हमारे मन पर छायी धुंध भी तो छंटे

बल्देव भाई शर्मा पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में छाये ‘स्मॉग’ ने मानो हाहाकार मचा दिया. चारों ओर उसे लेकर चिंताएं व्यक्त की जाने लगीं. लोगों को सांस लेना तक दूभर लगने लगा, मामला इतना गंभीर हो गया कि इसके लिए सरकारों में कर्तव्यबोध जगाने के लिए उसे सर्वोच्च अदालत तक ले जाया गया. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 12, 2016 7:01 AM
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बल्देव भाई शर्मा

पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में छाये ‘स्मॉग’ ने मानो हाहाकार मचा दिया. चारों ओर उसे लेकर चिंताएं व्यक्त की जाने लगीं. लोगों को सांस लेना तक दूभर लगने लगा, मामला इतना गंभीर हो गया कि इसके लिए सरकारों में कर्तव्यबोध जगाने के लिए उसे सर्वोच्च अदालत तक ले जाया गया. इसके कारण तलाशे जाने लगे, कोई कहे कि यह हाल ही में संपन्न दीपावली के पर्व पर जलाये गये बेतहाशा पटाखों का परिणाम है और कुछ लोग इसे दिल्ली के आसपास के हरियाणा, उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में गन्ने की पराली जलाने का दुष्परिणाम मानने लगे. जो भी हो, लेकिन पर्यावरण संकट के रूप में छायी इस धुंध ने जन-जीवन की व्याकुलता बढ़ा दी और कुछ दिनों के लिए बच्चों के स्कूल तक प्रशासन को बंद करने पड़े ताकि कोई हादसा न हो.

वातावरण में छायी यह धुंध सबके लिए गंभीर चिंता का कारण बन गयी, लेकिन क्या कभी हम अपने मन पर छायी धुंध के लिए जरा भी चिंतित होते हैं? क्या कभी उसके बारे में सोचते भी हैं, क्या उसका आभास भी हमको होता है कभी? बाहर छायी धुंध में हमें रास्ता नहीं दिखता तो स्कूल कैसे जायें, दफ्तर कैसे जायें, गाड़ी कैसे चलायें इतनी ही तो समस्या है. कुछ दिन बाद यह धुंध छंट गयी और रास्ते साफ दिखने लगे, अब सब सामान्य सा लगने लगा है. मन की धुंध तो जीवन के मार्ग से ही भटका देती है तब हम कर्तव्य-अकर्तव्य को भी नहीं समझ पाते कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं.

‘सब धान सत्ताईस सेर’ कहावत की तर्ज पर जिंदगी जीते हैं, क्योंकि इस गड़बड़ी का तत्काल कोई नतीजा नहीं सामने आता, अपने सामने हमें कोई गंभीर संकट ‘स्मॉग’ की तरह नहीं दिखता. इसलिए हम मन की धुंध से अनजान रहते हैं और वह दिनोंदिन और ज्यादा गाढ़ी होती चली जाती है. इतनी कि फिर हमें उसी में जीने का अभ्यास पड़ जाता है, तब वह छंट भी नहीं सकती. कभी-कभी तो इसी रौ में जीते हुए बरबादी के कगार पर आदमी पहुंच जाता है या सबकुछ पाकर भी उसे चैन नहीं मिलता या अकेला पड़ जाता है, तब उसे समझ आता है कि वह तो जिंदगी भर गलत रास्ते पर चलता रहा. मन की धुंध ने उसे जीवन का सही रास्ता देखने-समझने लायक छोड़ा ही नहीं. पर, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.

एक कवि ने इस फलसफे को कुछ यों व्यक्त किया है-‘रक्से रौ में है जिंदगी/देखिये कहां थमे/न हाथ बाग पर है/ओर न पैर रकाब में.’ जिंदगी एक ऐसे लालसाओं के घोड़े पर दौड़ रही है जिसकी लगाम भी अपने हाथ में नहीं है और न सधे रहने के लिए रकाब में पैर अटकाये हैं. तो फिर अंजाम तो यही होना था कि धड़ाम से गिरे और जिंदगी भर का दर्द मिले. आज जो स्मॉग हमें परेशान कर रहा है, वस्तुत: वह भी तो हमारे मन की धुंध का बाहरी विस्तार है. जिंदगी की सुविधाओं की दौड़ में दूसरों से आगे निकल जाने के लिए हम उतने पागल हो जाते हैं कि इस बीच हमारे स्वार्थों ने, परस्पर द्वेष ने, अहंकार ने चारों ओर इतने कांटे बो दिये होते हैं कि हमें आभास भी नहीं होता. जिस दुनिया में या परिवेश में हम सुख से जीना चाहते हैं, खुद के दोषों की दुर्गंध से रहने लायक ही नहीं होते और अपना ही दम घुटने लगता है.

