रिजर्व बैंक की चिंताएं और भरोसा
मौिद्रकनीित रिजर्व बैंक द्वारा जारी 2016-17 की पांचवीं द्वि-मासिक मौद्रिक नीति वक्तव्य में ब्याज दरों में कटौती नहीं किये जाने से जहां निराशा है, वहीं इससे यह संकेत भी मिलता है कि रिजर्व बैंक मौजूदा चुनौतियों के बावजूद अर्थव्यवस्था की मजबूती को लेकर आश्वस्त है. हालांकि विकास दर के अनुमान में कमी की गयी है, […]
मौिद्रकनीित
रिजर्व बैंक द्वारा जारी 2016-17 की पांचवीं द्वि-मासिक मौद्रिक नीति वक्तव्य में ब्याज दरों में कटौती नहीं किये जाने से जहां निराशा है, वहीं इससे यह संकेत भी मिलता है कि रिजर्व बैंक मौजूदा चुनौतियों के बावजूद अर्थव्यवस्था की मजबूती को लेकर आश्वस्त है. हालांकि विकास दर के अनुमान में कमी की गयी है, पर यह भी भरोसा जताया गया है कि आधारभूत कारकों का प्रदर्शन संतोषजनक है. इस नीतिगत घोषणा के विविध पहलुओं के विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन-दिनों…
अर्थव्यवस्था की गति हो सकती है धीमी
शंकर अय्यर
आर्थिक पत्रकार
हर छह महीने पर रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया (आरबीआइ) यह देखता है कि इस सीजन में पैसे का लेन-देन कम होगा या ज्यादा हाेगा, ग्रोथ होगा या नहीं होगा आैर इसी आधार पर वह ब्याज दरें (इंटरेस्ट रेट) तय करता है. बाजार में पैसे की मांग कम होना चाहिए या ज्यादा होना चाहिए, इसी को संभालने के लिए आरबीआइ ये दरें तय करता है. इस ऐतबार से उम्मीद की जा रही थी कि आरबीआइ अगर रेपो रेट में कटौती करता, तो नोटबंदी की मार के चलते लोगों को कुछ राहत मिल जाती.
लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और आरबीआइ ने रेपो रेट 6.25 प्रतिशत को बरकरार रखा. हालांकि, जिस तरह से लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि अगर आरबीआइ रेपो रेट कम करता है, ताे उससे बड़ा फायदा होगा और इकोनॉमी भी कुछ मजबूत होगी, मेरे ख्याल में ऐसा नहीं होता. क्योंकि, ब्याज दरों में कटौती से अगर देश की इकोनॉमी बढ़ जाती, तो जापान की इकोनॉमी को तेजी से दौड़ना चाहिए, जहां यह दर जीरो प्रतिशत है. दरअसल, दरों की कटौती महत्वपूर्ण तो है, लेकिन यह इकोनॉमी का एक छोटा हिस्साभर है.
इकोनॉमी के बड़े ग्रोथ के लिए जो मूलभूत कारक होते हैं, वे हैं- लोगों की कमाई अच्छी हो, खरीदारी बढ़े, उत्पादन बढ़े और कंपनियां ज्यादा से ज्यादा लोगों को जॉब ऑफर दें. जब ये सब होगा, तभी लोग ब्याज पर पैसे लेंगे. कहने का अर्थ यह है कि अगर ब्याज दर घटा दिया जाये, उसके बाद भी कोई व्यक्ति ब्याज पर पैसे नहीं ले रहा है, तो फिर ब्याज दर घटाने का क्या औचित्य है? कोई व्यक्ति पैसा तभी लेगा, जब उसे जरूरत होगी. उसे यह जरूरत तब होगी, जब उसके उत्पादन की मांग ज्यादा होगी. उसके उत्पादन की मांग ज्यादा तभी होगी, जब लोग ज्यादा खरीदारी करेंगे.
