अजित डोभाल: रणनीतिक बदलाव के सूत्रधार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अब तक के कार्यकाल से स्पष्ट है कि देश की सुरक्षा, आतंकवाद और विदेश नीति पर सरकार की सोच और दिशा पूर्ववर्ती सरकारों से बिल्कुल भिन्न है. देश-विदेश के पर्यवेक्षकों की मानें, तो इस बदलाव की रूप-रेखा तैयार करने और उसे अमली जामा पहनाने में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की […]
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अब तक के कार्यकाल से स्पष्ट है कि देश की सुरक्षा, आतंकवाद और विदेश नीति पर सरकार की सोच और दिशा पूर्ववर्ती सरकारों से बिल्कुल भिन्न है. देश-विदेश के पर्यवेक्षकों की मानें, तो इस बदलाव की रूप-रेखा तैयार करने और उसे अमली जामा पहनाने में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की नेतृत्वकारी भूमिका है. चाहे प्रधानमंत्री की विदेशी नेताओं से मुलाकात हो, या देश के भीतर सुरक्षा और आतंकवाद को लेकर कोई बड़ी बैठक हो, उनमें डोभाल की उपस्थिति जरूर होती है. अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक गलियारों में उनके महत्व का गंभीरता से संज्ञान भी लिया जाने लगा है. खबरों की सुर्खियों, मीडिया तथा सामाजिक आयोजनों से परहेज करनेवाले इस विख्यात पूर्व गुप्तचर के व्यक्तित्व और कार्यशैली पर एक विस्तृत विश्लेषण आज के संडे-इश्यू में…
वह 2001 का साल था, जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के खिलाफ अमेरिका तथा अन्य मित्र देशों की सैन्य कार्रवाई आरंभ की थी. तालिबान ने तब अफगानिस्तान को ओसामा बिन लादेन जैसे अंतरराष्ट्रीय आतंकियों का गढ़ बना डाला था. उस अभियान में मदद के लिए बुश को भारत तथा पाकिस्तान के पूरे सहयोग की जरूरत थी, क्योंकि भारत जहां इस क्षेत्र का सबसे बड़ा एवं शक्तिशाली देश था, वहीं पाकिस्तान अमेरिका का भरोसेमंद होने के साथ अफगानिस्तान का निकटतम पड़ोसी भी था. अफगानिस्तान की मदद के लिए बने अंतरराष्ट्रीय फंड का पांचवां सबसे बड़ा दाता बनने के साथ ही अफगानिस्तान की बुनियादी संरचना के पुनर्निर्माण में एक बड़ा भागीदार और वहां की सेना, पुलिस तथा अन्य सरकारी कर्मियों को उनकी जिम्मेवारियों के लिए तैयार करने हेतु सबसे बड़ा प्रशिक्षक बन कर भारत ने बुश की अपील का उत्तर दिया.
मगर जब एक दिन अमेरिका ने अपनी फौजें अफगानिस्तान से वापस बुलाने का फैसला लेकर सभी संबद्ध देशों की एक बैठक इस उद्देश्य से बुलायी कि अफगानिस्तानियों को व्यवस्था के हस्तांतरण की बारीकियां तय की जा सकें, तो भारत को सिर्फ इसलिए अलग रखा गया कि पाकिस्तान ने अमेरिका को ऐसा ही करने हेतु मना लिया था. बदले में पाक ने अमेरिका को यह भरोसा दिया कि पाकिस्तानी धरती से अपनी कार्रवाइयां चलानेवाले आतंकी और साथ ही अफगानिस्तान में मौजूद पाक ‘संसाधन’ अमेरिका तथा उसके पश्चिमी मित्रों को अपना निशाना बनाने से बाज आयेंगे. पाकिस्तान द्वारा अंजाम दी गयी इस रणनीति का व्यावहारिक अर्थ यह था कि अलकायदा और तालिबान को भारत तथा कश्मीर को अपने निशाने पर लेने की पूरी छूट दे दी गयी.
