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शिक्षा की गिरती गुणवत्ता : पारदर्शिता बढ़ाने के लिए सीबीएसइ ने दिये कई निर्देश

स्कूलों की मनमानी पर लगाम शिक्षकों की प्राथमिक जिम्मेवारी है बच्चों को पढ़ाना. लेकिन, स्कूलों के प्रबंधन और कई तरह के गैर-शैक्षणिक कार्यों में भी शिक्षकों को लगाना एक परिपाटी बन गयी है. यह समस्या सरकारी स्कूलों में सरकारी कामकाज तक सीमित है, लेकिन निजी और अर्द्ध-सरकारी विद्यालयों में बड़े पैमाने पर दूसरे रूपों में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 2, 2016 7:08 AM
स्कूलों की मनमानी पर लगाम
शिक्षकों की प्राथमिक जिम्मेवारी है बच्चों को पढ़ाना. लेकिन, स्कूलों के प्रबंधन और कई तरह के गैर-शैक्षणिक कार्यों में भी शिक्षकों को लगाना एक परिपाटी बन गयी है. यह समस्या सरकारी स्कूलों में सरकारी कामकाज तक सीमित है, लेकिन निजी और अर्द्ध-सरकारी विद्यालयों में बड़े पैमाने पर दूसरे रूपों में भी विद्यमान हैं, जहां शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा बच्चों को घर तक छोड़ने जाना, नामांकन के लिए अभिभावकों से मिलना और उनके सवालों के उत्तर देना आदि शामिल हैं. निश्चित रूप से शिक्षकों पर ऐसे अतिरिक्त बोझ के चलते शिक्षा की गुणवत्ता पर नकारात्मक असर पड़ता है.
शिक्षा के अधिकार कानून, 2009 में स्पष्ट प्रावधान हैं कि शिक्षकों को जनगणना, आपदा राहत और निर्वाचन प्रक्रिया में योगदान के अलावा किसी भी तरह के गैर-शैक्षणिक काम में नहीं लगाया जाना चाहिए. इसी प्रावधान के आधार पर अब सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन (सीबीएसइ) ने भी निर्देश जारी कर संबद्ध विद्यालयों को कहा है कि वे शिक्षकों पर ऐसे कार्यों का बोझ नहीं डालें, जो शिक्षा से जुड़े हुए नहीं है. बोर्ड ने शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने और स्कूलों को बेहतर करने के लिए हाल में कुछ अन्य निर्देश भी दिये हैं. इनकी पृष्ठभूमि में सीबीएसइ और उससे संबद्ध स्कूलों पर एक विश्लेषणात्मक प्रस्तुति आज के इन-डेप्थ में…
गैर-शैक्षणिक कार्यों के लिए रखे जाएं अलग कर्मचारी
सीबीएसइ के ताजा निर्देश में कहा गया है कि बोर्ड से संबद्ध स्कूलों में शिक्षकों को पढ़ाने, पेशेवर विकास, परीक्षा, मूल्यांकन जैसे कामों के अलावा अन्य जिम्मेवारियों में न लगाया जाये.
बच्चों की देखभाल, यातायात, कैंटीन आदि से जुड़े कामों के लिए अलग से प्रशिक्षित कर्मचारी रखे जाने चाहिए. इस निर्देश में बोर्ड ने शिक्षा के अधिकार कानून, 2009 के अनुच्छेद 27 तथा इस प्रावधान को लागू करने के लिए केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के सितंबर, 2010 में जारी दिशा-निर्देशों का हवाला दिया है. बोर्ड ने यह भी उल्लेख किया है कि 25 अक्तूबर, 2016 को आयोजित केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की बैठक में विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों ने शिक्षकों के अन्य कामों में लगाये जाने की समस्या को उठाया था. यह सलाहकार बोर्ड शिक्षा के क्षेत्र में देश की सर्वोच्च सलाहकार संस्था है.
