भी अब सागर नही रहीं, जो सोन, घाघरा, गंडक एवं कोशी तथा इनकी सहायक दर्जनों छोटी नदियों के उफनते पानी को शरारती बच्चों की स्नेेहमयी मां की भांति गोद में उठा कर चल दें.
अब यह अपने ही बच्चों द्वारा सतायी गयी बूढ़ी, बीमार एवं लाचार मां की तरह अपने आपको ही नहीं लेकर चल पा रही है. मॉनसून के बाहर के महीनों में टिहरी का बांध गंगा जी का 60 प्रतिशत पानी रोक देता है, परंतु बड़े-छोटे शहरों, नगरों का मल गंगा जी में कुछ अधिक ही मात्रा में गिरता है, उनके खाने पीने एवं धोने–धुलाने के लिए अधिक ही जल निकाला जाता है. फिर भी शायद गंगा जी इन्हें बहा ले जातीं, परंतु फरक्का का बैराज साफ पानी तो निकाल देता है पर इन मल-मूत्र-गाद को आगे जाने से रोक देता है. फलस्वरूप बिहार के भिन्न-भिन्न हिस्सों में गंगा की गहराई 10 से 90 फीट तक कम भी हो गयी है. फिर भी “ सूखे में पानी मैं रखूंगा–बाढ़ में तुम लो” वाली नीति की वजह से बिहार तबाह है. यह राष्ट्रीय समस्या नहीं, यह बिहार की समस्या, प्रांतीय समस्या है. यह एक ऐसी राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक असंवेदनशीलता है, जिसके लिए अन्याय जैसे शब्द अपर्याप्त हैं. इसका अविलंव समाधान होना चाहिए.
हर बड़ी-छोटी नदी के किनारे बसे शहर, बिजली के लिए नदी का बहना रोक रहे हैं और दूसरी ओर उनसे नित्य बढ़ती हुई मात्रा में अधिकाधिक पानी भी निकाल रहे हैं. आज दिल्ली को कई करोड़ लीटर पानी रोज चाहिए.
इसके लिए भले ही कुछ भी क्यों न करना पड़े. यह बोझ इतना अधिक किसी भी एक शहर के प्राकृतिक साधन पर नहीं होता, यदि देश के सभी भागों में रोजगार तथा मौलिक सुविधाओं का समुचित एवं सम्यक विकास हुआ होता. ऐसा नहीं होने से ही मुख्यत: ये बड़े शहर अनियंत्रित गति एवं दिशा में बढे़ हैं. कितना भी ‘आप’ ‘ऑड-इवन’ कर लेंं, दिल्ली का प्रदूषण एवं इसकी सड़कों की भीड़ तब तक नहीं कम होने वाली है, जब तक दिल्ली बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, ओड़िशा, राजस्थान आदि को भी सम्यक विकास का अवसर नहीं देती है. आज दिल्ली की स्थिति मुगल फौज की तरह है, जो इतनी बड़ी एवं अनियंत्रित हो गयी है कि किसी को भी पता नहीं है कि इसे कैसे चलाया जाये.
फिर इतनी बड़ी आबादी मल-निकास भी इतनी ही बड़ी करती है. अकेले गंगा के किनारे 10 लाख से अधिक की आबादी बाले 22 शहर हैं, पांच से दस लाख की आबादी वाले 50 से अधिक शहर हैं एवं एक लाख से कम आबादी वाले सैकड़ों छोटे शहर एवं कस्बे हैं. ये सभी शहर करोड़ों लीटर गंदा पानी नित्य गंगा में डालते हैं. जब गंगा अबाध गति से बहती थी, तब उसमें इतनी शक्ति थी कि यह सभी के सारे पापों की तरह इस गंदे पानी को भी धो-पोंछ कर बहा ले जाती थी. परंतु अब जबकि 60 प्रतिशत गंगा जी टिहरी बांध के आगे नहीं निकल पाती हैं और गंदे जल-मल का बोझ कई गुणा इस पर बढ़ गया है, तो गंगा अब बोझ से लदी थकी-हारी बुढ़िया की तरह बैठने एवं गतिहीन होने लगी है. बाढ़ में कुछ महीनों वाली गंगा को छोड़ दें, तो गंगा अब राजसी शान से बहती स्वच्छ जलधारा नहीं रही है, उसे देखकर अब मन्ना डे ‘‘गंगा आये कहां से, गंगा जाये कहां रे” नहीं गा सकते हैं. गंगा अब एक छिछली-उथली गंदी राष्ट्रीय नाला बन गयी है.
सबसे अधिक आश्चर्य की बात है कि गंगा के किनारे-किनारे हर तरह के कारखाने बनाने की अनुमति दी गयी. जिस सिमरिया घाट को बिहार के हिस्से में बहती गंगा का पवित्रतम घाट मानते हैं, वहां मास भर रहने, जीने, मरने को सर्वाधिक पुण्यदायी मानते हैं, उसी सिमरिया के ठीक सामने मोकामा घाट पर बाटा कंपनी को जूते बनाने के लिए चमड़ा साफ करने का कारखाना लगाने की अनुमति दी गयी. मीलों महकती दुर्गंध करते हजारों लीटर गंदा पानी यह फैक्टरी रोज गंगा जी में ठीक सिमरिया घाट के, सामने डाल दी है. कानपुर के सारे चमड़ा कारखाने भी यही करते हैं. बड़ी क्षति क्या है– बाटा फैक्टरी का नहीं होना, या गंगा जी का नहीं होना?