कश्मीर और भारत में आतंकी उभार की यही वह पृष्ठभूमि थी, जिसे जनवरी 2005 में इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) के प्रमुख पद से रिटायर होनेवाले अजित कुमार डोभाल उसके बाद के नौ वर्षों की अवधि में भारतीय बुद्धिजीवियों को समझाते देशभर में फिर रहे थे. विश्वविद्यालयों, पेशेवर निकायों, विभिन्न संगठनों के मंचों पर उनके व्याख्यानों के दौरान सभा भवन उत्सुक श्रोताओं से भरे रहते. तभी, उपर्युक्त भूमिका बताने के बाद, अपनी आवाज ऊंची करते हुए डोभाल लोगों को सहज ही इस निष्कर्ष तक पहुंचा देते कि ‘वक्त आ गया है, जब भारत को अपनी शांतिप्रियता उतार फेंक दुश्मन का सीधा मुकाबला करने की नीति अपनानी चाहिए.’ और इसके साथ ही हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता. तब दिये गये उनके वे व्याख्यान आज सोशल साइटों पर अत्यंत लोकप्रिय हैं.
एक जीवित किंवदंती
डोभाल के प्रशंसकों के लिए वे एक जीवित किंवदंती हैं, एक नायक हैं, जो अतुलनीय साहस के स्वामी होने के साथ ही भारत की सुरक्षा तथा रणनीतिक हितों पर बेबाक सोच रखते हैं. डोभाल के कार्यों पर 47 वर्षों तक नजर रखनेवाले उनके वरीय अधिकारी एवं पूर्व रॉ-प्रमुख एएस दुलत बताते हैं, ‘वह सर्वोच्च कोटि के खुफिया अफसर हैं.’ वे आगे कहते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) के रूप में डोभाल को मिली शानदार सफलता की एक वजह सुरक्षा मामलों पर उनकी और मोदी की सोच का समान होना भी है. दुलत के अनुसार, ‘मैं यह कहूंगा कि वाजपेयी और ब्रजेश मिश्र की जोड़ी अत्यंत उत्तम थी और मोदी तथा डोभाल की जोड़ी उससे भी बेहतर है.’ चाहे मोदी के शपथ ग्रहण के अवसर पर सार्क देशों के प्रमुखों को आमंत्रण हो अथवा पिछले दिनों किया गया सर्जिकल स्ट्राइक, जानकार लोग विदेश नीति से संबद्ध मामलों में मोदी के प्रमुख फैसलों पर डोभाल की स्पष्ट छाप देखते हैं. यह सब डोभाल की उसी स्वप्न-शृंखला की कड़ियां हैं, जिसे भारत द्वारा एक जड़ताग्रस्त ‘मुलायम देश’ की छवि से बाहर निकल एक मजबूत राष्ट्र की भूमिका में उतरने के संदर्भ में डोभाल हमेशा से देखते रहे हैं.
डोभाल का पहले से कोई व्यक्तिगत राजनीतिक रुझान नहीं रहा. उनके साथी बताते हैं कि आइबी प्रमुख के रूप में वे तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी को रिपोर्ट किया करते थे और उस दौरान वे आडवाणी को तत्काल ही भा गये. जैसा स्वाभाविक था, इसने अनजाने ही उन्हें भाजपा के निकट ला दिया. यह भी सच है कि 2014 के संसदीय चुनावों में विदेशों में जमा कालेधन के मुद्दे पर भाजपा द्वारा प्रकाशित श्वेतपत्र डोभाल के शोधों पर ही आधारित था. अपनी सेवानिवृत्ति के बाद डोभाल ने 2009 में ‘विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन’ नामक एक थिंकटैंक की स्थापना की, जिसकी भाजपा के आदर्शों से निकटता थी. जल्दी ही इसे उन्होंने ऐसी पेशेवर बुलंदी दी कि पेंसिल्वेनिया यूनिवर्सिटी ने इसे विश्व के वैसे थिंकटैंकों में 20वां स्थान दिया, जिन पर नजर रखी जानी चाहिए. आगे 2015 में उसने इसे राजनीतिक संबद्धतायुक्त विश्व के श्रेष्ठ एनजीओ में 40वें पायदान पर रखा. मगर साल 2014 में एनएसए बनाये जाने पर डोभाल ने इसका निदेशक पद छोड़ दिया.
