चुनावी रथ पर अखिलेश
मुलायब परिवार में पिछले कुछ महीनों से चल रहे महाभारत से ऐसा लगने लगा था कि आगामी चुनाव में सपा या तो विभाजित होकर या फिर गुटबंदी के साथ मैदान में उतरेगी. परिवार के मुख्य सदस्यों के बीच की तनातनी का असर कार्यकर्ता स्तर तक दिखने लगा था. लेकिन, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सियासी रथ […]
मुलायब परिवार में पिछले कुछ महीनों से चल रहे महाभारत से ऐसा लगने लगा था कि आगामी चुनाव में सपा या तो विभाजित होकर या फिर गुटबंदी के साथ मैदान में उतरेगी. परिवार के मुख्य सदस्यों के बीच की तनातनी का असर कार्यकर्ता स्तर तक दिखने लगा था. लेकिन, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सियासी रथ पर न सिर्फ पूरा परिवार एक साथ सवार हुआ, बल्कि पार्टी के कार्यकर्ताओं, खासकर युवाओं, में जोश भी भरपूर दिख रहा है. ऐसे में अखिलेश इस रथयात्रा के जरिये कई निशाने साधने मेें सफल हुए हैं.
इस रथ के सामने भाजपा ने अपना परिवर्तन रथ ला खड़ा किया है. मायावती पहले से ही रैलियों के जरिये सपा और भाजपा को चुनौती दे रही हैं. उधर, राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस भी अपनी खोयी जमीन पाने की जद्दोजहद कर रही है. नये गंठबंधन बनने की चर्चाएं भी आम हैं. इससे प्रदेश का राजनीतिक तापमान तेजी से चढ़ने लगा है, जिसमें अखिलेश यादव की रथयात्रा एक विशिष्ट परिघटना है, जो पर्यवेक्षकों को उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति को फिर से टटोलने को मजबूर कर रही है. रथयात्रा की पृष्ठभूमि में उत्तर प्रदेश के बदलते राजनीतिक माहौल पर एक नजर आज के इन-दिनों में…
।।नवीन जोशी।।
वरिष्ठ पत्रकार
नायक बनने की रथयात्रा‘
विकास से विजय की ओर’- यह नारा है अखिलेश की रथयात्रा का, जो तीन अक्तूबर को लखनऊ से शुरू हुई. इस रथ को विभिन्न चरणों में पूरे उत्तर प्रदेश में घूमना है. इसलिए अभी इसके प्रभाव का आकलन करना थोड़ी जल्दबाजी होगी, लेकिन जिस तरह से यह यात्रा लखनऊ से शुरू हुई, उसे देख कर कुछ दिशा-संकेत तो देखे ही जा सकते हैं. एक संकेत समाजवादी पार्टी के भीतर मचे कलह में अखिलेश को विजयी होता दिखाता है. दूसरा संकेत पार्टी के बाहर यानी प्रदेश के मतदाताओं और विरोधी दलों के लिए है कि आसन्न चुनाव में सपा की दावेदारी उतनी कमजोर नहीं लगती, जितनी कि समझी जा रही है.
रथयात्रा से निकले संदेश
विभाजन की कगार पर खड़ी समाजवादी पार्टी के नेताओं ने अखिलेश की रथयात्रा के बहाने एकता दिखाने की कोशिश की. वर्चस्व के लिए छिड़ी पारिवारिक कलह ने पिछले डेढ़ महीने में सपा में साफ-साफ दो पाले खींच दिये. चुनाव सामने नहीं होते, तो पार्टी औपचारिक रूप से टूट ही गयी थी. एक तरफ अखिलेश सारा जोर अपनी रथयात्रा की तैयारी में लगा रहे थे, तो दूसरी तरफ चाचा शिवपाल ने पांच नवंबर से शुरू हुई सपा की रजत जयंती की तैयारियों में पूरी ताकत झोंक रखी थी.
