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मेरे घर के दो दरवाज़े हैं

वंदना राग प्रतिमा दी, से मेरी दोस्ती दो खब्ती लोगों का संयोग वश आपस में यूंही बेमकसद टकरा जाने जैसा था. हम एक सिनेमा के स्क्रीनिंग में साथ बैठे हुए थे. याद है अच्छी तरह मणिकौल की सिद्धेश्वरी . मैं मणि कौल की प्रशंसक तो थी लेकिन सिद्धेश्वेरी को देखने के उनके नज़रिए से सहमत […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 9, 2016 5:52 AM

वंदना राग

प्रतिमा दी, से मेरी दोस्ती दो खब्ती लोगों का संयोग वश आपस में यूंही बेमकसद टकरा जाने जैसा था. हम एक सिनेमा के स्क्रीनिंग में साथ बैठे हुए थे. याद है अच्छी तरह मणिकौल की सिद्धेश्वरी . मैं मणि कौल की प्रशंसक तो थी लेकिन सिद्धेश्वेरी को देखने के उनके नज़रिए से सहमत नहीं हो पा रही थी . मेरे मुंह से अनायास निकला था “ उफ़ ये क्या दिखा दिया “

मेरे बगल से तुरंत आवाज़ आई थी “ ग़लत क्या है ?”

मैंने चौंक कर देखा था मेरी बगल में एक 45- से 50 साल की एक आकर्षक लम्बी, भरी पूरी औरत बैठी थी. उसने एक बंगाल की सूती साड़ी पहन रखी थी. उसकी आंखे बड़ी बड़ी सी थीं जिनसे वह मुझे सिनेमा हाल के अंधेरे में बेधने की कोशिश कर रही थी.

मैं उसके यूं बेधड़क मुखातिब होने से हडबडा गयी थी और सिनेमा की अधकचरी समझ का हवाला दिया था . उसने मेरी बातों को गौर से सुना था और हंस पड़ी थी. बाद में उसने मुझे अपना परिचय दिया था “ प्रोतिमा बनर्जी, यहीं पुणे के एक प्राइवेट कॉलेज में फिल्म स्टडीज की टीचर हूं “

मैं उसके इस परिचय पर झेंप गयी थी और उसका फ़ोन नंबर मांग लिया था. सिनेमा में मेरी बहुत रूचि थी और यह अच्छा संयोग बन पड़ा था सिनेमा के बारे में कुछ नयी बातें जानने का.

धीरे धीरे हमारे परिचय का घनत्व बढ़ता गया और हम दोस्त हो गये. प्रोतिमा दी से दोस्ती के दौरान मैंने ज़िन्दगी की बहुत सारी नयी बातें सीखी, मसलन दुनिया निर्मम है तो क्या हुआ, प्यार बड़ी चीज है. प्यार किसी को कभी भी हो सकता है, और दो बहुत अच्छे लोग भी आपस में शादी कर खुश नहीं हो सकते हैं.

मेरे लिए ये बातें जानकारी के स्तर पर नयी तो नहीं थीं लेकिन स्वीकार्यता के स्तरपर ज़रूर थीं. मैं थोड़ी रोमानी किस्म की हूं और परी कथाओं के “और वे हमेशा खुश रहे” वाले मुहावरे से बहुत प्रभावित भी इसीलिए जब एक दिन प्रोतिमा दी ने मुझे कहा की वे अब दोबारा शादी करना चाहतीं हैं तो मैंने घबरा कर पूछा था- “इस उम्र में?”

उन्होंने अपनी उन्मुक्त हंसी के साथ कहा था “ हां इसी उम्र में! अभी शादी को एन्जॉय करने की उम्र है मेरी”

न चाहते हुए भी मेरी निगाह उनकी छाती के उभारों पर चली गयी थीं, उन्होंने मेरी नज़र को पकड़ लिया था और कहा था” धडकता दिल है मेरा, ठंडा नहीं हुआ है अभी तक, बुलो और रंजो ने भी कहा है’ मां जे चाई शे टा कोरो’ मां जो दिल में आये करो.” ये बोलते वक़्त वह एक दूसरी दुनिया में चली जाती थीं और मुझ खब्ती को लगता था की इनके बच्चे तो सच्चे हैं , दोनों विदेश में हैं लेकिन क्या वे ये बातें सचमुच अपनी मां को कहते होंगे? प्रोतिमा दी के ख्यालों में यह बातें चलती रहतीं हैं. मेरा ऐसा सोचने के पीछे एक कारण था. दरअसल बातों बातों में उन्होंने मुझे बताया हुआ था की उनके बच्चे उनसे नाराज़ रहते थे.

“क्यूं?” मैंने एक दिन पूछा था.

“ डाइवोर्स के लिए वे मुझे दोषी मानते हैं”.

