कृष्णबिहारी मिश्र 85वां जन्‍मदिन : हमने गुलामी में भी भारतीयता नहीं खोयी, अब वही खो रहे हैं

पिछले दो दिनों में दो बार कृष्णबिहारीजी से फोन पर लंबी बातचीत हुई. उसका संक्षिप्त अंश यहां प्रस्तुत कर रहे हैं. इससे पता चलेगा कि वे कैसे व्यक्ति हैं और उनकी समझ का दायरा कितना बड़ा है और हिंदी के बौद्धिकों में वे क्यों सबसे अलहदा हैं… कृष्णबिहारी मिश्र से निराला की बातचीत 85 साल […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 5, 2016 8:36 PM
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पिछले दो दिनों में दो बार कृष्णबिहारीजी से फोन पर लंबी बातचीत हुई. उसका संक्षिप्त अंश यहां प्रस्तुत कर रहे हैं. इससे पता चलेगा कि वे कैसे व्यक्ति हैं और उनकी समझ का दायरा कितना बड़ा है और हिंदी के बौद्धिकों में वे क्यों सबसे अलहदा हैं…

कृष्णबिहारी मिश्र से निराला की बातचीत

85 साल की उम्र हो गयी. आप सक्रियता के साथ इसी तरह आगे और जीयें और आपकी रचनाधर्मिता बनी रहे.

बुढ़ौती का असर हो गया है बचवा. अंखिया से पानी आने लगा है. पढ़ नहीं पा रहे, लिख नहीं पा रहे. बुढौती और आंख ने मिलकर धर्म छुड़ा दिया है. धर्मविहीन जिंदगी गुजार रहा हूं. अपना धर्म तो पढ़ना-लिखना ही है न.धर्म नहीं निबाह पा रहा तो जिसे खिन्नता कहते हैं, वह कभी-कभार हावी हो जाता है. खरिका जैसा शरीर शुरू से है लेकिन बरियार बैल जैसा काम करते रहे जिंदगी भर, तो अब काम किये बिना मन नहीं लगता. देखो ना तुमसे बात कर रहे हैं, सोपारी गले में अझुरा गया है. अब बताओ कि जिस सोपारी को जीवन भर कचरते रहे, उ भी अझुराने लगा है, तो बुढ़ौती हावी ही हो गया है न! रखो फोन अभी बात नहीं कर पा रहा सोपारी के फंसे होने के कारण.

(उस वक्त वे फोन रख देते हैं. बात नहीं कर पाते. फिर शाम को बात होती है)

आप तो देश के बड़े महानगर में गंवई चेतना से लैस मानुष बने रहे. एकदम ठेठ-गंवई भोजपुरी बनकर रहते हैं. खुद से भी आपको खूब लड़ना पड़ा होगा.

नहीं, एकदम नहीं. कलकत्ते में मैं जहां रहता हूं, उस पूरे काॅलोनी और मोहल्ले में अकेला हिंदीभाषी हूं. बाकी सारे बांग्लाभाषी हैं. बंगाली बहुत रिजर्व और सेलेक्टिव होते हैं. वे जल्दी किसी से आत्मीय नहीं होते. उन्हें अपनी भाषा-संस्कृति पर सबसे ज्यादा गर्व रहता है और यह अच्छी बात भी है.

हिंदीवालों से जल्दी नहीं जुड़ते लेकिन मेरा सौभाग्य रहा कि मेरे आसपास रहनेवाले तमाम बांग्लाभाषी शुरू से ही बहुत आत्मीयता से जुड़े रहे. यह सब एक दिन में नहीं हुआ. भाषा तो किसी समुदाय के लिए एक माध्यम भर होती है, असल तो मानवता और भावना होती है. बाबरी मसजिद विध्वंस हुआ था तो हमने अपने मोहल्ले में एक कैंप बनाया था.

इकलौता कैंप था, जहां हिंदू और मुसलमान साथ रहते थे. यह एक ऐसा अभियान था, जिसने हमारे पूरे मोहल्ले को एक मानवीय समुदाय में बदल दिया. रही बात गांव को जीने की, तो उसके लिए कभी लड़ना नहीं पड़ा खुद से. मैं तो ठेठ गंवई आदमी ही हूं न. किसान परिवार से हूं. गांव कभी गया नहीं मन से. लेकिन अब तो गांव भी गजब के होते जा रहे हैं. मैं तो अब जा नहीं पाता गांव, लेकिन कुछ ऐसी घटनाएं हुई, जिससे लग रहा है कि गांव भी अपना स्वत्व और निजता खोते जा रहे हैं और यह बड़ा संकट है भविष्य के लिए. गांव अगर अपनी पहचान खोयेंगे, स्वत्व खो देंगे तो भारत जैसे मुल्क के लिए बड़ी परेशानी होगी.

