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रुपया बनाम डॉलर : रुपये की कीमत में बेरोक गिरावट

स्थानीय और वैश्विक कारकों के प्रभाव से डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में लगातार गिरावट हो रही है. वर्ष 2013 के बाद यह सर्वाधिक गिरावट है. सुधार के संकेतों के साथ यह भी संतोष की बात है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति बीते तीन सालों में काफी बेहतर हुई है. रुपये के मूल्य में […]

स्थानीय और वैश्विक कारकों के प्रभाव से डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में लगातार गिरावट हो रही है. वर्ष 2013 के बाद यह सर्वाधिक गिरावट है. सुधार के संकेतों के साथ यह भी संतोष की बात है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति बीते तीन सालों में काफी बेहतर हुई है. रुपये के मूल्य में कमी के कारणों और परिणामों पर विश्लेषण के साथ इन-डेप्थ की यह प्रस्तुति…

अभिजीत मुखोपाध्याय

अर्थशास्त्री

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाजारों में हलचल पैदा कर दी है. ट्रंप द्वारा अमेरिकी मतदाताओं से किये गये वायदों में अन्य बातों के अलावा ब्याज दरें बढ़ाना तथा राजकोषीय प्रोत्साहन प्रदान करना शामिल थे. इसलिए उनकी जीत के बाद वहां दस वर्षीय बांड से मिलनेवाली 1.82 प्रतिशत की आय बढ़ा कर 1 नवंबर, 2016 से 2.35 प्रतिशत कर दी गयी. जानकारों का यह भी कहना है कि दिसंबर में अमेरिकी फेडरल रिजर्व ब्याज दरों में भी इजाफा तकरीबन तय है. इसके तुरंत ही बाद भारत तथा अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं से ‘पूंजी पलायन’ प्रारंभ हो गया और विभिन्न पोर्टफोलियो में निवेश करनेवाले विदेशी निवेशकों ने भारत में अपनी परिसंपत्तियों (एसेट) के कुछ हिस्सों से छुट्टी पा ली. एक अक्तूबर 2016 से 23 नवंबर, 2016 तक की अवधि में उन्होंने कुल 16,936 करोड़ रुपयों के शेयर बेच डाले.

मुद्रा के तौर पर डॉलर की मांग बढ़ी

अब चूंकि अमेरिकी वित्तीय बाजार से अधिक आय की पूरी संभावना है, सो पूर्व में भारतीय स्टॉकों तथा अन्य वित्तीय परिसंपत्तियों में निवेश करनेवालों ने अब अपना रुख अमेरिकी बाजारों की ओर कर लिया. इसका एक अर्थ यह भी है कि दूसरे देशों की मुद्राओं में रखी गयी परिसंपत्तियां हटा कर उनकी जगह डॉलरों में मौजूद परिसंपत्तियों की खरीदारी बढ़ी. इस प्रकार एक मुद्रा के तौर पर डॉलर की मांग चढ़ चली, और इस मांग से निर्धारित होनेवाली उसकी कीमत भी बढ़ गयी. इसने डॉलर की विनिमय दर भी बढ़ा दी, जिससे दूसरे देशों की मुद्राओं की बनिस्बत डॉलर की कीमत में इजाफा आ गया.

इस प्रक्रिया के नतीजतन डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया कमजोर पड़ा और गुरुवार 24 नवंबर, 2016 को वह 68.73 रुपये प्रति डॉलर पर बंद हुआ, जो पिछले 39 महीनों के दौरान इसका सबसे निचला स्तर था. इसके केवल एक ही दिन पहले बुधवार को डॉलर ने ‘मजबूत अमेरिकी आर्थिक आंकड़ों’ के दम पर पिछले 13 वर्षों के उच्चतम स्तर काे स्पर्श किया. अमेरिकी डॉलर की मजबूती से चोट खानेवाली मुद्राओं में भारतीय रुपये के अतिरिक्त थाई बात, फिलिपीनी पीसो, इंडोनेशियाई रुपिया तथा मलेशियाई रिंगित जैसी अन्य प्रमुख एशियाई मुद्राएं भी शामिल हैं. चीनी युआन भी इनसे कुछ कमतर स्तर पर ही सही, मगर प्रभावित हुए बगैर न रह सका.