लोग ज्यादा खरीदारी तब करेंगे, जब उनकी कमाई बढ़ेगी. उनकी कमाई तब बढ़ेगी, जब रोजगार वृद्धि के क्षेत्रों (सेक्टर)- इन्फ्रास्ट्रक्चर, रियल इस्टेट, निर्माण, कृषि आदि में निवेश और विकास होगा. विमुद्रीकरण की मार के चलते ये सारे सेक्टर परेशानहाल हैं, तो फिर रेपो रेट घटाने या बढ़ाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. ऐसे में आरबीआइ का अपनी नयी क्रेडिट पॉलिसी के तहत दरों में किसी किस्म की कटौती के फैसले को लोगों के या अर्थव्यवस्था के नुकसान-फायदे के रूप में नहीं देखा जा सकता. जाहिर है, यह अर्थव्यवस्था का एक छोटा सा हिस्साभर है.
विमुद्रीकरण के चलते जिन क्षेत्रों की प्रगति बाधित हुई है, उस बीच अगर रेपो रेट घटा भी दिया जाता, तो भी इसके फायदे की बड़ी उम्मीद नहीं थी. दरअसल, सिस्टम में ऐसी पहलों से एक अनिश्चितता का निर्माण होता है और इस अनिश्चितता से बड़े नुकसान होते हैं. मसलन, बीते साल बारिश अच्छी होने से इस बार फसल अच्छी रही. अब खेती का मौसम है और इसी बीच विमुद्रीकरण का फैसला आ गया. लोग परेशान हो गये. किसानों के पास कैश ही नहीं हैं कि वे खाद-बीज खरीद सकें. दूसरा क्षेत्र निर्माण का है, जहां मजदूरों को कैश में ही मजदूरी दी जाती है.
इस वक्त देश में कृषि और निर्माण के चलने या न चलने पर अर्थव्यवस्था की कई सकारात्मक चीजें निर्भर करती हैं. वहीं दूसरी बात यह है कि पूरे देश में अगर ढांचागत प्रगति हो रही है, (जैसा कि माना जा रहा है) तो आरबीआइ द्वारा दी जानेवाली कंपनियों को क्रेडिट में कोई बढ़ोतरी हुई है क्या? नहीं. यह बहुत धीमी गति से रेंग रही है. सीमेंट, स्टील, ऑटो कंपनियां भी एक हद तक परेशान हैं. लोग उम्मीद कर रहे हैं कि अगर सरकार कैश की उपलब्धता को ठीक कर दे, तो शायद कुछ काम आगे बढ़े. और आगामी दिनों में बजट भी आनेवाला है, उसे भी देखना है.
दरअसल, हमारे देश में इस बात का कोई ठोस अंदाजा नहीं हो पाता कि अगर रेपो रेट घटा या बढ़ा दिया जाये, तो उससे क्या फायदे-नुकसान हैं. जबकि, अमेरिका में अगर ब्याज दरों में बढ़ोतरी हो जाती है, तो उससे रुपये की कीमत पर असर पड़ने लगता है.
अमेरिका का फेडरल बैंक नये दरों की घोषणा आगामी 13-14 दिसंबर को कर सकता है. दरअसल, विदेशी निवेशक काअपना एकहिसाब होता है और वह यही सोच कर निवेश करता है कि अगर वह अमेरिका में निवेश करता है, तो उसे उससे इतना ‘रिटर्न’ मिलेगा. या भारत में निवेश करता है, तो उसे इतना ‘रिटर्न’ मिलेगा. यहां रिटर्न का अर्थ व्यापारिक फायदे से है. विदेशी निवेशक को अमेरिका में पैसे लगाने से उतना रिस्क नहीं है, क्योंकि अमेरिका के एक बड़ी इकोनॉमी होने से वहां मौद्रिक स्थिरता है.
