फिजी वृत्तांत : यहां राम विवादों व राजनीति से ऊपर
फिजी से लौट कर डॉ प्रमोद पाठक
फिजी में हाल ही में “रामायण का सार्वभौमिक प्रभाव” विषय पर तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था. इसमें भारत एवं फिजी के अलावा ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, गुयाना, ट्रिनीडाड, मॉरिशस एवं मलयेशिया के रामायण विद्वान व हिंदू संगठन के प्रतिनिधि शामिल हुए. फिजी की चौथी पीढ़ी आज भी रामायण का आत्मसात किये हुए है.
सिया राम मैं सब जग जानी करहु प्रणाम जोरि जुग पाणी
गो स्वामी तुलसीदास की अमर कृति रामायण की इस पंक्ति का सही अर्थ दक्षिण प्रशांत महासागर स्थित छोटे से देश फिजी में देखने को मिला, जहां इसी माह पहला अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन आयोजित था. भारत सेवाश्रम संघ की 100वीं वर्षगांठ पर फिजी सेवाश्रम संघ, संस्कृति एवं कला मंत्रालय, फिजी सरकार तथा भारतीय उच्चायोग के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस त्रिदिवसीय सम्मेलन का विषय था-“रामायण का सार्वभौमिक प्रभाव.”
भारत एवं फिजी के अलावा इस सम्मेलन में ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, गुयाना, ट्रिनीडाड, मॉरिशस एवं मलयेशिया के रामायण विद्वान व हिंदू संगठन के प्रतिनिधि के रूप में कोई 60 लोगों की भागीदारी में आठ सत्रों में रामायण के विभिन्न आयामों पर चर्चा हुई. मगर, जो उस चर्चा से ज्यादा महत्वपूर्ण बात थी- वह थी रामायण और राम के प्रति सुदूर देशों से आये लोगों की भावनाएं और प्रतिबद्धता. सचमुच लगा कि जग राममय है. भारत में राम को आज विवाद का विषय बना दिया गया है. लेकिन वहां जाकर देखने को मिला कि राम विवादों से ऊपर हैं. सर्वव्यापी हैं.
राम का असली स्वरूप, रामायण का असली प्रभाव उस सम्मेलन में जाकर ही अनुभव हुआ. राम राजनीति से ऊपर हैं.
फिजी के उप प्रधानमंत्री के उदबोधन और शंखनाद और मंत्रोचारण के बीच दीप प्रज्वलन के साथ सम्मेलन का उद्घाटन धर्मनिरपेक्षता की सही व्याख्या कर रहा था. आयाज सईद खयूम का उद्घाटन भाषण एक तरह से रामायण का सार था, जिसमें रामायण में कुशल प्रशासन के लिए दिये मंतव्य से लेकर राम के चरित्र और नेतृत्व की खूबियों पर सटीक और सारगर्भित टिप्पणी थी.
वहां की चर्चा में राम का वह स्वरूप दिखा, जो गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में दिखाने का प्रयास किया था. मर्यादा पुरुषोत्तम राम, आदर्श नायक राम, भक्तों के तारणहार राम, हर रूप की अदभुत व्याख्या. राम को जानना, राम को समझना और राम को आत्मसात करना सब कुछ बड़ा सरल हो गया था, क्योंकि वहां राम पर चर्चा दिमाग से नहीं बल्कि दिल से हो रही थी. वहां राम आदिपुरुष थे और रामायण आदि ग्रंथ. रामायण के मर्मज्ञों ने वैसे तो वाल्मीकि और तुलसीदास दोनों ही रामायणों के संदर्भ में चर्चा की, लेकिन रामचरितमानस का एक अलग ही स्थान दिखा. वह संभवत: इसलिए था, क्योंकि वहां के समाज में मानस का एक प्रभाव है. दरअसल इसके पीछे एक लंबा इतिहास है.
जब उन्नीसवीं सदी के दूसरे, तीसरे और चौथे दशक में अंगरेजों ने भारतीयों को फिजी, गुयाना, ट्रिनिडाड, मॉरिशस, सूरीनाम जैसे देशों में गुलाम बना कर समुद्र मार्ग से ले जाकर बंधुआ मजदूर की हैसियत से गुलामी करवायी थी तो उस दौर में सबसे अधिक लोग पश्चिम बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से थे. खासकर अवध और अन्य भोजपुरी भाषी क्षेत्रों से. इन इलाकों में लोग बहुत शिक्षित तो नहीं थे, लेकिन गांवों में रामचरित्र मानस सुनने और सुनाने का प्रचलन था. शायद तुलसीदास की सरल और गंवई भाषा उन क्षेत्रों में रच बस गयी थी. बहुत से लोग अपने साथ रामायण की प्रतियां भी ले गये थे. इसी रामायण ने उन्हें एकजुटता का कारण दिया.