राष्ट्रीय सुरक्षा परिदृश्य की व्यापक दृष्टि
एमके नारायणन के बाद डोभाल ऐसे दूसरे आइपीएस अफसर हुए, जो एनएसए के उस पद तक पहुंचे, जिसे साधारणतः भारतीय विदेश सेवा (आइएफएस) के अफसरों के लिए सुरक्षित माना जाता था. तथ्य यह है कि लोगों को यह समझने में थोड़ा वक्त लगा कि यह एनएसए अपने पूर्ववर्तियों की तरह नहीं है. वे एक जासूस की तेज-तर्रारी के साथ ही एक राजनयिक के विदेशी अनुभव से भी लैस हैं, जिसे केवल सर्जिकल स्ट्राइक के बाद ही समझा जा सका है. डोभाल के ही बैच के आइपीएस अफसर और आइबी के पूर्व-प्रमुख केएम सिंह कहते हैं कि ‘आइएफएस अफसरों के लिए एक कार्यकाल किसी पड़ोसी देश में तथा दूसरा किसी विकसित देश में व्यतीत करना आवश्यक होता है. डोभाल को न केवल दोनों ही अनुभव प्राप्त हैं, बल्कि इस्लामाबाद में तो उन्होंने दोहरे कार्यकाल का चुनौतीपूर्ण अनुभव भी हासिल किया है. इसके अलावा, उन्हें पंजाब, मिजोरम तथा कश्मीर जैसे देश के प्रमुख विद्रोहों से निबटने के प्रत्यक्ष अनुभव हासिल होने के कारण डोभाल के पास देश के सुरक्षा परिदृश्य की कहीं व्यापक दृष्टि है.’
डोभाल की शख्सीयत
आखिर क्या है अजित कुमार डोभाल की वास्तविक शख्सीयत? सरकारी सेवा के एक अफसर के बारे में जितनी चीजें सहज ही सार्वजनिक जानकारी में रहती हैं, उन्हें छोड़ कर इस सुपर खुफिया अफसर के बारे में अधिक बातें नामालूम हैं. उन्हें जाननेवाले बस इतना ही बता पाते हैं कि अपने काम के परे उनके लिए जीवन में कुछ विशेष नहीं है. सेना के एक इंजीनियरिंग अफसर के पुत्र के रूप में डोभाल का जन्म उत्तराखंड के ‘घिरी बनेल्स्युन’ नामक एक गांव में हुआ था. आज इस गांव की लगभग सारी आबादी आजीविका की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर चुकी है. अभी कुछ ही महीनों पूर्व अपने गांव की यात्रा के दौरान उनके ग्रामीणों ने डोभाल से अनुरोध किया कि वे इस पलायन का रुख पुनः गांव की ओर मोड़ने के लिए कुछ करें.
एक आइपीएस अफसर के रूप में डोभाल का पहला कार्यकाल 1968 में केरल के कोट्टायम में एएसपी के रूप में आरंभ हुआ. उन दिनों केरल में हिंसक राजनीतिक आंदोलनों का दौर था. कोट्टायम में आंदोलनकारियों को अभिप्रेरित कर इसे रोक देने में डोभाल सफल रहे. यही वजह रही कि 1972 में आइबी के एक विशिष्ट ऑपरेशन के लिए जब कुछ सक्षम पुलिस अफसरों की जरूरत हुई, तो इस खुफिया एजेंसी ने केरल के दो अन्य आइपीएस अफसरों के साथ डोभाल का भी चयन किया. बाकी दो अफसरों में एक उपर्युक्त केएम सिंह और दूसरे इएसएल नरसिंहन थे, जो बाद में छत्तीसगढ़, आंध्र तथा तेलंगाना के राज्यपाल बने. केरल सरकार ने आइबी की बुलाहट पर डोभाल को छोड़ने से इनकार कर दिया और उन्हें हासिल करने के लिए उसे मशक्कत करनी पड़ी थी.
