नोटबंदी के 50 दिन बीत चुके हैं. इसके असर को लेकर देश भर में नुक्कड़ों से लेकर बुद्धिजीवियों के बीच बहस जारी है. एक पक्ष मानता है कि कालेधन पर मुकम्मल वार के लिए यह बड़ा कदम है. लेकिन, दूसरा तबका मानता है कि नोटबंदी से कालेधन का एक छोटा हिस्सा ही बाहर आ पायेगा. वैसे सभी इस राय पर एकमत हैं कि देश से कालेधन और भ्रष्टाचार को समाप्त होना ही चाहिए. नोटबंदी के 50 दिन पूरे होने के मौके पर पढ़िए देश के जाने-माने अर्थशास्त्रियों का नजरिया, जो उन्होंने प्रभात खबर के साथ शेयर किया है. ये आलेख नोटबंदी को लेकर चल रही बहस को नया आयाम दे सकते हैं.
मोहन गुरुस्वामी
अर्थशास्त्री
कालाधन शब्द में हर वह आय शामिल है जिस पर राज्य को कोई कर नहीं चुकाया गया है. यह आय वैध स्रोतों या तस्करी, फर्जीवाड़े, भ्रष्टाचार और नशीले पदार्थों के कारोबार जैसे पूरी तरह से अवैध गतिविधियों से अर्जित हो सकती है. हर साल पैदा होनेवाले कालेधन के आकलनों में बहुत विभिन्नता है. लेकिन, सबसे अधिक उद्धृत, पर अभी भी गोपनीय माना जानेवाला अध्ययन नेशनल इंस्टीट्यूट फॉरपब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआइपीएफपी) द्वारा सरकार के आग्रह पर किया गया था. इस अध्ययन का आकलन है कि 2013 में कालेधन की मात्रा सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के 75 फीसदी के लगभग बराबर थी.
वर्ष 1985 में इस संस्था के अध्ययन में बताया गया था कि 1984 में कालेधन की मात्रा जीडीपी के करीब 21 फीसदी के बराबर थी यानी 173,420 करोड़ की तत्कालीन जीडीपी में 36418 करोड़ की राशि कालाधन थी. वर्ष 2014 में देश की जीडीपी 2.047 ट्रिलियन डॉलर अनुमानित की गयी थी जो आज के डॉलर के मूल्य (एक डॉलर=67 रुपये) के हिसाब से 7.277 ट्रिलियन ठहरती है.
भारत सरकार को 2014 में 13.64 लाख करोड़ के कर और शुल्क वसूली की उम्मीद थी. इसका अर्थ यह हुआ कि वह इसका करीब 75 फीसदी हिस्सा वसूल नहीं कर पा रही है, जो कि लगभग 10.4 लाख करोड़ ठहरता है. यह बहुत बड़ी राशि है और इससे हो सकने वाले कामों के बारे में सोच कर किसी भी सरकार की लार टपक सकती है.
हम चीन के मुकाबले विकास दर में निवेश के अनुपात को बढ़ाने और दूसरी गुंजाइशों को बढ़ाने के लिए क्या कर सकते हैं, यह सोचना होगा. भारत में महज 3.5 करोड़ करदाता हैं और उसमें भी 89 फीसदी ने अपनी आय 0-5 लाख रुपये के बीच घोषित कर रखी है.
इसका मतलब यह है कि महज 11 फीसदी करदाताओं ने अपनी सालाना आमदनी पांच लाख से ऊपर मानी है. यह आंकड़ा किस तरह बेतुका है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल 22 लाख नयी सवारी गाड़ियों और एसयूवी की बिक्री हुई. साफ है कि टैक्स अदा करने के दायरे में आने वाले अधिकतर लोग कर नहीं चुकाते हैं.
