अपनी विशिष्टता बनाये रखते हुए़, दूसरों की भावनाओं को आत्मसात करना है वास्तविक विकास

स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व और उनकी विद्वता आधुनिक भारतीय मेधा की अनुपम उपलब्धि है, जिसमें प्राचीन ज्ञान-परंपरा और भविष्य की दृष्टि का अद्भुत मेल है. यही कारण है कि वे हमारे लिए चिर आदरणीय और अनुकरणीय बने हुए हैं. उनके जन्म दिवस तथा राष्ट्रीय युवा दिवस के अवसर पर व्यक्तित्व, कृतित्व और संदेश के विश्लेषण […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 12, 2017 6:15 AM
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स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व और उनकी विद्वता आधुनिक भारतीय मेधा की अनुपम उपलब्धि है, जिसमें प्राचीन ज्ञान-परंपरा और भविष्य की दृष्टि का अद्भुत मेल है. यही कारण है कि वे हमारे लिए चिर आदरणीय और अनुकरणीय बने हुए हैं. उनके जन्म दिवस तथा राष्ट्रीय युवा दिवस के अवसर पर व्यक्तित्व, कृतित्व और संदेश के विश्लेषण और उनकी प्रासंगिकता पर आधारित आज की विशेष प्रस्तुति…

डॉ संजय कुमार

उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक अपने लक्ष्य पर न पहुंच जाओ. वेद के इस वाक्य को स्वामी विवेकानंद ने जितनी स्पष्टता, दृढ़ता और ओजस्विता के साथ कहा, पहले कभी नहीं कहा गया. अपनी साधुता, संपूर्ण मानव-जाति के आध्यात्मिक उत्थान तथा पूर्व और पश्चिम के बीच भ्रातृभाव के संदेश के लिए सुपरिचित स्वामी विवेकानंद को किसी भूमिका की जरूरत नहीं है. वे अलौकिक गुणों से परिपूर्ण एवं दैवी शक्ति से अनुप्राणित वक्ता थे. विवेकानंद एक अनन्य देशभक्त संन्यासी थे. उनका जीवन, विचार, आदर्श और मातृभूमि के प्रति उनका अदम्य प्रेम युवाओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत है.

विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था. बचपन में वे चंचल प्रकृति के विनोदप्रिय एवं साहसी बालक थे. प्रत्येक विषय में निजी अनुभव का आग्रह उनमें बचपन से ही था. उनकी बुद्धि प्रखर, मेधायुक्त, विचारशील एवं तार्किक थी. साथ ही उनमें आध्यात्मिकता, परदु:खकातरता और संन्यासी जीवन के प्रति अद्भुत आकर्षण था. वर्ष 1881 में नरेंद्र कोलकाता में ‘जनरल असेंबली इंस्टीट्यूशन’ के छात्र थे. एक दिन प्राध्यापक हेस्टी ने वर्ड्सवर्थ की कविता ‘द एक्सकर्शन’ के अध्यापन के दौरान समाधि का अर्थ समझाते हुए कहा- ‘जब एक शुद्ध मन किसी विषय विशेष पर एकाग्र होता है, तभी समाधि का, एक दिव्य आनंदपूर्ण मानसिक अवस्था का अनुभव संभव है. इस प्रकार के अनुभव आधुनिक युग में विरल हैं. मैंने केवल एक ही व्यक्ति को देखा है, जिसने इसे अनुभव किया है, वे हैं दक्षिणेश्वर के संत श्री रामकृृष्ण परमहंस. यदि तुम स्वयं वहां उन्हें देखो तो इसे समझ सकोगे.’

श्री रामकृष्ण से मुलाकात

नरेंद्रनाथ जब श्री रामकृष्ण के पास पहुंचे, तो उन्होंने अपने उग्र तार्किक मुद्रा में उनसे सवाल किया- क्या आपने ईश्वर को देखा है? श्री रामकृष्ण बोले, ‘हां नरेन, ठीक बिल्कुल वैसे ही जैसे तुझे देखता हूं, तुझसे बात करता हूं. किंतु मां केवल उसी को दिखती हैं, उसी से बात करती हैं, जिसका उनके प्रति सच्चा और गहरा अनुराग होता है. किंतु मोह में डूबे इस संसार में किसी को अपनी संकुचित परिधि के बाहर कुछ दिखाई नहीं पड़ता है. लोग विषय वासना में डूबे रहते हैं और धन के लिए तड़पते रहते हैं, पर ईश्वर दर्शन के लिए वैसा अनुराग, वैसी व्याकुलता और तड़प लोगों में जागती कहां है? बिना गहरे अनुराग, व्याकुलता और तड़प के मां के दर्शन असंभव है, नरेन.’