मजे की बात यह है कि इस नाले को भी अबाध गति से नहीं बहने देते हैं, ताकि इस पर जो बोझ लादा गया है, उसे यह गंतव्य तक पहुंचा सके. टिहरी बांध गंगा का 60 प्रतिशत जल नीचे नहीं आने देती है, और फरक्का बैराज इसमें गिरे करोड़ों टन मल को समुद्र तक नहीं पहुंचने देता है. पानी तो जैसे-तैसे निकल भी जाता है, किंतु कम जल एवं बैराज की वजह से नदी की गति मंद हो जाती है तथा नदी में गिरे धूल मिटटी एवं अन्य घुलनशील व अन्य मल वहीं नदी के तल पर बैठने लगते हैं और नदी उथली होती चली जाती है. जहां मई-जून महीने में भी गंगा पटना के पास दस मीटर या तैंतीस फीट गहरी होती थी, वहां अब यह तीन मीटर या दस फीट भी गहरी नहीं है. इसी प्रकार तीन किलोमीटर से अधिक का इसका विस्तार घट कर पौन किलोमीटर हो गया है. इन सारी समस्याओं का एक ही कारण है– हम नदी को बहने नही दे रहे हैं. बरसात में यह उथली नदी तुरंत उछल जाती है और संपति एवं जान की क्षति करती है.
बांधों, बैराजों, एवं बड़े शहरों की बड़ी प्यास-बड़ी निकास के अतिरिक्त नदियों की अविरल गति में एक और बाधा इनके ऊपर बने नये सड़क एवं रेल पुलों का है. अंगरेजों को भी भारत में अपने 200 वर्षो के शासन काल में नदियों पर बांधों-बैराजों-नहरों का प्रस्ताव आया था. पर्यावरण को होनेवाली अपूरणीय क्षति के आधार पर इन्होंने फरक्का जैसे अनेकों प्रस्तावों को रोक दिया. तथापि व्यापारियों के लिए व्यापारियों के द्वारा चलाये जानेवाले अंगरेजी देश ने, जैसा कि प्रसिद्व अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने इसका नामकरण किया था, फिर भी नदियों के ऊपर काफी इंजीनियरिंग की थी.
हरिद्वार के पास गंगा नहर बना. परंतु नहर ने बस इतना पानी गंगा जी से लिया कि मरुप्रदेश के चिह्नित क्षेत्र तक सबको पानी मिले, किंतु नहर के मुंह से निचले प्रदेशों को पानी की कमी नहीं हो. नहर के तल की ऐसी ढलान तैयार की गयी कि पानी नीचे तो बहे, परंतु नीचे की मिटटी को खोद ना लें. गंगा नहर आज भी हाइड्रोलिक्स (जल अभियंत्रण) की इंजीनियरिंग का एक उत्तम नमूना है. जल संसाधन की इंजीनियरिंग में आज भी इसकी चर्चा होती है, इस पर किताबें तथा शोध ग्रंथ लिखे-पढ़े जाते हैं. परंतु स्वतंत्रता के बाद बने राजस्थान में इंदिरा गांधी कनाल की इंजीनियरिंग गलत इंजीनियरिंग का नमूना बन गया है.विश्वभर में इसकी चर्चा नहर कैसी नही बनें, इसके लिए होती है.
नदियों को जोड़ने की बात भारत में जो लोग कर रहे हैं, उन्हें इन नये पुराने बांधों तथा बैराजों को देखना चाहिए. नहर बनाने की सारी इंजीनियरिंग एक इस छोटे सिद्वांत पर आधारित होती है कि नहर की ढलान इतनी अवश्य हो कि इस पर आनेवाला पानी बहता रहे, परंतु इतना नहीं हो कि वह नीचे की मिट्टी को भी बहा ले जाये. इस साधारण सिद्वांत का जहां अंगरेज इंजीनियरों ने बखूबी पालन किया, वहीं स्वतंत्र भारत के इंजीनियर लड़खड़ा गये. विजयवाड़ा से चेन्नई तक कृष्णा नदी का जल लेकर आनेवाला ‘तेलुगू गंगा’ नहर आज 30 वर्षो से अधिक से बन रहा है, परंतु बन नहीं पा रहा है. कभी इसकी ईंटें निकल जाती हैं, कभी घास पैदा हो जाता है. लेकिन, क्षेत्रीयता के नारों पर चुने गये नेताओं को यह ‘तेलुगू गंगा’ राष्ट्रीयता पर भाषण देने के लिए अच्छे मसाले देती है.
(जारी)
(लेखक आइआइटी मद्रास के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं और संप्रति जीएलए यूनिवर्सिटी मथुरा में डिश्टिंग्विश्ड प्रोफेसर हैं.)

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