जबकि भारत में पैसे लगाने से उसके लिए ‘करेंसी रिस्क’ जैसा खतरा है कि जाने कब क्या हो जाये. इन सब मुद्दों को देख कर ही आरबीआइ पर एक प्रकार का दबाव बना होगा और उसने अपनी नयी क्रेडिट पॉलिसी में रेपो रेट में कोई कटौती न करने का फैसला लिया होगा. अब भले लोग यह कहें कि इसके पीछे सरकार की तरफ से कोई दबाव रहा होगा, लेकिन मुझे लगता है कि आरबीआइ की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के सदस्यों को ही यह निर्णय लेना होता है कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी-मजबूती के लिए क्या किया जाना चाहिए.
फिलहाल आरबीआइ कह चुका है कि इस साल विकास दर में 0.5 प्रतिशत कमी का अनुमान है. कुछ अन्य जानकारों का मानना है कि यह कमी एक प्रतिशत तक भी हो सकती है. और इस हालत में भारत की अर्थव्यवस्था को रिकवर होने में 12 से 15 महीने लग जायेंगे.
एक सीधा सा उदाहरण है- अगर किसी गाड़ी को फाटक बंद करके रोक दिया जाये, तो उसे फिर से अपनी पुरानी स्पीड पकड़ने में कुछ समय तो लगेगा ही. यही हाल अर्थव्यवस्था की गति का भी है, जिसे विमुद्रीकरण के फाटक ने बाधित कर दिया है. अब रेपो रेट बढ़ायें या घटायें, यह गति इतनी जल्दी अपनी तेजी नहीं पकड़नेवाली है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
नीतिगत दरों में कटौती क्यों नहीं?
छह सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति द्वारा नयी मौद्रिक नीति की घोषणा करते हुए ब्याज दरों को अपरिवर्तित रखने के फैसले से वित्तीय बाजार आश्चर्यचकित है. गिरती मुद्रास्फीति के बावजूद आखिर क्या कारण है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने ऐसी सावधानी बरती? फिलहाल, नीतिगत घोषणाओं के तुरंत बाद केंद्रीय बैंक द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, दिसंबर में लोगों द्वारा अनुमानित मध्यावधि मुद्रास्फीति में तेजी से गिरावट आयी है, जो पिछले तिमाही सर्वे में किये गये अनुमान से काफी नीचे है.
शायद इस प्रश्न का जवाब कहीं और है. मौजूदा वित्त वर्ष में केंद्रीय बैंक के प्रोफेशनल फोरकॉस्टर्स में तीसरे और चौथे तिमाही के लिए मुद्रास्फीति में क्रमश: 0.4 और 0.2 फीसदी की कटौती की गयी है. भारतीय अर्थव्यवस्था में मुद्रा की कमी के चलते मांग में आयी गिरावट इसके पीछे वजह हो सकती है.
आरबीआइ के रुझानों से अब ऐसा प्रतीत होता है कि बैंक जनवरी, 2017 के अपने अनौपचारिक मुद्रास्फीति लक्ष्य पांच प्रतिशत को हासिल करना चाह रहा है. मौद्रिक नीति समिति द्वारा जारी वक्तव्य में कहा गया है कि मौजूदा वित्त वर्ष की चौथी तिमाही के लिए मुद्रास्फीति लक्ष्य को पांच प्रतिशत रखा गया है. हालांकि, आगे का रास्ता थोड़ा कठिन हो सकता है. अगले वित्त वर्ष से शुरुआत से मध्यम अवधि के बाद आरबीआइ को चार प्रतिशत औपचारिक मुद्रास्फीति लक्ष्य को हासिल करना होगा. अप्रैल, 2017 के बाद महंगाई को लेकर प्रोफेशनल फोरकॉस्टर्स कम उत्साहित हैं. वास्तव में प्रोफेशनल फोरकॉस्टर्स ने वित्त वर्ष 2018 की दूसरी तिमाही के लिए मुद्रास्फीति के अनुमान को 0.4 प्रतिशत बढ़ा दिया है.
