नयी शक्ल ले रहा दुनिया में राष्ट्रवाद

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत को वर्ष 2016 की सबसे बड़ी खबर माना जा रहा है. तमाम आकलनों और सर्वेक्षणों को धता बताते हुए उन्होंने एलेक्टोरल कॉलेज में बहुमत हासिल किया, जबकि पॉपुलर मतों में वे हिलेरी क्लिंटन से करीब 29 लाख वोटों से पीछे रहे. इस जीत को दुनियाभर, खासकर पश्चिमी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 26, 2016 8:29 AM

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत को वर्ष 2016 की सबसे बड़ी खबर माना जा रहा है. तमाम आकलनों और सर्वेक्षणों को धता बताते हुए उन्होंने एलेक्टोरल कॉलेज में बहुमत हासिल किया, जबकि पॉपुलर मतों में वे हिलेरी क्लिंटन से करीब 29 लाख वोटों से पीछे रहे.

इस जीत को दुनियाभर, खासकर पश्चिमी देशों की राजनीति में धुर राष्ट्रवादियों की बढ़त के मानक के तौर पर भी देखा जा रहा है, जिसकी बड़ी धमक ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से निकलने के फैसले के साथ सुनायी दी थी. ट्रंप के विवादित बयान और अमेरिकी नीतियों को अलग राह पर ले जाने के इरादे के वैश्विक राजनीति पर बड़े असर के आसार भी हैं. डोनाल्ड ट्रंप की जीत के विभिन्न पहलुओं पर एक विश्लेषण वर्षांत की आज की विशेष प्रस्तुति में…

डॉ रहीस सिंह

विदेश मामलों के जानकार

डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए मिली जीत पर नौ नवंबर को एक अमेरिकी अखबार में छपी टिप्पणी में इस तारीख को फ्रेंच रिवोल्यूशनरी कैलेंडर के अनुसार 18वां ब्रूमेयर कहा गया था. वर्ष 1799 में नेपोलियन बोनापार्ट ने इसी दिन रिवोल्यूशनरी सरकार के तख्तापलट का नेतृत्व किया था और स्वयं को प्रथम कांसुल के रूप में स्थापित कर विश्व इतिहास को पुनर्निर्देशित करनेवाली व्यवस्था पेश की थी. सवाल यह उठता है कि क्या डोनाल्ड ट्रंप नेपोलियन की तरह ही विश्व व्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं? क्या ऐसी शंकाओं पर भरोसा किया जाना चाहिए? जिस तरह से डोनाल्ड ट्रंप कट्टर, उन्मादी राष्ट्रवादी और संरक्षणवादी की अपनी छवि के साथ अमेरिकी राजनीति में उभरे और राष्ट्रपति पद के लिए जीत हासिल की उससे शंकाओं को बल तो मिलता है. इस तरह के निष्कर्ष उन परिस्थितियों में और भी प्रासंगिक लगने लगते हैं, जिनमें लगभग पूरी पश्चिमी दुनिया में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद शक्ति प्राप्त कर रहा हो तथा पूरा मध्य-पूर्व एक नये ध्वंस का इतिहास लिख रहा हो. तो क्या विश्व इतिहास में एक ऐसा नया अध्याय जुड़ सकता है, जो 18वीं-19वीं शताब्दी के इतिहास को दोहरा रहा हो?

अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए संपन्न हुए चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की विजय को कई विश्लेषकों और समीक्षकों ने सामान्य विजय के रूप में रेखांकित नहीं किया. वे ट्रंप को अमेरिकी राजनीति में एक उभार के रूप में देखते हैं. इतिहास गवाह है कि ऐसे उभार विश्व व्यवस्था व मानवीय हितों के लिए प्रायः घातक सिद्ध हुए हैं. जिन विशेषताओं और वादों के साथ वे चुनाव जीते, उनमें जटिल व उन्मादी राष्ट्रवाद, जिसमें मसजिदों पर निगरानी, आतंकवाद के विरुद्ध बम का इस्तेमाल, अवैध अप्रवासियों और सीरियाई प्रवासियों को रोकने के लिए अमेरिका व मैक्सिको के बीच एक बड़ी दीवार का निर्माण, जलवायु परिवर्तन तथा ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) जैसे समझौतों को रद्द करना आदि शामिल हैं. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कहा कि वे अपनी सेना को इतना बड़ा और ताकतवर बना देंगे कि कोई अमेरिका से झगड़ने की हिम्मत न कर सके. उन्होंने सर्वअमेरिकावाद और सर्वसत्तावाद के तहत अमेरिका को सुनहरे युग में ले जाने की बात भी की. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने जो माहौल बनाया और अमेरिका की जो तसवीर पेश की, उससे अमेरिकी जनता में एक नया मनोविज्ञान विकसित हुआ. इसी मनोविज्ञान के कारण अमेरिकियों ने ऐसा नेता चुना, जो कूटनीति में नहीं धमकियों से बात करे, जो हर बात पर- सिर फोड़ देंगे, धक्के देकर बाहर निकाल देंगे, उठा कर पटक देंगे, मार कर भगा देंगे- वाली भाषा बोले. महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनाव जीतने के बाद ट्रंप कई मुद्दों पर बदलते नजर आ रहे हैं, लेकिन वे लगातार ऐसे संकेत दे रहे हैं, जो दुनिया को अज्ञात भय की ओर ले जाने वाले लगते हैं.

एशियाई शांति के लिए खतरा!