राम का बनवास, राम का संघर्ष और अंत में राम की सफलता यह उन लोगों की प्रेरणा का स्रोत था.
आज उन गुलाम मजदूरों की तीसरी और चौथी पीढ़ी फिजी, गुयाना, ट्रिनिडाड, सूरीनाम, मॉरिशस जैसे देशों में रहती है और वहां की नागरिकता प्राप्त कर चुकी है. इन देशों की सभ्यता और संस्कृति में रमे इन पीढ़ियों की सबसे बढ़ी खासियत है इनकी भारतीयता की जड़ें. आज भी उनकी जुबान, उनकी भाषा, उनके संस्कार में वह झलक है, जिसे देख कर उनके भारतीय होने का भान होता है.
एक वक्त था जब इनके पूर्वजों को गिरमिटिया कहा जाता था और उनसे गुलामी करवायी गयी थी. लेकिन, वह एक दूसरा दौर था. उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के करीब शुरू हुई इन गिरमिटियों की त्रासदी का इतिहास बीसवीं सदी के दूसरे दशक में बदलना शुरू हुआ, जब आखिरी जहाज कोई 800 गिरमिटियों को लेकर फिजी पहुंचा. एक वक्त था जब हिंदुओं को सरकारी नौकरियां पाने के लिए ईसाई नाम रखने पड़ते थे. किंतु, आज की पीढ़ी को अपने हिंदू नामों पर गर्व है. जो रोचक तथ्य है, वह यह कि आज इनके नाम परंपरागत हिंदू नामों जैसे ही ज्यादातर नामों में राम दिखता है.
राम प्रसाद इन जगहों में एक लोकप्रिय नाम है. ये आज की पीढ़ी है, जो गिरमिटिया हिंदुओं के वंशज हैं. उन हिंदुओं के, जिनके आत्मसम्मान को अंगरेजी हुकूमत ने चोट पहुंचाने का काम किया था, जिनकी संस्कृति को और जिनके संस्कार को हेय दिखाने का प्रयास किया था. किंतु आज की पीढ़ी अपने हिंदू संस्कारों पर गर्व करती है. इन्हें इतिहास याद है, लेकिन उस इतिहास की बुनियाद पर इन्होंने अपने भविष्य का निर्माण किया है और इसका श्रेय पूरी तरह से राम और रामायण को जाता है.
यहां की संस्कृति की एक और खासियत है- रामलीला. कोई 110 वर्ष पहले फिजी में पहली रामलीला आयोजित हुई थी.
तब रामलीला को रामडिला कहा जाता था. आज भी यह परंपरा कायम है और रामलीला को लोग बड़े चाव से देखते हैं. रामायण मंडलियां फिजी की एक विशेषता हैं. गुलामी के दिनों में रामायण पाठ एक दैनिक क्रिया थी. आज 100 वर्ष बाद भी रामायण का महत्व कायम है. इसका मूल कारण रहा मानस की भाषा. गोस्वामी तुलसी दास की रामायण उस अवधी भाषा में लिखी गयी थी जो ज्यादातर गिरमिटियां की जुबान थी.
आज भी फिजी की हिंदी में उसकी छाप दिखाई देती है. रामायण और राम का वैसा प्रभाव दूर देश में देख कर आनंद तो आता ही है, साथ ही एक प्रश्न भी खड़ा करता है कि क्या हम यहां भारत में अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं. उस पूरे सम्मेलन मे जो चर्चाएं हुई, उसका एक ही निष्कर्ष निकलता है कि हमने रामायण की समृद्धि और उसकी व्यापकता को नजरअंदाज किया है. रामायण एक परिपूर्ण ग्रंथ है, एक बहुआयामी समाजशास्त्र है. इसकी वैज्ञानिकता भी है, तर्क भी, दर्शन भी और मनोविज्ञान भी. यही नहीं आज के आधुनिक प्रबंधन विज्ञान के भी कई आयाम मिलेंगे रामायण में.
राम का नेतृत्व कौशल, राम की सामरिक सोच, राम का मानवीय पक्ष, राम की मनोवैज्ञानिक चेतना सभी कुछ मिलेगा रामायण में. यहीं वजह थी कि आज से कुछ ही वर्ष पहले ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड केमरून ने दिवाली के अवसर पर इंगलैंड के हिंदू समुदाय से चर्चा के दौरान कहा था कि रामायण कुशल प्रशासन का मर्म समझने के लिए एक आदर्श ग्रंथ है. इस सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के अपने उदबोधन में फिजी के उप प्रधानमंत्री के भी यही विचार थे. राम और रामायण को आत्मसात करने की आवश्यकता है.
(लेखक आइआइटी-आइएसएम, धनबाद में प्रबंधन के विभागाध्यक्ष हैं और उस सम्मेलन में आमंत्रित वक्ता थे.)