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अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विरुद्ध बढ़ते अपराध

कागजी बाघ बनते कानून वंचितों को मिले न्याय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि केंद्र और राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों पर उत्पीड़न और उनके साथ होनेवाले भेदभाव को रोकने में असफल रही हैं. खंडपीठ ने यह भी रेखांकित किया है कि वंचित तबके के अधिकारों की सुरक्षा के बिना समानता के संवैधानिक लक्ष्य […]

कागजी बाघ बनते कानून
वंचितों को मिले न्याय
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि केंद्र और राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों पर उत्पीड़न और उनके साथ होनेवाले भेदभाव को रोकने में असफल रही हैं. खंडपीठ ने यह भी रेखांकित किया है कि वंचित तबके के अधिकारों की सुरक्षा के बिना समानता के संवैधानिक लक्ष्य हासिल नहीं किये जा सकते हैं.
तमाम वैधानिक व्यवस्थाओं, दावों और वादों के बावजूद दलित और आदिवासी समुदायों के विरुद्ध अपराधों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. सामाजिक और आर्थिक कमजोरी की वजह से इन्हें अक्सर न्याय से भी वंचित रहना पड़ता है. सत्तर सालों के भारतीय लोकतंत्र पर यह वंचना निश्चित रूप से एक बड़ा सवाल है. इस मुद्दे पर विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन-डेप्थ…
सुभाष गाताडे
सामाजिक कार्यकर्ता
भारत रत्न डॉ बीआर आंबेडकर ने संविधान सभा की आखिरी बैठक में कहा था- ‘हम लोग अंतर्विरोधों की एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं. राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक वोट के सिद्धांत को स्वीकार करेंगे. लेकिन, हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, हमारे मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढांचे के चलते हम लोग एक लोग-एक मूल्य के सिद्धांत को हमेशा खारिज करेंगे.
कितने दिनों तक हम अंतर्विरोधों का यह जीवन जी सकते हैं? कितने दिनों तक हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में बराबरी से इनकार करते रहेंगे.’
आज अगर देश की आलातरीन अदालत की एक खंडपीठ, जिसकी अगुवाई खुद प्रधान न्यायाधीश कर रहे हों, न केवल तमाम राज्य सरकारों, बल्कि केंद्र सरकार की भी तीखी भर्त्सना करें कि वह वंचित-उत्पीड़ित तबकों की हिफाजत के लिए बने कानूनों के अमल में बुरी तरह असफल रही हैं और इसके लिए उनका ‘बेरुखी भरा नजरिया’ जिम्मेवार है, तो यह सोचा जा सकता है कि पानी किस हद तर सर के ऊपर से गुजर रहा है.
अदालती टिप्पणी के पहले एक हफ्ते के भीतर दो राज्यों से आयी खबरें इसी कड़वी हकीकत को बयान कर रही थीं.
राजस्थान उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से पूछा था कि आखिर कानून बनने के 22 साल बाद भी पीड़ितों एवं गवाहों के पुनर्वास के लिए योजनाएं क्यों नहीं बनायी गयी हैं और उन्हें राहत क्यों नहीं दी जा रही है.
महाराष्ट्र से जुड़ी एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 से 2016 के बीच जिन 889 मामलों में अभियुक्त बेदाग छूट गये थे, इनमें से 25 फीसदी मामलों में शिकायतकर्ताओं ने खुद अपनी बात बदल दी थी. इसके अलावा बलात्कार, हत्या, डकैती जैसे गंभीर मामलों में 243 गवाह पलट गये. अभियुक्तों के इस तरह ‘बेदाग’ बरी होने के मामले 54.33 फीसदी थे.
अगर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों देखें, तो पता चलता है कि अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के खिलाफ होनेवाले अत्याचारों में वृद्धि हो रही है. देश में अनुसूचित जाति के लोगों की तादाद 20 करोड़ तक है, इसका अर्थ यह है कि भारत की आबादी के छह में से एक व्यक्ति के अधिकारों का लगातार उल्लंघन हो रहा है.
अत्याचार निवारण अधिनियम की मूल भावना के हिसाब से कभी इस पर अमल नहीं होने दिया गया है.यह हकीकत पूर्व न्यायाधीश वीके कृष्णा अय्यर के उस विश्लेषण की याद दिलाती है, जिसमें उन्होंने रेखांकित किया था कि ‘ज्यादा प्रभावी, ज्यादा समग्र और ज्यादा दंडात्मक प्रावधानों वाले’ अधिनियम को बनाने के बावजूद ‘सत्ताधारी तबकों ने इस बात को सुनिश्चित किया कि व्यावहारिक स्तर पर ये कानून कागजी बाघ बने रहें.’
विकराल होती मुश्किल के एहसास के बावजूद सुधार को लेकर ऊपर से नीचे तक एक विचित्र किस्म का मौन प्रतिरोध नजर आता है.
