Loading election data...

जीना सीख लिया, तो खुशी भी मिलेगी

यह भौतिक लालसाओं का दौर है जहां हर व्यक्ति ‘मोर एंड मोर’ का मंत्र जप रहा है, लेकिन बहुत कुछ पाकर भी बेचैन रहता है. दरअसल लालसायें कीमत वसूलती हैं, वे पूरी होकर व्यक्ति को भौतिक रूप से तो संपन्न बनाती जाती हैं लेकिन मन की अतृप्ति को उतना ही बढ़ाती भी हैं और आदमी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 21, 2017 7:23 AM
यह भौतिक लालसाओं का दौर है जहां हर व्यक्ति ‘मोर एंड मोर’ का मंत्र जप रहा है, लेकिन बहुत कुछ पाकर भी बेचैन रहता है. दरअसल लालसायें कीमत वसूलती हैं, वे पूरी होकर व्यक्ति को भौतिक रूप से तो संपन्न बनाती जाती हैं लेकिन मन की अतृप्ति को उतना ही बढ़ाती भी हैं और आदमी अंदर से खोखला सा होता चला जाता है. यह खोखलापन उसे अंतत: एक तनाव, अवसाद और निरर्थकता की ओर ले जाता है. मेरा एक युवा मित्र एक बड़ी विदेशी कंपनी में सीनियर मैनेजर है. वह साफ्टवेयर इंजीनियर है.
छह अंकों में अच्छा वेतन मिलता है, एक शानदार अपार्टमेंट में चार बीएचके फ्लैट खरीद कर जीवन की सारी सुविधाओं के साथ सपरिवार रहता है. एक दिन बातचीत में बोला कि अब मैं यह नौकरी छोड़ कर कोई छोटा सा काम शुरू करने की सोच रहा हूं, जिससे भले ही 40-50 हजार मासिक की आय हो, लेकिन सुकून से बच्चों के साथ रह सकूं. मैंने कहा-तुम अभी 40 साल के भी नहीं हुए और इतनी अच्छी नौकरी छोड़ कर यह क्या नासमझी की बात कर रहे हो. व्यवसाय करना आसान नहीं है. इस नौकरी की ही बदौलत तुमने एक सर्व सुविधा संपन्न गृहस्थी खड़ी कर ली, तुम्हारे बच्चे अच्छे महंगे स्कूल में पढ़ते हैं.
कहने लगा-अंदर से सब निचोड़ लिया इस नौकरी ने, पैसा-सुविधाएं तो खूब हो गयीं लेकिन न बच्चों के साथ बैठना-खाना हो पाता है और न जो जुटाया है उसका सुख भोग पाते हैं तो फिर काहे के लिए ये सब. कम मिले पर घर-परिवार के साथ शांति से सुख महसूस कर जी सकूं बस अब तो यही इच्छा है. अंदर से मैं बहुत थक गया हूं, खाली सा हो गया हूं. मेरे लिए यह वाकया चौंकाने वाला था कि एक ओर आदमी बहुत कुछ पाने की लालसा में दौड़ रहा है, दूसरी ओर वह अंदर से खालीपन महसूस कर रहा है तो आखिर हमने पाया क्या ? एक कवि ने इस दौर को बहुत सुंदर और सार्थक पंक्तियों में निरूपित किया है-ख्वाहिशों से भरी जिंदगी में/हम सिर्फ दौड़ रहे हैं/ रफ्तार धीमी करो मेरे दोस्त/ ताकि खुशी से जी सको/ और खूब जियो मेरे दोस्त. इन हालात से यह स्पष्ट है कि जीना और खुश रहना दो अलग बातें हैं पूरे जियेंगे तभी तो खुश रहेंगे. इसलिए जीना कैसे, यह जान लिया तो खुशी ही खुशी है. जिंदगी जीने की यह समझ शुरू में ही आ जाये तो मेरे मित्र की तरह जो असंख्य नौजवान बहुत कुछ पा लेने की लालसा में ही जीवन की सीढ़ियां चढ़ना शुरू करते हैं, जी तोड़ मेहनत करते हुए जिन अपनों के लिए वे बहुत कुछ पा लेना चाहते हैं उनका सान्निध्य भी वे महसूस नहीं कर पाते और कुछ सालों में ही उन्हें खालीपन-खोखलापन सताने लगता है वे इस विरोधाभासी समीकरण में उलझने से बच सकते हैं.
आमतौर पर आदमी को गलतफहमी रहती है कि सुख वस्तुओं में या साधनों में है. इसलिए वह इन्हीं को पाने के लिए दौड़ता है और उसका मन व जीवन धीरे-धीरे एक अराजकता का शिकार होता चला जाता है. एक बड़ी रोचक व प्रेरक घटना है-एक व्यक्ति को रबड़ी को खाने में बड़ा सुख मिलता था बिल्कुल परमानंद. वह रबड़ी खाने के लिए दीवाना रहता था. एक दिन जब वह हलवाई की दुकान पर बड़े आनंद के साथ रबड़ी खा रहा था, अचानक उसे किसी ने आकर बताया कि उसका बेटा छत से गिर कर बुरी तरह घायल हो गया है. लोग उसे अस्पताल ले गये हैं. उसने एक झटके में रबड़ी से