“ और आप क्या सोचती हैं और आपके पति ?”

“ वे भले आदमी हैं वे जानते हैं हम दोनों साथ नहीं रह सकते थे. हममे अलग अलग तरह की प्रतिभाएं थीं , जिनको एक दूसरे से अलग रहकर ही हासिल किया जा सकता था. बच्चे भी यह बात समझ जायेंगे एक दिन” उन्होंने हंसते हुए कहा था. बच्चों के लिए प्यार से भरकर कहा था और उसी पल मुझे शक हुआ था अपने छोड़े गए पति के लिए भी उन्होंने बहुत सारे प्यार से भरकर सबकुछ कहा था. ये सबके लिए इतने प्यार से कैसे भरी रहती हैं मैंने कई बार सोचा था. क्या प्यार सचमुच नफरत से बड़ा ज़ज्बा है?

मुझे उनका फलसफा रोमानी लगता. मुझे लगता ये अकेली हैं. बहुत अकेली. और ऐसे में लोग साथ ढूंढ़ते हैं और प्यार-व्यार जैसी बातों का फलसफा गढ़ते हैं जिसका व्यावहारिक ज़िंदगी में बहुत मोल नहीं रहता.

“ प्रोतिमा दी, प्यार तो चुक जाया करता है. देखिए न चाहे वो कॉलेज के प्रेमी प्रेमिका का हो जो शादी में तब्दील हो जाये या फिर नवदंपत्ति का हो या ..” मैं और अनूठे तर्कों से जिरह करती “ या बच्चों का मां बाप के प्रति हो, या…”

वे मुझे रोक देतीं और कहतीं” तुमने शायद कभी ढंग से प्यार किया ही नहीं है, छोटी हो उम्र सब सिखा देगी तुम्हें “

इसपर हंसने की बारी मेरी होती.

“प्रोतिमा दी, इतनी छोटी भी नहीं लेकिन आपकी बात पूरी तरह मान भी नहीं सकती”

प्रोतिमा दी ने जब एक बार घोषणा की, कि वह प्रेम पर पूरी किताब ही लिख रही हैं तो मुझे उनपे तरस आया. प्रेम को ज़िंदगी में इतना महत्व देने का मतलब? मेरी समझ से परे था. अरे बढ़िया कमाती थीं. खाती, पहनती-ओढ़ती थीं. बच्चे जीवन में अच्छा कर रहे थे. समाज में रुतबा था उनका, फिर भी एक तिनके के आसरे बैठी थीं. औरतों के सबलीकरण की सारी अवधारणाओं को ख़ारिज करती थी उनकी ये बातें.

मुझे याद है जब हम दोनों कहीं साथ घूमने फिरने और खाने पीने जाते थे तो लोग उन्हें ज्यादा मज़बूत, शुष्क और कठोर समझते थे, जबकि हम दोनों जानते थे सच्च्चाई इससे कितनी अलग थी.

वे हर प्रतिभाशाली बंगाली की तरह खूब मीठा गातीं थीं. वे बेगुन भाजा, शुक्तो और कोशा-मान्ग्शो बेहद स्वादिष्ट बनाती थीं. वे सिगरेट और शराब भी कभी कभी पीती थीं.वे बहुत अच्छी टीचर भी थीं. यह सब मैंने लोगों से और खुद उनके मुह से भी सुना था. लिहाज़ा जब एक बार उनको जानने वाले एक मित्र ने आकर कहा था” अरे अजीब हैं प्रोतिमा जी उनके मकान मालिक से ही उनका कुछ कुछ चलता है” तो मेरे दिल को भयानक ठेस पहुंची थी.

कुछ दिन पशोपेश में रहने के बाद मैंने उन्हें फ़ोन मिलाया था.

“ प्रोतिमा दी, आपकी किताब का क्या हाल है ?”

“ अरे” वो ख़ुशी से उछल कर बोलीं थीं

“ बड़े दिन बाद याद आयी. कहां हो? किताब का पहला ड्राफ्ट पूरा हो गया है. तुम कहो तो कॉलेज जाते वक़्त तुम्हारे यहां छोड़ दूं. तुम पलट लो. और लौटते में ले लूंगी “

मुझे भी उनसे बात कर उतनी ही ख़ुशी हुई. मैंने झट हामी भर दी.

शाम को जब उनकी किताब को मैंने अच्छी तरह से उलट पलट लिया तो मेरा उनके प्रति एक विश्वास और गहरा गया ‘‘ दी ग़जब की विद्वत्ता से भी भरी थीं’’ वेद, पुराण, बाइबिल, कुरान और जितने इस तरह के प्राथमिक स्रोत हो सकते थे, उनका गहन अध्ययन कर उन्होंने प्रेम की इस किताब को लिखा था . सारी दुनिया जिस बात को जान रही थी उन्होंने उसे समझ कर दिल से समझा दिया था. अब मुझे उनके कॉलेज से वापस आकर मिलने का इंतज़ार था. मैं उन्हें गले लगाना चाहती थी.