कैसी घटनाएं घटी, जिससे उपजे अनुभव के आधार पर आप यह बात कह रहे हैं?

अब क्या बताऊं? अभी कुछ दिनों पहले मेरी नतिनी अपने गांव गयी थी. बहुत उत्साह से गांव गयी. वह अपना घर-बागीचा देखने गयी थी. मुंबई में रहती है. उसका ससुराल हमारे गांव तरफ ही है.गांव में हमारे यहां अब ताला बंद रहता है. बेटे और परिवार के लोग हमेशा जाते हैं. वहां एक लंगर हैं, वही सब देखरेख करते हैं.

मेरी नतिनी गयी तो लंगर से लोगों ने पूछा कि कौन है? सबने बताया कि मेरी नतिनी है. वह बहुत देर तक रुकी. वहां से विदा होने लगी. ढेरों महिलाएं थीं लेकिन किसी ने चार दूब भी नहीं दिया, दो मुट्ठी चावल से खोईंछा भी नहीं भरा. नईहर से कोई बेटी चले, सामने महिलाएं हो और खोईंछा भी न भरे, यह तो सोचकर ही मन परेशान हुआ. मेरी नतिनी थी, इसलिए नहीं कह रहा, यह गांवों में खत्म होते स्वत्व और निजता की बात है.

लगातार पिछले दिनों से मेरे मन में गांव की तसवीर उभर रही है. चौथी कक्षा तक ही गांव रहा था, उसके बाद छूट गया लेकिन गांव हमेशा जाता रहा, जीवंत रिश्ता बना रहा. मुझे याद है कि एक बार मैंने भोजपुरी सम्मेलन की एक पत्रिका में भोजपुरी में अपने गांव पर एक लंबा लेख लिखा था. उसे अरुणेश नीरन ने अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया. मेरे गांव के ही एक सज्जन कलकत्ते में रहते थे.

वे घर आते थे. उन्होंने उस लेख को पढ़ा. मुझे मालूम नहीं चला, हमारे ग्रामीण कब उसकी फोटोकाॅपी करा लिये. वह कई प्रति फोटोकाॅपी कराकर गांव गये तो बांटे. मैं कुछ दिनों बाद गांव गया था. वहां गया तो सबसे पहले एक बूढ़े व्यक्ति मिले. वे मुझे देखते ही अंकवारी में भरकर लगे रोने. मैं समझ नहीं पाया. कहने लगे कि तु लईकाई में गांव छोड़ देले रहअ बाकि केतना बसा के रखले बाड़अ अपना गांव के. हमनी के गांव में ही रहत बानीं जा बाकी एतना खूबसूरती से तो आपन गांव के जानते नईखीं जा, एतना कुल बात, एतना महत्व तो आज तक ना जनलीं जा आपन रहन-सहन के. गांव के लोग ऐसे ही होते हैं.

वे जानकर, उसे जनवाने के लिए कुछ नहीं करते. उनका जो स्वभाव होता है, वही उनका स्वत्व होता है. एक बार और की बात बताऊं. मैं खुद बूढ़ा होने पर गया. हमारे घर के पीछे एक आजी रहती थी. मैं अपने दालान में बैठा था. देखा कि एक महिला आ रही है, फिर लौट गयी. मैंने लंगर से पूछा कि के रहल ह हो जे आवत रहल ह, फेरू लवट गईल. लंगर ने बताया कि पिछिलका दुआरीओला आजी ना रहली ह.

मैंने पूछा कि लौट क्यों गयी? अभी यह बात कर ही रहा था कि देखा फिर आजी सामने आ गयी. प्रणाम पाति के बाद पूछा कि आजी लवट काहे गईलू ह हो, आवत रहलू ह तो! आजी ने कहा कि तोहरे के देख के लवट गईल रहीं. काल्हे ना अपना नईहरा से लवटनी ह. का जानी अब फेरू नईहर जाईब कि ना, का जानी नईहर जाईब तो तू सामने रहबअ कि ना.

नईहर से ठेकुआ लाईल बानी. वे अपने अंचरा से ढंक कर, एक प्लेट में कर के दो ठेकुआ लेकर आयी थी मेरे लिए. ऐसा ही गांव रहा है, इसलिए इस बार जब मेरी नतिनी बतायी तो मन में लगा कि क्या गांव मंें भी निजता का, स्वत्व का लोप होता जा रहा है! इस सवाल ने परेशान कर रखा है.