जून 2012 के निर्देश में संशोधन : सीबीएसइ ने आठ जून, 2012 को जारी किये गये अपने एक निर्देश में संशोधन किया है. उस निर्देश में हर स्कूल बस में कम-से-कम एक शिक्षक का मौजूद होना अनिवार्य बनाया गया था. लेकिन, नये निर्देश में स्कूली बसों में महिला परिचालिका या प्रहरी रखने का प्रावधान है. बोर्ड के सचिव जोसेफ इमैनुएल द्वारा जारी प्रपत्र में इन निर्देशों के पालन की जिम्मेवारी स्कूल के प्रधानाचार्य और स्कूल को संचालित करनेवाली सोसाइटी या ट्रस्ट के सचिव को दी है.
फीस और संसाधनों की जानकारी 30 तक वेबसाइट पर डालें
संबद्ध स्कूलों में मनमानी फीस वसूलने और समुचित संसाधनों की कमी की शिकायतों पर कड़ा रुख अपनाने हुए सीबीएसइ ने स्कूलों को पारदर्शिता बरतने का भी निर्देश दिया है. इस संदर्भ में स्कूलों से कहा गया है कि वे छात्रों से लिये जानेवाले शुल्क तथा दी जानेवाली सुविधाओं की पूरी जानकारी स्कूल की वेबसाइट पर उपलब्ध कराएं.
बोर्ड द्वारा 25 अक्तूबर को जारी पत्र में प्रबंधन, इंफ्रास्ट्रक्चर, स्टाफ से जुड़ी सामान्य सूचनाओं के साथ-साथ इंटरनेट, परीक्षा परिणाम, कोष के विवरण आदि 30 नवंबर तक बताने होंगे.
इस संबंध में एक निर्देश जून में ही जारी किया गया था. फिर सितंबर में 31 अक्तूबर की सीमा निर्धारित की गयी, जिसे अब और एक महीने के लिए बढ़ा दिया गया है. बोर्ड ने चेतावनी दी है कि जो स्कूल इन शर्तों को पूरा नहीं करेंगे, उनके छात्र बोर्ड परीक्षाओं में शामिल नहीं हो सकेंगे.
बोर्ड ने इंफ्रास्ट्रक्चर और सुरक्षा मानकों पर भी जोर दिया है.
बहुत से स्कूलों के प्रबंधक इन निर्देशों को उनकी स्वयत्तता में हस्तक्षेप मान रहे हैं, पर बोर्ड ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि नियमों के पालन में कोताही तथा छात्रों और अभिभावकों पर बेजा बोझ को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है.
शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट रोकने के उपायों पर विचार
सीबीएसइ की दसवीं कक्षा में अनिवार्य बोर्ड परीक्षा तथा प्राथमिक कक्षाओं में परीक्षा लेने की प्रणाली को फिर से बहाल किया जा सकता है. इन बदलावों का असर 20 करोड़ छात्रों पर होगा.
पिछले माह की 25 तारीख को केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की बैठक के बाद केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया था कि स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में निरंतर गिरावट के मद्देनजर जरूरी उपाय करना जरूरी है. इस बैठक में राज्यों के शिक्षा मंत्री और विशेषज्ञ भी शामिल थे. इसमें यह सहमति बनी कि केंद्र सरकार राज्यों को स्वतंत्रता देने के लिए समुचित संशोधन ला सकती है, ताकि राज्य प्राथमिक कक्षाओं में छात्रों को असफल न करने की नीति की समीक्षा कर सकें. जावड़ेकर ने शिक्षा के अधिकार कानून में संशोधन के प्रस्ताव को कैबिनेट के सामने रखने का आश्वासन भी दिया है.
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री के अनुसार, जो राज्य छात्रों को असफल न करने की नीति के पक्ष में नहीं हैं, वे संशोधन के बाद पांचवीं और आठवीं कक्षा में परीक्षाएं करा सकते हैं तथा इस नीति के पक्षधर राज्य इसे जारी रख सकते हैं. फिलहाल सभी राज्यों के शिक्षा बोर्ड दसवीं में बोर्ड परीक्षा लेते हैं, सिर्फ सीबीएसइ प्रणाली में ही यह प्रावधान वैकल्पिक है. केंद्र 2018 में इसे फिर से अनिवार्य बनाने का निर्णय कर सकता है. प्राथमिक कक्षाओं में परीक्षा की वापसी आगामी शैक्षणिक सत्र से ही हो सकती है.
