लाखों की नौकरी छोड़ बच्चों का स्कूल खोला
आइआइएम, लखनऊ से पढ़नेवाली गरिमा विशाल ने चुनी अलग राह शैलेंद्र मुजफ्फरपुर : आइआइएम, लखनऊ से पढ़ाई और इंफोसिस व जेडएस जैसी नामी कंपनियों में नौकरी, जिसमें हर माह वेतन के रूप में लाखों का पैकेज, लेकिन ये सब छोड़ मधुबनी की बेटी और मुजफ्फरपुर की बहू गरिमा विशाल ने बच्चों को पढ़ा कर समाज […]
आइआइएम, लखनऊ से पढ़नेवाली गरिमा विशाल ने चुनी अलग राह
शैलेंद्र
मुजफ्फरपुर : आइआइएम, लखनऊ से पढ़ाई और इंफोसिस व जेडएस जैसी नामी कंपनियों में नौकरी, जिसमें हर माह वेतन के रूप में लाखों का पैकेज, लेकिन ये सब छोड़ मधुबनी की बेटी और मुजफ्फरपुर की बहू गरिमा विशाल ने बच्चों को पढ़ा कर समाज को बदलने का रास्ता चुना. उन्होंने डेजाऊ नाम से बच्चों का स्कूल खोला है, जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चों पर विशेष जोर दिया जाता है. 2014 में 10 बच्चों से डेजाऊ की शुरुआत हुई थी.
दो साल में इस स्कूल में एक सौ बच्चे हो गये हैं. गरिमा बच्चों ..
की संख्या व उनकी पढ़ाई से संतुष्ट हैं. स्कूल के बारे में पूछने में गरिमा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ जाती है. कहती हैं, कहां से बताना शुरू करूं, चलिये मैं अपनी पढ़ाई से शुरुआत करती हूं.
मेरे पिता रजिस्टार हैं, उनके ट्रांसफर के हिसाब से मेरी पढ़ाई के शहर बदलते गये. हजारीबाग के इंदिरा गांधी बालिका विद्यालय से मैंने पढ़ाई की, उसके सीतामढ़ी के स्कूल में पढ़ी. हाइस्कूल मैंने पटना के बीडी पब्लिक स्कूल से किया. इसके बाद केंद्रीय विद्यालय, पटना से 12वीं की पढ़ाई की. इसके बाद मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से बी. टेक किया. वहीं से कैंपस सेलेक्शन इंफोसिस में हुआ था. नौकरी के दौरान ही हमने एमबीए करने की सोची और तैयारी शुरू की. मेरा सेलेक्शन आइआइएम, लखनऊ में हो गया. वहां मैंने फिर से पढ़ाई शुरू की. आइआइएम से भी मेरा कैंपस सेलेक्शन गुड़गांव में जेडएस नाम के मल्टीनेशनल कंपनी में हुआ.
गरिमा बताती है कि मैंने गुड़गांव में काम करना शुरू किया. बहुत अच्छी नौकरी चल रही थी, लेकिन इस बीच मेरे पति विशाल, जो उस समय तक मेरे दोस्त थे, उन्होंने मुझे प्रेरित किया कि मैं वही करूं, जो मुझे अच्छा लगे. इसके बाद हमने अपने दोस्तों से बात शुरू की. काफी रिसर्च किया, क्योंकि ये क्षेत्र मेरे लिये बिल्कुल नया था, लेकिन पढ़ाई तो मेरे दिल के करीब थी. मैं जब इंफोसिस में काम कर रही थी. उस समय मेरी पोस्टिंग भुवनेश्वर में थी. हम एक दिन ऑटो से जा रहे थे. उसमें एक गुजराती परिवार बैठा, जिसके बच्चे हिंदी में अच्छी बात कर रहे थे. मुझसे रहा नहीं गया, मैंने पूछ लिया कि ये बच्चे किस स्कूल में पढ़ते हैं, तो उन लोगों ने बताया कि ये पढ़ते नहीं है, क्योंकि यहां के सरकारी स्कूलों में उड़िया पढ़ाई जाती है, जबकि निजी स्कूल में पढ़ाने के लिए ज्यादा पैसा चाहिए, जो खर्च हम लोग वहन नहीं कर सकते हैं.