नरेंद्र ने पहली बार एक ऐसा व्यक्ति देखा, जो अध्यात्म की भाषा से अपरिचित, अपनी सहजशैली में, अत्यंत गूढ़ बातें करता है और मां के प्रति प्रेम और आस्था का सम्राट है. उनकी देह ही केवल मनुष्य की है, आचरण में तो उन्हें देवत्व प्राप्त है. रामकृष्ण ने धर्मग्रंथों का कभी अध्ययन नहीं किया था, किंतु धर्मग्रंथों की वे जीवंत प्रतिमूर्ति थे. रामकृृष्ण के बारे में विवेकानंद ने कहा था कि उन्होंने पूरे संसार में उनके जैसा दूसरा कोई व्यक्ति नहीं देखा. जब वे रामकृृष्ण के बारे में सोचते, तब उन्हें खुद के बारे में लगता कि वे अज्ञानी हैं, क्योंकि वे पुस्तकें पढ़ना चाहते हैं, जो रामकृृष्ण ने कभी पढ़ी ही नहीं.

वर्ष 1884 में पिता की मृत्यु के बाद उनके परिवार को संकटों का सामना करना पड़ा. गुरु के कहने पर उन्होंने दक्षिणेश्वर में मां काली से संकट से मुक्ति के लिए प्रार्थना करने की. हालांकि, उस समय उन्हें धन की जरूरत थी, लेकिन वे केवल भक्ति और ज्ञान की ही याचना कर पाये.

देखा भारत का समकालीन यथार्थ संसार

अगस्त, 1886 में गुरु श्री रामकृष्ण की महासमाधि के बाद नरेंद्र के कई गुुरुभाई उनके नेतृृत्व में वराह नगर के एक मकान में एकत्र हुए. यहां कठोर आध्यात्मिक साधना और तपस्यामय जीवन का सूत्रपात हुआ. इस दौरान एक साधु की तरह उन्होंने भारतवर्ष की यात्रा की. भारत की विशालता में स्वयं को विलीन कर देने की इच्छा से अपना परिचय गोपनीय रखने के लिए वे अलग-अलग नाम रखते रहे.

उन्होंने भूख-प्यास, हिंसक प्रकृति, असभ्य मनुष्यों, सभी को सहा था. इस अवधि में भारत का समकालीन यथार्थ संसार उन्होंने देखा और एक संन्यासी की एकांतवास की स्वाभाविक इच्छा के स्थान पर इस बात के पूर्वाभास ने उनके मन पर अधिकार कर लिया कि उन्हें एक महान भारत का निर्माण करना है.

जब वे कन्याकुमारी पहुंचे, तो समुद्र में तैर कर जलडमरूमध्य पार किया. उनकी यात्रा पूरी हो रही थी. पीछे मुड़ कर ऐसे देखा, जैसे पहाड़ की चोटी से देख रहे हों और मानों उन्होंने सारे भारतवर्ष को अपनी यात्रा के समस्त चिंतन को अपनी बाहों से समेट लिया हो. उस 23 वर्ष के युवक के जलते हृदय में अपने भावी लक्ष्य की एक धुंधली ज्योति टिमटिमा रही थी. उन्होंने अनुभव किया कि ‘यदि तुम ईश्वर को खोजना चाहते हो तो मनुष्य की सेवा करो.’ उन्होंने सदा के लिए अपना रास्ता चुन लिया. पर अभी तक ये मात्र प्रकाशित क्षण थे, भविष्य के कच्चे रेखाचित्र.

अमेरिका में सर्वधर्म सम्मेलन में हिस्सेदारी

सितंबर, 1893 में उन्होंने अमेरिका में होनेवाले सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने का निश्चय किया. 31 मई, 1893 को उनकी यात्रा प्रारंभ हुई. चीन, जापान और कनाडा होते हुए 30 जुलाई, 1893 को वे शिकागो पहुंचे. धुन के पक्के विवेकानंद को इस सम्मेलन में शामिल होने की शर्तों की जानकारी भी नहीं थी और वे अपने साथ कोई संबंधित प्रमाण पत्र भी नहीं ले गये थे, लिहाजा वहां उन्हें बड़ी दिक्कत हुई.