अगर ऐसा हो रहा है तो क्या मानें. यह उदारीकरण, बाजारीकरण, भूमंडलीकरण के बाद आयी आंधी का प्रभाव है, जिसमें गांव अपना स्वत्व खोकर विकास की रेस में शामिल होने के लिए आतुर हैं और सब बदलाव-बिगड़ाव इसी से हो रहे हैं?

नहीं, ऐसा मैं नहीं कहूंगा. ऐसा तो नहीं कहूंगा कि सब विकास के कारण हो रहा है. विकास एक अच्छी चीज है. यह भी मैं मानता हूं कि पिछले कई सालों में तेजी से विकास हुआ है और जीवन स्तर में तेजी से बदलाव आये हैं, जो अच्छा ही है. यह जरूरी भी था. मैंने तो गांव में वह दिन देखे हैं जब ऊनी कपड़ा गांव में किसी-किसी के पास होता था. ऊनी शाॅल तो गांव-जवार में मेरे घर पर ही एक जोड़ी था. शादी-ब्याह-गवना आदि में उसी को मांगकर ले जाया जाता था, उसी से काम चलता था. लेकिन अब किसके पास ऊनी कपड़ा नहीं होता.

घोर विपन्नता थी. अब वह स्थिति नहीं है और यह विकास जरूरी था. लेकिन हमें यह सोचना होगा कि हम इतने अभाव में रहे, सदियों तक गुलामी में रहे फिर भी अपनी निजता को बचाये रखे, तो फिर इतनी तरक्कीवाले युग में अपनी निजता ही क्यों खोते जा रहे हैं? अपनी पहचान ही क्यों खोते जा रहे हैं. इसकी कई वजहें हैं, जिसमें एक वजह तो यह भी है हम सबका भी दोष है. हमने अपनी ही चीजों पर गर्व किया नहीं, उसे गर्व का विषय बनाया ही नहीं. दूसरी दुनिया में मगन होते गये.

जैसे?

जैसे ढेरों बातें हैं. आप आदिवासियों का जीवन देखिए. उनके जीवन के खूबसूरत पक्ष को देखिए. क्या हम लिखने-पढ़नेवाले बौद्धिक कभी उसे ठीक से बताये हैं कि उनका जीवन दर्शन कैसे खास है और उसे अपनाने से, उस पर गर्व करने से कई मुश्किलें कैसे आसान हो सकती हैं. जैसे मैं एक उदाहरण तो अपने ही इलाके का देता हूं. गाजीपुर में एक पौहारी बाबा थे.

उनका दर्शन करने विवेकानंद उनके पास पहुंचे थे. पौहारी बाबा से उनकी मुलाकात हुई. पौहारी बाबा ने कहा कि तुम्हारे गुरु कोई और हैं, भटकने की जरूरत नहीं. खैर, यह तो अलग प्रसंग है लेकिन आप सोचिए कि उतनी दूर से चलकर विवेकानंद नहीं गये होते, वे नहीं बताये होते तो हम पौहारी बाबा को जानते तक नहीं. पौहारी बाबा के बारे में नहीं बताया गया तो आज भी जाइये उनके इलाके में लोग पौहारी बाबा का स्थान बता देंगे, नाम का जयकारा लगा देंगे.

उनका क्या महत्व था, यह कोई नहीं बतायेगा. तो ऐसे ही जो जीवन-दर्शन की चीज है, आध्यात्मिक अनुभूति की चीज है, उसे उभारे नहीं हम. जीवन दर्शन, अध्यात्म ही चरित्र और संस्कार का निर्माण करते हैं. इन विषयों पर हमारे हिंदी इलाके में सांस्कृतिक आयोजन की परंपरा नहीं रही तो लय लड़खड़ा रही है और इस लय के लड़खड़ाने से आनेवाली चुनौतियों को देख पा रहा हूं.

किस तरह का संकट देख रहे हैं?

यह हमारा देश अरण्यक रहा है. जंगलों का देश. गांवों का देश. गांव ही मूल हैं. गांव ने ही गुलामी में भी भारतीयता को बचाये रखने की प्रेरणा और ताकत दी. भारत के पास मूल पूंजी और दुनिया में उसकी पहचान भारतीयता ही है. भारतीयता पर संकट आयेगा तो समझिए कि लाख तरक्की के बावजूद देश कहां होगा. हमारी भारतीयता से ही दुनिया में हमारा मान रहा है.

महान विद्वान मैक्समूलर की दो खंडों में चिट्ठियों की किताब है. एक खंड में अपनी श्रीमती के नाम लिखी हुई चिट्ठियां हैं, दूसरे खंड में लाॅर्ड मैकाले के नाम लिखी हुई चिट्ठियां. मैक्समूलर एक चिट्ठी में मैकाले को लिखते हैं कि यह जो भारत है, उसकी असली ताकत उसकी संस्कृति है, भारतीयता है, उनका निजीपन है, स्वत्व के प्रति आग्रह है.