दो अक्तूबर की रात तक यह साफ नहीं था कि अखिलेश की रथयात्रा को सपा मुखिया मुलायम सिंह हरी झंडी दिखायेंगे या नहीं. शिवपाल ने तो इशारों में साफ कर दिया था कि वे इसमें शामिल नहीं होंगे. लेकिन, तीन नवंबर की सुबह जब मुलायम रथयात्रा के मंच पर पहुंचे, तो शिवपाल भी उनके पीछे थे. दरअसल, पार्टी और परिवार की एकता साबित करने को बेचैन मुलायम को अखिलेश के आग्रह पर वहां आना पड़ा. मुलायम शिवपाल को भी साथ लाये. इस तरह अखिलेश की रथयात्रा ने कार्यकर्ताओं के हुजूम को पहला संदेश यह दिया कि कम-से-कम चुनाव के मौके पर पार्टी और परिवार में एकता है. सपा कार्यकर्ताओं को इस वक्त इसी संदेश की जरूरत थी.
प्रभावी बन कर उभरे अखिलेश
रथयात्रा में भारी भीड़ उमड़ी. उसमें युवकों की भागीदारी उल्लेखनीय थी. शिवपाल और उनके बेटे को छोड़ कर यादव परिवार के बाकी नेताओं के नाम से भी रथयात्रा के समर्थन में पोस्टर लगे. इससे यह साबित हुआ कि पार्टी की कलह में अखिलेश प्रभावशाली बन कर उभरे हैं. कलह के पहले दौर में अखिलेश पराजित और अकेले दिखाई दे रहे थे. मुलायम ने उस समय जो समझौता कराया था, उसमें शिवपाल को सब कुछ वापस मिला और बोनस के रूप में अखिलेश से छिना प्रदेश अध्यक्ष का पद भी. अखिलेश को नीचा देखना पड़ा था. लेकिन, दूसरे दौर की लड़ाई में मंत्रिमंडल से बाहर किये गये शिवपाल और अन्य मंत्रियों को मुलायम भी वापस नहीं करवा पाये.
इस बार अखिलेश अपनी कार्रवाई पर अड़े रहे. तभी से बाजी अखिलेश की तरफ पलटती दिखाई दी. रथयात्रा की भीड़ और उसमें मुलायम एवं शिवपाल की शिरकत ने अखिलेश को विजेता के रूप में पेश किया. यह उल्लेखनीय है कि शिवपाल ने अखिलेश को रथयात्रा के लिए शुभकामनाएं दीं, लेकिन अखिलेश ने चाचा को कोई तवज्जो नहीं दी. इस तरह, जहां रथयात्रा ने कलहग्रस्त सपा में फिलहाल एकता का संदेश देने की कोशिश की, वहीं युवा अखिलेश को कार्यकर्ताओं के बीच लोकप्रिय और पार्टी में मजबूत साबित किया.
मुसलमानों को भरोसा दे सकती है यात्रा
रथयात्रा का दूसरा संकेत मतदाताओं और विरोधी दलों के लिए है. समाजवादी पार्टी के भीतरी झगड़े से सबसे ज्यादा चिंतित मुसलिम मतदाता हैं. भाजपा को हराने के लिए सपा ही उनकी पसंदीदा पार्टी रही है. अब, जबकि वे यूपी में भाजपा को सत्ता में आने से रोकना चाहते हैं, उन्हें चिंता यही है कि वे कलहग्रस्त सपा पर कैसे भरोसा करें? यह चर्चा भी सुनी जा रही है कि वे बसपा की तरफ जाने का विचार कर रहे हैं. ऐसे में रथयात्रा के मौके पर दिखी सपा की एकता मुसलमानों को भरोसा दे सकती है. यह बात उनके लिए कम महत्वपूर्ण नहीं कि झगड़े के बावजूद सपा एकजुट होकर चुनाव लड़ेगी.
इस लिहाज से सपा में एकता का प्रदर्शन बसपा के लिए निराशाजनक हो सकता है. दलितों के साथ मुसलमानों का समर्थन मायावती को बहुत मजबूत बना सकता है. सपा के झगड़े से वे ऐसी उम्मीद कर भी रही हैं. पार्टी में एकता या अखिलेश का वरदहस्त उनकी उम्मीदें तोड़नेवाला होगा.
तो अखिलेश होंगे दमदार चेहरा
पार्टी पर अखिलेश का वर्चस्व उन मतदाताओं के लिए भी आश्वस्तकारी हो सकता है, जो उनमें एक साफ-सुथरा, अपराधी नेताओं से दूरी बनानेवाला संभावनाशील युवा नेता देखते हैं. पारिवारिक कलह के दौरान गैर सपा-समर्थकों की सहानुभूति भी अखिलेश के साथ रही.