चूंकि यूपीए सरकार इस मुद्दे पर असफल रही, इसलिए लोगों ने इस उम्मीद से उसे सत्ता से बाहर किया कि उनकी जगह मोदी सरकार जनहित में टैक्स सुधार के लिए काम करेगी. पर,मोदी सरकार भी इस मुद्दे पर करीब तीस महीने तक शांत बैठी रही. जाहिर है, इस दौरान आर्थिक सुस्ती को देखते हुए जनता की बेचैनी बढ़ी और आखिरकार सरकार को इस मोरचे पर एक ‘सर्जिकल स्ट्राइक’के लिए तैयार होना पड़ा. यह जनता को किसी तरह बहलाने जैसा है. पिछले साल भारत में रहनेवाले भारतीयों ने 83 अरब डॉलर मूल्य के करीब सामानों का निर्यात गलत तरीके से किया, यह विदेश के रास्ते छिपाकर धन कमाने का चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण है.
यह रकम नोटबंदी के दायरे से बाहर है. सरकार ने भी पिछले एक दशक में इस तरीके से दबाये गये 500 अरब रुपये को बाहर निकालने में अपने हाथ खड़े कर दिये हैं. टैक्स चोरी के जरिये जमा की गयी ज्यादातर रकम को प्रोपर्टी, ज्वैलरी जैसी परिसंपत्तियों में तब्दील कर दिया गया है. नकद कालाधन के मुकाबले इस तरह तमाम जरियों से निवेश किये गये पैसों की कीमत ज्यादा है.
दरअसल, ये तो छोटे कारोबारी, व्यापारी और कारीगर जैसे लोग हैं, जिनके पास कालाधन नकदी के रूप में है. ऐसे लोग तो आपको बैंकों के आगे लगी कतारों में मिल भी जायेंगे. पर, कालाधन के बड़े खिलाड़ी जिन्होंने बड़ी टैक्स-लूट की है, वे हमें कहीं नजर नहीं आते हैं.
वैसे भी महज एक तिल्ली के जरिये आप कालेधन को जड़ से समाप्त नहीं कर सकते हैं. इसके लिए हमारी व्यवस्था को पूरी तरह बदलना होगा. सही व गहरे सुधार के कदम उठाने होंगे.
आप देखें कि अरुण जेटली और उनके सहयोगियों ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) कानून को लेकर क्या किया. अब हमारे पास इसके तहत सात स्तर (स्लैब) हैं और कई तरह की छूट हैं. असल में हमें एक नयी शुरुआत की दरकार है जिसमें टैक्स चोरी को सीधे तौर पर आपराधिक आरोप माना जाये और इसके लिए बाध्यकारी तौर पर जेल की सजा हो. इसके लिए कई स्तरों पर अदालतों की जरूरत होगी, जहां आर्थिक अपराध के मामले शीघ्रता से निपटाये जायें.
टैक्स चोरी के जरिये जमा कालेधन का महज पांच फीसदी ही नकदी में है. बाकी रकम को तो या तो विदेशों में ठिकाने लगा दिया गया है या फिर इनके बदले सोना या प्रोपर्टी खरीद ली गयी है. यहां यह भी गौर करने की बात है कि 55 फीसदी विदेशी निवेश के जरिये आनेवाले पैसे वही हैं, जो देश से गलत तरीके से बाहर गये हैं. क्या सरकार इन पैसों का मूल स्रोत जानने का विवेक दिखलायेगी?
जो हालात हैं, उनमें प्रधानमंत्री किसी बड़ी आर्थिक त्रासदी की बात कबूलने के बजाये यह दिखाने में लगे हैं कि वह उन गरीबों की लड़ाई लड़ रहे हैं, जिन्हें दशकों से अमीरों द्वारा लूटा गया है. गरीबों के हित की इस कथित लड़ाई को संगीनी देने के लिए वे यहां तक कह गये कि उनकी जान को खतरा है.
आलम यह है कि इस चालाकी के बूते नरेंद्र मोदी समर्थन के बड़े आधार को अपने पक्ष में खड़ा करने में अब तक सफल हैं. बहरहाल, अब की घड़ी में बड़ा सवाल यही है कि क्या हालात से बेखबर प्रधानमंत्री पुराने नोटों को बदलने की तय समय सीमा को बढ़ाने को राजी होंगे? यह भी कि क्या सौ और उससे कम मूल्य के नोटों की भारी छपाई से नकदी संकट दूर की जायेगी? क्योंकि ऐसा कुछ अगर वे करते हैं, तो उससे मुश्किल कम भले न हो, कम-से-कम और बढ़ेगी नहीं.