तथ्यों के आइने में सीबीएसइ
सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन (सीबीएसइ) के मौजूदा स्वरूप में आने तक इसमें कई बार बदलाव किया गया है. यूनाइटेड प्रोविंसेज सरकार ने पहली बार वर्ष 1921 में देश में ‘यूपी बोर्ड ऑफ हाइ स्कूल एंड इंटरमीडिएट एजुकेशन’ का गठन किया था, जिसके तहत राजपुताना, मध्य भारत और ग्वालियर को शामिल किया गया था. वर्ष 1929 में केंद्र सरकार ने कई अन्य इलाकों को इसमें शामिल करते हुए ज्वाइंट बोर्ड का गठन किया, जिसे ‘बोर्ड ऑफ हाइ स्कूल एंड इंटरमीडिएट, राजपुताना’ नाम दिया गया.
इसमें अजमेर, मारवाड़, मध्य भारत व ग्वालियर को शामिल किया गया था. उन्नत गुणवत्ता और मानक शिक्षा के बावजूद, देश में अनेक विश्वविद्यालयों व स्टेट बोर्डों की मौजूदगी के कारण यह कई दशकों तक अजमेर, भोपाल और विंध्य प्रदेश तक ही सिमटा रहा. वर्ष 1952 और फिर 1962 में इसका पुनर्गठन किया गया, जिससे इसका दायरा बढ़ा. सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के अलावा विदेशों में भी अनेक स्कूल आज इस बोर्ड से संबद्ध हैं.
सीबीएसइ के घोषित उद्देश्य
– गुणवत्ता से समझौता किये बिना बच्चों को तनाव-रहित शिक्षा मुहैया कराना.
– विभिन्न स्टेकहोल्डर्स से फीडबैक द्वारा एकेडमिक गतिविधियों की गुणवत्ता का विश्लेषण और निगरानी.
– गुणवत्तायुक्त विविध एकेडमिक गतिविधियों को लागू करने के लिए तरीके विकसित करना.
– एकेडमिक एक्सीलेंसी हासिल करने के लिए मनोवैज्ञानिक और सामाजिक सिद्धांतों के अनुरूप इनोवेटिव तरीके विकसित करना.
– छात्रों की प्रगति का दस्तावेज तैयार करने के लिए स्कूलों को प्रोत्साहित करना.
– शिक्षकों की पेशेवर दक्षता बढ़ाने के लिए संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन करना.
(स्रोत : सीबीएसइ डॉट एनआइसी डॉट इन)
सीबीएसइ स्कूलों पर उठते सवाल
– सीबीएसइ से संबद्ध अनेक स्कूल ऐसे हैं, जिनके पास समुचित इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रशिक्षित शिक्षक और कर्मचारी नहीं हैं. सीबीएसइ इस कमी को सुधार पाने में असफल रही है.
– स्कूलों द्वारा मनमाने ढंग से शुल्क वसूलने की शिकायतें भी आम हैं. इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश और नियंत्रण न होने से छात्रों और अभिभावकों पर काफी बोझ है.
– कई बार सीबीएसइ की परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों को लेकर भी शिकायतें आती रहती हैं. पिछले दिनों 12वीं कक्षा में पुनर्मूल्यांकन की प्रणाली समाप्त करने के निर्णय से स्कूल और छात्र नाराज हैं.
– अनेक ऐसे स्कूल भी देश में चल रहे हैं, जो संबद्धता का दावा करते हैं, लेकिन जिन्हें सीबीएसइ की मान्यता नहीं है. इस फर्जीवाड़े से भी छात्रों और अभिभावकों को परेशानी हो रही है.
शिक्षकों से गैर-शैक्षणिक काम कराना देश के साथ अन्याय
जेएस राजपूत
पूर्व निदेशक, एनसीइआरटी
जब कोई अधिकारी (चाहे वह किसी भी पद पर हो) किसी भी सरकारी या गैरसरकारी जरूरत के लिए किसी स्कूल के शिक्षक को स्कूल से खींच कर 15 दिन के लिए किसी गैर-शिक्षण काम में लगाता है, तो वह देश के साथ अन्याय करता है. यह शिक्षा-व्यवस्था और बच्चों के भविष्य के साथ एक प्रकार का अन्याय है. इसकी जवाबदेही तय होनी ही चाहिए.
