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सृजन नहीं, निर्माण का साल

प्रेम भारद्वाज संपादक, पाखी हम चीजों को सरलीकृत और सतह पर देखने के आदी हैं. समय को कालखंडों में देखना हमारी आदत में शुमार हो गया है. उजाले के बेढब होते जिस्म में गर्भस्थ अंधकार में साहित्य-समाज का सत्य तैर रहा है. वह समय सालों में नहीं बंटा है, फिर भी वर्ष 2016 के साहित्य […]

प्रेम भारद्वाज
संपादक, पाखी
हम चीजों को सरलीकृत और सतह पर देखने के आदी हैं. समय को कालखंडों में देखना हमारी आदत में शुमार हो गया है. उजाले के बेढब होते जिस्म में गर्भस्थ अंधकार में साहित्य-समाज का सत्य तैर रहा है. वह समय सालों में नहीं बंटा है, फिर भी वर्ष 2016 के साहित्य परिवेश से वाबस्ता होकर स्याह समय के अंतःसलिला के रूप में प्रवाहित सच को देखा- महसूसा जा सकता है.
आत्मश्लाघाओं, जल्दबाजी और बाजार के मौजूदा दौर में समय का जीवन का सच पुस्तकों में अभिव्यक्त, प्रभावपूर्ण और ईमानदार ढंग से व्यक्त नहीं हो रहा है. ईमानदार बात यह है कि 2016 में कोई भी चमत्कृत कर देनेवाली या कालजयी होने की क्षमता रखनेवाली रचनाएं नहीं आयी हैं. प्रकाशित पुस्तकें खासी तादाद में छप रही हैं- मगर जिस तरह से लिखने के लिए लिखना हो रहा है, उसकी तर्ज पर अपना प्रोफाइल मजबूत करने और यश लालस के लिए पुस्तकों के प्रकाशन में उछाल आया है. यह वह दौर है जब सृजन कम, निर्माण ज्यादा हो रहा है.
अगर हम साल की पुस्तकों का अवलोकन करने के साथ-साथ उनके भीतर सामग्री के निचले सतह पर पहुंचें, तो निष्कर्ष के तौर पर यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि विचार से अनुभव को पैदा किया जा रहा है, जबकि होना यह चाहिए कि जीवनानुभवों से विचार को पैदा किया जाता. दूसरी अहम बात यह है कि इस साल विषय पर बहुत से उपन्यास लिखे गए हैं.
मसलन भोपाल गैस त्रासदी पर अंजली देश पांडे का ‘महाभियोग’, किन्नरों पर चित्रा मुद्दगल का ‘ नालासोपारा पोस्ट बॉक्स नंबर 203’, 26/11 की आतंकी घटना पर प्रियदर्शन का ‘जिंदगी लाइव’, शास्त्रीय संगीत को केंद्र में रख कर संतोष चौबे का ‘जलतरंग’, मुस्लिम कुरीतियों पर भगवानदास मोरवाल का ‘हलाला’ और जयश्री राय का ‘दर्दजा’ मनोविज्ञान आधारित स्किजोफ्रेनिया बीमारी पर मनीषा कुलश्रेष्ठ का ‘स्वप्न पाश’ और पर्यावरण पर रमेश दबे का ‘हरा आकाश’. बैाद्धिकता की विद्रूप दुनिया पर पुरुषोत्तम अग्रवाल का ‘नाकोहस’. इस सूची को और लंबा किया जा सकता है. मगर लब्बोलुआब यह कि विषय को आधार बना कर प्रोजेक्ट की तरह उपन्यास लिखना इस विधा के साथ न्याय करना नहीं होगा. रसूल हमजावोत ने कहा था- विषय अहम नहीं है, आंख चाहिए. यहां आंख का आशय जीवननुभावों से भी है. हमें याद है अमृत लाल नागर ने भी विषय पर उपन्यास लिखे, मगर वह उन लोगों के बीच जाकर रहे, तब उपन्यास लिखा. चित्रा मुद्दगल के उपन्यास ‘नालासोपारा’ में मार्मिकता बेशक है, मगर किन्नरों के जीवन की जटिलताएं, सूक्ष्मता और जमाने में उनकी उभरी मौजूदगी उस रूप में नहीं उभरी है, जिसकी ‘आंवा’ को पढ़ने के बाद उनसे अपेक्षा थी. साल में आये उपन्यासों में यह बेशक बेहतर है, मगर खुद लेखिका अपनी पुरानी रचना से आगे की लकीर नहीं खींच पायी हैं.
मनीषा कुलश्रेष्ठ का ‘स्वप्न पाश’ बेशक एक नया विषय उठाता जा रहा है- लेकिन उसका निर्वाह ठीक ढंग से नहीं हो पाया है. उपन्यास में ऐसे कई प्रसंग हैं, जिससे लेखिका ही पुरानी छवियों का पीछा करती हुई दिखती हैं. मनोविज्ञान विषय पर इलाचंद जोशी, जैनेंद्र कुमार से लेकर बिहार के द्वारका प्रसाद मिश्र, रिपुदमन सिंह ने कई उपन्यास रच डाले हैं. इसकी बनिस्बत भगवानदास मोरवाल का ‘हलाला’ ज्यादा मौजू है और बेहतर है. उसकी नायिका नजराना मुसलिम समाज की एक बोल्ड चरित्र के रूप में सामने आती है.