ट्रंप चीन से सीधे टकराव की ओर जाते दिख रहे हैं. 1978-79 से स्थापित अमेरिका-चीन संबंधों में परिवर्तन लाने के वे जो संकेत दे रहे हैं, वे एशियाई शांति के लिए खतरा बन सकते हैं. उनका ताइवानी राष्ट्रपति से बात करना और यह तर्क देना कि हम निक्सन की ‘वन चाइना पॉलिसी’ से क्यों बंधे रहें, हम सौदेबाजी क्यों नहीं कर सकते अथवा अमेरिका की ‘एशिया पीवोट’ नीति से ‘रसिया पीवोट’ की ओर खिसकने का संकेत, गहरे निहितार्थों वाला हो सकता है. इसके परिणाम एशिया-प्रशांत, यूरेशिया और मध्य-पूर्व में परिवर्तन ला सकते हैं और यूरोप में नये संयोजनों को जन्म दे सकते हैं. ट्रंप द्वारा पेंटागन के सबसे ऊंचे पद पर जनरल जेम्स मैटिस गेटी को, जो ‘मैड डॉग’ के नाम से प्रसिद्ध रहे, नियुक्त करना एक खतरनाक संकेत है. ध्यान रहे ये वही जनरल गेटी हैं, जिन्हें लोगों को गोली मारने में मजा आता है. ऐसे व्यक्ति का, जिसके लिए युद्ध एक ‘फन’ हो और लोगों को गोली मारना आनंददायक लगता हो, अमेरिकी रक्षा मंत्री के रूप में शांति की उम्मीदों के साथ स्वागत करना दूसरे तरह के परिणामों की संभावनाओं को स्वीकार करने जैसा है. इसके अलावा एक्शन मोबिल के सीइओ रेक्स टिलरसन को विदेश मंत्री के रूप में नियुक्ति की मंशा भी समझ से परे है.

यूरोप में भी उथल-पुथल

ट्रंप इस समय वैश्विक राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र में हैं, इसलिए उनके द्वारा उठाए गये कदमों से वैश्विक राजनीति प्रभावित होगी, लेकिन साथ ही पूरी दुनिया में कुछ नये उभारों को देखा जा सकता है, जो विश्व शांति को प्रभावित कर सकता है. इनमें सबसे महत्वपूर्ण बदलाव यूरोप में दक्षिण पंथ का उभार है, जिसमें वही विशेषताएं देखी जा सकती हैं, जो ट्रंप में देखी जा रही हैं. इन्हीं उभारों के कारण ब्रिटेन में ब्रेक्सिट के पक्ष में जनमत रहा, जर्मनी में पेगिडा जैसा आंदोलन शक्ति प्राप्त कर गया, फ्रांस में मरीन ली पेन का उभार देखा जा रहा है. जो देश कभी बाजार व्यवस्था के अगुआ थे, वे अब कट्टर राष्ट्रवादी एवं संरक्षणवादी होकर इसके ध्वंस का इतिहास लिखना शुरू कर रहे हैं. इसे कई संदर्भों और उदाहरणों के रूप में देखा जा सकता है. जैसे-ब्रेक्सिट पर जनमत के निर्णय को यूके इंडिपेंडेंस पार्टी के नेता नाइजेल फैराज ने ‘स्वतंत्रता दिवस’ के रूप में पेश किया था. यह स्थिति ब्रिटेन में ही नहीं है, बल्कि जर्मनी में भी कुछ समय पहले हुए तीन राज्यों के चुनावों भी देखी गयी, जहां जर्मनी की चांसलर मर्केल की कंजर्वेटिव क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन तीन राज्यों में से दो में हारी और उग्र दक्षिणपंथी विचारों वाली पार्टी एएफडी को भारी जीत मिली. इस पार्टी ने मर्केल की शरणार्थियों के प्रति नरम नीति बरतने के खिलाफ अभियान छेड़ा था. फ्रांस में राज्यों के चुनाव में मरीन ली पेन की पार्टी नेशनल फ्रंट को सफलता मिली और अब इस बात की संभावना व्यक्त की जा रही है कि 2017 के चुनाव में ली पेन राष्ट्रपति पद की सबसे प्रबल दावेदार होंगी. पोलैंड में पिछले वर्ष दक्षिणपंथी दल सत्ता में आ चुका है, हंगरी में प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बान दक्षिणपंथ दल की सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं. स्विट्जरलैंड में हुए चुनावों में स्विस पीपुल्स पार्टी को जीत हासिल हुई, जिसे कुछ हद तक कट्टर राष्ट्रवादी कहा जा सकता है.

दक्षिणपंथी शक्तियों का उभार

फिलहाल अमेरिकी राजनीति में डोनाल्ड ट्रंप के उदय के समानांतर यूरोप में भी उग्र-राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी शक्तियों का उभार देखा जा सकता है. इनमें इसलामफोबिया, इसलामी आतंकवाद के विरोध के नाम पर पनपती नयी विचारधाराओं के साथ कट्टर राष्ट्रवाद एवं संरक्षणवाद प्रमुखता से उभरा है. अब वहां लेबर, लिबरल और कंजरवेटिव दलों का स्थान नवराष्ट्रवादी दल लेते हुए दिख रहे हैं. क्या राजनीति की इस नवराष्ट्रवादी विचारधारा से ऐसी विश्व-व्यवस्था की अपेक्षा की जा सकती है, जहां शांति और स्वतंत्रता संरक्षित हो? वास्तव में यह विषय इस समय दुनिया के लिए गंभीर चिंतन का है, भले ही अभी इस पर उतनी गंभीरता न देखी जा रही हो.

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