क्यों जरूरी है मुद्रास्फीति पूर्वानुमान
कई बार महंगाई दर केंद्रीय बैंक के लिए औपचारिक रूप से नाममात्र का सहारा होता है, जिसका बैंक मौद्रिक नीति की योजना बनाने में मध्यवर्ती लक्ष्य के रूप में इस्तेमाल करता है.
अक्तूबर माह में प्रथम मौद्रिक नीति की बैठक के बाद जारी ब्योरे में आरबीआइ के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर माइकल पात्रा ने सुझाव दिया है कि भारत का केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति पूर्वानुमान को मध्यवर्ती लक्ष्य के रूप में देखता है. ‘एक ऐसा तंत्र, जिसमें मुद्रास्फीति की पूर्वानुमानों से जुड़ी सभी सूचनाओं को इकट्ठा किया जाता है और मौद्रिक नीति के मध्यवर्ती लक्ष्यों को पूरा करता है.
इसके दो महत्वपूर्ण पहलू हैं- (1) 2016-17 की चौथी तिमाही के लिए मुद्रास्फीति पूर्वानुमान पहले के मुकाबले लक्ष्य के काफी करीब है, और (2) यह दूसरे और तीसरे द्विमासिक पूर्वानुमान के संबंध में नीचे जा रहा है.’
आरबीआइ का अपना खुद का मुद्रास्फीति पूर्वानुमान होता है, लेकिन वह मौजूदा वित्त वर्ष के अंत से आगे का नहीं होता है. अगले वित्त वर्ष के लिए प्राइवेट सेक्टर के अर्थशास्त्रियों का मुद्रास्फीति पूर्वानुमान चिंताजनक स्थिति उत्पन्न करता है, जब मुद्रास्फीति पूरे एक प्रतिशत नीचे आ जाता है.
मुद्रा नीति समीक्षा की खास बातें
विमुद्रीकरण का प्रभाव
मौद्रिक नीति की समीक्षा करते हुए आरबीआइ ने यह स्वीकार किया है कि आर्थिक विकास पर विमुद्रीकरण का प्रभाव पड़ा है. परिणामस्वरूप, तीसरी तिमाही में विकास की गति में संभावित हानि और चौथी तिमाही में इसके कम होते प्रभाव को शामिल करने के साथ ही उच्च कृषि उत्पादों के उपभोग की मांग को बढ़ावा देने और सातवें केंद्रीय वेतन आयोग को लागू करने को लेकर आरबीआइ ने 2016-17 के सकल मूल्य-संवर्धित वृद्धि को संशाेधित कर 7.6 से 7.1 प्रतिशत कर दिया है.
इंक्रीमेंटल सीआरअार को वापस लेना
आरबीआइ ने इंक्रीमेंटल सीआरआर को वापस लेने का निर्णय लिया है. यह निर्णय 10 दिसंबर, 2016 की आधी रात से प्रभावी हो जायेगा. इस बात की घोषणा की गयी थी कि 16 सितंबर, 2016 से 11 नवंबर, 2016 के बीच अनुसूचित बैंकों के नेट डिमांड एंड टाइम लायबिलिटीज (एनडीटीएल) में इंक्रीमेंटल सीआरआर का 100 प्रतिशत इजाफा किया जायेगा, जो 26 नवंबर, 2016 की आधी रात से लागू हो गया. इस कदम को उठाने का मकसद नवंबर में 500 और 1000 रुपये के नोट को बंद करने के बाद सिस्टम में बड़े पैमाने पर उपजी तरलता के एक हिस्से को खपाना था.
खाद्य स्फीति
नीति की समीक्षा करते हुए आरबीआइ ने अक्तूबर के दौरान अनेक वस्तुओं के दाम में हुई बढ़ोत्तरी को भी रेखांकित किया है, जो बेस इफेक्ट पर मुद्रा स्फीति में नरमी के कारण ओझल है. विमुद्रीकरण को देखते हुए आरबीआइ ने महसूस किया कि नवंबर में जल्दी खराब होनेवाली खाद्य वस्तुओं के दाम में कमी आयी है, हालांकि इस संबंध में अंतिम परिणाम केवल दिसंबर में प्राप्त होंगे.