यूपी की सता तक पहुंचने के लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की एक रणनीति बसपा और सपा को भीतर से कमजोर करने की है. बसपा के कई बड़े नेताओं को तोड़ कर भाजपा में इसी कारण शामिल कराया गया. सपा अंदरूनी झगड़े से खुद ही कमजोर हो रही है. सत्ता विरोधी रुझान भी उसके पाले में आना है. लेकिन, साफ-सुथरी छवि वाले युवा अखिलेश का सपा में मजबूत होकर उभरने का एक अर्थ भाजपा के सामने ताकतवर प्रतिद्वंद्वी का खड़ा होना भी होगा.
अखिलेश ने सपा में माफिया की घुसपैठ के खिलाफ आवाज उठा कर अपनी पार्टी का चेहरा बदलने की कोशिश करते रहे हैं. यह रुख मुलायम-शिवपाल की नीति के विपरीत है, लेकिन आम जनता को भाता है. अखिलेश सरकार के हिस्से कुछ बड़ी विकास योजनाओं का श्रेय भी आता है. रथयात्रा से निकला यह संकेत कि अब अखिलेश पिता और चाचा के प्रभाव-क्षेत्र से बाहर निकल आये हैं, उन्हें नये नायक के रूप में पेश करेगा. यह छवि विरोधी दलों के लिए चुनाव को कठिन बना सकता है.
जैसा कि शुरू में कहा है, रथयात्रा की अभी शुरुआत ही हुई है. राजधानी से उसकी जोरदार रवानगी सायास और लंबी तैयारियों की नतीजा जरूर रही होगी. यात्रा के आगे के चरण साफ करेंगे कि अखिलेश के नेतृत्व और चुनाव की संभावनाओं पर उसका कितना असर पड़ता है.
समाजवादी परिवार को चाहिए एक गंठबंधन
उत्तर प्रदेश में जनता परिवार का राग फिर से सुना जा रहा है. विधानसभा चुनाव जीतने के लिए समाजवादी पार्टी एक गंठबंधन की तलाश में है और लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में आयोजित अपनी रजत जयंती के मौके पर उसने इसका प्रयास भी किया है. उसे उम्मीद है कि इससे परिवार केंद्रित पार्टी टूटने से बच जायेगी और हाथ से खिसकती प्रदेश की सत्ता भी वापस मिल जायेगी. यही कारण है कि 2017 की महाभारत के कृष्ण बने मुलायम सिंह ने अखिलेश रूपी अर्जुन के लिए शिवपाल सिंह, शरद यादव, अजीत सिंह, लालू प्रसाद और एचडी देवगौड़ा जैसे महारथियों को साथ लाने का प्रयास किया है.
गंठबंधन या महागंठबंधन?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यह कह कर नहीं आये कि छठ बिहार का बड़ा पर्व है और इस मौके पर व्यस्तता के कारण वे बाहर जाने में असमर्थ हैं. लेकिन, साथ में उन्होंने यह भी संकेत दे दिया है कि उनकी रुचि गंठबंधन में नहीं, एक महागंठबंधन में है. नीतीश ने कहा था- बसपा को साथ लिये बिना उत्तर प्रदेश में जो होगा वह गंठबंधन होगा, बिहार की तरह महागंठबंधन नहीं. दरअसल, नीतीश कुमार चाहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी को पहले प्रदेश स्तर पर रोकने के लिए और बाद में राष्ट्रीय स्तर पर रोकने के लिए महागंठबंधन में बहुजन समाज पार्टी को भी शामिल होना चाहिए. ऐसे किसी महागंठबंधन के लिए कांग्रेस को पहल करनी होगी. हालांकि, बसपा नेता मायावती को आत्मविश्वास है कि वे अपने बूते पर सत्ता में आ रही हैं.