रुपये के अवमूल्यन के कारक

सवाल यह है कि क्या कोई अन्य भी कारण अथवा कारक हैं, जिन्होंने भारतीय रुपये की इस जोरदार गिरावट में अपना योगदान किया? जिस एक अन्य कारक की चर्चा प्रायः की जाती है, वह विदेशी मुद्रा अनिवासी (एफसीएनआर) बैंक खातों में जमाराशियों के परिपक्व होकर निकासी के लिए उनके मुक्त होने का आरंभ है, जो और भी पहले सितंबर 2016 से ही शुरू हो चुका है.

वर्ष 2013 में रघुराम राजन द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के गवर्नर बनने के ठीक पहले भी रुपया ऐसे ही एक अन्य पतन का शिकार होकर 67.85 प्रति डॉलर के निचले स्तर तक उतर चुका था. प्रतिकार के तौर पर बैंकों ने जमाराशियों के रूप में डॉलर इकठ्ठा कर उन्हें रिजर्व बैंक की सब्सिडीयुक्त डॉलर जमा विनिमय योजना के अंतर्गत रियायती दर पर रुपये से बदल लिया, ताकि रुपये को कमजोरी से बचाया जा सके.

यह योजना 30 अरब अमेरिकी डॉलर से भी कुछ अधिक इकठ्ठा करने में मददगार होते हुए काफी हद तक सफल रही, जिसमें 24 अरब डॉलर एफसीएनआर से एकत्र हुए. रिजर्व बैंक ने इस प्रक्रिया से डॉलर हासिल कर उसे बाजार में बेच डाला, ताकि बाजार में डॉलर की आपूर्ति बढ़ा कर तथा बदले में वहां से रुपये निकाल कर डॉलर के मुकाबले रुपये को स्थिरता प्रदान की जा सके. सेंट्रल बैंकिंग की भाषा में यह प्रक्रिया आरबीआइ के ‘विदेशी विनिमय हस्तक्षेप’ का एक हिस्सा थी, जिसके नतीजतन अंततः रुपये ने स्थिरता पा ली.

मगर वे एफसीएनआर जमाराशियां तीन वर्षों की अवधि के लिए थीं, जो सितंबर, 2016 से परिपक्व होने लगीं. बाजार के कुछ अनुमानों के अनुसार यह बताया जाता है कि इन जमाराशियों की आधी से भी अधिक तादाद नवंबर के दूसरे पखवारे में निकासी के लिए मुक्त हो जायेंगी. यह स्पष्ट है कि इनका भुगतान डॉलरों में किया जाना है, जो रुपयों के मुकाबले डॉलरों की मांग में बढ़ोतरी लायेगा. कई विशेषज्ञों का मत है कि इस कारक ने भी रुपयों की गिरावट में अपनी भूमिका अदा की है.

विमुद्रीकरण का असर

अमेरिका में ट्रंप की विजय ने सभी तरह की ब्याजदरों में बढ़ोतरी की उम्मीदें पैदा कर दी हैं, जबकि दूसरी ओर भारत में विमुद्रीकरण ने उनमें कमी की अपेक्षाएं खड़ी कर दी हैं. चूंकि यहां बैंकों में रुपये किसी न किसी रूप में जमा होते जा रहे हैं, व्यवस्था में आयी रुपयों की यह अतिरिक्त तरलता आगे ब्याजदरों में कमी लायेगी. एक विदेशी निवेशक के लिए यह एक अतिरिक्त वजह है कि वह भारतीय वित्तीय तथा शेयर बाजारों से अपने पैसे निकाल ले.

अमेरिकी तथा भारतीय ऋणदरों में ये विपरीत रुझानें निकट भविष्य में भी रुपये पर दबाव बनाये रखेंगी. सामान्य परिस्थितियों में तो इस विमुद्रीकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में खुशी की लहर दौड़ गयी होती, क्योंकि निर्यात से कमाये गये प्रत्येक डॉलर के बदले अधिक रुपये मिलने से राष्ट्रीय मुद्रा का मूल्यह्रास निर्यात में लाभ देता है. पर, एक मंद वैश्विक अर्थव्यवस्था और विमुद्रीकरण के नतीजे में सिकुड़ती हमारी अर्थव्यवस्था भारतीय निर्यात परिदृश्य में कोई सकारात्मकता नहीं ला सकती.