आरबीआइ ने महसूस किया कि विमुद्रीकरण के कारण तीसरी तिमाही में 10 से 15 बेसिस प्वाॅइंट की मुद्रा स्फीति में अस्थायी तौर पर कमी आ सकती है. इन सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए वित्तीय वर्ष 17 की चौथी तिमाही में मुद्रास्फीति के पांच प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है.
आरबीआइ के मुताबिक घर, ईंधन व बिजली, स्वास्थ्य, परिवहन और संचार, बर्तन, तंबाकू और मादक द्रव्य व शिक्षा की कीमतें, जो वर्तमान में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का 38 प्रतिशत है, आम तौर पर अप्रभावी रहेंगी. परंतु, अगर सर्दी में खाद्य वस्तुओं की कीमतों बढ़ती हैं, तो खाद्य मुद्रास्फीति का दबाव बढ़ सकता है.
अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा दरों में बढ़ोतरी
हालांकि, आरबीआइ यह मानती है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा दर बढ़ाये जाने की संभावना को देखते हुए वैश्विक वित्तीय बाजार पहले ही उतार-चढ़ाव से गुजर रहा है, बाजार में होनेवाले भावी उथल-पुथल की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता है. ऐसे में अभी प्रतीक्षा करना ही समझदारी होगी कि ये कारक किस तरह से अपना प्रभाव डालते हैं.
तेल की कीमतें
ओपेक द्वारा हाल में उत्पादन में कटौती करनेे, जिससे आनेवाले समय में कच्चे तेल की कीमत बढ़ सकती है, का भी आरबीआइ ने जायजा लिया है. आरबीआइ को लगता है कि इस वजह से मुद्रास्फीति बढ़ सकती है.
विमुद्रीकरण पर आरबीआइ का आशावादी दृष्टिकोण
भा रतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) द्वारा नीतिगत दरों में बदलाव नहीं करने के फैसले से यही स्पष्ट होता है कि केंद्रीय बैंक का अर्थव्यवस्था पर विमुद्रीकरण के प्रभावों को लेकर नजरिया आशावादी है. आरबीआइ का मानना है कि चलन में 86 फीसदी मुद्रा को विमुद्रित कर देने से ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) वृद्धि पर 15 आधार अंकों (बेसिस प्वाॅइंट) का प्रभाव पड़ेगा. एक आधार अंक एक प्रतिशत का सौवां हिस्सा होता है. सितंबर तिमाही में रफ्तार धीमी पड़ने के कारण आरबीआइ ने 2016-17 के लिए अनुमानित जीवीए में 50 आधार अंकों की कटौती कर दी है.
आरबीआइ के प्रोफेशनल फोरकॉस्टर के सर्वे में भी मध्य अवधि में जीवीए ग्रोथ को 7.1 फीसदी रखा गया है. इस आकलन में तीसरी तिमाही और चौथी तिमाही के लिए मध्य अवधि के वास्तविक जीवीए अनुमान में 0.6 प्रतिशत और 0.5 प्रतिशत की कटौती की गयी है.
केवल ब्याज दरों को अपरिवर्तित रख कर शायद आरबीआइ ‘ऑल इज वेल’ नहीं कह रहा है. एक अन्य कारण यह भी है कि मुद्रा वापसी के अर्थव्यवस्था पर प्रभावों का आरबीआइ खुद सटीक आकलन नहीं कर सका है. क्रेडिट के मसले पर नीतिगत घोषणा से स्पष्ट है कि यह अस्थायी है, लेकिन मुद्रा वापसी का प्रभाव अस्पष्ट है.