रजत जयंती समारोह की उपलब्धि
समाजवादी पार्टी के रजत जयंती समारोह की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि जो पार्टी 25 साल पूरे करने से पहले ही टूटने को तैयार थी, उसे मुलायम सिंह ने फिलहाल बचा लिया है. इसीलिए अर्जुन (अखिलेश) के रथ को हांकते हुए कृष्ण (मुलायम) कह रहे हैं- मैं ही हूं मुलायम, सब में हूं, न रहूं तो लोग टूट जायेंगे. मुलायम के इसी चमत्कारी व्यक्तित्व के कारण ही कभी तलवारें निकालनेवाले अखिलेश यादव मंच पर चाचा शिवपाल के पैर छू रहे हैं, तो शिवपाल उन्हें तलवार भेंट कर रहे हैं. लेकिन, मामला तलवार भेंट करने तक का नहीं है, परिवार के मूल्यों के लिए बलिदान करने की घोषणा तक पहुंच गया है. शिवपाल ने साफ कहा है- मुझे सीएम नहीं बनना है. अखिलेश खून मांगें, तो दे दूंगा. उसके बाद उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि अखिलेश कितनी बार भी बर्खास्त करें, मैं उफ तक नहीं करूंगा.
निगाहें प्रदेश पर, निशाना देश पर
हालांकि, परिवार और प्रदेश तक सीमित इस राजनीतिक महाभारत को बिखरे हुए लोगों के एकजुट होने के बनावटी प्रयास की तरह से पेश किया जा रहा है, लेकिन अगर अखिलेश और लालू प्रसाद की सुनें, तो लगेगा कि इससे देश की भावी राजनीतिक दिशा तय होगी. अखिलेश ने इस बात को उठा कर ठीक ही किया है कि आगामी चुनाव से देश की राजनीतिक दिशा तय होगी. इस बात को व्यापक स्तर पर महसूस किया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश का 2017 का विधानसभा चुनाव देश के 2019 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल है. इसे लालू प्रसाद ज्यादा साफगोई से व्यक्त कर रहे हैं. लालू ने यह कह कर राजनीतिक दिशा देने का प्रयास किया है कि जिस तरह बिहार से भाजपा को खदेड़ा था, उसी तरह से उत्तर प्रदेश से भी उसे खदेड़ेंगे.
लेकिन, शरद यादव इतनी साफ बात नहीं करते. वे कहते हैं कि अभी गंठबंधन पर कोई बात नहीं हुई है, इसलिए उसके बारे में कुछ कहना ठीक नहीं. संभव है उनके मन में मुलायम सिंह द्वारा बिहार के महागंठबंधन तोड़ने की गांठ हो या कभी राजग के संयोजक रहने के कारण भाजपा के विरुद्ध संयम की भाषा बोल रहे हैं. यानी इस गंठबंधन की राह में सिद्धांत और व्यवहार की दोनों दिक्कतें और दोनों की राहें भी दिख रही हैं. यहां चौधरी अजित सिंह के उस बयान पर भी गौर किया जा सकता है, जो उन्होंने अखिलेश को लक्ष्य करके दिया था कि, ‘जो व्यक्ति अपने पिता का नहीं हुआ, उसकी बात का क्या भरोसा.’
गंठबंधन का आधार क्या?
फिलहाल महागंठबंधन तो दूर की कौड़ी है, लेकिन गंठबंधन का प्रयास चल रहा है और उसी के मद्देनजर कांग्रेस का संदेश लेकर प्रशांत किशोर ने अखिलेश यादव से भेंट की है. इन्हीं प्रयासों को लक्ष्य करके भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने कहा है कि अगर सपा के रथ पर मायावती भी आ जायें, तब भी इस बार विजय भाजपा की ही होगी. दूसरी तरफ मायावती लगातार यह सफाई दे रही हैं कि वे भाजपा के साथ कोई गंठबंधन नहीं करेंगी.
असली सवाल यह है कि अगर उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ों का कोई गंठबंधन नहीं बन सकता, तो क्या सिर्फ पिछड़ों का कोई जोड़ बन सकता है? क्या लोहिया के समाजवाद, चरण सिंह के ग्रामीण विकास और पिछली सदी के अस्सी और नब्बे के दशक में उभरी धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा पर आधारित कोई राजनीतिक युग्म बन सकता है, जो भाजपा को चुनौती दे सके? इस बात का अहसास कांग्रेस से लेकर सभी गैर-भाजपाई दलों को है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके पीछे खड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यशैली में अपनी असहमति को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं है. वे अपने से असहमत दलों, चैनलों और अखबारों को या तो धमका या फुसला कर अपनी तरफ कर लेंगे, या फिर उन्हें देशद्रोही घोषित करके जनता से काट देना चाहेंगे. आज आपातकाल भले नहीं है, लेकिन 1972-73 जैसी कुछ स्थितियों का निर्माण हो रहा है, भारत का मुख्य न्यायाधीश जजों की भर्ती के लिए प्रधानमंत्री के सामने खुलेआम रोता है और फिर कहता है कि क्या सरकार न्यायपालिका में ताला लगा देना चाहती है! दूसरी तरफ एक ही खबर को दिखानेवाले बाकी चैनलों पर कुछ नहीं होता, लेकिन सरकार की विचारधारा पर चोट करनेवाले एक चैनल को ब्लैकआउट कर दिया जाता है.