(अनुवाद- अरविंद कुमार यादव )
बिना सोचे समझे नोटबंदी का फैसला
प्रसेनजीत बोस
अर्थशास्त्री
किसी लोकतांत्रिक देश में आर्थिक नीतियों का स्पष्ट उद्देश्य होना चाहिए और साथ ही इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए इसका क्रियान्वयन किस पारदर्शी तरीके से किया जायेगा. सरकार द्वारा 8 नवंबर को नोटबंदी की घोषणा के लक्ष्य और केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे, प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के बयान एक जैसे नहीं रहे हैं. 8 नवंबर को जारी नोटिफिकेशन में कहा गया है कि 500 और 1000 हजार के पुराने नोट को बंद करने का फैसला फर्जी नोटों के चलन, काले धन पर रोक लगाने और आंतकी गतिविधियों में इसके प्रयोग पर रोक लगाने के लिए किया गया है.
अब सरकार के इन दावों पर गौर करने की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल सरकार के हलफनामे में इंडियन स्टैटिटिकल इंस्टीट्यूट के 2016 में कराये गये अध्ययन के हवाले से कहा कि देश में फर्जी नोटों की कुल मात्रा महज 400 करोड़ रुपये है. यह आंकड़ा 2011-12 से 2014-15 तक एक समान रही है. रिजर्व बैंक के मार्च 2015 के आंकड़े के मुताबिक बैंक नोटों की कीमत 14.28 लाख करोड़ रुपये थी.
आंकड़ों के अनुसार की कुल नोटों में फर्जी नोटों की मात्रा महज 0.028 फीसदी है. यानी की एक लाख के नोट बंडल में 28 नोट फर्जी हैं. ऐसे में फर्जी नोट के नाम पर इसे बंद करने का फैसला सही नहीं माना जा सकता है. फर्जी नोटों को सरकार कड़ी निगरानी और इसके स्रोत पर चोट कर रोक सकती थी. फर्जी नोट पर रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार हाल के वर्षों में एक हजार के फर्जी नोटों में मामूली वृद्धि देखी गयी, जबकि 500 रुपये के फर्जी नोट में कमी आयी है.
जहां तक नोटबंदी से काले धन को बाहर लाने के बात है, ऐसा होता नहीं दिख रहा है. राजस्व विभाग के जब्त और सर्च के आंकड़े के अनुसार पिछले 4 साल में कुल काले धन का 5.6 फीसदी से 7.5 फीसदी संपत्ति जब्त हुई है. इससे साफ जाहिर होता है कि 500 और 1000 रुपये नोट छापे में जब्त संपत्ति के मुकाबले कम रहे हैं. इस आधार पर नोटबंदी का फैसला सही प्रतीत नहीं हो रहा है. राज्यसभा में केंद्रीय वित्त मंत्री ने एक सवाल के जबाव में कहा कि नोटबंदी के फैसले के समय 500 और हजार रुपये 15.44 लाख करोड़ रुपये के थे.
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के चीफ इकोनॉमिस्ट का मानना है कि 2.5 से 3 लाख करोड़ के पुराने नोट बैंकिंग सिस्टम में वापस नहीं आने की संभावना है और कहा जा रहा है कि आरबीआइ इस रकम को डिवीडेंड के तौर पर सरकार को देगी. लेकिन 13 दिसंबर को जारी रिजर्व बैंक के आंकड़े के अनुसार 12.44 लाख करोड़ रुपये के पुराने नोट बैंकों में जमा हो चुके हैं और 30 दिसंबर तक यह रकम और बढ़ेगी. इससे जाहिर होता है कि नोटबंदी के फैसले को सीक्रेट रखने के सरकार के दावे के बावजूद नोटों के जमाखारों पर कोई असर नहीं हुआ. इसी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने जल्दबाजी में लोकसभा में आयकर संशोधन कानून 2016 पेश कर दिया.