शिकागो पहुंचने के बाद जब उन्होंने सर्वधर्म सम्मेलन की तारीख पता की, तो पता चला कि यह सितंबर के प्रथम सप्ताह में होगा और प्रतिनिधियों के पंजीकरण की तारीख निकल चुकी है एवं बिना परिचय पत्र के उसमें भाग लेना संभव नहीं है. कहीं से कोई मदद नहीं मिलने पर उन्होंने मद्रास में रहनेवाले अपने एक मित्र को तार भेजा. उनकी जेब खाली थी. सम्मेलन के उद्घाटन तक उनका गुजारा चलना कठिन था. वे बोस्टन चले गये. अनजान होते हुए भी उन्होंने लोगों को आकर्षित किया. बोस्टन में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राइट ने सम्मेलन के अध्यक्ष को पत्र लिखा. उन्होंने शिकागो का टिकट कटा दिया और सम्मेलन की समिति को विवेकानंद के रहने की व्यवस्था करने के लिए लिखा. उनकी सारी कठिनाईयां दूर हो गयीं. विवेकानंद शिकागो लौट आये, लेकिन समिति का पता खो गया. हार माने बिना किसी तरह वे सम्मेलन स्थल तक पहुंच गये.

11 सितंबर, 1893 को सात हजार लोगों से खचाखच भरे हाॅल में धर्म महासभा प्रारंभ हुई. जब उनकी बारी आयी, तो वे मुश्किल से कह पाये- अमेरिकावासी भाइयों और बहनों. लोगों के आकर्षण के बीच वे धाराप्रवाह बोलते रहे. वे सचमुच पहले व्यक्ति थे, जिसने सम्मेलन की औपचारिकता से इतर जनता से उसकी भाषा में बात की. दूसरे दिन अखबारों ने उन्हें धर्म महासभा का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति घोषित कर दिया. एक सामान्य संन्यासी युगपुरुष बन गया.

उन्होंने कहा-मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है. हमलोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं. मैं हिंदू हूं. मैं अपने क्षुद्र कुएं में बैठा यही समझता हूूं कि मेरा कुंआ ही संपूर्ण संसार है.

ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएं में बैठा हुआ यही समझता है कि सारा संसार उसी के कुएं में है, और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएं में बैठा हुआ उसी को सारा बह्मांड मानता है. मनुष्य में अंतर्निहित दिव्यता और उसकी विकसित होने की अपार क्षमता के अतिरिक्त अन्य कोई सिद्धांत नहीं है. प्रत्येक को दूसरों की भावना आत्मसात करनी है और अपनी विशिष्टता को अक्षुण्ण रखते हुए अपने नियमों के अनुसार विकास करना है.

वर्ष 1893 के दिसंबर तक वे पश्चिमी देशों में रहे. 30 दिसंबर, 1896 को नेपल्स से विदा हुए और 20 फरवरी, 1897 को कलकत्ता पहुंचे. मई, 1897 में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की. जून, 1899 में विवेकानंद दोबारा विदेश यात्रा को रवाना हुए. अदन होते हुए 31 जुलाई को लंदन पहुंचे. लंदन में दो सप्ताह रह कर न्यूयार्क के लिए रवाना हो गये. फिर पेरिस, हंगरी, रोमानिया, सरबिया, बुलगारिया और एथेंस होते हुए काहिरा पहुंचे. दिसंबर, 1900 को वे बेलूर मठ वापस आ गये.

महाप्रयाण का पूर्व आभास

स्वामी विवेकानंद जब तक जीये, अनेक बीमारियों से जूझते रहे. किंतु अपनी इसी काया में वे प्रज्ज्वलित शक्तिशाली अग्नि छिपाये हुए थे. उनमें अदम्य उत्साह और अपूर्व तेजस्विता निरंतर कायम रही. उनका प्रत्येक विचार एक भावावेश था व प्रत्येक शब्द श्रद्धा और विश्वास से परिपूर्ण. उन्हें अपने महाप्रयाण का आभास हो गया था. 4 जुलाई, 1902 को वे अनंत शांति में लीन हो गये. बाहर से वे हृष्ट-पुष्ट और प्रफुल्लचित्त थे, लेकिन भीतर से उनका हृदय देशवासियों के दु:ख से भरा हुआ था और शरीर जर्जर हो चुका था. मधुमेह के प्रथम लक्षण, जिससे 40वें वर्ष में उनकी मृत्यु हुई, 17-18 वर्ष की उम्र में ही प्रकट हो गयी थी.