भरा दोना फेंक दिया और बेतहाशा दौड़ पड़ा अस्पताल की ओर. तो जिस रबड़ी में उसे परम सुख मिलता है, वह उसने फेंक दी. यानी रबड़ी में सुख नहीं था, उसे सिर्फ भ्रम था कि रबड़ी खाने में सुख है. वह इसी भ्रम में जी रहा था. बेटे को गंभीर चोट लगने की सूचना से से वह भ्रम टूट गया. यानी सुख रबड़ी में नहीं, मन में है. मन को हम जहां-जहां आसक्त करते जाते हैं, वहां-वहां सुख महसूस करने लगते हैं. यह आसक्ति ही मन की बीमारी है जो व्यक्ति को एक से दूसरे, फिर तीसरे-चौथे बिंदु की ओर दौड़ाती रहती है. सुख की चाह में और हम अतृप्त ही रहते हैं क्योंकि चाह कभी पूरी नहीं होती और तब बहुत कुछ पाकर भी व्यक्ति निराशा, हताशा, तनाव व अवसाद से घिर जाता है. आज के दौर की यह नियति है.
हमारे गांवों में सदियों से एक उक्ति प्रचलित है ‘चाह गयी चिंता मिटी’ जब हमारे अनपढ़ पुरखे इस बात को समझ गये तो इतने पढ़-लिख कर भी हम जीवन के इस मर्म को क्यों नहीं समझ पाते ? चाह तो मन में बस होती है. इसलिए मन का संयम ही हमें इससे बचा सकता है. मन के संयम का अर्थ मुफलिसी या अभावों में जीना नहीं है. भारत का दर्शन सुखी-समृद्ध जीवन जीना सिखाता है लेकिन संयम के साथ. संयम का अर्थ है नियमन यानी जिंदगी को ‘रेगुलेट’ करना.
पर मन तो बुरा-बिगड़ैल है, वह यहां-वहां बेकाबू होकर दौड़ता है. जब युद्ध क्षेत्र में दोनों ओर की सेनाओं के बीच खड़ा अर्जुन अवसादग्रस्त होकर धनुष पटक देता है तब श्रीकृष्ण उसे गीता का उपदेश देते हुए समझाते हैं कि यह सब तेरे मन का भ्रम है कि तू अपनों को मारेगा. मन को समझा और संयमित कर. जब अर्जुन कहता है कि मन को कैसे संयमित करूं, यह तो वायु के वेग से भी ज्यादा तेज दौड़ता है-‘चंचल हि मन: कृष्ण:/प्रमाथि बलवद् दृढ़म्.’ तब कृष्ण कहते हैं-‘असंशयं महाबाहो/मनो दुर्निग्रहं चलं/अभ्यासेन तू कौंतेय/वैराग्येण च गृहयते.’ अर्जुन तू सच कहता है कि मन तो बड़ा बलवान है, इसे संयमित करना बड़ा कठिन है, यह निरंतर चलायमान रहता है. लेकिन लगातार अभ्यास से और अनासक्त भाव से ही इसे काबू में लाया जा सकता है. यह जो निरंतर अभ्यास और अनाक्त भाव श्रीकृष्ण ने बताया, इसी को धर्म कहा गया है. धर्म जिंदगी का ‘रेगुलेटरी पावर’ है. धर्म पूजा-पाठ या कर्मकांड नहीं है जैसी कि ‘रिलीजन’ के रूप में उसकी परिभाषा दी जाती है. धर्म तो मन का नियमन करता है, उसे संयमित करता है. हिंदू दर्शन में जीवन के चार पुरुषार्थ बताये गये हैं-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष.
धन संग्रह और सांसारिक उपभोग की मनाही नहीं है, उसकी पूरी छूट है लेकिन उसकी सीढ़ी या नींव धर्म को बनाया गया ताकि धन कमाते समय, उसका उपभोग करते वक्त व्यक्ति असंयमी न हो, गलत इच्छाओं व आदतों का शिकार न हो. धनोपार्जन और उसका उपभोग व्यक्ति के दुख, तनाव, अवसाद या निरर्थकता महसूस करने का कारण न बने. धर्म की परिभाषा करते हुए मनुस्मृति में उल्लेख है-धृति क्षमा दत्रोस्तेय शौचं इंद्रिय निग्रह:/धिर्विद्या सत्यं अक्रोध: दशकं धर्मलक्षणम्. यानी धैर्य, क्षमाशीलता दुर्गुणों का शमन, दूसरे की समृद्धि देख कर लालच न करना यानी अपरिग्रह, मन और जीवन की पवित्रता, इच्छाओं पर नियंत्रण, विवेकशीलता, विद्यावान होना, सत्य का पालन और क्रोध न करना. ये धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं. इनका अभ्यास करने व इन्हें ग्रहण करने से जीवन धर्ममय बनता है. ऐसा सद्गुण-सदाचार से युक्त जीवन जीने पर व्यक्ति सुख-समृद्धि हो पाता ही है, वह तनाव, अवसाद और पछतावे से भी बचता है क्योंकि धर्म ख्वाहिशों के पीछे दौड़ती जिंदगी की रफ्तार को ‘कंट्रोल’ करता है.

Next Article

Exit mobile version