इस वित्त वर्ष के दौरान सरकार ने कालेधन वालों को दूसरा मौका दिया. अघोषित आय पर 50 फीसदी कर चुका कर कोई अपने काले धन को वैध बना सकता है. पहली योजना से सरकार को 30 हजार करोड़ रुपये का राजस्व हासिल हुआ जो मौजूदा वित्त वर्ष के प्रत्यक्ष कर संग्रह के लक्ष्य 8.47 लाख करोड़ रुपये का महज 3.5 फीसदी है. अगर सरकार काले धन पर कर रियायत देकर कर संग्रह बढ़ाने की नीति पर काम कर रही है तो फिर नोटबंदी की क्या जरूरत थी? 8 नवंबर को जारी अधिसूचना में कैशलेस लेन-देन को बढ़ावा देने का कोई जिक्र नहीं है. काफी सोच-विचार के बाद सरकार और प्रधानमंत्री इसकी बात करने लगे हैं. सुप्रीम कोर्ट में सौंपे हलफनामे में सरकार ने कहा कि नकदी का जीडीपी में योगदान काफी अधिक है.
बैंक ऑफ इंटरनेशनल सेटलमेंट के आंकड़ों के मुताबिक जापान में नकदी जीडीपी का 20.6 फीसदी, हांगकांग में 15.51 फीसदी है, जबकि भारत में यह महज 12 फीसदी है. भारत में नकदी का जीडीपी में योगदान बढ़ने का मुख्य कारण खाद्य महंगाई दर का अधिक होना है. कैशलेस समाज से पहले भारत के लोगों की बैंक तक पहुंच के आंकड़ों पर गौर करना जरूरी है. विश्व बैंक के ग्लोबल फिनडेक्स 2014 के रिपोर्ट के अनुसार देश के 53 फीसदी व्यस्कों का बैंकों में खाता है. सबसे गरीब 40 फीसदी में से 44 फीसदी के बैंक खाते हैं.
दैनिक मजदूरी करने वाले 86 फीसदी को नकद में भुगतान किया जाता है. प्रधानमंत्री जनधन योजना के तहत खुले 25 करोड़ बैंक खातों में 23 फीसदी में जीरो बैलैंस है. देश में 35 % लोगों की पहुंच इंटरनेट तक है. 2011 जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक 33 % घरों में बिजली नहीं है और 28 % लोगों के पास मोबाइल तक नहीं है. देश की 25 फीसदी आबादी अशिक्षित है और कैशलेस के लिए इन्हें वित्तीय शिक्षा देनी होगी.
नोटबंदी पर सरकार की तैयारी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 8 नवंबर के बाद रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया इससे जुड़े 60 नोटिफिकेशन जारी कर चुका है. कई पूर्व घोषणाओं में बदलाव, कुछ में सुधार और स्पष्टीकरण दिया. आखिर नोटबंदी के लक्ष्यों को बदलने को लेकर सरकार को जबाव देना चाहिए. बार-बार लक्ष्य और नियम बदलने से साफ जाहिर होता है कि नोटबंदी के व्यापक पहलू पर सरकार ने गंभीरता से विचार नहीं किया.
कुछ परेशानी, लंबे समय के लिए फायदेमंद
गुरचरण दास
लेखक
नोटबंदी से बीते 50 दिनों में हर आम-व-खास को कुछ परेशानियां जरूर हुई हैं, लोगों को लंबी लाइनों में इंतजार करना पड़ा है और सौ से ज्यादा लोगों का निधन हुआ है. यह दुखद है, लेकिन यह परेशानी कम समय के लिए ही है. नोटबंदी के फैसले का लंबे समय के बाद फायदा मिल सकता है. लंबे समय का अर्थ तीन से पांच वर्षों से है. नोटबंदी के फायदे-नुकसान दोनों हैं.