कहानी-संग्रहों पर नजर डालें, तो अवधेश प्रीत की ‘चांद के पास चाभी’ को छोड़ कर कोई भी संग्रह संग्रहनीय नहीं मालूम होता है. किसी भी पीढ़ी से साजिशन अलग कर दिये गये अवधेश प्रीत की कहानियों का पाठक हमेशा ही इंतजार करता है, क्योंकि उनमें कुछ खास होता है. उनके हर संग्रह ने कहानी की परंपरा को मजबूत किया है. पाठकों को संतोष मिला है.
राजनीति, संवेदना और सरोेकार के रसायन से तैयार जब कोई कहानी बनती है, तो वह अवधेश प्रीत की सी रची कहानी होती है. फिलहाल कहानी की कई पीढ़ियां रचनारत हैं, मगर सबसे पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी दोनों ही इस साल नदारत रहे. युवा बिग्रेड में से किसी का कहानी संग्रह नहीं आना हैरानी से ज्यादा चिंताजनक है- यह ठहराव रचनात्मकता के सूखने का तो नहीं. सुंदर चंद ठाकुर की ‘ डिंपल वाली प्रेमिका’ और हरिभटनागर के ‘आंख का नाम रोटी’ जरूर उल्लेखनीय संग्रह हैं.
कहानी की सी ही दशा कविता की है और वह भी तब जब थोक भाव से कविताएं लिखी और छापी जा रही हैं. इस साल कविता के सौ से ज्यादा संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिसमें 80 प्रतिशत फेसबुक दुनिया से आए हुए कवि हैं. बुरी कविता ने अच्छी कविता को ढक लिया है. जब हर उच्छवास को कविता मान लिया जाए, तो वहीं परिदृश्य बनता है, जो अभी है.
इन महा परिदृश्य में अशोक वाजपेयी का ‘इस नक्षत्रहीन समय में’, प्रेम रंजन अनिमेष का ‘अंधेरे में अंतराक्षरी’, यश मालवीय का ‘समय का लकड़हारा’ चेतन कश्यप का ‘एक पीली नदी हरे- हरे पाटों के बीच बहती’, आभा दुबे का ‘हथेलियों पर हस्ताक्षर’ अपने कथ्य और कहन के कारण जेहन में टिके हुए रह जाते हैं.
साहित्य की विधाओं में सबसे दयनीय स्थिति आलोचना की है. यह हालात समीक्षा को ही आलोचना मान लेने के कारण हुई है. किसी रचनाकार को केंद्र में रखकर आलोचना पुस्तक लिखना इतिहास की बात हो गयी है. इस साल मैनेजर पांडे की ‘आलोचना और समाज’, ‘दूसरी परंपरा का शुक्ल पक्ष’, नंद किशोर नवल की ‘कवि अज्ञेय’ एवं ‘नागार्जुन और उनकी कविता’ श्याम कश्यप की ‘भीष्म साहनी’, अशोक वाजपेयी की ‘कविता के तीन दरवाजे’, हेमंत कुकरेती का ‘कवि परंपरा की पड़ताल’ आदि मिल कर भी आलोचना का मजबूत परिदृश्य नहीं बनाती.
गैर साहित्यक विधाओं में काफी परिश्रम के साथ लिखा गया यतींद्र मिश्र का ‘लता सुर गाथा’ और रविकांत का ‘मीडिया की भाषा लीला’ प्रेम कुमार का ‘बातों मुलाकातों में’ सोलेमन नार्थअप ‘दासताके बारह बरस’, दिलीप मंडल का ‘चौथा खंभा’ और नचिकेता की ‘प्रेम देह की प्रार्थना है’ विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं.
इस साल की मायूसी के बावजूद अगले साल 2017 में इसे सबसे ज्यादा उम्मीद युवा पीढ़ी ही से है कि वो अपना सर्वश्रेष्ठ देगा, जो अभी तक नहीं आया है. लंबे समय से मौन रहे उदय प्रकाश से नयी लंबी कहानी या उनके बहुप्रतीक्षित उपन्यास का इंतजार है. पटना के अशोक राजपथ पर आधारित अवधेश प्रीत के उपन्यास का भी इंतजार है. ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ जैसी मजबूत उपन्यास देनेवाली अल्पना मिश्र के नये उपन्यास की प्रतीक्षा है, जिसका अंक ‘पल-प्रतिपल’ में प्रकाशित हुआ है.
अब यह बात जोर पकड़ने लगी है कि जिस तरह कथा, कविता, आलोचना पाठकों को मायूस कर रही है, उसमें नया आनेवाला समय नाॅन फिक्शन का है. जिसकी वकालत वीएस नायपॉल हमेशा ही करते हैं. अंत में यही कि बच-बचा कर चलने के इस दौर में बड़ा लिखने के लिए जोखिम उठाना होगा, रक्त को निचोड़ कर स्याही बनाना होगा. ऐसा सुविधाभोगी और हड़बड़ी के इस इंस्टेट दौर में संभव नहीं.

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