टिकाऊ विकास के चलते हो रही टिकाऊ पर्यावरण की अनदेखी
वैश्विक स्तर पर पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और जल-संकट के नजरिये से देखें, तो साल 2016 में बहुत ही महत्वपूर्ण दो घटनाएं घटी हैं. पहली घटना जलवायु परिवर्तन को लेकर है, और दूसरी घटना टिकाऊ विकास को लेकर है. पर्यावरण और विकास के बीच का संबंध क्या है, क्योंकि आजकल टिकाऊ विकास और चक्रीय विकास […]
वैश्विक स्तर पर पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और जल-संकट के नजरिये से देखें, तो साल 2016 में बहुत ही महत्वपूर्ण दो घटनाएं घटी हैं. पहली घटना जलवायु परिवर्तन को लेकर है, और दूसरी घटना टिकाऊ विकास को लेकर है. पर्यावरण और विकास के बीच का संबंध क्या है, क्योंकि आजकल टिकाऊ विकास और चक्रीय विकास की बातें तो हो रही हैं, लेकिन इसमें कहीं पर्यावरण को लेकर कोई चिंता नहीं है. ऐसा लगता है कि पर्यावरण और विकास के बीच के अंतर्विरोध या खाई को पाट दिया गया है. हमारे नीति-निर्धारक ऐसी बातें करते हैं कि पर्यावरण और विकास के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं है. बीते साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जहां-जहां भी सभाएं हुईं, वहां-वहां इस घटना का जिक्र होता रहा. इन सभाओं में विशेष तौर पर सिर्फ शहरों की बात होती है, क्योंकि शहर ही अब विकास का सूचक बन गया है. हमारे नीति-निर्धारक शहर को विकास का इंजन मानने लगे हैं, जिसके तहत यह अवधारणा बनी है कि शहर का विकास पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ विकास हो सकता है. इस पूरी घटना के जरिये हमारी आंखों पर एक परदा डालने की कोशिश चल रही है, क्योंकि लोग टिकाऊ विकास का अर्थ टिकाऊ पर्यावरण से मानते हैं, जिसकी परिधि में विकास होना है. लेकिन, असल बात यह है कि ये लोग पर्यावरण का शोषण और दोहन करके ही विकास को टिकाऊ बनाना चाहते हैं. यह शब्दों का मायाजाल है, जिसमें हमें फंसा दिया गया है.
पर्यावरण एक्ट में संशोधन
टिकाऊ पर्यावरण को लेकर भारत का जो पुराना पर्यावरण एक्ट था, उसमें एक बात बहुत महत्वपूर्ण थी कि फैक्ट्री खोलने, उद्योग लगाने, बांध बनाने, सड़कें बनाने या पुल बनाने में वहां की स्थानीय जनता की सहमति है कि नहीं, उनका विस्थापन नहीं होना चाहिए. यह भी था कि पेड़ ज्यादा न काटे जायें और भूमि का ज्यादा दोहन न हो. लेकिन, जब से इस एक्ट को संशोधित कर दिया गया है यह कह कर कि पर्यावरण अब विकास में बाधक नहीं है, तब से भारत में पर्यावरण की हालत खराब होती गयी है. टिकाऊ विकास में पर्यावरण बाधा ही न बन पाये, इसीलिए सरकार ने एक्ट में बदलाव कर दिया. यही वजह है कि देशभर में तमाम प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन हो रहा है और हमारा पर्यावरण बिगड़ रहा है, जिससे प्रदूषण और जल-संकट की स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं.