पहली बात तो यह कि नोटबंदी का रास्ता कैशलेस की तरफ जाता है और कैशलेस की तरफ बढ़ने से ज्यादा-से-ज्यादा लोग फॉर्मल इकोनॉमी में आ जायेंगे. फॉर्मल इकोनाॅमी का फायदा यह होता है कि देश की बचत दर (सेविंग रेट) बढ़ जाती है. सेविंग रेट के बढ़ने से निवेश की दर भी बढ़ जाती है.
इससे बैंकों में पैसे जमा करने की दर (डिपोजिट रेट) भी बढ़ जाती है, क्योंकि तब ज्यादातर लोग बैंकिंग तौर-तरीकों से लेन-देन शुरू कर देंगे. डिपोजिट रेट बढ़ने से ब्याज दर (इंटरेस्ट रेट) कम हो जाती है, जिससे व्यापारियों और उद्यमियों को लोन लेने में आसानी हो जाती है. कम ब्याज पर मिले लोन से व्यापार और कंपनियों को बढ़ाने में मदद मिलती है और फिर नौकरियां बढ़ने लगती हैं. इसके बाद जो बड़ा फायदा होगा, वह यह कि आयकर (इनकम टैक्स) देनेवाले लोगों की संख्या बढ़ जायेगी. देश में जितना ज्यादा से ज्यादा लोग आयकर देंगे, देश के खजाने में वृद्धि होगी और उसका इस्तेमाल देश के विकास में होगा.
जहां तक कम समय या मिडियम टर्म (छह महीने से साल भर) की बात है, तो नोटबंदी से जो छोटी कंपनियां या फैक्ट्रियां बंद होने के कगार पर हैं, उनके उबरने में कठिनाई होगी और इसका नुकसान लोगों के बेरोजगार होने के रूप में होगा. इन छोटी कंपनियाें या फैक्ट्रियाें का कामकाज ज्यादातर कैश के रूप में होता था, लेकिन अब उन्हें दिक्कतें आ रही हैं. दूसरी बात यह है कि आम व्यक्ति की खरीद क्षमता पर असर आया है कि कम कैश होने के कारण वह जब तक जरूरत न हो तब तक कुछ नहीं खरीद पा रहा है. लेकिन, इसका भी फायदा इस रूप में आया है कि उसके पैसे बैंक में सुरक्षित बच रहे हैं और उसके खर्चों में कमी आ रही है. लोगों के पास पैसे रहते हुए भी एक साइकोलॉजी बन गयी है कि वह पैसे बचा ले, तो ही अच्छा है.
वहीं दूसरी ओर, ऑनलाइन खरीदारी बढ़ रही है. इसी के चलते अब यूपीआइ (यूनीफाइड पेमेंट इंटरफेस) यानी ‘एकीकृत भुगतान इंटरफेस’ आ गया है. मुझे लगता है कि यह यूपीआइ आनेवाले दिनों में कैशलेस इकोनॉमी के क्षेत्र में सबसे बड़ी क्रांति करेगा. यूपीआइ एक सरकारी व्यवस्था है, जो पेटीएम की तरह ही काम करता है, लेकिन इसमें ट्रांजेक्शन कॉस्ट (लेनदेन लागत) नहीं है.
मसलन, क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल करने के लिए बैंकों को कुछ पैसा देना पड़ता है, लेकिन यूपीआइ में कोई शुल्क राशि नहीं लगती है. जैसे हम किसी चीज को कैश में खरीदते हैं, तो अलग से कोई लेन-देन राशि नहीं देनी पड़ती है, ठीक उसी तरह यूपीआइ भी करेगा, लेकिन वह ऑनलाइन सिस्टम के तहत करेगा. अब यह शुरू भी हो गया है, लेकिन इसको अभी पूरी तरह से आने में काफी वक्त लगेगा, क्योंकि गांवों में आज भी बिजली और कनेक्टिविटी की कमी है.