उन्होंने नष्वर शरीर त्याग दिया, लेकिन उनके वचन उनकी अनश्वरता की घोषणा करते हैं- संभव है मैं अपने इस शरीर को छोड़ने में ही भलाई देखूं तथा इसे एक जीर्ण वस्त्र के समान त्याग दूं, किंतु मैं अकर्मण्य नहीं होऊंगा. मैं सर्वत्र मनुष्यों को प्रेरित करता रहूंगा, जब तक की यह संसार यह बोध न कर ले कि वह ईश्वर से अभिन्न है.

(लेखक बीआइटी, रांची में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

युवा राष्ट्र और विवेकानंद

प्रेम प्रकाश

स्वतंत्र टिप्पणीकार

युवा और संत, यह साझा विलक्षण है. स्वामी विवेकानंद इसी विलक्षणता का नाम है. उन्होंने एक बार कहा था कि मैं जो देकर जा रहा हूं, वह एक हजार साल की खुराक है. लेकिन, जब आप उनके बारे में और उनके साहित्य का अध्ययन करते हैं, तो ऐसा लगता है कि यह खुराक सिर्फ एक हजार साल का नहीं, बल्कि कई सदियों का है.

महज 39 वर्ष 5 महीने और 24 दिन का छोटा सा जीवन. लेकिन इस छोटे से जीवनकाल में ही उन्होंने उन्होंने विश्व को वेदांत के मर्म से परिचित कराया. विवेकानंद ने राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना. युवाओं को रोज दौड़ने और फुटबाॅल खेलने की प्रेरणा देनेवाले इस आधुनिक युवा संत ने युवाओं का इस बात के लिए आह्वान किया था कि वे रूढ़िवादी जड़ताओं से निकल कर नये भारत के निर्माण का अगुआ बनें.

12 जनवरी विवेकानंद का जन्म दिवस है. इस प्रेरक दिन को 1985 से भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र ने 1985 को अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया था. उसी साल भारत सरकार ने विवेकानंद के जन्म दिवस को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी. राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में इस दिन के चुनाव को लेकर सरकार का विचार था कि विवेकानंद का दर्शन व उनका जीवन भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है.

मौजूदा दौर में युवा

आज जबकि भारत में करीब 60 करोड़ लोग 25 से 30 वर्ष के हैं और यह स्थिति वर्ष 2045 तक बनी रहनेवाली है, तो यह देखना दिलचस्प है कि देश की तरुणाई में क्या उतनी ही ऊर्जा और तेज है, जिसकी कामना स्वामी विवेकानंद ने की थी. निस्संदेह बीते दो-ढाई दशकों में भारतीय युवाओं ने सूचना तकनीक जैसे उद्यम के नये क्षेत्रों में बड़ी कामयाबी हासिल की है. पर इस कामयाबी से अलग एक दूसरी तसवीर भी है, जो खासी चिंताजनक है.

भारतीय सांख्यिकी विभाग द्बारा जारी आंकड़ों के अनुसार, देश में बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. देश में बेरोजगारों की संख्या 11.3 करोड़ से अधिक है. 15 से 60 वर्ष आयु के 74.8 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, जो काम करनेवाले लोगों की संख्या का 15 प्रतिशत है. वर्ष 2001 की जनगणना में जहां 23 प्रतिशत लोग बेरोजगार थे, वहीं 2011 की जनगणना में इनकी संख्या बढ़ कर 28 प्रतिशत हो गयी. बेरोजगारी युवाओं को लगातार हताशा के अंधेरे की तरफ ले जा रही है. नशाखोरी और अपराध की प्रवृत्ति युवाओं में इस कदर बढ़ी है कि पंजाब जैसे राज्य में हो रहे विधानसभा चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा यही है. देश में युवाओं की इस त्रासद स्थिति की पुष्टि वैश्विक युवा विकास सूचकांक-2016 से होती है, जिसमें भारत 133वें स्थान पर है. यह सूचकांक राष्ट्रमंडल सचिवालय रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक और राजनीतिक क्षेत्र में युवाओं के लिए अवसर की संभावना के आधार पर तैयार करता है.