जीडीपी पर पड़ेगा प्रतिकूल असर

ये ही वे परिस्थितियां हैं, जो वित्तीय बाजारों को सरकार के इस आश्वासन के बावजूद कि पर्याप्त विदेशी विनिमय भंडार उपलब्ध है, भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षितिज में चिंताजनक आसार उकेर रही हैं.

रुपये के मूल्य में अत्यधिक कमी आने से भारत द्वारा चुकाये जानेवाले निजी तथा सरकारी दोनों तरह के विदेशी ऋणों के भुगतान की लागत बढ़ जाने की वजह से उन्हें चुकाने की समय सारणी खतरे में पड़ सकती है. क्योंकि, जिसने भी यह ऋण लिया है, उसे उसके भुगतान में अब अधिक रुपये चुकाने होंगे. अंततः इससे हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है. हालांकि, आरबीआइ की घोषित नीति यह है कि वह बाजार को ही विदेशी विनिमय की दरें तय करने देकर सिर्फ उसमें उठा-पटक रोकने के लिए ही हस्तक्षेप करेगा, पर यह सुनिश्चित करना भी उसकी ही जिम्मेवारी है कि राष्ट्र के वर्तमान आर्थिक माहौल में कोई अन्य कारक और अधिक अनिश्चितता न जोड़ सके.

(अनुवाद : विजय नंदन)

गिरता रुपया, लेकिन हालात 2013 से कहीं बेहतर

वर्ष 2013 के बाद डॉलर के मुकाबले रुपया अब तक के सबसे निचले स्तर पर आ चुका है. हालिया नाेटबंदी के बाद एक बार फिर रुपया के हालात बिगड़ रहे हैं. लेकिन, निवेशकों में इस बार पहले की तरह अफरा-तफरी नहीं है. इसका बड़ा कारण है कि एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके भारत में पिछले तीन सालों के दौरान नीति-निर्माता मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने और चालू खाता घाटा को कम करने में कामयाब रहे हैं. साथ ही इस अवधि में विदेशी मुद्रा भंडार ने घरेलू बाजार को वैश्विक झटकों से बचाने में मदद की है. वर्ष 2013 में 28 अगस्त को एक डॉलर का मूल्य 68.84 रुपये था, जबकि कल यानी 29 नवंबर, 2016 को यह 68.67 के स्तर पर आ चुका था.

सिंगापुर स्थित ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड बैंकिंग ग्रुप लिमिटेड में एशिया रिसर्च के प्रमुख कून गो का कहना है कि पिछले तीन सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था की जड़ें बेहद मजबूत हुई हैं. डॉलर के मुकाबले रुपये को भले ही यह ज्यादा मजबूत नहीं बना पाये, लेकिन हालात पहले से कहीं बेहतर होंगे.

चालू खाता घाटे की बात करें, तो वर्ष 2008 के बाद से वर्ष 2013 तक यह लगातार बढ़ता रहा, लेकिन उसके बाद घाटे में कमी आती गयी. आज यह तकरीबन 2008 के स्तर पर आ चुका है. हालांकि, पिछले कुछ वर्ष के दौरान भारत के वैश्विक व्यापार में कुछ कमी जरूर आयी है, लेकिन निर्यात और आयात के बीच कुछ हद तक संतुलन कायम हुआ है. इससे चालू खाता घाटा कम करने में कामयाबी मिली है. चूंकि, हमारा देश करीब तीन-चौथाई तेल विदेशों से आयात करता है, लिहाजा पिछले तीन सालों से भारत को कच्चे तेल की कीमतों में कमी का फायदा मिला है.

‘ब्लूमबर्ग’ की एक रिपोर्ट में यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि अगले साल की पहली तिमाही रुपये में ह्रास होने की उम्मीद नहीं दिख रही है. दुनिया की अन्य उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले भारत की दशा इस लिहाज से बेहतर होने

की उम्मीद है.