मिजोरम में कमाल
आइबी में अपने कार्यकाल के दौरान डोभाल ने मिजोरम जाने की पेशकश की, जहां के विद्रोही नेता लालडेंगा द्वारा मिजो जनता की स्वतंत्रता की घोषणा से वहां अराजकता व्याप्त थी. उन्होंने अपनी पत्नी तथा दो बेटों को दिल्ली छोड़ा और मिजोरम में अपनी गोपनीय योजना को अंजाम देने में पांच वर्षों तक लगे रहे. वे स्वयं एक मिजो विद्रोही का बाना धारण कर मिजो नेशनल आर्मी (एमएनए) के कमांडरों के करीबी बन गये. 1971 में बांग्लादेश मुक्तियुद्ध के नायक और बाद के दिनों में गोवा और फिर पंजाब के राज्यपाल, लेफ्टिनेंट जनरल जेएफआर जैकब तब मिजोरम में नियुक्त थे. डोभाल से सामना का जिक्र करते हुए उन्होंने याद किया कि सेना में हम उन्हें एक मिजो विद्रोही के रूप में ही जानते थे और यहां तक कि उन्हें मार गिराने की कोशिश में भी थे कि तभी एक दिन हमें उनकी असलियत बतायी गयी.
एक दिन लालडेंगा ने यह पाया कि डोभाल के प्रभाव में आकर एमएनए के सात शीर्ष कमांडरों में से छह ने उनके विरुद्ध बगावत कर दी और लगभग सभी मिजो विद्रोहियों ने भारतीय अधिकारियों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. पूरे मिजोरम में खुशी की लहर दौड़ पड़ी. अंततः लालडेंगा ने शांति समझौते पर दस्तखत कर दिये और एमएनए को मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) का नया नाम दिया गया. तब से ही मिजोरम लगातार पूर्वोत्तर का सबसे शांतिप्रिय राज्य बना हुआ है. इंदिरा गांधी की सरकार ने नियमों को शिथिल कर तब केवल सात साल की सेवावधि पूरी करनेवाले डोभाल को पुलिस मेडल से नवाजा था. मगर स्वयं डोभाल मिजोरम में अपनी उपलब्धियों की सार्वजनिक चर्चा शायद ही कभी करते हैं. उनके साथ काम कर चुके लोग बताते हैं कि निडरता के साथ ही डोभाल का एक अन्य विशिष्ट गुण उनकी सच्चाई है, जो एक खुफिया अफसर के लिए असामान्य-सी बात है.
उनकी अगली नियुक्ति दिल्ली में हुई, पर जोखिम उठाने को तत्पर डोभाल को जल्दी ही प्रथम सचिव, वाणिज्य, के रूप में इस्लामाबाद के भारतीय उच्चायोग में भेज दिया गया, जो वस्तुतः उनके असली उदेश्यों की गोपनीयता के लिए दिया गया एक छद्मनाम था. पाकिस्तान में अपने कार्यकाल के दौरान डोभाल अक्सर मुसलिम रूप धारण कर बाहर निकल अपना काम किया करते. दो मौकों पर वे वहां पकड़े जाने से बाल-बल बचे. एक बार लाहौर में एक धर्मपरायण बुजुर्ग मुसलिम ने उनसे पूछ दिया कि क्या आप हिंदू हैं और अपने वेशभूषा के प्रति आत्मविश्वास से भरे डोभाल ने सीधा इनकार कर दिया. पर, जब वह वृद्ध अपनी बात पर बने रहे, तो अंततः उन्हें सच स्वीकार करना ही पड़ा. तब उस बुजुर्ग ने डोभाल को बताया कि दरअसल आपके छिदे कान से यह बिलकुल साफ था. दूसरी घटना डोभाल द्वारा लाहौर में एक मुजरा देखने के वक्त घटी, जब पास बैठे एक व्यक्ति ने उन्हें बताया कि आपकी नकली मूंछें उखड़ रही हैं. डोभाल अब भारतीय उच्चायोग के लिए अपरिहार्य बन चुके थे. नतीजतन, नियमों के विरुद्ध जाकर उन्हें इस्लामाबाद में दूसरे कार्यकाल के लिए भी पुनर्नियुक्त कर दिया गया.