प्रोतिमा दी जब शाम को आयीं तो वे मेरे घर के अंदर नहीं आयीं. उन्होंने मुझे ही बाहर आने को कहा और जब मैं उनकी पांडुलिपि ले बाहर पहुंची तो उन्होंने मुझे बहुत प्यार से अपनी गाड़ी में बैठा लिया.

“ कहां दी ?”

“ मेरे घर चलो , आज वहीं बैठते हैं “

“घर ?”

मेरा मन अजीब ढंग से धुक-धुक करने लगा. मैंने लेकिन हुज्जत न की. दी के साथ उनके घर पहुंची. उनका घर अजीब था. नीचे का घर था और तीन भागों में बंटा हुआ.

अपने हिस्से का दरवाज़ा खोलते हुए वे मुझे घर की संरचना समझाने लगीं.

“ देखो मैं बीच में रहती हूं. मेरी दायीं ओर दिलीप कुमार और बायीं ओर राज कपूर रहते हैं. “

“क्या ?”

मेरे चेहरे पर उभर आई उलझन की रेखाओं को देख उन्होंने एक ठहाका लगाया.

“ अरे उन्हें मैं यही कहती हूं . दोनों भाई हैं. मेरे मकान मालिक. अकेले दुनिया में. न शादी की न बाल बच्चे हैं. देश को समर्पित किया जीवन “

दो मकान मालिक सुन वैसे ही मेरे मन में कुछ अजीब-सा हो रहा था. अकेले हैं सुन और ख़राब लगा.

इतने में प्रोतिमा दी ने रसोईघर व्यवस्थित कर चाय का पानी चढ़ा दिया था. वहीं खड़े-खड़े उन्होंने मुझे आगे बताया.

“ दोनों भाई आपस में खूब लड़ते हैं ?”

“ किसे ले ?” मेरे अंदर का संशय जुबां पर आते-आते रह गया .

“ हाहाहा ….” प्रोतिमा दी की हंसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी .

“ विचारधारा को लें. आइडियोलॉजी को ले. यू सी एक संघ में आस्था रखता है और एक कम्युनिस्ट पार्टी का आजीवन सदस्य है “

मुझे तो कुछ सूझ नहीं रहा था. मैं चाय का बनना देखती रही. अंगरेज़ लाया था चाय इस देश में. इसी तरह की अनर्गल बात सोच रही थी. प्रोतिमा दी की अनर्गल जानकारी से बेहतर बात सोचने की यह मेरी कवायद थी.

प्रोतिमा दी जब चाय के साथ कुछ और पेश करने के लिए बिस्कुट निकालने लगीं तभी जोर की धड़ाम-धड़ाम की आवाजें हुईं जैसे दो दरवाज़े खुले और बंद हुए हों. जब तक हम इस शोर से उबरते प्रोतिमा दी का दरवाज़ा भड़ाक से खोल दिया गया और लगभग दौड़ते हुए , हांफते हुए, खांसते हुए घर के अंदर दो लोगों ने प्रवेश किया.

“अरे” प्रोतिमा दी थोड़े गुस्से से चिहुंकी.

फिर मेरी ओर मुड़ कर बोलीं.“ ये मिहिर देशपांडे और ये सलिल देशपांडे हैं, मेरे मकान मालिक.”

दोनों ने मुस्कुरा कर मेरा मुआयना किया और वैसे ही खांसते-दौड़ते लौट गये.

80-82 साल के जीर्ण शीर्ण, डेढ़ पसली के. एक ने पाजामा और दूसरे ने पैंट पहनी थी. धड़ पर बाजू वाली बनियान थी. ऐसा लगता था बड़ी मुश्किल से नीचे के कपड़ों को शरीर पर चढ़ा वे यह देखने आये थे कि प्रोतिमा दी पर कोई खतरा-वतरा तो नहीं आ गया था.

प्रोतिमा दी मेरे असमंजस को भांप मुझे आश्वस्त करने के लिहाज से बोलीं

“ये दोनों की पुरानी आदत है. मेरी देखभाल. जब तक मैं हूं यह घर आबाद, वरना तो दोनों लड़ कर एक दूसरे की जान ले लेते.” इसके बाद वे ठठा के हंस पड़ीं.

“यू सी दे लव मी और मैं भी उन्हें प्यार करती हूं.”

गर्म चाय का घूंट मेरी जीभ जला गया. प्रोतिमा दी को देख मैंने सोचा, मैं इसी लायक हूं.

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