मुलायम के राह की चुनौतियां
मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और शरद यादव ने पहले एक साथ और बाद में अलग-अलग पार्टी बना कर समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति को सवर्ण नेतृत्व के हाथों से छीन कर उसे पिछड़ों के हाथों में सौंपने की कोशिश की थी. इनमें मुलायम सिंह ने सत्ता के मोह में पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह का साथ छोड़ा और बाद में चंद्रशेखर का. उससे पहले वे सत्ता संघर्ष में अपने राजनीतिक गुरु चरण सिंह के बेटे का साथ भी छोड़ चुके थे और तब लगता था कि उन्हें परिवारवाद रास नहीं आता.
मुलायम सिंह यादव एक संघर्षशील नेता हैं और वे उन तमाम बड़े नेताओं को याद करते हैं, जिन्होंने भारत में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की नींव रखी थी. लेकिन, वे अपनी अलग राह भी बनाना चाहते हैं. मुलायम सिंह ने यह कह कर वीपी सिंह, चंद्रशेखर और देवीलाल का साथ छोड़ा था कि भीड़ हम जुटाते हैं और आदेश वे देते हैं. समाजवादी पार्टी बना कर और उसे 25 साल चला कर मुलायम सिंह ने यह तो बता दिया कि समाजवादियों को अगर सत्ता मिले, तो साथ भी चल सकते हैं और वे हर साल टूटने के लिए अभिशप्त नहीं हैं, लेकिन मुलायम को अब यह सूझ नहीं रहा है कि जिस भीड़ को वे जुटा लेते हैं, उसे क्या संदेश दिया जाये?
आज सवाल यह है कि क्या वे नयी राजनीति की इमारत को परिवारवाद की ईंट, सत्ता लोलुपता के गारे और गंठबंधन की सरिया से बचा सकेंगे? या फिर उसमें नये विचारों का समावेश करेंगे? सवाल यह भी है कि उन्हें यह गंठबंधन परिवार के लिए चाहिए, प्रदेश के लिए या फिर देश के लिए?
।।अरुण कुमार त्रिपाठी।।
वरिष्ठ पत्रकार
मिशन उत्तर प्रदेश : दलों की तैयारियां
भाजपा
शनिवार को ‘परिवर्तन रथयात्रा’ की शुरुआत के साथ भाजपा ने अपने मिशन 256 अभियान का बिगुल फूंक दिया है. सहारनपुर में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने हरी झंडी दिखा कर इसकी रवानगी की है. पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपना चेहरा घोषित नहीं किया है और इन यात्राओं के दौरान रथों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के अलावा अलग-अलग समुदायों से आनेवाले चार वरिष्ठ नेताओं- राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, उमा भारती और केशव प्रसाद मौर्य- की तसवीरें होंगी. खबरों के मुताबिक, प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश और अन्य चुनावी राज्यों में युवाओं को आकर्षित करने के लिए ‘युवाओं के मन की बात’ का सिलसिला शुरू कर सकते हैं.
राज्य के विभिन्न हिस्सों से गुजरनेवाली परिवर्तन यात्राओं की साझा रैली 24 दिसंबर को लखनऊ में प्रस्तावित है, जिसे प्रधानमंत्री मोदी संबोधित करेंगे. संकेत साफ हैं कि उत्तर प्रदेश में पार्टी के प्रचार अभियान का मुख्य दारोमदार प्रधानमंत्री के कंधों पर होगा और वे सात से आठ रैलियों में हिस्सा लेंगे. इसी बीच भाजपा के सहयोगी दल राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता और केंद्र में मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने चेताया है कि भाजपा को बिहार के नतीजों से सबक लेते हुए गलतियों को दुहराने से बचना चाहिए. ऐसी रिपोर्ट भी हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वरिष्ठ भाजपा नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों से सलाह-मश्विरा कर आपसी संयोजन को दुरुस्त करने के लिए प्रयासरत है. भाजपा अनेक छोटी-छोटी पार्टियों से गठबंधन कर रही है और अन्य दलों से आनेवाले नेताओं को महत्वपूर्ण जिम्मेवारियां दे रही है. पार्टी की जीत में विभिन्न जातियों और वर्गों में असर रखनेवाले ऐसे दल और नेता महत्वपूर्ण हो सकते हैं.