वक्तव्य से प्रतीत होता है कि आरबीआइ को स्पष्ट रूप से यह पता नहीं है कि वित्तीय हालात कब तक सामान्य होंगे. इस हालात में दरों पर कोई फैसला लेने से पहले जरूरी है कि अनिश्चितता की धुंध के छंटने का इंतजार किया जाये.
केंद्रीय बैंक ने दो माध्यमों से विमुद्रीकरण के प्रभावों को कम करने प्रयास किया है. आरबीआइ के अनुसार खुदरा व्यापार, असंगठित क्षेत्रों और जरूरी खर्चों में आ रही दिक्कतें अस्थायी हैं, जबकि धन की कमी के चलते मांग में आयी कमी ज्यादा चिंताजनक नहीं है. हालांकि, असंगठित क्षेत्र की आर्थिक विकास या राज्य के राजस्व में ज्यादा हिस्सेदारी नहीं है, पर इस क्षेत्र में बड़ी आबादी को रोजगार मिलता है और मांग में इनकी बड़ी भूमिका है.
दरों में परिवर्तन न कर आरबीआइ ने शायद यह संकेत देने का प्रयास किया है कि मौद्रिक नीति समिति (मॉनिटरी पॉलिसी कमिटी) स्वतंत्र है और सरकार की मांग अनुरूप झुकने के लिए बाध्य नहीं है. विमुद्रीकरण से प्राप्त लाभांश सरकार को हस्तांतरित नहीं करने का फैसला कर आरबीआइ गवर्नर उर्जित पटेल ने कुछ विश्वसनीयता बनायी है. हालांकि, कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह ‘फिलहाल’ की स्थिति के लिए ऐसा किया है.
रेपो दर बरकरार रखना कहीं भूल तो नहीं?
शुली रेन
अप्रत्याशित कदम उठाते हुए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने रेपो दर को 6.25 पर बनाये रखा है और इसमें कोई कटौती नहीं की है.ब्लूमबर्ग के सर्वेक्षण में 44 में से केवल आठ विश्लेषकों ने ही रेपो दर में कटौती नहीं किये जाने का अनुमान जताया था, जबकि विश्लेषकों ने 25 से 50 बेेसिस प्वाॅइंट की कटौती का अनुमान लगाया था. अक्तूबर में बतौर गवर्नर उर्जित पटेल की पहली नीति बैठक में हुए दर में कटौती ने इस बात के संकेत दे दिये थे कि वे नरमी बरतते हुए केंद्रीय बैंक की मुद्रास्फीति के लक्ष्य को बरकरार रखने की बजाय विकास को प्राथमिकता देंगे.
विश्लेषकों ने तर्क दिया था कि आरबीआइ को दरों में कटौती करने की जरूरत है, क्योंकि प्रधानमंत्री द्वारा 500 और 1000 के नोट बंद किये जाने का निर्णय मौद्रिक कड़ाई के बराबर ही है. कुछ विश्लेषकों के अनुसार, नोटबंदी से इस वर्ष सकल घरेलू उत्पादन में कम से कम एक प्रतिशत की कमी हो सकती है. गोल्डमैन सैच का अनुमान है कि यह कमी 1.2 प्रतिशत हो सकती है. हालांकि, आरबीआइ इससे सहमत नहीं रखता है. उसका मानना है कि चालू वित्त वर्ष में भारत की आर्थिक वृद्धि में केवल 50 बेसिस प्वाॅइंट की कमी होगी और वह तमाम चुनौतियों के साथ 7.6 प्रतिशत से घटकर 7.1 प्रतिशत पर आ सकती है. आरबीआइ ने यह भी तर्क दिया है कि इनमें से कुछ संशोधन तो सितंबर की तिमाही में विकास की गति के बाधित हो जाने के कारण किये गये हैं. बड़े नोटों पर रोक के प्रभाव अभी पूरी तरह से सामने नहीं आ सके हैं.
कहीं आरबीआइ जरूरत से ज्यादा आत्मसंतुष्ट तो नहीं है? आरबीआइ को किस बात की चिंता है?