युवाओं का आह्वान

स्वामी विवेकानंद ने युवाओं का आह्वान करते हुए कठोपनिषद का एक मंत्र कहा था- उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत. अर्थात उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक कि ध्येय की प्राप्ति न हो जाये. सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के बीच फंसी देश की तरुणाई के आगे आज सबसे बड़ा संकट आत्मबोध का है. लक्ष्य और सफलता को लेकर युवा आज अकसर तपाकीपन से काम लेते हैं.

उनके आगे लक्ष्य के नाम पर भौतिक कामनाएं भर हैं. यही कारण है कि वे सुचितित तरीके से न कोई निर्णय लेते हैं और न ही धैर्य के साथ जीवन में किसी बड़े लक्ष्य की तरफ बढ़ने का साहस दिखा पाते हैं. जीवन और सफलता को लेकर ऐसी सोच-समझ न सिर्फ भ्रामक है, बल्कि यह एक तरह की हिंसा भी है, खुद के प्रति और अपने देशकाल के प्रति.

इन स्थितियों से बाहर निकलने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है आत्मबोध, जिसके लिए स्वामी जी कहते हैं कि खुद को समझाएं, दूसरों को समझाएं. सोई हुई आत्मा को आवाज दें और देखें कि यह कैसे जागृत होती है. सोई हुई आत्मा के जागृत होने पर ताकत, उन्नति, अच्छाई, सब कुछ आ जायेगा. बोध की इसी सकारात्मकता को स्वामी विवेकानंद ने भारतीयों के गौरवबोध से भी जोड़ा और बताया कि हम अपने मार्ग और आदर्श से अगर डिगें नहीं, तो फिर भविष्य का सारा उजास हमारे लिए है.

सफलता का मंत्र और भ्रम

आज युवाओं को रातोंरात सफलता के मंत्र सिखानेवाले मोटिवेटर हर जगह अपनी दुकान सजाये मिल जायेंगे. सफलता के इस मंत्र के लिए कोई क्रैश कोर्स करवा रहा है, तो कोई इसके लिए इंस्टेंट फार्मूले को बेस्टसेलर बता कर किताब के रूप में बेच रहा है. व्यक्तित्व निर्माण और सफलता के ये सारे प्रस्ताव जितने आकर्षक हैं, उतने ही भ्रामक और खतरनाक भी. सफलता के लिए विवेकानंद बताते हैं कि इसके लिए जो तीन बातें जरूरी हैं, वे हैं शुद्धता, धैर्य और दृढ़ता. इसके आगे वह एक और दरकार पर जोर देते हैं. यह दरकार है प्रेम. वे कहते भी हैं कि मैं सिर्फ और सिर्फ प्रेम की शिक्षा देता हूं और मेरी सारी शिक्षा वेदों के उन महान सत्यों पर आधारित है, जो हमें समानता और आत्मा की सर्वत्रता का ज्ञान देती है.

कैसी हो शिक्षा

बात युवाओं की शिक्षा की करें, तो इसे आज जिस तरह केवल रोजगार और आय से जोड़ दिया गया है, वह सही नहीं है. इस बारे में विवेकानंद की स्पष्ट धारणा है कि शिक्षा ऐसी हो, जिससे चरित्र निर्माण हो, मानसिक शक्ति का विकास हो, ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं.

उनकी प्रसिद्ध उक्ति है, अगर आपको तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं पर भरोसा है, लेकिन खुद पर नहीं, तो आप को मुक्ति नहीं मिल सकती. खुद पर भरोसा रखें, अडिग रहें और मजबूत बनें. हमें इसकी ही जरूरत है. सरकार की युवानीति कैसी हो और वह किस तरह के कार्यक्रमों को हाथ में ले, इसके लिए वे कहते हैं कि यदि युवाओं को कोई उपयुक्त कार्य नहीं दिया गया, तो मानव संसाधनों का भारी राष्ट्रीय क्षय होगा.