बसपा
मायावती उत्तर प्रदेश की सत्ता की मजबूत दावेदार बन कर उभर रही हैं. आगरा, आजमगढ़ और लखनऊ की उनकी विशाल रैलियों से संकेत साफ हैं कि बसपा के हौसले बुलंद हैं. समाजवादी पार्टी के अंदर मचे घमसान और भाजपा के जोर-शोर से मैदान में उतरने से बसपा को यह उम्मीद बंधी है कि उसे परंपरागत दलित वोटों के अलावा मुसलिम मतदाताओं का समर्थन भी मिल सकता है. अन्य दलों की तरह रोड शो या यात्राओं की जगह मायावती या तो रैलियां कर रही हैं या फिर उनके कार्यकर्ता क्षेत्रवार स्थानीय स्तर पर प्रचार कर रहे हैं. बड़ी रैलियों से यह भी पता चलता है कि हाल के दिनों में बसपा छोड़ कर गये कुछ नेताओं के न रहने से कोई खास फर्क नहीं पड़ा है. सपा, भाजपा और कांग्रेस जहां गठबंधनों की संभावनाएं तलाश रहे हैं तथा विभिन्न सामाजिक समूहों में अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं बसपा एकला चलो रे की नीति अपनाते हुए अपने अभियान को आगे ले जा रही है. मुसलिम मतदाताओं के बसपा की ओर बढ़ते झुकाव को भांप कर समाजवादी पार्टी ने पिछले दिनों से भाजपा के प्रति आक्रामक रुख अपनाया है, वहीं बसपा के उभार से चिंतित भाजपा भी सपा को प्रमुख चुनौती के रूप में पेश कर रही है. सपा और भाजपा को यह बात भली-भांति पता है कि बसपा का खेल उनकी आकांक्षाओं पर पानी फेर सकता है.
समाजवादी पार्टी
बीते दिन महीनों से समाजवादी पार्टी के शीर्ष पर काबिज मुलायम परिवार भारी अंतर्कलह का शिकार है. सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और वरिष्ठ नेता शिवपाल सिंह के साथ इस उठापटक में उनके समर्थक भी योगदान दे रहे हैं. इसी कलह के कारण अक्तूबर में प्रस्तावित चुनावी अभियान की शुरुआत नवंबर में हो सकी, वह भी अखिलेश यादव की जिद्द के कारण. भाजपा और बसपा का सामना करने के लिए सत्ताधारी दल अब बड़ा गंठबंधन करने की कोशिश में भी है. अखिलेश रथ लेकर निकले हैं, तो शिवपाल सिंह विभिन्न दलों के नेताओं से बात कर रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि सपा का एक मजबूत जनाधार और भारी वोट बैंक है, लेकिन भाजपा के वर्चस्व और बसपा की ओर मतदाताओं के रुझान से सपा का परेशान होना स्वाभाविक है. हालांकि मुलायम सिंह ने दावा किया है कि पार्टी और परिवार में तनातनी को सुलझा लिया गया है, पर चुनाव में इसके नकारात्मक प्रभाव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.
कांग्रेस
कांग्रेस और भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश का चुनाव महज राज्य में सत्ता पाने के लिए नहीं हो रहा है, बल्कि दोनों पार्टियां इसके नतीजों को 2019 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में भी देख रही हैं. यदि भाजपा पिछले लोकसभा चुनाव की बढ़त को बरकरार रख पाती है, तो केंद्र में उसे दोबारा सत्ता पाने में आसानी होगी. कांग्रेस के लिए तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है. हालांकि उसके अकेले सरकार बना पाने की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है, परंतु उसके मतों और सीटों में संतोषजनक वृद्धि 2019 में उसकी किस्मत को फिर से संवारने का रास्ता प्रशस्त कर सकती है. यही कारण है कि खुद कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने बनारस से रोड शो कर चुनावी अभियान का प्रारंभ किया था, जिसे उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने खाट पर चर्चा और लोगों से मिलने के सिलसिले से आगे बढ़ाया है. कभी पार्टी के सबसे भरोसेमंद मतदाता रहे ब्राह्मण समुदाय को लुभाने के साथ अन्य समूहों का समर्थन पाने के लिए कांग्रेस पूरी जुगत लगा रही है. ऐसे संकेत भी हैं कि कांग्रेस बिहार की तर्ज पर किसी गंठबंधन का हिस्सा बन कर चुनाव लड़ सकती है.