पंजाब तथा कश्मीर में उपलब्धियां
मगर डोभाल का सर्वोत्तम प्रदर्शन अभी बाकी था. पंजाब में खालिस्तान समर्थकों के विरुद्ध 1984 में स्वर्णमंदिर परिसर में हुए ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार’ के रूप में एक बड़ी गलती हो चुकी थी और वहां के गर्भगृह को पहुंचे व्यापक नुकसान से सिख जनमानस को बड़ा आघात पहुंचा था. उससे वहां का विद्रोह और भी भड़क उठा. दूसरी बार, 1988 में जब एक बार फिर वहां कार्रवाई करने की आवश्यकता हुई, तो सरकार ने अतिरिक्त सतर्कता बरती और उसमें डोभाल को केंद्रीय भूमिका दी गयी. इस ‘ऑपरेशन ब्लैकथंडर’ के पूर्व तीन महीनों तक डोभाल वेश बदल स्वर्णमंदिर के बाहर मोची बने बैठे रहते और वहां आने-जानेवालों के साथ ही अंदर रहनेवालों पर भी नजर रखा करते. ऑपरेशन का दिन करीब आने पर उन्होंने आइएसआइ के एजेंट का स्वांग किया और मंदिर के अंदर सीधा सशस्त्र उग्रवादियों तक पहुंच उन्हें शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति तथा पाकिस्तान की पूरी मदद का आश्वासन दिया. मन ही मन वे वहां मौजूद उग्रवादियों की संख्या तथा उनकी मौजूदगी के स्थान नोट करते रहे. यह उनके द्वारा दी गयी सूचनाओं का ही कमाल था कि पुलिस तथा सुरक्षा बलों को बगैर मंदिर में प्रवेश किये ही अपनी कार्रवाई अंजाम देने में कामयाबी मिली, जो खालिस्तान आंदोलन के अंत की शुरुआत बन गयी. पुरस्कारस्वरूप डोभाल को शांतिकाल के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार कीर्तिचक्र से सम्मानित किया गया, जो किसी असैन्यकर्मी को पहली बार मिल सका था.
आइबी के संयुक्त निदेशक के रूप में डोभाल कश्मीर में नियुक्त किये गये. उन्होंने उग्रवादियों से निबटने में कई अहम सफलताएं हासिल कीं, जिनमें लीक से हट कर सोचने और करने की उनकी क्षमता का बड़ा योगदान था. जम्मू-कश्मीर सरकार के वर्तमान मंत्री सज्जाद लोन जैसे तब के कई अन्य युवाओं तथा उग्रवादियों को उन्होंने राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने को राजी किया, ताकि भारत और कश्मीर की प्रगति में उन्हें अपना हित दिखे. पूर्व प्रति-उग्रवादी लियाकत खान ने, जिन्होंने सुरक्षाबलों के साथ सहयोग कर अनंतनाग तथा दक्षिण कश्मीर के बड़े इलाकों को हिजबुल के दबदबे से मुक्त कराया था, कहते हैं कि डोभाल बराबर मुझे किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाने को कहा करते. यह डोभाल तथा लेफ्टिनेंट जनरल शांतनु सिन्हा की दूरंदेशी थी कि उन्होंने आत्मसमर्पण किये उग्रवादियों को लेकर प्रादेशिक सेना की एक बटालियन तैयार करने की पैरोकारी कर उसमें सफलता हासिल की.