लोगों में यह धारणा बनी है कि मार्केट में कैश आ जाने से स्थिति सामान्य हो जायेगी, लेकिन यह इतनी जल्दी संभव नहीं होगा. जिन छोटे उद्यमों और कंपनियों पर असर पड़ने के चलते लोगों ने रोजगार खाेये हैं, उनको उबरने में वक्त लगेगा. इस ऐतबार से देखें तो नोटबंदी एक गलती है, जिसे सरकार ने जल्दबाजी में कर डाली. इस गलती का नतीजा यह हो सकता है- जैसा कि अर्थशास्त्री कह रहे हैं, कि अगर हम कुछ उबर नहीं पाये और अल्पकालिक मंदी (मिनी रिसेशन) की ओर चले गये, तो फिर हमारी अर्थव्यवस्था को नुकसान हो सकता है.
वैसे जिस कालेधन को खत्म करने के लिए नोटबंदी लायी गयी, उस अर्थ में यह कहा जा सकता है कि नोटबंदी का फैसला ठीक नहीं था, क्योंकि ज्यादातर कालाधन कैश में है ही नहीं. इसके लिए सरकार को कालेधन के स्रोतों पर चोट करने के लिए कोई अन्य तरीका अपनाना चाहिए था.
नोटबंदी से बेरोजगारी बढ़ने की है आशंका
प्रोफेसर अरुण कुमार
अर्थशास्त्री
नोटबंदी करेंसी और आम लोगों के पास पैसे का मामला है. चूंकि आम लोग सीधे रिजर्व बैंक के संपर्क में रहते, ऐसे में उन्हें अपनी रोजाना के पैसे की जरूरत के लिए बैंकों पर निर्भर रहना है. नोटबंदी से बैंकों पर काफी असर पड़ा है और यह आने वाले समय में भी बना रहेगा. नोटबंदी के बाद बैंकों को पुराने नोट के अलावा नये नोट भी देने पड़ रहे है. लेकिन बैंकों के पास नये नोटों की कमी है और लोगों को सरकार द्वारा तय पैसे भी नहीं मिल पा रहे हैं. बैंक लोगों की मांग को पूरा करने में अक्षम है, इसलिए वे कम मात्रा में लोगों को नकदी दे रहे हैं.
एटीएम के बाहर लोगों की लंबी कतारों के कारण वे जल्द खाली हो जा रहे हैं और वहां से भी कई लोगों को खाली हाथ लौटना पड़ रहा है. इससे बैंककर्मियों को लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है. कई कर्मियों पर बड़े लोगों से मिलीभगत के आरोप भी लग रहे हैं और बड़ी मात्रा में नये नोट पकड़े जा रहे है. वहीं लोग पैसे निकालने के लिए बार-बार लाइन में लग रहे हैं. लोगों में यह धारणा बन रही है कि अमीर और भ्रष्ट लोगों को आसानी से पैसे मिल रहे हैं और वे बेकार में बैंकों की लाइनों में खड़े होकर अपनी मजदूरी को बर्बाद कर रहे हैं.
यह गलती बैंकों की है, क्योंकि उनकी मिलीभगत के बिना इतने पैसे कुछ लोगों के पास नहीं पहुंच सकते हैं. हालांकि जांच एजेंसियों की सख्ती के बाद बैंकों को अतिरिक्त सतर्कता बरतनी पड़ रही है और इससे उनके काम की गति धीमी हुई है. बैंककर्मियों को जमा होने वाले पैसे का स्रोत भी रखना पड़ रहा है, इससे काम का अतिरिक्त दबाव के साथ खर्च भी बढ़ा है. कई बैंकों में छापे पड़े, इससे इनमें कोई काम नहीं हो रहा है.
रिजर्व बैंक का कहना है कि बैंकों में 13 लाख करोड़ के नोट जमा हो चुके है और इससे बैंकों में नकदी बढ़ी है. बैंकों को इससे खुश होना चाहिए, लेकिन उनके पास कर्ज देने के लिए न समय है और न ही कर्मचारी. पुराने नोटों को नये नोट लेने के लिए रिजर्व बैंक में जमा करना होगा.
