वर्ल्ड प्रीमेच्योरिटी डे : देश में जन्म लेनेवाला हर तीसरा बच्चा है प्रीमेच्‍योर

मुमकिन है इन शिशुओं को बचाना भारत समेत दुनिया के अनेक विकासशील देशों में शिशुओं की दशा खराब है. हालांकि इसके अनेक कारण हैं, लेकिन प्रीमेच्योर यानी समयपूर्व जन्म होना शिशुओं की सेहत के लिए एक बड़ा खतरा है. इसके खतरों के प्रति आगाह करने और उससे बचाव के प्रति लोगों में जागरूकता कायम करने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 17, 2016 6:09 AM
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मुमकिन है इन शिशुओं को बचाना
भारत समेत दुनिया के अनेक विकासशील देशों में शिशुओं की दशा खराब है. हालांकि इसके अनेक कारण हैं, लेकिन प्रीमेच्योर यानी समयपूर्व जन्म होना शिशुओं की सेहत के लिए एक बड़ा खतरा है. इसके खतरों के प्रति आगाह करने और उससे बचाव के प्रति लोगों में जागरूकता कायम करने के मकसद से दुनियाभर में 17 नवंबर को ‘वर्ल्ड प्रीमेच्योरिटी डे’ का आयोजन किया जाता है. इस मौके पर आज के आलेख में जानते हैं क्या है प्रीमेच्योरिटी, इससे जुड़े जोखिम और देश-दुनिया में संबंधित शोधकार्यों समेत अन्य संबंधित पहलुओं के बारे में …
प्रीमेच्योर बर्थ यानी समयपूर्व जन्म से संबंधित जोखिम से होनेवाली मौत दुनियाभर में शिशुओं की मौत का सबसे बड़ा कारण है. ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के मुताबिक, इस कारण प्रत्येक वर्ष 10 लाख से ज्यादा शिशुओं की मौत होती है, जिनमें से करीब 75 फीसदी को बेहतर स्वास्थ्य तकनीकों के इस्तेमाल से बचाया जा सकता है और इसकी लागत भी बहुत ज्यादा नहीं है. 37 सप्ताह से कम समय तक गर्भ में पले बिना बच्चे का जन्म होना प्रीमेच्योर बर्थ यानी समयपूर्व जन्म माना जाता है. डायबिटीज, हाइ ब्लड प्रेशर, स्मोकिंग और मोटापा को इसका बड़ा कारण बताया गया है.
भारत में नवजातों के साथ होने वाले समस्याओं की दशा :
भारत में जिन चार प्रमुख बीमारियों के चलते पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को जान से हाथ धोना पड़ता है, वे इस प्रकार हैं :
वैज्ञानिकों को मिली कामयाबी समझा गया कारण
प्रीमेच्योर बर्थ के सटीक कारणों को जानने में दुनियाभर के वैज्ञानिक जुटे हुए हैं. भारतीय वैज्ञानिकों को यह समझने में कामयाबी मिली है कि किन कारणों से बच्चों का जन्म समय से पहले हो जाता है. मेडिकल पत्रिका ‘प्लोस पैथोजीन्स’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने पहली बार पाया है कि ग्राम-पोजिटिव ग्रुप बी स्ट्रेप्टोकोकस बैक्टीरिया (जीबीएस) छोटे बैलून्स बनाते हैं, जिन्हें मेंब्रेन वेसिकल्स कहा जाता है. इनमें टॉक्सिन्स पाये गये हैं, जो भ्रूण और मातृ कोशिकाओं दोनों को ही मार देते हैं और इस तरह ये कोशिकाओं को आपस में बांधने वाले कोलेजन यानी मज्जा को नष्ट कर देते हैं. ग्रुप बी स्ट्रेप्टोकोकस बैक्टीरिया आम तौर पर इनसान की प्रजनन नलिका में पाया जाता है और कुछ गर्भवती महिलाओं में इसका प्रकोप ज्यादा बढ़ जाता है.
जीबीएस बैक्टीरिया का संबंध एमनियोटिक मेंब्रेन यानी झिल्लियों के समय से पहले टूटने और प्रीमेच्योर बर्थ से जुड़ा पाया गया है. आइआइटी बॉम्बे के डिपार्टमेंट ऑफ बायोसाइंस एंड बायोइंजीनियरिंग के प्रोफेसर अनिर्बन बनर्जी और मुंबई के नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन रिप्रोडक्टिव हेल्थ से जुड़े डॉक्टर दीपक मोदी की अगुवाई में इस शोधकार्य को अंजाम दिया गया है.
अन्य वैज्ञानिक कारण
एमनियोटिक मेंब्रेन के सूजन की समस्या से पीड़ित ज्यादातर महिलाओं के एमनियोटिक थैली में बैक्टीरियल इन्फेक्शन नहीं होता है. इसलिए यह समझा जा रहा था कि योनि में मौजूद बैक्टीरिया कुछ ऐसी चीजों का स्राव करते थे, जो रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट यानी प्रजनन संबंधी खास क्षेत्र तक पहुंच जाते थे और गर्भ में पल रहे शिशु के समयपूर्व जन्म का बड़ा कारण बनते थे.