गीता में श्रीकृष्ण ने मनुष्य का जो रूप बताया है वह जीवन को सुखी बनाने का मंत्र तो है ही, मन की धुंध मिटाने का भी है. यानी हर व्यक्ति का जीवन ऐसा हो कि उसे देख कर दूसरे सब प्रसन्नता से भर उठें और जो दूसरों को देख कर प्रसन्न हो उठे. लेकिन आज तो सब एक-दूसरे को देख कर कुढ़ते हैं, भले ही बाहर से कहो कि आइए, बैठिए, चाय-नाश्ता लीजिए. हम अपने दुख से इतने दुखी नहीं रहते जितने दूसरों का सुख देख कर कुढ़ते हैं. कभी-कभी घर-परिवार तक में यह देखने को मिलता है. यह मन की धुंध का ही नतीजा है कि मनुष्य रूप में जन्म लेकर भी हम मनुष्य की तरह जी नहीं पाते.

जैन दर्शन में जिंदगी के सही रास्ते को खोजने-पकड़ने को ही ‘सम्यक ज्ञान’ कहा गया है. हिंदू दर्शन इसी को ‘प्रसन्न प्रज्ञा’ कहता है और अंगरेजी में इसे ही ‘रिजो इस विज्डम’ कहते हैं. ऋग्वेद में हमारे ऋषियों ने उद्घोष किया ‘आ नो मद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत’: यानी हमें दुनिया में जहां से भी ज्ञान मिले, बाहें फैलाकर उसे ग्रहण करें. तभी तो मन की धुंध छंटेगी. स्मॉग में सड़क नहीं दिख रही तो हम बेचैन हो उठे कि कहीं किसी से टकरा न जायें, जबकि मन की धुंध तो जिंदगी का ही सही रास्ता नहीं देखने दे रही और जिंदगी की गाड़ी ही पटरी से उतर रही है.

सत्तर के दशक में एक फिल्म आयी थी ‘गोपी’ जिसमें दिलीप कुमार भजन गाते हैं-‘बाहर की लू माटी फांके/ मन के अंदर क्यूं ना झांके/उजले तन पे मान किया/पर मन की मैल न धोयी.’ यह मन का मैल धोना ही कर्तव्यबोध है. जो कभी अड्डा व प्रेरक साहित्य पढ़ कर जगता है, तो कभी अच्छे लोगों की संगत-वार्ता से. कभी-कभी यह कर्तव्यबोध जमाने के लिए शासन-प्रशासन को भी कड़ाई से पेश आना पड़ता है कि यह हमारा देश है, हमारा समाज है, हमारा परिवेश है, इसे साफ-सुथरा, ज्ञानवान, अपराध मुक्त और परस्पर पूरक बनाना हम सबकी जिम्मेवारी है. जो इसमें व्यवधान डालेगा या अपनी मनमर्जी चलायेगा वह दंडित होगा.

नियम-कायदे से जीने का स्वभाव न हो तो भी कानून का कड़ाई वे ईमानदारी से पालन कराये जाने पर धीरे-धीरे वह कर्तव्यबोध बन जाता है और सामाजिक जीवन पर उसका असर दिखता है. पिछले सप्ताह शारजाह अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में जाने पर जहां दुबई व शारजाह अभी रात के जन जीवन में यह छाप खूब देखने को मिली. साफ-सुथरी सड़कें, दफ्तरों-बाजारों के परिसर जहां एक तिनका भी नहीं, न कहीं पान-गुटखे की पीक के गंदे निशान, चारों तरफ चमचमाता वातावरण, मानो रेगिस्तान में नखलिस्तान खड़ा कर दिया गया हो. सड़कों पर ट्रैफिक की भारी भीड़ के बावजूद धैर्य व अनुशासन के साथ चलती गाड़ियां, लेन बदल कर दूसरे से आगे निकल जाने की हड़बड़ी या मनमानी नहीं. चौराहाें पर ट्रैफिक पुलिस शायद ही नहीं दिखे, फिर भी रात में खाली सड़क होने पर भी लालबत्ती पार करने की प्रवृत्ति नहीं. वहां बड़ी संख्या में रह रहे भारतीय समाज को लगता है कि काश हमारे देश में भी ऐसा हो जाये. इसके लिए शासन-प्रशासन की इच्छाशक्ति और जिम्मेवार व ईमानदार भूमिका के साथ-साथ देशवासियों में दायित्व बोध भी बड़ा जरूरी है जिसे ‘सिविक सैंस’ कहा जाता है.

जब हम अपनी सुविधा के लिए हर नियम-कायदे को धत्ता बतायेंगे तो हालात कैसे बदलेंगे? वहां पुस्तक मेले में महिलाओं-बच्चों की भीड़ बता रही थी कि लोगों में पुस्तकोंं के लिए कितनी दीवानगी है. माताएं थैले भर-भर कर बच्चों के लिए किताबें खरीदती देखी जा रही थी’ कि उनके बच्चे ज्ञानवान बनें. सरकारी स्तर पर शारजाह में ‘बुक रीडिंग’ को अनिवार्य कर दिया जाना बताता है कभी रेत के टीलों का ढेर कहे जाने वाले उस इलाके में सुसंस्कृत समाज निर्माण करने के लिए ज्ञान को किस तरह जरूरी माना जा रहा है. समृद्धि का प्रतीक बन जाना महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि समृद्धि के चकाचौंध के बीच भी एक सुसभ्य व्यक्ति के रूप में पहचान मायने रखता है. यही कर्तव्यबोध मन की धुंध का छंटना है.

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