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मोदी का सबसे बड़ा राजनीतिक कदम -2 : अर्थव्यवस्था से ज्यादा अहम है सत्ता में बने रहना

आर जगन्नाथन संपादकीय निदेशक, स्वराज्य मोदी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इस बात की आशा कर रहे होंगे कि पैसे के लिए बैंक या एटीएम की लंबी कतारों में लगे लोग नाराज होकर मोदी से दूर हो जायेंगे, लेकिन इसका उल्टा भी हो सकता है. लोग अच्छी तरह से समझते हैं कि बिना दर्द के कुछ प्राप्त […]

आर जगन्नाथन
संपादकीय निदेशक, स्वराज्य
मोदी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इस बात की आशा कर रहे होंगे कि पैसे के लिए बैंक या एटीएम की लंबी कतारों में लगे लोग नाराज होकर मोदी से दूर हो जायेंगे, लेकिन इसका उल्टा भी हो सकता है. लोग अच्छी तरह से समझते हैं कि बिना दर्द के कुछ प्राप्त नहीं होता है. पढ़िए अंतिम कड़ी.
अगर आप जन-धन, आधार, डीबीटी (लाभुक को सीधे हस्तांतरण) से लेकर नोटबंदी तक उनके प्रयासों को एक क्रम में देखें, तो उनकी छवि में बदलाव की पूरी प्रक्रिया समझ में आती है. अलबत्ता उन्होंने कारोबार और विकास को नुकसान पहुंचाने वाला कोई कदम नहीं उठाया, बल्कि बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, सब्सिडी सुधार से लेकर दिवालियापन को लेकर नया कानून लाया. फिर भी, उन्हें नहीं लगा कि महज देश में सामान्य विकास के बूते वे दो साल बाद लोगों की उम्मीदों पर खरे उतर पायेंगे. अगर इस बाबत वे समय से नहीं चेतते, तो उनकी गति भी वही हो सकती है, जो 2003-04 में अटल बिहारी वाजपेयी की हुई थी. तब विकास भी हुआ था, और वे चुनाव भी हार गये थे.
अगर आपको लगता है कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था या खुद मोदी को बहुत मदद नहीं मिलेगी, तो आपको उस नजरिये को समझना होगा, जिससे राजनेता अर्थव्यवस्था को देखते हैं. यानी अच्छी अर्थव्यवस्था तभी आपकी मददगार होती है, जब हवा का रुख आपकी तरफ हो. पर अगर स्थिति उलट है, तो आप फिर से चुनाव जीतने की सोच भी नहीं सकते. यूपीए दौर के आखिरी सालों में अर्थव्यवस्था में मामूली गिरावट के बावजूद सरकार को लगा कि वह भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित करा कर उत्पादन और ढांचागत क्षेत्र में वृद्धि दर्ज करा कर स्थिति को संभाल लेगी. आकलन यह भी था कि इससे जमीन के भाव बढ़ेंगे तथा रियल एस्टेट और विनिर्माण क्षेत्र में तेजी आने से रोजगार बढ़ेंगे. पर सोनिया गांधी ने देखा कि अर्थव्यवस्था के लिए उठाये गये इन कदमों का कोई फायदा नहीं मिल रहा है. नतीजतन, उन्होंने भूमि अधिग्रहण के साथ खाद्य सुरक्षा कानून को लाकर ग्रामीण के साथ शहरी गरीबों के प्रति निष्ठावान होने की कोशिश की. ये अलग बात है कि सारी कवायद के बावजूद यूपीए सत्ता से बाहर हो गयी, पर यह दिखाता है कि सियासी दिमाग किस तरह काम करता है. यानी, अर्थव्यवस्था से ज्यादा अहम है सत्ता में बने रहना.
इस समझ के साथ प्रधानमंत्री मोदी के अब तक के फैसले को देखें, तो 2014 में वे जन-धन योजना लेकर आये, जिसमें अब तक 25 करोड़ खाते खुल चुके हैं, जिनमें करीब आधे में या तो पैसे नहीं हैं या बहुत कम पैसे हैं.
इसके बाद वे डीबीटी योजना लेकर आये और इसे सबसे पहले रसोई गैस उपभोक्ताओं के बीच आजमाया. एक साल के भीतर गैस सब्सिडी सीधा लोगों के बैंक खातों में पहुंचने लगी. इसी दौरान उन्होंने निर्धन ग्रामीणों को सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर उपलब्ध कराने के लिए लोगों से स्वैच्छिक तौर पर अपनी एलपीजी सब्सिडी त्यागने की अपील की. इससे आय के आधार पर भावी फैसले लेने का एक नैतिक वातावरण बना. सब्सिडी को लेकर सुधारात्मक पहल मोदी सरकार की बेहतरीन उपलब्धियों में से एक है.
इसी क्रम में आगे 2015 और 2016 में नरेंद्र मोदी स्वैच्छिक तौर पर कालेधन की घोषणा की दो योजनाएं लेकर देश के सामने आये. इस तरह वे 70 हजार करोड़ रुपये जमा करने में सफल हुए. दिलचस्प है कि यह रकम कर के जरिये जमा होने वाली राशि की करीब आधी है. इस तरह 30 सितंबर को इनकम डिसक्लोजर स्कीम (आईडीएस) की समाप्ति के साथ उन्होंने नोटबंदी के लिए एक पुख्ता प्लेटफॉर्म तैयार कर लिया. इसी महीने वे बेनामी संपत्ति के खिलाफ कानून लेकर भी आये. इस कानून के जरिये सरकार न सिर्फ बेनामी संपत्ति कोे जब्त कर सकती है, बल्कि दोषियों को सात साल की जेल की सजा तक हो सकती है. कहा जा सकता है कि नोटबंदी से लेकर बेनामी संपत्ति के खिलाफ कानून के जरिये मोदी ने नकद कालाधन के विशाल वृक्ष को पूरी तरह झकझोर दिया है और इससे राजस्व में बड़े इजाफे की उम्मीद है. इस इजाफे के जरिये नरेंद्र मोदी खुद को 2019 तक सत्ता बने रहने पटकथा बखूबी लिख सकते हैं.