दलितों की आधिकारिक स्थिति को दस्तावेजीकृत कर संसद के पटल पर रखने जैसी कार्यवाही भी इसी उपेक्षा का शिकार होती दिखती है, जबकि संविधान के अनुच्छेद 338(6) के तहत अनुसचित जाति आयोग की पहल पर तैयार ऐसी रिपोर्टों को संसद में रखना अनिवार्य है. यह भी कहा जा सकता है कि ये सारी रिपोर्ट केंद्र और राज्यों के अधिकारियों के बीच दलितों की स्थिति को लेकर अपनी नाकामी छुपाने का तथा आपसी दोषारोपण का एक नया बहाना भी बनती हैं.
देश की 16 करोड़ से अधिक आबादी का बड़ा हिस्सा दोयम दर्जे का जीवन जीने के लिए अभिशप्त है. यह स्थिति दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की भावी यात्रा के बारे में भी बहुत कुछ संकेत देती है.
इस मायने में हमारा लोकतंत्र औपचारिकता से आगे विकसित नहीं हो सका है और उसे वास्तविक लोकतंत्र बनाने की चुनौती बनी हुई है. अगर निचोड़ के तौर पर कहें, तो हमारे सामने बड़ी चुनौती यह दिखती है कि हम नागरिक और संवैधानिक अधिकारों के विमर्श से आगे बढ़ें. यह भी समझने की जरूरत है कि संवैधानिक सिद्धांतों और व्यवहार तथा उसके बिल्कुल विपरीत बुनियाद पर आधारित नैतिक सिद्धांतों और व्यवहार में बड़ा अंतर है. हम जानते हैं कि शुद्धता और प्रदूषण के प्रतिमान, जो जाति व्यवस्था की बुनियाद है, में गैर-बराबरी को न केवल वैधता, बल्कि धार्मिक स्वीकार्यता भी मिलती है.
चूंकि, असमानता को सिद्धांत और व्यवहार में स्वीकारा जाता है, लिहाजा एक कानूनी संविधान का जाति आधारित समाजों की नैतिकता पर असर न के बराबर पड़ता है.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा वर्ष 2004 में पेश की गयी अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचारों के निवारण की रिपोर्ट ने अनुसूचित तबकों को अत्याचार एवं भेदभाव से मुक्त करने के रास्ते में खड़ी चुनौतियों को लेकर एक कम चर्चित पहलू को रेखांकित किया था. उसमें इस बात का विवरण पेश किया गया था कि किस तरह नागरिक समाज खुद जाति आधारित व्यवस्था से लाभान्वित होता है और किस तरह वह अस्तित्वमान गैर-बराबरीपूर्ण सामाजिक रिश्तों को जारी रखने और समाज के वास्तविक लोकतांत्रिकीकरण को बाधित करने के लिए प्रयासरत रहता है. दरअसल, इस रिपोर्ट ने सामाजिक मूल्यों में मौजूद गहरी दरार की ओर इशारा किया था, जो इस बात में परिलक्षित होती है कि जहां एक लोकतांत्रिक उदार व्यवस्था के अंतर्गत लोग खुद सभी अधिकारों तथा विशेषाधिकारों से लाभान्वित होना चाहते हैं, वहीं जब इन्हीं अधिकारों को अनुसूचित जाति या जनजाति को देने की बात होती है, तो विरोध करते हैं.
निश्चित ही, हम अगर अनुसूचित तबकों को संविधानप्रदत्त समानता के अधिकार दिलाने को लेकर चिंतित हैं, तो हमें अपनी ऊर्जा न केवल कानूनों के सख्त अमल को लेकर केंद्रित करनी होगी, बल्कि इसके साथ हमें अपने समाज के मानस को बदलने का भी गंभीर प्रयास करना होगा.
अनुसूचित जाति के खिलाफ
अत्याचार के मामले
राजस्थान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ वर्ष 2013-15 के दौरान सबसे ज्यादा मामले दर्ज किये गये हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान के बाद इस संबंध में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओड़िशा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और गुजरात जैसे राज्य आते हैं.
23,861 मामले दर्ज किये गये हैं राजस्थान में अमेंडेड प्रीवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज एक्ट (संशोधित अत्याचार निरोधक कानून) के तहत वर्ष 2013-15 में.
23,556 मामले दर्ज किये गये हैं उत्तर प्रदेश में उपरोक्त एक्ट के तहत वर्ष 2013-15 के दौरान, जो इस लिहाज से दूसरे नंबर पर रहा है.
21,061 मामलों के साथ बिहार तीसरे नंबर पर रहा अनुसूचित जाति के साथ होनेवाले अत्याचार के मामले में.
विभिन्न राज्यों में अपराध और
मामलों का निस्तारण
राज्य संख्या
मध्य प्रदेश 14,016
आंध्र प्रदेश 9,054
ओड़िशा 8,084
कर्नाटक 7,565
महाराष्ट्र 6,546
तमिलनाडु 5,131
गुजरात 3,969
1,38,077 मामले दर्ज किये गये थे अदालतों में वर्ष 2013-15 के दौरान.
43.3 फीसदी मामलों को ही इनमें से सुलझाया जा सका अदालताें द्वारा यानी इनका निस्तारण किया गया.