गरिमा बताती हैं कि मैंने इसके बाद मैंने उन बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. वो फेरी लगाकर सामान बेचनेवाले परिवार से थे. उससे पहले वो अपने मां-पिता के साथ ही रहते थे. हमने उन्हें पढ़ाना शुरू किया, तो उनकी स्थिति बदलने लगी. समय के लिए मैंने ऑफिस में बात की, तो उन्होंने मुझे ड्यूटी का समय बदलने की छूट दे दी. मैं सुबह सात बजे से बच्चों को पढ़ाती थी और उसके बाद दस बजे ऑफिस जाती थी. वहां मेरी क्लास में 30 बच्चे हो गये थे, जब मुझे आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ जाना पड़ा, तो हमने काफी मेहनत करने के बाद उन बच्चों का विभिन्न स्कूलों में दाखिला करवाया. इसमें जो खर्च आया, उसको मैंने उठाया. महीने की फीस का जिम्मा उनके माता-पिता को दिया. गरिमा कहती हैं कि पढ़ाई का जो काम मैं भुवनेश्वर में कर रही थी. वही यहां भी कर रही हूं. बस अब जिम्मेवारी बदल गयी है, लेकिन इसमें काफी मजा आ रहा है, क्योंकि ये मेरी पसंद है.
गरिमा के स्कूल में इस समय एक सौ बच्चों को पढ़ाने के लिए सात शिक्षकाएं हैं, जो बच्चों की उनकी रुचि के मुताबिक पढ़ाई करवाती हैं. गरिमा बताती हैं कि मैंने अपने स्कूल में ज्यादातर उन महिलाओं को रखा है, जो शादीशुदा हैं और पढ़ी-लिखी हैं. इसके पीछे वजह यह है कि शादी के बाद खुद के घर के कामों में लगा देनेवाली महिलाओं को टैलेंट को मरने नहीं देना है. दूसरी बात ये है कि जिन महिलाओं के अपने बच्चे होते हैं, वो बच्चों को अच्छी तरह से समझती हैं. बच्चे को किस चीज की जरूरत है. वह उनके हाव-भाव से जान जाती हैं. गरिमा बताती हैं कि शिक्षाकाओं की हम लोगों ने पहले ट्रेनिंग की. उन्हें बताया कि किस तरह से पढ़ाना है. उसके बाद उन्हें पढ़ाई में लगाया.
वह कहती हैं कि मेरे स्कूल में शिक्षिकाओं की ट्रेनिंग चलती रहती है. साथ ही बच्चों की रूचि को देख कर ही हम उसे प्रेरित करते हैं. बच्चों के दिमाग का विकास तीन से पांच साल के बीच ज्यादातर होता है.
ये उनके लिए काफी महत्वपूर्ण समय होता है. इसलिए हम लोग बच्चों की स्किल का विशेष ख्याल रखते हैं. साथ ही हम किस तरह से पढ़ाते हैं, इसके बारे में हम बच्चों के माता-पिता को भी बताते हैं, ताकि उन्हें इस बात की जानकारी रहे कि उनका बच्च क्या कर रहा है. वह कहती हैं कि दो साल में ऐसी स्थिति हो गयी है कि जिन बच्चों के माता-पिता अपढ़ हैं. वो अंगरेजी में बोलते हैं. गरिमा बताती हैं कि हम बच्चों के साथ उनके माता-पिता को भी सिखाते हैं. टेक्निकल ट्रेनिंग देते हैं. अगर किसी के पास स्मार्ट फोन है और वो चलाना नहीं जानता है, तो हम लोग उसके बारे में बताते हैं. इ-मेल व फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर कैसे अपना आइडी क्रियेट करना है. इसकी जानकारी अभिभावकों को देते हैं, ताकि वो दुनिया से खुद को कनेक्ट कर सकें.
गरिमा बताती है कि पढ़ाई के लिए मेरे पिता ने मुझे बहुत प्रेरित किया. वो हमसे हमेशा कहते थे कि माई-बाबू के है कहना, अक्षर है बेटी के गहना…यह बात मेरे पिता जी मेरी हर किताब में भी लिख देते थे. उनकी प्रेरणा से ही मैंने कक्षा आठ से ही अपने घर के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया था. 8वीं की छात्र होने के बाद भी मैं 10वीं की गणित के सवाल हल करती थी, तो मुझे बहुत मजा आता था. खुद पर विश्वास भी बढ़ता गया.
– 10 बच्चों से 2014 में शुरू किया डेजाऊ स्कूल
– दो साल में स्कूल में 100 हुई बच्चों की संख्या
-आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों पर विशेष जोर
-बच्चों की रुचि पहचान कराती हैं पढ़ाई
-शिक्षक व अभिभावकों मिलता है प्रशिक्षण
गरिमा कहती हैं कि हम लोग स्कूल का विस्तार करेंगे. इसके बाद प्लानिंग पिछड़े इलाकों में शुमार मीनापुर के नेउरा में स्कूल खोलने की है. वह बड़े बच्चों का स्कूल होगा, जिसमें हम यहीं की तरह बच्चों को अच्छी शिक्षा देंगे. डेजाऊ स्कूल के कोर मेंबर्स में शामिल चंदन कहते हैं कि हमारी योजना एक बच्चे को पढ़ाई से लेकर उसके करियर तक की राह दिखानी है. हम वह करना चाहते हैं. ये हम लोगों का लांग टर्म प्लान है.