अभी यह तय नहीं है कि बैंक कैसे कर्ज मुहैया करायेंगे. डेबिट कार्ड पर शुल्क कम करने, एटीएम को नये नोटों के लायक बनाने से बैंकों का खर्च बढ़ा है. साथ ही उन्हें गरीब लोगों के खाते खोलने को कहा गया है और इससे भी खर्च बढ़ रहा है. एक ओर बैंकों का खर्च बढ़ा वहीं दूसरी ओर आय में बढ़ोतरी नहीं हुई है. कुछ लोगों का तर्क है कि बैंकों के पास पर्याप्त मात्रा में नकदी है और अब वे ब्याज दरों को कम कर सकते हैं और इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी. लेकिन मौजूदा माहौल में बैंक कर्ज देने की स्थिति में नहीं है और यह पैसा तबतक बैंकों के पास है, जबतक निकासी की सीमा तय है.
नोटों की कमी को देखते हुए अगर ब्याज दरें कम भी हो जाये तो निवेश नहीं बढ़ेगा. अमेरिका और यूरोपीय यूनियन में देखा गया है कि ब्याज दर कम होने के बावजूद निवेश नहीं बढ़ा और विकास दर कम बना रहा. नोटबंदी के कारण असंगठित क्षेत्र में तेजी से गिरावट आयी है और इससे लोगों के रोजगार पर संकट पैदा हो गया है. यही नहीं बेरोजगारी बढ़ने और कामगारों द्वारा खर्च नहीं करने के कारण संगठित क्षेत्र पर भी असर पड़ा है.
अमीर लोगों ने भी खरीदारी कम की है और इससे मांग में कमी आयी है. इसका मतलब है कि उत्पादन में कमी आ रही है और बड़े उद्योगों का मुनाफा कम हुआ है. इससे ये कंपनियां बैंकों को कर्ज चुकाने में देर करेंगी और इससे बैंकों का एनपीए बढ़ेगा. एनपीए बढ़ने से बैंकों के मुनाफे पर भी असर पड़ेगा. नोटबंदी का कृषि क्षेत्र पर भी असर पड़ेगा. कई किसान अपनी फसल को मंडी तक नहीं ले जा रहे हैं क्योंकि उन्हें नकदी भुगतान नहीं हो रहा है. इससे उनकी फसले जैसे सब्जी बर्बाद हो रही है. इससे किसान अगली फसल के लिए तैयारी नहीं कर पायेगा क्योंकि उसके पास पैसे नहीं हैं. इससे किसानों पर दबाव बढ़ेगा और वे अपना कर्ज नहीं चुका पायेंगे.
सबसे बड़ी बात है कि जिनके पास अवैध पैसा था उन्होंने दूसरे तरीके से इसका उपयोग कर लिया है. जनधन खातों में नोटबंदी के बाद बड़े पैमाने पर पैसा जमा किया गया और यह किसका पैसा है इसका पता लगाना काफी मुश्किल काम है. काले धन को लोगों ने रियल इस्टेट, सोना में खपा दिया. हवाला के जरिये भी काले धन को सफेद किया गया. इससे लगभग 2-3 लाख करोड़ का काला धन दूसरे माध्यमों से नकदी बन गया. इससे भी नकदी की समस्या गंभीर हुई. नकदी की कमी के कारण कामगारों को चेक या खाते में डाले गये पैसे भी निकालने में परेशानी हो रही है.
यही समस्या किसानों के साथ है. इससे जाहिर होता है कि गरीब परेशानी का सामना कर रहे है. इससे भविष्य में उनका बैंकिंग व्यवस्था से विश्वास उठ सकता है. नोटबंदी से सरकार काले धन पर रोक लगाने में नाकाम साबित हो रही है और इसलिए अब कैशलेस इकोनॉमी की बात की जा रही है. लेकिन इसके लिए बड़े पैमाने पर ढांचागत सुविधा चाहिए, जैसे पीओएस, इंटरनेट और एटीएम. इसके बिना कैशलेस होना संभव नहीं है.
चूंकि नोटबंदी की पर्याप्त तैयारी नहीं की गयी, लोगों को परेशानी हो रही है. साथ ही बैंकों को साइबर अपराध से भी निबटना होगा. नये नोटों की कमी अभी रहेगी क्योंकि नोटों की छपाई में समय लगता है. क्योंकि नोट के कागज और इंक बाहर से मंगाये जाते है. कोई भी देश इतनी मात्रा में नोट के कागज और इंक नहीं रखता है. नोट की मी के कारण नये नोटों की जमाखोरी हो रही है.
