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वर्ष 2017 में नयी विश्व व्यवस्था

विश्व व्यवस्था उथल-पुथल के दौर में है, तो अर्थव्यवस्था मंदी से निकलने के लिए जूझ रही है. शक्ति और प्रभाव का अभूतपूर्व तरीके से विकेंद्रीकरण हो रहा है. इसमें तकनीकें सबसे बड़ी कारक बन रही हैं. मसलन, इ-कॉमर्स की बढ़ती साख के बीच साइबर युद्ध की प्रबल होती संभावनाएं मानव जाति को नये सिरे से […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 7, 2017 6:25 AM

विश्व व्यवस्था उथल-पुथल के दौर में है, तो अर्थव्यवस्था मंदी से निकलने के लिए जूझ रही है. शक्ति और प्रभाव का अभूतपूर्व तरीके से विकेंद्रीकरण हो रहा है. इसमें तकनीकें सबसे बड़ी कारक बन रही हैं. मसलन, इ-कॉमर्स की बढ़ती साख के बीच साइबर युद्ध की प्रबल होती संभावनाएं मानव जाति को नये सिरे से सोचने की चुनौती दे रहे हैं. बीते वर्ष हुए ज्यादातर जनमत ने जनसंयम को अलग तरीके से परिभाषित िकया है. अगले कुछ महीनों में जर्मनी, फ्रांस और इटली में जनता के फैसले से सत्ता परिवर्तन नयी विश्व राजनीति के लिए नये संकेतक के रूप में उभरेगा. प्रस्तुत है वर्ष 2017 में दुनिया के सामने बड़ी चुनौतियां शृंखला की अंतिम कड़ी.

रॉबर्ट जे सैमुअलसन

वरिष्ठ टिप्पणीकार

वर्ष 2017 का स्वरूप गढ़ने में एक सवाल बार-बार सामने आयेगा कि क्या हम अमेरिकी आर्थिक और सैनिक ताकत के प्रभुत्व वाले द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का क्रमिक पतन के गवाह बन रहे हैं. वर्ष 1991 में सोवियत संघ के ढहने के बाद अमेरिका को एकमात्र वास्तविक महाशक्ति कहने की प्रवृत्ति फैशन बन गयी थी- अमेरिकी प्रभुत्व- पैक्स अमेरिकाना- शांति और समृद्धि को बढ़ावा देगा, वैश्वीकरण और व्यापार देशों को एक सूत्र में पिरो देंगे, अमेरिकी आर्थिक और राजनीतिक मॉडल, जिसमें बाजार और सरकार की देख-रेख मिली-जुली होती है, को दुनियाभर में अपनाया जायेगा, तथा जीवन-स्तर में बेहतरी से लोकतांत्रिक विचारों और संस्थाओं को प्रोत्साहन मिलेगा.

परमाणु हथियारों का इस्तेमाल हुआ तो होगा इतिहास का अंत!

जहां तक उस दौर में सैन्य शक्ति की बात है, दुनिया का कोई भी देश अमेरिका को चुनौती नहीं दे सकता था. वर्ष 1990-91 का खाड़ी युद्ध इसे साबित करता है. हां, तब भयावह परमाणु हथियार भी थे, लेकिन वे सुरक्षित किनारे रख दिये गये थे. ऐसे हथियार गिने-चुने देशों के पास थे, और जिन दो देशों- अमेरिका और रूस- के पास इनका जखीरा था, उन्होंने यह आपसी समझ बना ली थी कि इनका इस्तेमाल करने से दोनों को ही हार का सामना करना पड़ेगा. उस दौर में वह स्थिति बनने का आधार बन चुका था, जिसे एक टिप्प्णीकार ने ‘इतिहास का अंत’ कहा था.

वैश्वीकरण और व्यापार पर साख का संकट!

लेकिन ऐसा नहीं होना था. भरोसा देनेवाला यह विचार वास्तविक दुनिया को अब अभिव्यक्त नहीं करता है, भले ही कभी पहले उसने ऐसा किया हो. सभी मोरचों पर वास्तविक भविष्य काल्पनिक भविष्य को गलत साबित कर रहा है. पूरे विश्व में अर्थव्यवस्थाओं की गति मंद पड़ गयी है. लगभग सभी बड़े देशों- अमेरिका, चीन, जर्मनी आदि- में वृद्धि पहले की तुलना में कम हो गयी है. आश्चर्य की बात नहीं है कि अधिक समृद्धि और लोकतांत्रिक राजनीति के जुड़े होने का सिद्धांत वास्तविकता का रूप नहीं ले सका.

लोकतांत्रिक मोहभंग आर्थिक निराशा के समानांतर चल रहा है. विकसित समाजों में औद्योगिक कामगारों की घटती कमाई और कम होते रोजगार के कारण वैश्वीकरण और व्यापार साख के संकट से गुजर रहे हैं. आबादी की उम्र बढ़ने के कारण इन देशों की सरकारें बड़े दबाव में हैं. उन्हें खर्चीले कल्याणकारी लाभ देने में परेशानी हो रही है. जनमत लोकतांत्रिक आदर्शों को मजबूत करने की जगह आर्थिक पॉपुलिज्म और राष्ट्रवाद की ओर रुख कर रहा है, जिसका नतीजा ब्रेक्जिट और डोनाल्ड ट्रंप के रूप में हमारे सामने है.