प्रीमेच्याेर बेबी को सांस लेने में मदद करेगा नया डिवाइस
प्रीमेच्योर जन्म लेनेवाले बच्चों को सांस लेने में ज्यादा दिक्कतें होती हैं. इन नवजातों के फेफड़े पूरी तरह से विकसित नहीं होते हैं, जिस कारण वे उनमें भरपूर ऑक्सीजन रिजर्व नहीं कर पाते हैं. एपनिया यानी निद्रावस्था में कई बार जब बच्चे की सांसें उपरोक्त कारणों से कुछ देर के लिए थम जाती हैं, तो शरीर में ऑक्सीजन का स्तर कम होने से हृदय के धड़कने की दर कम होने की आशंका गहरा जाती है. इससे फेफड़ों और आंखों को नुकसान हो सकता है. साथ ही हार्ट के नर्व्स पर इसका गंभीर असर पड़ता है और यह बच्चे के हार्मोनल सिस्टम या दिमाग को बुरी तरह प्रभावित करता है.
भारतीय-मूल के शोधकर्ता ने अपने साथियों के साथ मिल कर इसका बेहतर समाधान तलाशा है. प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका ‘प्लोस’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने पेजर के आकार का एक उपकरण विकसित किया है, जिसे बच्चे के हाथों और पैरों में लगा कर उसे छोटे से डिस्क्स से जोड़ा गया है. बैटरी चालित इस मशीन को चालू करने पर डिस्क्स में धीरे-धीरे कंपन पैदा होता है, जो बच्चों को सांस लेने में मदद करता है.
अमेरिका के यूनिवर्सिटी आॅफ कैलिफोर्निया, लॉस एंजिल्स में नियोनेटोलॉजिस्ट कल्पश्री केशवन कहते हैं, ‘इस उपकरण का लंबे समय तक इस्तेमाल करने से सांस लेने में कठिनाई कम हो जाती है. यह ऑक्सीजन का सामान्य स्तर बरकरार रखता है और कार्डियोवैस्कुलर सिस्टम को स्थिर रखता है. साथ ही यह ऐसे बच्चों के न्यूरो संबंधी विकास की प्रक्रिया में आनेवाली किसी तरह की बाधा को दूर करता है. इसकी बड़ी खासियत है कि इसमें किसी दवा का इस्तेमाल नहीं किया गया है और इसका कोई साइड-इफेक्ट सामने नहीं आया है.
दुनियाभर में नियोनेटल डेथ के 25 फीसदी मामले भारत में
भारत में जन्म लेनेवालों बच्चों में से प्रत्येक तीसरा प्रीमेच्याेर है. नियोनेटोलॉजी फॉरम के मुंबई के प्रेसिडेंट डॉक्टर किशोर सांघवी के हवाले से ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2010 में देश में 36 लाख बच्चों का समयपूर्व जन्म हुआ था.
इस लिहाज से भारत में ज्यादा जोखिम है. इससे बचाव के लिए गर्भवती महिलाओं की नियमित स्वास्थ्य जांच होनी चाहिए. इसके लिए मेडिकल सेक्टर में संबंधित कर्मियों को नियोनेटोलॉजी ट्रेनिंग मुहैया कराने की जरूरत है. नियोनेटोलॉजी फॉरम और इंडियन फाउंडेशन ऑफ प्रीमेच्योर बेबीज के आंकड़े दर्शाते हैं कि दुनियाभर में होनेवाले नियोनेटल डेथ का करीब 25 फीसदी मामला भारत में है. नियोनेटोलॉजिस्ट डॉक्टर नंद किशाेर काबरा का कहना है कि नवजातों में होनेवाले संक्रमण समेत तीन अन्य फैक्टर्स को हम यदि नियंत्रित करने में कामयाब हो सके, तो इससे निश्चित तौर पर उनकी मृत्यु को 90 फीसदी तक कम किया जा सकता है. इसके लिए उन्होंने गर्भवती माताओं के पोषण और समुचित देखभाल पर जोर दिया है.
प्रीमेच्याेर शिशुओं की मृत्यु के वैश्विक आंकड़े
3,03,000
महिलाओं की मौत हुई थी गर्भावस्था या डिलीवरी से जुड़े जोखिम के कारण.
59 लाख बच्चों की मौत हुई थी पांच साल से कम उम्र समूह के, वर्ष 2015 में.
45 फीसदी बच्चे पांच साल से कम उम्र समूह के, मौत के शिकंजे में आ गये थे अपने जन्म के पहले 28 दिनों के भीतर.
50 फीसदी से ज्यादा माताओं और नवजातों को विकासशील देशों में जन्म के तत्काल बाद बेहतर देखभाल की सुविधाएं मुहैया नहीं हो पाती हैं.
(आंकड़े वर्ष 2015 के मुतािबक)
(स्रोत : विश्व स्वास्थ्य संगठन)
प्रीमेच्योर पैदा हुए बच्चों के लिए खतरे
प्रीमेच्योर पैदा हुए बच्चों को सामान्य बच्चों के मुकाबले ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं :
शरीर के तापमान का अचानक कम हो जाना.
खून में शक्कर का अचानक कम हो जाना.
सांस लेने में मुश्किल.
जन्म के समय सिर में चोट लगना.
स्रावों या दूध के फेफड़ों में घुसने के कारण निमोनिया.
संक्रमण.
अनीमिया.
मस्तिष्क में रक्तस्राव.
मस्तिष्क पर असर करनेवाला पीलिया.
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