दो अंतरराष्ट्रीय बैठकें
साल 2016 में जलवायु परिवर्तन को लेकर दो बार (एक- अप्रैल में पेरिस में और दूसरा- नवंबर में मोरक्को में) अंतरराष्ट्रीय स्तर की बैठकें हुईं, जिसमें ये बातें सामने आयीं कि जलवायु परिवर्तन को किस तरह रोका जाये. अरसे से कोशिश यह चल रही है कि पृथ्वी का औसत तापमान को दो डिग्री से ज्यादा बढ़ने नहीं दिया जाये. मसलन, तय होता रहा है कि ऊर्जा के लिए कोयला जलाना कम करके सौर्य ऊर्जा या पवन ऊर्जा से बिजली पैदा की जाये. भारत ने भी ऐसी शर्तें मान ली हैं कि हम कार्बन उत्सर्जन को कम करेंगे. लेकिन, इसके खतरे भी हैं. जल विद्युत के लिए पहाड़ों में बांध बनने की गति बढ़ जायेगी, क्योंकि माना जाता है कि इससे कार्बन डाइऑक्साइड पैदा नहीं होता और इफरात बिजली मिल सकती है. हिमालय देखने में तो बड़ा ही विशाल है, लेकिन वह भुरभुरा है. अगर हम पहाड़ों में सुरंग बनाते हैं, बांध बनाते हैं, तो इससे पूरी पर्वतमाला को खतरा है और सारे पर्वतीय प्रदेश इस खतरे को भुगतेंगे.
रेडियोधर्मी मल की अनदेखी
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि परमाणु बिजली पैदा करने के लिए भारत कई जगहों पर न्यूक्लियर ताप गृह बनाने की बात कर रहा है. भारत में इसकी तकनीक के लिए फ्रांस से मदद ली जा रही है. मजे की बात यह है कि जापान, जर्मन और फ्रांस जैसे देश, जिन्होंने पहले खूब सारे न्यूक्लियर पावर प्लांट बनाये थे, अब वे न्यूक्लियर पावर प्लांट बंद कर रहे हैं. जर्मनी ने तो तकरीबन सब बंद भी कर दिये हैं और जापान बंद करता जा रहा है. वहीं फ्रांस अपने यहां परमाणु बिजली पैदा करने के बजाय इसकी तकनीक दूसरे देशों को निर्यात कर रहा है. इसी के चलते भारत-फ्रांस के बीच समझौता हुआ है कि भारत में परमाणु बिजली के लिए न्यूक्लियर ताप गृह बनाये जायेंगे. यह कहा जाता है कि परमाणु बिजली के उत्पादन से कार्बन डाइआक्साइड उत्पन्न नहीं होता है और इससे भारत में जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद मिलेगी. लेकिन, इस बात की अनदेखी की जा रही है कि न्यूक्लियर प्लांट में से निकलनेवाला मल (रेडियो एक्टिव पदार्थ) कम-से-कम 40 हजार वर्ष तक रेडियोधर्मी रहेगा. इस रेडियोधर्मी मल के भयानक पर्यावरणीय खतरे हैं. सवाल यह है कि न्यूक्लियर प्लांट से निकलनेवाले इस रेडियोधर्मी मल को रखेंगे कहां? इसके खतरों से बचने के लिए हमारी सरकार के पास कोई योजना नहीं है, सिवाय इसके कि हमें तात्कालिक रूप से ऊर्जा मिल जाये और वह टिकाऊ विकास की बात कर सके. साल 2016 की इन दोनों वैश्विक घटनाओं का परिणाम हमें 2017 से ही भुगतना पड़ेगा, क्योंकि 2015 में जो प्रोजेक्ट पास नहीं हो पाते थे, वे 2016 में सब पास हो गये और बाकी 2017 में भी पास हो जायेंगे. इसका अर्थ यह है कि पर्यावरण के ऊपर पड़नेवाला असर 2017 से शुरू हो जायेगा और अगले 20-30 साल तक इसका असर देखने को मिलता रहेगा.