पटकथा इस तरह से मंचित हो सकती है-
लगभग 14 लाख करोड़ के बड़े मूल्य वाले नोटों का विमुद्रीकरण हो चुका है. सरकार को इससे कितना लाभ होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इससे कितना धन वापस आता है और कितना नहीं.
अगर सारा धन वापस बैंकों में लौट आता है (जिसकी संभावना बहुत कम है), तो बैंकों के पास काफी मात्रा में नकदी आ जायेगी और ब्याज दर में कटौती होगी. सरकार कम दर पर उधार लेगी और कुछ काले धन को नये नोट में बदल जायेगा, उन पर उच्च कर का भुगतान करना होगा. इससे व्यावसायिक कर दरों में भी कटौती हो सकती है और ढांचागत संरचना पर व्यय करने के लिए ढेर सारा धन होगा.
चलिए, मान लेते हैं कि इस धन का बड़ा हिस्सा वापस नहीं आता है. यह दो से तीन लाख करोड़ रुपये का हो सकता है. यह धन बेकार होगा, और भारतीय रिजर्व बैंक इतनी ही राशि के समतुल्य देनदारियों में गिरावट दर्ज करा सकता है, और उच्च अधिशेष या लाभांश घोषित कर सकता है, जो कानूनन सरकार के पास जायेगा.
अगर सरकार को एक-दो लाख करोड़ रुपया मिलता है, तो यह बड़ी राशि होगी. इसे अर्थव्यवस्था में वृद्धि, बैंकाें के पुनर्पूंजीकरण, कृषि ऋण हटाने, और सबसे महत्वपूर्ण बात, जन-धन खाते में लगाया जा सकता है. हर जन-धन खाते में पांच हजार रुपये डालने पर कुल 1.25 लाख करोड़ रुपये की राशि खर्च होगी. (यहां समस्या यह है कि क्या सभी जन-धन खाते में यह पैसा डाला जायेगा या सिर्फ जीरो बैलेंस वाले खाते में ही, और क्या जन-धन खातों के अतिरिक्त बीपीएल खातों की पहचान कर उनमें भी पैसे डाले जायेंगे). ऐसे में वे यह दावा भी कर सकते हैं कि कालाबाजरियों से वसूला गया कालाधन गरीबों के पास वापस आ रहा है- यह बहुत बड़ा राजनीतिक दावं होगा.
अगर रिजर्व बैंक को अप्रत्याशित लाभ नहीं होता है, तब भी सरकार को बड़े पैमाने पर कर प्राप्ति होने वाली है जिसका इस्तेमाल गरीबों की बेहतरी के लिए किया जा सकेगा. बेनामी लेन-देन करनेवालों के लिए बेनामी लेन-देन कानून एक शांत खतरा है, और अधिकारी अधिक राजस्व वसूली के लिए इसे धमकी के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. राजनीतिक विरोधियों (चूंकि अधिकतर बेनामदार का संबंध राजनेताओं से है) को चुप कराने का यह एक शक्तिशाली औजार साबित हो सकता है. इसका इस्तेमाल सहयोगी दलों को काबू में रखने या उन्हें चुप कराने के लिए भी उपयोग किया जा सकता है.
संभवत: मोदी का हिसाब यह है कि वृद्धि में विमुद्रीकरण के प्रभाव से उत्पन्न कमी उनके लिए तभी फायदेमंद साबित होगा जब अंतत: उन्हें इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा.
वहीं मोदी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इस बात की आशा कर रहे होंगे कि पैसे के लिए बैंक या एटीएम की लंबी कतारों में लगे लोग नाराज होकर मोदी से दूर हो जायेंगे, लेकिन इसका उल्टा भी हो सकता है. लोग अच्छी तरह से समझते हैं कि बिना दर्द के कुछ प्राप्त नहीं होता है. हो सकता है कि अभी धूप में लंबी कतारों में लगे लोग मन ही मन मोदी को बुरा-भला भी कहते हों, लेकिन उन्हें विश्वास में लिया जा सकता है कि अगर माेदी उन्हें बाद में नकदी का लाभ देते हैं.
यह केनेडी का मोदी संस्करण है, ‘आप यह मत पूछिए कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है, आप खुद से पूछिए कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं.’ वे लोगों से देश के लिए कुछ करने का आग्रह कर रहे हैं और अभी तक सारा प्रकरण इसी तरह आगे बढ़ रहा है. दिसंबर तक नकदी लेने के लिए बैंकों के आगे लगे लोगों की कतार खत्म हो जाती है, तब वह सुरक्षित हो जायेंगे.
इसके आधार पर वे 2019 से पहले रॉबिनहुड की भूमिका में आ जायेंगे. इसे हम उनका अगला अवतार कह सकते हैं. (समाप्त)
(अनुवाद: प्रेम प्रकाश) ( स्वराज्यमैग डॉट कॉम से साभार)

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