क्योंकि बैंकों के पास नये नोट लोग जमा कराने नहीं आ रहे हैं. दो हजार के नये नोटों से छोटी खरीदारी नहीं हो सकती है, इसलिए रिजर्व बैंक छोटों नोटों की छपाई भी कर रहा है. ऐसे में नोटों की कमी कुछ महीनों तक रहेगी. मांग में कमी आने से कंपनियों का उत्पादन और मुनाफा कम हुआ है और इससे बेरोजगारी बढ़ना तय है. आर्थिक गतिविधियों में कमी से कर संग्रह कम होगा. ऐसे में तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था में मंदी आने की संभावना है.
आतंकवादी सिर्फ करेंसी बदल देने की वजह से अपनी बुरी हरकतें बंद नहीं कर देंगे. इसलिए भारत सरकार द्वारा भ्रष्टाचार, काले धन और आतंकवाद के साये से निजात पाने के लिए उठाये गये नोटबंदी के कदम से कुछ हासिल नहीं हो पायेगा. भारत इस समय नकदी के खिलाफ सरकारों के दिमाग में चढ़ी सनक का सबसे चरम उदाहरण है. बहुत-से देश बड़ी रकम के नोटों को बंद करने की दिशा में बढ़ रहे हैं और वही तर्क दे रहे हैं, जो भारत सरकार ने दिये हैं. लेकिन, इसे समझने में कोई चूक नहीं होनी चाहिए कि इसका असली मकसद क्या है – आपकी निजता पर हमला करना और आपकी जिंदगी पर सरकार का ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण थोपना.
स्टीव फोर्ब, ‘फोर्ब्स’ के चेयरमैन और एडिटर-इन-चीफ
नोटबंदी प्रक्रिया से अर्थव्यवस्था में बदलाव लाने वाला प्रभाव होगा. हालांकि, लघु अवधि में इससे कुछ बाधाएं आयेंगी और जनता को असुविधा होगी. आत्मसंतोष की गुंजाइश काफी कम है और वित्तीय बाजारों में छिटपुट उतार-चढ़ाव से बचाव करना महत्वपूर्ण है.
भुगतान के डिजिटल तरीके का इस्तेमाल बढ़ने से दक्षता, जवाबदेही तथा पारदर्शिता बढ़ेगी. वस्तु एवं सेवा कर तथा दिवाला संहिता जैसे सुधारों से अर्थव्यवस्था का लचीलापन बढ़ेगा. घरेलू वृहद आर्थिक मोर्चे पर स्थिति स्थिर है और मुद्रास्फीति नीचे है. देश बैंकिंग में अंतरराष्ट्रीय मानदंडों को अपना रहा है. हालांकि, वह घरेलू प्रतिबद्धताओं की अनदेखी नहीं कर रहा है.
उर्जित पटेल, गवर्नर, आरबीआइ
इस फैसले से होने वाला फायदा कम हैं, जबकि तकलीफें ज्यादा. काले धन का बहुत छोटा हिस्सा नकद के रूप में रखा है. लगभग छह फीसदी, और निश्चित रूप से 10 फीसदी से कम. नोटबंदी उपलब्धि के लिहाज से बहुत छोटा कदम है और अर्थव्यवस्था को बाधित करने के लिहाज से काफी बड़ा.
काले धन को लेकर कुछ भी समझदारी से मानवता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए. यह निरंकुश इस अर्थ में है कि इससे मुद्रा में भरोसा टूट जाता है. रुपया प्रॉमिसरी नोट है और किसी भी सरकार के लिए उसे नकार देना मूल वादे से फिर जाने जैसा है. अगर अचानक कोई सरकार कह देती है कि वह अदायगी नहीं करेगी, तो यह निरंकुश है.
अमर्त्य सेन, अर्थशास्त्री