मोदी का सबसे बड़ा राजनीतिक कदम

विमुद्रीकरण का राजनीतिक लाभांश मोदी का गणित और 2019 से उसका संबंध आर जगन्नाथन संपादकीय निदेशक, स्वराज्य पांच सौ और हजार रुपये के नोटों के विमुद्रीकरण के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्ष के निशाने पर हैं. आम लोगों को शुरूआती दिनों में मुश्किलें हुईं. अब धीरे-धीरे परेशानियां कम हो रही हैं. प्रधानमंत्री के इस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 25, 2016 7:37 AM
विमुद्रीकरण का राजनीतिक लाभांश
मोदी का गणित और 2019 से उसका संबंध
आर जगन्नाथन
संपादकीय निदेशक, स्वराज्य
पांच सौ और हजार रुपये के नोटों के विमुद्रीकरण के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्ष के निशाने पर हैं. आम लोगों को शुरूआती दिनों में मुश्किलें हुईं. अब धीरे-धीरे परेशानियां कम हो रही हैं. प्रधानमंत्री के इस कदम से नेता ही नहीं, देश के अर्थशास्त्री भी चकित हो रहे हैं. राजनीतिक प्रेक्षक इसे मोदी का एक और मास्टरस्ट्रोक मान रहे हैं. वे इसे वर्ष 2019 में होनेवाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों से जोड़ कर देख रहे हैं. आज पढ़ें विमुद्रीकरण के राजनीतिक लाभांश पर पहली कड़ी.
तमाम अर्थशास्त्री इस बात को लेकर आश्चर्य में हैं कि जब परिस्थितियां बेहतर प्रतीत हो रही हों, तो भला सरकार का मुखिया आर्थिक मंदी को कैसे मोल ले सकता है. पांच सौ और हजार रुपये के नोटों का विमुद्रीकरण जैसा हानिकारक कदम अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी नहीं था. संभव है कि भविष्य में इसका थोड़ा-बहुत लाभ मिले, लेकिन अल्पकालिक घाटा तो सुनिश्चित ही है. डूबे कर्ज के बढ़ते भार से जूझते सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक हताश हैं. इन बैंकों के मुखिया चाहते हैं कि बैंक अपने लाखों ग्राहकों और बैंकिंग से जुड़े अन्य लोगों के लिए अपनी सेवाएं नकदी लेन-देन के रूप में दें.
हालांकि सस्ती जमा राशि में अप्रत्याशित बढ़ोतरी से हो रहे लाभ के कारण बैंक आभारी हैं और ऐसे में कोषीय लाभ में वृद्धि भी होती है. लेकिन, दूसरी ओर लघु और मध्यम उद्यमों के डिफॉल्ट होने की आशंका के मद्देनजर ऋण विभाग के भविष्य को लेकर चिंता भी रहती है.
सिस्टम की सफाई के स्वागत में औपचारिक मुस्कान की पीछे व्यापारी असमंजस में रहता है. माना जाता है कि प्रधानमंत्री की नीतियां व्यापार के अनुकूल हैं, जबकि परोक्ष रूप से वे इन लोगों को ही निशाना बना रहे थे.
लंबी कतारों में खड़े लोगों को उकसा कर जनाक्रोश पैदा करनेवाले एक लोकप्रिय नेता के तेवर को लेकर विपक्षी राजनेता भौंचक्के हैं. लेकिन, वे लोग कालेधन के खिलाफ उठाये गये कदम की आलोचना करने में असमर्थ हैं.
विमुद्रीकरण के परिणामों को लेकर अपने भय और अपनी आशंकाएं व्यक्त करने का अधिकार सभी को है. लेकिन, यदि आप 26 मई, 2016 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उठाये गये कदमों को सिलसिलेवार तरीके से देखें, तो उनकी घोषणाओं और पहलों में एक स्पष्ट पैटर्न दिखता है.
देवियों और सज्जनों, 14वें भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के अगले पुनरअवतार (जो कि पांचवां है) का स्वागत कीजिए, जिनका इरादा 2019 का चुनाव जीत कर 2024 तक शासन करने का है. हालांकि, यह सुनश्चित ही है, लेकिन यदि मोदी असफल होते हैं, तो इसका कारण राजनीतिक कल्पनाशीलता या प्रयास की कमी नहीं होगी. इस कोशिश में आर्थिक मोर्चे पर नुकसान हो सकता है, लेकिन यह भी निश्चित नहीं है. यह तुरुप का पत्ता भी हो सकता है.
क्यों और अभी क्यों जैसे प्रश्नों का जवाब पाने के लिए आपको केवल आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक औचित्य की पड़ताल करनी होगी. विमुद्रीकरण मोदी का सबसे बड़ा राजनीतिक कदम है.