इितहास के आईने में रुपये का मूल्य

स्व तंत्रता से लेकर अब तक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की चाल अस्थिर रही है. अनेक भूराजनीतिक और आर्थिक कारकों ने दोनों मुद्राओं के संतुलन को प्रभावित किया है.

– जब 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ, तब रुपये का मूल्य डॉलर के समतुल्य था. उस समय भारत के ऊपर कोई विदेशी ऋण नहीं था. लेकिन, कल्याण योजनाओं व विकास के कार्यों के लिए, विशेष रूप से 1951 में पंच-वर्षीय योजना की शुरुआत के साथ, सरकार ने विदेश से उधार लेना शुरू कर दिया. इसके लिए रुपये का अवमूल्यन आवश्यक था.

– स्वतंत्रता के बाद भारत ने नियत दर मुद्रा व्यवस्था अपनायी. वर्ष 1948 से लेकर 1966 तक डॉलर के मुकाबले रुपया 4.79 के स्तर पर बना रहा. परंतु, 1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए लगातार दो युद्धों ने भारत के बजटीय घाटा को बहुत बढ़ा दिया. इस घाटे ने डॉलर के मुकाबले रुपये का मूल्य घटा कर 7.57 करने के लिए सरकार को

बाध्य कर दिया.

– वर्ष 1971 में ब्रिटिश मुद्रा के साथ रुपये का संपर्क खत्म कर दिया गया और उसे सीधे-सीधे अमेरिकी डॉलर के साथ जोड़ दिया गया.

– वर्ष 1975 में रुपये का मूल्य डॉलर के मुकाबले गिर कर 8.39 हो गया.

– वर्ष 1985 में एक बार फिर रुपये का अवमूल्यन हुआ और उसका भाव एक डॉलर के मुकाबले 12 रुपये तक पहुंच गया.

– वर्ष 1991 में भारत को जोखिम भरे भुगतान संतुलन के संकट से गुजरना पड़ा था और एक बार फिर रुपये की कीमत में तेज अवमूल्यन के लिए मजबूरी सामने आयी. देश न सिर्फ उच्च मुद्रास्फीति व निम्न वृद्धि दर की चपेट में आ गया था, बल्कि विदेशी मुद्रा भंडार में भी भारी कमी आ गयी थी और तीन सप्ताह के आयात के लिए भी देश के पास पर्याप्त मुद्रा नहीं बची थी. इन परिस्थितियों में डॉलर के मुकाबले रुपया गिर कर 17.90 के स्तर पर आ गया.

– मुद्रा के लिहाज से 1993 का साल बहुत महत्वपूर्ण था. इस साल बाजार के मुताबिक मुद्रा के मूल्यांकन का रास्ता खोल दिया गया. अब विनिमय दर बाजार के अनुसार निर्धारित होने के लिए स्वतंत्र थी, लेकिन यह व्यवस्था भी की गयी कि अत्यधिक अस्थिरता की स्थिति में रिजर्व बैंक हस्तक्षेप कर सकता था. इस साल डॉलर के मुकाबले रुपया गिर कर 31.37 के स्तर तक पहुंच गया.

– वर्ष 2000 और 2010 में रुपये की कीमत 40 से 50 के बीच रही. उन दिनों रुपये का भाव आम तौर पर डॉलर के मुकाबले 45 के आसपास बना रहा था. लेकिन, वर्ष 2007 में रुपये का भाव 39 के स्तर पर

भी पहुंच गया था.

– लेकिन, 2008 में हुए वैश्विक आर्थिक संकट के समय से ही भारतीय मुद्रा में लगातार गिरावट होती गयी.

– वर्ष 2013 में बाजार के उतार-चढ़ाव के कारण रुपया 3.7 प्रतिशत तक लड़खड़ा कर डॉलर के मुकाबले अब तक के सबसे निचले स्तर 68.85 पर पहुंच गया और 28 अगस्त को यह 68.80/ 81 पर बंद हुआ. अक्तूबर, 1995 से लेकर अब तक किसी एक दिन में रुपये में होनेवाली यह सबसे बड़ी गिरावट थी.

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