य ह आज की बात नहीं है, सीबीएसइ बहुत पहले से यह कहता आ रहा है कि शिक्षकों को पढ़ाई, परीक्षा, शैक्षिक मूल्यांकन आदि के अलावा किसी अन्य काम में नहीं लगाया जाना चाहिए. सीबीएसइ ने तो यह भी निर्देश दिया है कि स्कूल अपनी वेबसाइट पर फीस इन्फ्रास्ट्रक्चर, सुरक्षा के इंतजाम और अध्यापकों की शैक्षिक योग्यता के बारे में पूरी जानकारी डालें. सीबीएसइ की यह बहुत अच्छी पहल है और इस पर सभी संबंधित लोगों को ईमानदारी से ध्यान देना चाहिए.
जहां तक शिक्षकों के गैर-शैक्षणिक कामों में लगाये जाने की बात है, तो जब तक इस देश में शिक्षा को लेकर जागरूकता नहीं आयेगी, तब तक शिक्षा का अधिकार अधिनियम तो क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेशों-निर्देशों की अवहेलना लोग करते रहेंगे. शिक्षा का अधिकार कानून में यह साफ-साफ कहा गया है कि किसी भी शिक्षक को गैर-शिक्षण गतिविधियों में नहीं लगाया जाना चाहिए. लेकिन, राज्य सरकार के स्कूलों के शिक्षकों को भी वहां के जिलाधिकारी दूसरे कामों में लगा देते हैं. समस्या यहीं पर आती है. यहां जवाबदेही तय करने की जरूरत है कि अगर कोई जिलाधिकारी ऐसा करता है, तो उसके खिलाफ अनुकरणीय कार्रवाई हो.
आज हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा को लेकर जितने भी सर्वेक्षण आते हैं, सब में कमोबेश यही निष्कर्ष होता है कि पांचवीं कक्षा का बच्चा दूसरी कक्षा की किताब नहीं पढ़ पाता है. इसमें बच्चे की गलती नहीं है, लेकिन सब लोग बच्चे को ही नकारा मान लेते हैं. ऐसी स्थिति में भविष्य को लेकर बच्चों का व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है और इसके लिए जिम्मेवार प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था है. इस स्थिति से बच्चों को निकालने के लिए उनका मनोबल बढ़ाना चाहिए. लेकिन, अगर एक शिक्षक को 80 या 100 बच्चे दे दिये गये उन्हें पढ़ाने के लिए, तो एक शिक्षक इतने बच्चों का मनोबल कैसे बढ़ा सकता है?
इस वक्त देश की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को ठीक करने और शिक्षकों का अनुपात बेहतर बनाने की बड़ी जरूरत है. फिनलैंड में कुछ साल पहले एक शिक्षक पर 16 बच्चे थे, जो अब 13 बच्चे हो गये हैं. हमारे यहां सरकार मानती है कि एक शिक्षक पर 35-40 बच्चे हैं, लेकिन हकीकत में इससे कहीं ज्यादा बच्चों का आंकड़ा दिखता है. यानी एक तो हमारे यहां शिक्षक और बच्चों के बीच का अनुपात दुरुस्त नहीं है, शिक्षकों की संख्या कम है, और दूसरे उन्हें गैर-शिक्षण कामों में लगा दिया जाता है. ऐसे में शिक्षा व्यवस्था पर असर तो पड़ना ही है.
निजी क्षेत्र पर आश्रित मौजूदा शिक्षा व्यवस्था गरीब तबकों के बच्चों को और भी कमजोर बना रही है. इसके मद्देनजर सरकारी प्राथमिक स्कूलों की व्यवस्था को तुरंत दुरुस्त करना जरूरी है. साथ ही, शिक्षकों को उचित तनख्वाह समय पर दी जाये और उनकी ट्रेनिंग पर सरकार खर्च करे, ताकि उन्हें किसी और कामों में जाने की जरूरत ही न पड़े. सरकार ने व्यवस्था की है कि शिक्षकों की ट्रेनिंग दो साल की हो, लेकिन अब भी कुछ लोग इसे एक साल करने की बात करते हैं. अगर ऐसा हुआ, तो यह शिक्षा व्यवस्था के ऐतबार से एक घातक कदम होगा.
(बातचीत पर आधािरत)

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