इसके लिए 2001 में उनके त्वरित उभार के वर्षों में जाना होगा, जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे. उन घटनाओं से स्पष्ट है कि मोदी का मानना है कि हर चुनाव में एक ही कहानी को नहीं बेचा जा सकता है. इसीलिए प्रत्येक जीत के बाद वह मानते हैं कि उन्हें नये अवतार में आना होगा. प्रत्येक चुनाव में वे नयी शख्सियत पेश करते हैं, और यही आधारभूत उद्देश्य विमुद्रीकरण के पीछे भी है.
कालानुक्रम इस प्रकार है-
2001 में भूकंप से भारी तबाही के बाद कच्छ क्षेत्र के कायाकल्प के साथ मोदी ने खुद को एक कर्ता के रूप में सामने लाने की कोशिश की. पर, असल खेल बदला 2002 में, जब गोधरा ट्रेन हादसे के बाद हुए दंगों में वे हिंदुत्व के प्रतीक पुरुष के तौर पर उभरे. यह उनका पहला अवतार था.
हालांकि 2002 के जनादेश के बाद उन्हें लगा कि यह ध्रुवीकरण उनके लिए हमेशा मददगार साबित नहीं होगा. लिहाजा वाइव्रेंट गुजरात के नाम पर हुए जलसों में विकास और निवेश के प्रस्तावों-घोषणाओं की झड़ी लगाते हुए उन्होंने खुद को विकास पुरुष के रूप में सामने लाया. इस तरह 2007 में गुजरात में पुराने ध्रुवीकरण के साथ विकास पुरुष की अपनी नयी छवि को जोड़ते हुए मोदी ने एक बार फिर जीत दर्ज की. यह उनका दूसरा अवतार था.
2012 में जब उनकी निगाहें दिल्ली पर जा टिकीं, तो उन्होंने 2002 की अपनी पुरानी छवि को पूरी तरह बदलते हुए खुद को एक ऐसे नेता के तौर पर पेश करना चाहा, जो गुजरात की तरह पूरे देश के लिए बहुत कुछ करना चाहता है. उनके नेतृत्व में गुजरात की उपलब्धियों ने ग्लोबल मीडिया के सहित निवेश प्रस्तावों के साथ कई देशों की सरकारों का भी ध्यान खींचा. वे अब अस्पृश्य नहीं रह गये थे. नतीजतन, 2014 के पूर्व या यूं कहें कि यूपीए सरकार के निराशाजनक आखिरी सालों में कॉरपोरेट इंडिया की पूरी कतार उनके साथ खड़ी दिखी. यह उनका तीसरा अवतार था.
पर 2014 के लिए उनका संदेश पूरे देश के लिए वही नहीं था, जो गुजरातियों के लिए था. उन्होंने एक बार फिर अपनी छवि को बदला और दिखलाया कि वे कुछ कर गुजरने वाले नेता हैं. उनकी यह छवि ऐसी थी, जो शहरी मध्यवर्ग को भी भरोसेमंद लग रही थी. इस तरह सबका साथ, सबका विकास के नारे के साथ नरेंद्र मोदी की एक सर्वसमावेशी नेता की छवि सामने आयी. वर्ष 2014 का उनका यह अवतार कारोबारी जमात की अनुकूलता से आगे गरीबों की हित रक्षा और हालात को बदलने वाले निर्णायक नेता से जुड़ा था. इस तरह सामने आया उनका चौथा अवतार.
अब जबकि इस महीने केंद्र में अपने कार्यकाल के मध्य में उन्होंने ढांचागत अर्थव्यवस्था की सुस्ती को तोड़ने का निर्णय लिया है, तो नहीं लगता है कि 2019 से पहले अपनी छवि को लेकर किसी तरह की कवायद की दरकार है.
यूपीए सरकार ने उनके लिए जो जहर का प्याला और तपती धरती छोड़ी थी, मोदी का कोई इरादा उस स्थिति को आगे और बनाये रखने की नहीं थी. बैंकों के बद से बदतर होते प्रदर्शन, कॉरपोरेट इंडिया की पस्तहाली, राज्यसभा में भूमि अधिग्रहण जैसे सुधारवादी कानून के लटकने के बाद मोदी को लगा कि 2018-19 से पहले रोजगार का अवसर बढ़ाना और विकास को पटरी पर लाना आसान नहीं है. इन्हीं हालातों ने मोदी को अपने पांचवें अवतार में आने को मजबूर किया. कहा जा सकता है कि यह अवतार उन्हें अमीरों से लेकर गरीबों को देने वाले रॉबिनहुड की छवि के तौर पर पेश करेगा. उनका नया अवतार 2019 की चुनाव की तैयारी से भी जुड़ा है. (जारी)
(अनुवाद: प्रेम प्रकाश) ( स्वराज्यमैग डॉट कॉम से साभार)

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