जद (यू)
बिहार की जीत और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए जद (यू) उत्तर प्रदेश में भी पांव पसारने की जुगत में है. अक्तूबर में पार्टी की नेशनल कौंसिल की बैठक में भाजपा को रोकने के लिए हरसंभव प्रयास करने पर चर्चा भी हुई थी. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश में अनेक रैलियां कर चुके हैं. जातिगत समीकरणों और भाजपा-विरोधी राजनीति के मद्देनजर जद (यू) आगामी चुनावों में एक उल्लेखनीय कारक बन कर उभर सकता है.
प्रदेश के चुनावी समर में विभिन्न दलों की ताकत
वर्ष चुनाव लड़ा सीट जीती वोट प्रतिशत
समाजवादी पार्टी
2002 390 143 25.30
2007 393 97 25.47
2012 401 224 29.13
बहुजन समाज पार्टी
2002 401 98 23.66
2007 403 206 30.43
2012 403 80 25.91
भारतीय जनता पार्टी
2002 320 88 20.08
2007 350 51 16.97
2012 398 47 15
कांग्रेस
2002 402 25 8.96
2007 393 22 8.61
2012 355 28 11.65
राष्ट्रीय लोक दल
2002 38 14 2.48
2007 254 10 3.7
2012 46 9 2.33
(2002 में बीजेपी और 2012 में कांग्रेस से गंठबंधन था)
जेडीयू
2002 16 2 0.58
2007 16 1 0.42
2012 219 0 0.36
(वर्ष 2002 और 2007 में बीजेपी से गंठबंधन था)
नोट : उत्तर प्रदेश में लंबे समय से मुख्य मुकाबला भाजपा, सपा और बसपा के बीच सिमटा हुआ है. कांग्रेस यहां जनाधार वापस पाने के लिए जूझ रही है.
झलकियां
तीन नवंबर को लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास के निकट से शुरू हुई यात्रा.
पांच नवंबर को सपा के सिल्वर जुबली समारोह के बाद सात से फिर से शुरू होगी.
सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने किया रथयात्रा का उद्घाटन.
मुलायम की तीन पीढ़ियां थीं मंच पर.
सपा से निष्कासित रामगोपाल यादव के बेटे और फिरोजाबाद से सांसद अक्षय प्रताप यादव भी शामिल हुए.
करीब 100 मीटर आगे ही रथ खराब हो गयी. फिर कार से रवाना हुए अखिलेश.
कार्यक्रम स्थल से लेकर आसपास सड़कों पर जुटी थी लाखों लोगों की भीड़.
युवाओं के नारे
अखिलेश भइया मत घबराना, तेरे पीछे नया जमाना.
कहो दिल से, अखिलेश फिर से.
ये जवानी किसके नाम, अखिलेश भैया तेरे नाम.
अखिलेश का नारा, फिर वापस आएंगे, प्रदेश को आगे बढ़ाएंगे.
रथ की खासियत
मर्सिडिज बेंस की 10 पहियों वाली बस से बना है रथ.
37 फुट है लंबाई और 15 फुट ऊंचाई.
आधुनिक संचार सुविधाओं के अलावा एक छोटा वॉश रूम, मिनी-बार रूम और हाइड्रोलिक शाफ्ट के जरिये ऊपर उठनेवाला एक मंच है इसमें.
करीब दो करोड़ रुपये बतायी गयी है रथ की लागत.
पहले की यात्राएं
2012 के चुनावों से पहले अखिलेश यादव ने अनेक चरणों में यात्रा की थी.
12 से 19 सितंबर, 2011 तक आयोजित यात्रा को नाम दिया गया था- क्रांति रथयात्रा.