इस संबंध में कैपिटल इकोनॉमिक्स के शीलन साह का कहना है कि आरबीआइ तेल उत्पादक देशों के संगठन आेपेक के उत्पादन में कमी को लेकर चिंतित है. ऐसे में तेल आयातक होने के कारण भारत में तेल के दाम में वृद्धि हो सकती है. आरबीआइ ने भी अपने नीतिगत बयान में इस बात को रेखांकित किया है कि कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव अौर वित्तीय बाजार में होनेवाली हलचल में तेजी के कारण 2016-17 की चौथी तिमाही में मुद्रास्फीति के लक्ष्य के लिए कुछ संकट पैदा हो सकता है. ट्रंप की आर्थिक नीति से भी वित्तीय बाजार के संभावित उतार-चढ़ाव को रिजर्व बैंक ने संज्ञान में लिया है. वर्तमान में उभरते हुए बाजारों में भारत एक चमकता सितारा है, लेकिन कुछ समय पहले तक ऐसी बात नहीं थी और यह कमजोर पांच देशों में से एक था. यह भी याद रखा जाना चाहिए कि आरबीआइ की बैठक फरवरी में फिर होगी, तब वह दरों में कटौती कर सकती है. भारतीय रुपये की कीमत में सुधार हो रहा है, लेकिन ट्रंप की जीत के बाद रुपया अभी भी दो प्रतिशत नीचे गिरा हुआ है.
(बैरंस एशिया से साभार)
बजट तक मंदी का माहौल बना रहेगा
संदीप बामजई
आर्थिक पत्रकार
आरबीआइ ने अपनी नयी क्रेडिट पॉलिसी के तहत रेपो रेट में बिना किसी कटौती के उसको बरकरार रखा है. इसके पीछे कुछ आधारभूत कारण हैं. उन कारणों में से एक है मुद्रास्फीति.
मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए भारत के पास सिर्फ मॉनिटरी टूल्स (मॉनिटरी पॉलिसी) हैं, जो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पास हैं. आरबीआइ इस टूल्स के तहत सीआरआर (कैश रिजर्व रेशियो) और आरआरआर (रिवर्स रेपो रेट) को बढ़ा देता है. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब तक हमने सप्लाइ (आपूर्ति) को लेकर कोई ठोस काम नहीं किया है. ये स्थितियां मुद्रास्फीति बढ़ने के लिए कारक होती हैं और महंगाई बढ़ जाती है. मुद्रास्फीति को कम करने के लिए आरबीआइ दरों में कटौती का रास्ता अपनाता है.
आर्थिक स्थितियों और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करनेवाले कुछ अवयवों के जरिये इसे समझने की कोशिश करते हैं. दरअसल, जब मुद्रास्फीति (इनफ्लेशन) बढ़ती है, तो सरकार के पास कोई उपाय नहीं होता उसको नियंत्रित कर पाने के लिए, िसवाय मॉनिटरी टूल्स के. यह जब बढ़ती है, तो आग की तरह फैलती है और तीन प्रमुख क्षेत्रों- कच्चे तेल, कमोडिटी (वस्तु) और फूड (खाद्य पदार्थों)- में ज्यादा तेजी से असर करती है. मुद्रास्फीति के बढ़ने का एक प्रमुख कारण है कच्चे तेल का आयात. हमारे देश में 80 प्रतिशत कच्चे तेल का आयात होता है.
अगर कच्चे तेल के दाम में जरा सी भी बढ़ोतरी होती है, तो उसका सीधा असर देश में चीजों के महंगे होने के रूप में पड़ता है. यानी जब हम विदेश से महंगे दाम पर कच्चे तेल का आयात करते हैं, इसका अर्थ यह है कि हम विदेश से मुद्रास्फीति का आयात करते हैं. महंगाई का आयात करते हैं. सीधी सी बात है, अगर कच्चे तेल के दाम बढ़ेंगे, तो वस्तुएं महंगी होंगी, जिनके आयात पर हमें ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ेगा.