अगर इसे खत्म नहीं करोगे तो लंबे समय तक राज नहीं कर पाओगे. आप समझिए कि मैक्समूलर कितनी गहराई से चीजों को समझ कर क्या लिख रहा था मैकाले को और फिर मैकाले ने क्यों कोशिश की थी भारतीयता को खत्म करने की. लेकिन गुलाम भारत में किसी ने भी भारतीयता को खत्म नहीं किया, अब हम अपने से अपना स्वत्व, अपनी निजता खोते जा रहे हैं तो सबसे बड़ा संकट यही आनेवाला है.

आपने जो बातें कहीं उससे यह परिलक्षित होता है कि जो बुद्धिजीवी समाज है, उसने अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं किया. जो बताना चाहिए था, उभारना चाहिए था, वह नहीं उभारा, इसलिए यह इस समूह की भी चूक है.

परिलक्षित होने की बात नहीं, मैं तो खुलकर कहता हूं कि बुद्धिजीवी अब इंद्रियजीवी हो गये हैं. विनोबा जैसे संत कहते थे कि बुद्धिजीवी कुछ दिनों तक लिखना पढ़ना बंद कर देंगे तो दुनिया तबाह होने से बच जाएगी. मैं भी यही कहता हूं कि बुद्धिजीवी और उसमें भी विशेषकर हिंदी इलाके के बुद्धिजीवी अगर कुछ दिनों तक रहम कर के लिखना पढ़ना बंद कर दे तो देश पर और हिंदी इलाके पर एहसान होगा. यह इलाका तबाह होने से बच जाएगा. मैं तो अब स्मरण करता हूं कि क्यों हमारे ऋषितुल्य गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीजी ने तब इमरजेंसी के पक्ष में हस्ताक्षर किया होगा.

अब आखिरी सवाल. इतना काम किया आपने. इतना नाम हुआ आपका. आपको ढेरों प्रस्ताव आये होंगे, फिर क्यों नहीं कहीं गये. कलकत्ता के एक काॅलेज में ही जीवन भर सेवा देते रहे, एक कोठरी में जीवन गुजारते रहे.

मैं तो कभी यूनिवर्सिटी भी नहीं गया. मुझे कई प्रस्ताव मिले. ढेरों प्रस्ताव. एक बार मोह हुआ था जब अपने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से प्रस्ताव आया था. मेरी दिली इच्छा थी कि अपने विश्वविद्यालय में रहूं, लेकिन वहां नहीं जा सका. और जब वहां ही नहीं गया तो फिर कहीं क्यों जाना? बंगाल आया तो यह तो हिंदी के लिए सबसे समृद्ध इलाका रहा है. यहां आनंद आने लगा.

काॅलेज में ही रहा. कभी यूनिवर्सिटी प्राध्यापक बनने की भी इच्छा नहीं हुई. काॅलेज में रहकर ही जो कर सकता था, जितना संभव था, वह करता रहा. काम पर ही ध्यान रहा, नाम, यश, प्रतिष्ठा पर नहीं. काॅलेज में रहते भी सरकार इतना देती थी कि दाल-रोटी-भात-तरकारी चले. रिटायर होने के बाद पेंशन भी सरकार इतना दे देती है कि खरिका जैसा मेरा देह पला जाये. और क्या चाहिए…

कृतियां एवं सम्मान

पत्रकारिता

हिंदी पत्रकारिता: जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण भूमि

पत्रकारिता: इतिहास और प्रश्न

हिंदी पत्रकारिता’ जातीय अस्मिता की जागरण (भूमिका)

गणेश शंकर विद्यार्थी

हिंदी पत्रकारिता: राजस्थानी आयोजन की कृति (भूमिका)

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कल्पतरु की उत्सव लीला

(परमहंस रामकृष्ण देव की लीला प्रसंग पर केंद्रित पुस्तक)

संपादन

हिंदी साहित्य: बंगीय भूमिका

श्रेष्ठ ललित निबंध (12 भाषाओं के प्रतिनिधि ललित निबंधों का दो खंडों में संकलन)

कलकत्ता—87

नवाग्रह (कविता संकलन)

समिधा (त्रैमासिक साहित्य पत्रिका)

अनुवाद

भगवान बुद्ध (युनू की अंग्रेजी पुस्तक का अनुवाद, कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रकाशित)

सम्मान

मूर्तिदेवी पुरस्कार (भारतीय ज्ञनपीठ)

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