औसत विद्यार्थी थे विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद महान दार्शनिक और वक्ता जरूर हुए, पर वे अपने छात्र जीवन में बहुत मेधावी नहीं थे. इस दिलचस्प तथ्य का खुलासा उन पर लिखी गयी एक नयी किताब में किया गया है. ‘द मॉडर्न मॉन्क : व्हाट विवेकानंद मीन्स टू अस टुडे’ के लेखक हिडल सेनगुप्ता कहते हैं कि विवेकानंद की आधुनिकता ही है, जो हमें आज भी आकर्षित करती है.

हम जिन भी संतों को जानते हैं, वे उन सबसे अलग हैं. न तो इतिहास उन्हें बांध पाया और न ही कोई कर्मकांड. वह अपने आसपास की हर चीज पर और खुद पर भी लगातार सवाल उठाते रहते थे. सेनगुप्ता के मुताबिक, जिस व्यक्ति की विद्वत्ता और अंगरेजी भाषा का कौशल शिकागो धर्म संसद में केवल अमेरिकियों को ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को अपना कायल बनाने के लिए काफी थे, उसे इस विषय में बहुत कम अंक मिले थे. वे लिखते हैं, उन्होंने विश्वविद्यालय की तीन परीक्षाएं दीं- एंट्रेंस एग्जाम, फर्स्ट आर्ट्स स्टैंडर्ड और बैचलर ऑफ आर्ट्स. एंट्रेस एग्जाम में अंगरेजी भाषा में उन्हें 47 प्रतिशत अंक मिले थे, एफएएस में 46 प्रतिशत और बीए में 56 प्रतिशत अंक.

गणित और संस्कृत जैसे विषयों में भी उनके अंक औसत ही रहे. लिहाजा, जो युवा स्कूल-कॉलेज या प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव में खुद को लगातार निराशा की तरफ धकेले जा रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि जीवन का लक्ष्य अगर बड़ा है, तो फिर उसे प्राप्त करने से हमें वे विफलताएं भी नहीं रोक सकतीं, जो जीवन की तात्कालिक स्थितियों में बहुत बड़ी लगती हैं. इस सबक की सबसे बड़ी मिसाल के रूप में हमारे सामने स्वामी विवेकानंद का जीवन है.

रूहानी आवाज व क्रांतिकारी विचार

कलकत्ता के शिमला पल्ली में 12 जनवरी, 1863 में एक संभ्रांत परिवार में जन्मे विवेकानंद का अध्यात्म के प्रति झुकाव बचपन से ही था और छात्र जीवन में उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी देशों की धर्म तथा दर्शन से जुड़ी पद्धतियों का गहराई से अध्ययन किया. स्वामी अदीश्वरानंद ने 1893 में शिकागो में हुई धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद के प्रेरक उद्बोधन के बारे में लिखा है कि उन्होंने अपने विचारों से अमेरिकी लोगों के दिल को छुआ. उन्होंने अपनी जादुई भाषण शैली, रूहानी आवाज और क्रांतिकारी विचारों से अमेरिका के आध्यात्मिक विकास पर गहरी छाप छोड़ी.

विवेकानंद ने अमेरिका और इंगलैंड जैसी महाशक्तियों को भारतीय अध्यात्म के प्रति प्रेरित किया. दिलचस्प है कि विवेकानंद जिस समय शिकागो गये थे, उस वक्त अमेरिका गृहयुद्ध जैसी स्थिति से जूझ रहा था और तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति ने धार्मिक मान्यताओं की जड़ों को हिला दिया था. ऐसे में अमेरिकी लोग एक ऐसे दर्शन की प्रतीक्षा में थे, जो उन्हें इस संकट से मुक्ति दिलाये. विवेकानंद ने अपने विचारों से उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए आशा की किरण दिखायी. विवेकानंद ने अपने जीवन के आखिरी दिन बेलूर स्थित रामकृष्ण मठ में बिताये.

लगातार यात्राओं से उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और व शारीरिक रूप से कमजोर होते गये. बताया जाता है कि उन्होंने अपने निर्वाण से पहले यह कह दिया था कि वह 40 वर्ष की उम्र तक जिंदा नहीं रह पायेंगे. उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई. इस महान आध्यात्मिक गुरु ने अपने विचारों से विश्व को प्रकाशित करने के बाद चार जुलाई, 1902 को दुनिया को अलविदा कह दिया.

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