मुद्रास्फीति दो तरह से देखी जाती है- थोक मूल्य सूचकांक (होलसेल प्राइस इंडेक्स) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स). यहां मूल समस्या यह है कि हमारी सरकार के पास इस मुद्रास्फीति को कम करने के लिए कोई विकल्प नहीं है. वह हर वक्त वित्तीय तरलता के लिए आरबीअाइ का इस्तेमाल करती है. और तब आरबीआइ अपनी क्रेडिट पॉलिसी के तहत दरों को घटाने या बढ़ाने का निर्णय लेता है.
दरअसल, कुछ दिन पहले से बात यह हो रही थी कि रेपो रेट में आरबीआइ कटौती करेगा, जिससे रिटेल लेंडिंग (खुदरा ऋण) कम हो जायेगा. लेकिन, चूंकि आरबीआइ ने सीआरआर (कैश रिजर्व रेशियो) को बढ़ा दिया था, जिससे वित्तीय तरलता घट गयी थी. आरबीआइ ने यह माना कि मुद्रास्फीति अभी नियंत्रण में है. चूंकि मुद्रास्फीति नियंत्रण में हैं, तो दो चीजें हो सकती हैं- एक, अमेरिकी फेडरल रिजर्व आगामी 14 दिसंबर को अपना इंटरेस्ट रेट (ब्याज दर) बढ़ायेगा, तो भारत में पूंजी उड़ान पर होगी. अमेरिका में अगर इंटरेस्ट रेट सख्त हो गया, तो भारत के पैसा निकलने लग जायेगा.
इसलिए आरबीआइ ने यह माना कि उसने तात्कालिक तौर पर जो सीआरआर बढ़ाया था, उसको रोक कर एक नजर फेडरल रिजर्व के रुख को देखते हैं कि वह इंटरेस्ट रेट कितना बढ़ाता है. दूसरी चीज यह हो सकती है कि आरबीआइ चाहता है कि जितने भी बैंक हैं, वे अपनी तरफ से लोगों के लिए दरों में कटौती करें, ताकि जो लोग विमुद्रीकरण के चलते कैश की कमी से परेशान हैं, उनके लिए इंटरेस्ट रेट घट जाये और लोग खरीद-फरोख्त करते रहें. मुझे ऐसा लगता भी है कि आगामी कुछ दिनों में बैंक ब्याज दर घटायेंगे. इन्हीं सब परिस्थितियों के चलते आरबीआइ ने यह सोचा कि अभी दरों (रेपो रेट वगैरह) में कटौती न करके कुछ दिन तक इंतजार किया जाये. ऐसे में यह देखना होगा कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व अपना इंटरेस्ट बढ़ाता है या नहीं, उसके बाद जब फरवरी 2017 में आरबीआइ की मौद्रिक नीति होगी, तब आरबीआइ एक समीक्षा के तहत अपना निर्णय लेगा कि उसे क्या करना है.
विमुद्रीकरण की वजह से एक चीज तो हो गयी है कि ग्रोथ (विकास दर) और कंजम्पशन (उपभोग की वस्तुओं की खपत) पर असर पड़ा है. ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि कोई ट्रांजेक्शन (लेन-देन) ही नहीं हो रहा है. लोग खरीद-बेच से अभी बच रहे हैं. ऐसे में यह सोचा जा रहा था कि अगर ब्याज दर कम होता है, तो लोग होम लोन, व्हीकल लोन या कोई और लोन लेते, लेकिन यह नहीं हुआ. ऐसे में यही समझ में आता है कि अभी बजट तक मंदी का यह माहौल बना रहेगा. यह कुछ दिनों या महीनों के लिए हमारी अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित कर सकता है. यही वजह है कि आरबीआइ ने विकास दर में कमी का अनुमान बताया है.
(बातचीत पर आधारित)