जल-संकट के आसार
हमारी सारी पहाड़ी नदियां क्रम से बंधी जा रही हैं. पहले नदियों पर बड़े बांध बनते थे, लेकिन अब पहाड़ों में 12-15 किमी तक सुरंगें बनायी जा रही हैं. इन सुरंगों के जरिये पानी को जब 80-90 मीटर नीचे गिराते हैं, तो इससे बिजली पैदा होती है. तर्क यह देते हैं कि बिना बांध बनाये ही हमने बिजली पैदा कर दी और डूब क्षेत्रों का नुकसान भी नहीं हुआ. लेकिन, सबसे बड़ा नुकसान तो यह हुआ कि जो नदी पहाड़ों में 15 किमी की सुरंग में गुजरती है, वह निचले स्तर पर सूख जाती है. जहां उस पानी को गिराते हैं, उसके ठीक नीचे एक और सुरंग खोदते हैं, ताकि पानी वहां चला जाये. अलकनंदा, भागीरथी, सतलुज आदि पहाड़ी नदियों को अगर इस तरह सुरंगों में डाला जायेगा, तो इससे पानी नष्ट नहीं होगा, लेकिन नदियां सूख जायेंगी और नदी के आसपास की जिंदगियों के लिए जल-संकट पैदा हो जायेगा. नदियों की अपनी पारंपरिक गति और दिशा को इस तरह प्रभावित किया जायेगा, तो जाहिर है कि इससे जल-संकट की स्थिति बढ़ती ही जायेगी.
2017 में तीन काम करने होंगे
वैश्विक स्तर पर पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और जल-संकट, इन तमाम खतरों से बचने के लिए हमें तीन मुख्य बातों पर ध्यान होगा. पहली बात यह कि हमें विश्वभर में उतना ही कार्बन डाइआॅक्साइड उत्पन्न करना चाहिए, जिससे पृथ्वी गरम न हो. हमें चाहिए कि विश्वभर में प्रतिव्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की सीमा तय करें, जो ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में सहायक हो. एक पैमाने के मुताबिक, अगर एक व्यक्ति एक साल में दो टन कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करता है, तो वह पृथ्वी को बचा रहा है. लेकिन, अगर इससे ज्यादा पैदा करता है, तो पृथ्वी गरम होगी.
मेरे शोध के मुताबिक, आज जो व्यक्ति 15 हजार रुपये कमा रहा है, वही दो टन की सीमा-रेखा के नीचे है. बाकी जो 15 हजार से ज्यादा कमाता है, वह दो टन से ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करने के लिए जिम्मेवार है. बेहतर पर्यावरण के लिए आदर्श व्यक्ति वह है, जो 15 हजार रुपये माहवार कमाता है. उससे ऊपर कमानेवाले सुविधाभोगी हैं, जो तमाम प्रदूषणों के उत्पन्न होने में भागीदार होते हैं. यही टिकाऊ विकास वाले लोग हैं, जो शहरों का विकास का इंजन मानते हैं.
दूसरी बात, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबके लिए एक फैसले लेने की परिपाटी बंद होनी चाहिए. जलवायु परिवर्तन को लेकर लिये जानेवाले ऐसे फैसलों का विकेंद्रीकरण करना होगा. मसलन, लोग अपने समाज और अपने परिवेश को समझते हुए स्थानीय स्तर पर यह फैसला लें कि उन्हें कैसे जीना है, ताकि पर्यावरण को कोई नुकसान न हो. यह कदम बहुत महत्वपूर्ण है कि हम अपने पानी, मिट्टी, हवा को कैसे बचा के रखें.
तीसरी और आखिरी विशेष बात यह है कि पर्यावरण को लेकर जो भी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होते हैं, वे सब अमीर लोगों के उत्सव मनाने के सम्मेलन होते हैं. ये लाेग उत्सव मनाते हैं और तय करते हैं कि दुनिया कैसे चलेगी. यह बहुत ही गलत बात है. पेरिस या वाशिंगटन में बैठ कर यह तय नहीं किया जा सकता कि भारत के बिहार के किसी गांव का स्थानीय पर्यावरण कैसे बचाया जाना चाहिए. दुनिया को इन तीन मुख्य बातों का संकल्प नये साल में लेना चाहिए. हालांकि, मैं इसकी उम्मीद नहीं कर सकता.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
दुनू रॉय
निदेशक, हजार्ड सेंटर