साल 1999 के अंत में इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण कर आतंकी अपहर्ता उसे कंधार ले गये. उसमें सवार यात्रियों को छुड़ाने के बदले मसूद अजहर तथा अन्य आतंकियों को सौंपे जाने की कार्रवाई के दौरान अपहर्ताओं से बातचीत करने में डोभाल ने प्रमुख भूमिका अदा की थी और यह उनके कैरियर का सबसे निराशाजनक बिंदु था.
एक अलग किस्म के सलाहकार
एनएसए के रूप में डोभाल ने पूर्ववर्तियों की तरह अपना कार्यालय प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के एक अंग के रूप में सीमित नहीं रखा और उसे पटेल भवन में एक पृथक पहचान दी. सुरक्षा तथा विदेशी मामलों में मोदी सरकार के फैसलों में उनकी अहम भूमिका होती है. कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय बगैर उनकी राय तथा जानकारी के नहीं लिया जाता. ब्रिक्स अथवा बिम्सटेक शिखर सम्मेलन जैसे किसी भी मुख्य आयोजन में डोभाल को सुषमा स्वराज अथवा राजनाथ सिंह जैसे वरीय मंत्रियों के साथ बैठे देखा जा सकता है. उन्हें एक काबीना मंत्री के समान ही सुविधाएं तथा लाभ प्राप्त हैं. सूत्र बताते हैं कि कई मंत्री उन्हें नियमित रूप से रिपोर्ट भी किया करते हैं. जिन लोगों को उनके कार्यालय तथा आवास में जाने का मौका मिला है, उनके अनुसार डोभाल गजब के पढ़ाकू हैं और कई तो यह भी कहते हैं कि पुस्तकों का उनका संग्रह शहर के सबसे बड़े निजी पुस्तकालयों में एक है.
उनके निकटस्थ मित्र तथा सहयोगी केएम सिंह के अनुसार ‘अजित छोटा नहीं सोचा करते.’ इस वजह से लोग प्रायः उन्हें मदद न करनेवाला तथा असामाजिक समझ लेते हैं. ‘हां, वे सामाजिक जीवन में यकीन नहीं रखते तथा अपने काम में डूबे रहनेवाले व्यक्ति हैं.’ अभी तक अजित डोभाल किसी विवाद के शिकार नहीं हुए हैं, सिवाय इसके कि उनके पुत्र शौर्य डोभाल, जो एक इन्वेस्टमेंट बैंकर हैं, के उत्थान पर मीडिया में सवाल उठे हैं. 40 से ऊपर की उम्र वाले शौर्य डोभाल आरएसएस तथा भाजपा समर्थित थिंकटैंक ‘इंडिया फाउंडेशन’ के सह-संस्थापक हैं, जिसके बारे में यकीन किया जाता है कि वह सरकार को प्रमुख नीतिगत सलाह दिया करता है.
पाकिस्तान में घबराहट
सितंबर में सेना के सर्जिकल स्ट्राइक के बाद उनकी साख पाकिस्तान पहुंच चुकी है, जहां की सुरक्षा व्यवस्था में घबराहट फैली है. मीडिया और टिप्पणीकारों के बीच कई तरह की बहसें चल रही हैं, जिनमें कुछ इस संबंध में हैं कि अब पाकिस्तान को भारत के साथ शांति स्थापित कर लेनी चाहिए, जबकि दूसरी का मुद्दा यह है कि हाफिज सईद और अजहर मसूद जैसे व्यक्तियों को हिरासत में ले लेना चाहिए. कुछ लोग यह कह रहे हैं कि पाक में डोभाल की जोड़ का एक एनएसए नियुक्त किया जाना चाहिए. कई कोनों से शरीफ को यह चेतावनी भी दी जा रही है कि डोभाल की रणनीति पाकिस्तान को हर मोरचे पर घेर देने की है, ताकि पाकिस्तान कश्मीर में आतंकियों को न भेज सके. डोभाल की आशंका वहां सबके सिर चढ़ बोल रही है.
(गवर्नेंस नाउ में छपे लेख का संपादित अंश. साभार)
(अनुवाद : विजय नंदन)
आशा खोसा
डिप्टी एडिटर
गवर्नेंस नाउ