साम्यवाद की खत्म होती साख!

अकेले महाशक्ति के बचे होने की समझ भी बुरी तरह से असफल हुई है. ताकत का मतलब होता है- आप जो चाहें, वह पा लें या ले लें. इस आधार पर चीन और रूस महत्वपूर्ण ताकत साबित होते हैं. वास्तव में, ‘महाशक्ति’ की अवधारणा ही भ्रामक या अप्रासंगिक हो सकती है. अमेरिका सिर्फ अपनी सैनिक ताकत के आधार पर अपनी चाहतों को पूरा नहीं कर सकता है.

और, आखिरी बात यह कि परमाणु हथियारों पर बनी सर्वसम्मति भी बिखर रही है. उत्तर कोरिया के पास आण्विक हथियार हैं, ईरान भी उन्हें किसी दिन प्राप्त कर लेगा. जितने अधिक देशों के पास परमाणु हथियार होंगे, उनमें से किसी एक के विनाशकारी गलती करने की संभावना भी उतनी ही अधिक होगी.

दूसरे महायुद्ध के बाद, अमेरिका एक वैश्विक रणनीति के साथ आगे बढ़ रहा था. वह अपने मित्र देशों को सैन्य संरक्षण देता था और उसे उम्मीद थी कि शांति से समृद्धि, स्थिरता और लोकतांत्रिक समाजों को बढ़ावा मिलेगा, तथा साम्यवाद की मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक आकर्षण को खारिज कर दिया जायेगा. कई झटकों के बावजूद यह रणनीति आम तौर पर सफल भी रही थी. यूरोप और जापान का नवनिर्माण हुआ. सोवियत संघ असफल रहा और साम्यवाद की साख खत्म हो गयी.

नयी तकनीकों से शक्ति और प्रभाव का विकेंद्रीकरण

इसी समझ को अमेरिका ने शीत युद्ध के बाद की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर लागू करने की कोशिश की. जिस बात को हमने नजरअंदाज किया, वह यह थी कि इस पर अन्य देशों की क्या प्रतिक्रिया होगी और हमने इतिहास की जटिलता का संज्ञान भी नहीं लिया. मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कई कारणों से उथल-पुथल की स्थिति में है. चीन और रूस के साथ कई देश अमेरिका की नेतृत्वकारी भूमिका का प्रतिकार करते हैं. अनेक अमेरिकी भी इससे थक चुके हैं. नयी तकनीकें (मुख्य रूप से इ-कॉमर्स, साइबर युद्ध) शक्ति और प्रभाव को उत्तरोत्तर विकेंद्रित करते जा रहे हैं.

अमेरिकी ताकत के पतन में उसके ही नेताओं का योगदान!

इस प्रकरण में दिलचस्प तथ्य यह है कि अमेरिकी नेताओं ने भी अमेरिकी ताकत के पतन में योगदान दिया है. सैनिक ताकत को लेकर राष्ट्रपति बराक ओबामा की नापसंदगी का इस हद तक असर हुआ है कि अमेरिका के सहयोगी और विरोधी उसकी युद्ध क्षमता को लेकर आश्वस्त नहीं हैं. सीरिया के मामले में इसे देखा जा सकता है. इसके परिणाम भी हैं, जैसा कि रिचर्ड कोहेन ने लिखा हैः ‘द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के बाद से अमेरिकी नेतृत्व दुनिया में शांति बनाये रखने में आवश्यक कारक रहा है. हम इसे पसंद करें या नहीं करें, हम दुनिया के चौकीदार थे. इस भूमिका में कोई दूसरा सिपाही नहीं था. अब यह नेतृत्व खत्म हो गया है. अब ऐसा ही शांति के साथ होता जायेगा.’

व्यापारिक युद्ध की ओर दुनिया!

अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को कमजोर करने के संदर्भ में अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप के अपने विचार हैं. उनका चयन किया गया क्षेत्र व्यापार है. वे चीन और मेक्सिको से आयात पर अधिक शुल्क लगाने की धमकी दे रहे हैं. अगर इस कदम से व्यापारिक युद्ध होता है, तो इसके बुरे परिणामों से अमेरिकी कामगारों और कंपनियों को जूझना पड़ सकता है. आखिरी बार बड़े पैमाने पर संरक्षणवाद को आर्थिक स्थिरता के लिए 1930 के दशक में अपनाया गया था. उस प्रयोग के बहुत अच्छे नतीजे नहीं आये थे. यहां एक व्यापक मुद्दा भी है. हेनरी किसिंजर ने अपनी हालिया किताब ‘वर्ल्ड ऑडर’ में लिखा है कि दुनिया तब सबसे खतरनाक दौर से गुजर रही होती है, जब अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था एक तंत्र से दूसरे तंत्र की ओर उन्मुख होती है. उनका कहना है कि ऐसी स्थिति में ‘संयम खत्म होने लगता है, और बड़े-बड़े दावों और बेलगाम खिलाड़ियों के लिए मौके खुल जाते हैं. यह अराजकता तब तक बनी रहती है, जब तक कि नयी व्यवस्था पूरी तरह से स्थापित नहीं हो जाती है.’ यह एक गंभीर चेतावनी है.

(द वाशिंगटन पोस्ट से साभार)

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