25.7 फीसदी मामलों में ही सजा हुई अपराधियों को.
वर्ष 2015 में अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय के साथ अत्याचार के मामले :
राज्य मामलों की संख्या
अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति
राजस्थान 5,991 1,409
उत्तर प्रदेश 8,357 …….
बिहार 6,293 …….
मध्य प्रदेश 3,546 1,358
आंध्र प्रदेश 2,263 …….
आेड़िशा ……. 691
संबंधित संवैधानिक प्रावधान
– भारत में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कल्याण के बारे में संविधान की अनुच्छेद 46 में वर्णन किया गया है. इसमें कहा गया है कि देश के कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आर्थिक व शैक्षणिक उत्थान अौर उन्हें शोषण व अन्याय से बचाने के लिए राज्य विशेष उपाय करेगा.
– संविधान के अनुच्छेद 244 (I) की पांचवीं अनुसूची में अनुसूचित जनजातियों की संख्या व क्षेत्र एवं अनुच्छेद 244 (II) की छठवीं अनुसूची में असम में जनजातियों के क्षेत्र व इनके स्वायत्त जिलों का प्रावधान है. लेकिन, 1982 में अनुच्छेद 244 (II) में संशोधन किया गया और इसमें शामिल स्वायत्त जिलों के प्रावधान को असम के बाहर नागालैंड, मणिपुर, सिक्किम जैसे दूसरे पूर्वोत्तर राज्यों पर भी लागू किया गया. त्रिपुरा में जनजातियों की स्वायत्त जिला परिषद् का गठन भी इसी संशोधन के आधार पर किया गया.
– संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत अनुसूचित जातियों को लेकर व्याप्त अस्पृश्यता को समाप्त किया गया.
– अनुच्छेद 164 के तहत छतीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और ओड़िशा जैसे राज्यों में जनजातियों के कल्याण की देख-रेख के लिए एक मंत्री नियुक्त करने का प्रावधान है. वहीं अनुच्छेद 275 में जनजाति कल्याण के लिए केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकार को अनुदान देने का प्रावधान शामिल है.
– अनुच्छेद 330, 332 एवं 334 के तहत लोकसभा और राज्यों के विधानसभाओं में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण से संबंधित है. अनुच्छेद 335 के तहत जनजातियों को नौकरी एवं प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान है.
अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2015
– अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विरुद्ध होनेवाले अपराधों को रोकने के लिए अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2015 इस वर्ष 26 जनवरी से लागू है.
– अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 में संशोधन के लिए विधेयक को चार अगस्त, 2015 को लोकसभा तथा 21 दिसंबर, 2015 को राज्यसभा द्वारा पारित किया गया था. पिछले वर्ष 31 दिसंबर को इसे राष्ट्रपति ने स्वीकृति दी थी. इसके बाद एक जनवरी, 2016 को इसे भारत के असाधारण गजट में अधिसूचित किया गया.
अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं
– अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विरुद्ध अपराधों की सूची में सिर और मूंछ के बालों काे काटना और सम्मान के विरुद्ध कृत्य शामिल हैं. इस समुदाय के सदस्यों को जूते की माला पहनाना, पानी के उपभाेग से रोकना, वन अधिकारों से वंचित करना, मानव और पशु नरकंकालों को निपटाने और उसे लाने व ले जाने और उनके लिए कब्र खोदने के लिए बाध्य करना, सिर पर मैला ढोने की प्रथा को बनाये रखना, समुदाय की महिलाओं को देवदासी बनाना, उनके वस्त्र हरण करना, जाति सूचक गाली देना, जादू-टोना अत्याचार को बढ़ावा देना, सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार, चुनाव लड़ने के लिए नामांकन दाखिल करने से रोकना, घर, गांव और आवास छोड़ने को बाध्य करना, इनके पूजनीय वस्तुओं को विरुपित करना, यौन दुर्व्यवहार और गलत भाषा का प्रयोग करना आदि भी अत्याचारों की श्रेणी में रखे गये हैं.
– इस संशोधन के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों को आहत करने, उन्हें धमकाने और अपहरण करने आदि अपराध के लिए 10 वर्ष से कम की सजा को भी अत्याचार निवारण अधिनियम में अपराध के रूप में शामिल किया गया है. इससे पहले अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों पर अत्याचार मामलों में 10 वर्ष और उससे अधिक की सजा वाले अपराधों को ही अपराध माना जाता था.
– अनुसूचित जाति एवं जनजाति से संबंधित मामले को तेजी से निपटाने के लिए विशेष अदालतें बनाना और विशेष लोक अभियोजक को निर्दिष्ट करने का प्रावधान भी है.
– विशेष अदालतों को अपराध का प्रत्यक्ष संज्ञान लेने की शक्ति प्रदान करने के साथ ही आरोप पत्र दाखिल करने की तिथि से दो महीने के अंदर सुनवाई पूरी करने की बात भी इस संशोधन में उल्लिखित है.

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