Loading election data...

सपा को टक्कर देने के लिए, बसपा-भाजपा की चुनावी रणनीति

उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव तीन पार्टियों के राजनीतिक भविष्य के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है. लोकसभा चुनाव में भारी जीत दर्ज करनेवाली भाजपा की दावेदारी को सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती से कड़ी चुनौती मिल रही है. लंबे समय से प्रदेश की राजनीति में प्रभावहीन कांग्रेस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 22, 2017 8:52 AM

उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव तीन पार्टियों के राजनीतिक भविष्य के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है. लोकसभा चुनाव में भारी जीत दर्ज करनेवाली भाजपा की दावेदारी को सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती से कड़ी चुनौती मिल रही है. लंबे समय से प्रदेश की राजनीति में प्रभावहीन कांग्रेस सपा के साथ मिल कर अपनी साख को बहाल करने की जुगत में है, तो अन्य छोटे दल बड़ी पार्टियों के साथ गंठबंधन कर रहे हैं. एक दल को छोड़ कर दूसरे पार्टी का दामन थामने का सिलसिला भी जारी है. मुद्दों के साथ सामाजिक समीकरणों को भी साधने के उपाय हो रहे हैं. राज्य के चुनावी परिदृश्य पर विश्लेषण के साथ आज के इन-दिनों की प्रस्तुति…

उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समरभूमि में अब सभी सभी राजनीतिक योद्धा अपनी पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतर गये हैं. फिलहाल समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गंठजोड़ से टक्कर लेने के लिए भाजपा और बसपा दोनों ने अपने-अपने तरीके से कमर कस ली है. एक तरफ भाजपा विकास के नारे के साथ नरेंद्र मोदी की छवि के साथ मैदान में तो उतर ही गयी है, लेकिन भाजपा ने चुनावी गणित के लिहाज से हर तरह से जातिगत और सांप्रदायिक समीकरणों की मोरचेबंदी शुरू कर दी है. वहीं दूसरी तरफ बसपा भी दलित और मुसलिम संयोजन (कांबिनेशन) के जरिये मैदान जीतने का दावा कर रही है.

कांग्रेस यह दावा करती रही है कि वह उत्तर प्रदेश में खुद सरकार बनायेगी और सभी 403 सीटों पर वह चुनाव लड़ेगी. लेकिन, हाल के दिनों में समाजवादी पार्टी और गंठजोड़ की चर्चाओं से यह लगा कि प्रदेश में सांप्रदायिक शक्तियों को रोकने के नाम पर सपा के साथ कांग्रेस एक गंठजोड़ करना चाहती है, ताकि कांग्रेस अपनी पिछली स्थिति को कुछ और बेहतर कर सके. जिस तरह से अखिलेश यादव कांग्रेस से गंठजोड़ की खुद पहल कर रहे थे, उससे यह लग रहा है कि अखिलेश भी जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं और उन्हें जीत के लिए कांग्रेस एक विनिंग कांबिनेशन की पार्टी महसूस हो रही है. इसीलिए अखिलेश ने पहल की, लेकिन यह अलग बात है कि सीटों के बंटवारे को लेकर कुछ गतिरोध हैं. अखिलेश यादव पार्टी के आंतरिक संघर्ष में विजयी होकर लौटे हैं और वह अपने काम, अपनी साफ-सुथरी छवि के सहारे मैदान में उतरे हैं और उन्हें पूरा यकीन है कि जनता उन्हें फिर सत्ता सौंप देगी. अखिलेश अपनी छवि की ब्रांडिंग पिछले एक साल से कर ही रहे थे, ऐसे में देखना है कि वे आपराधिक छवि के लोगों से पार्टी को दूर रख सकते हैं या नहीं.

भाजपा को उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश में भी 2014 के लोकसभा का कारनामा दोहराया जायेगा. लेकिन, भाजपा यह भूल रही है कि आम तौर लोकसभा चुनाव के कारनामे विधानसभा चुनावों में नहीं दोहराये जाते. विधानसभाओं के नतीजों का आकलन करें, तो यह दिखता है कि विधानसभाओं के अपने समीकरण हैं और मतदाताओं का रुझान भी लोकसभा से अलग होता है. बिहार इसका बेहतर उदाहरण है. इस आधार पर उत्तर प्रदेश में भाजपा के दावे और जमीनी हकीकत के बीच बहुत ज्यादा फर्क है. उत्तर प्रदेश में भाजपा पिछले सात विधानसभा चुनावों से लगातार अपना मत प्रतिशत खोती जा रही है. कल्याण सिंह के नेतृत्व में 196 सीट जीतनेवाली भाजपा के सामाजिक समीकरण के चक्कर में पड़ने के बाद से उसके वोट कम होते गये हैं और सीटें कम होती गयी हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ 49 सीटें मिली थीं और उसे सिर्फ 15 प्रतिशत वोट मिले थे. ऐसे में भाजपा इस बार कौन सा करिश्मा करेगी कि उसे ढाई सौ से ऊपर सीटें मिलेंगी, यह देखनेवाली बात है. नोटबंदी के मार से छोटे उद्योगों और गरीब-किसानों पर जो मार पड़ी है, उसके मद्देनजर भाजपा चाहे जितनी कोशिश कर ले, दलितों-पिछड़ों को लुभाने की चाहे जितने जतन कर ले, लेकिन अपने लक्ष्य तक पहुंचना उसके लिए मुश्किल है. इस बात की तस्दीक इससे भी होती है कि पिछले चुनाव में भाजपा की दो सौ से ज्यादा सीटों पर जमानत जब्त हो गयी थी. अब देखना यह है कि केशव प्रसाद मौर्य कौन सा करिश्मा कर पाते हैं.

बसपा ने दलित-ब्राह्मण समीकरण को छोड़ कर इस बार दलित-मुसलिम समीकरण पर अपना दांव लगाया है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति बनी है, बसपा ने उसका लाभ लेने की कोशिश की है. और यही वजह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा ने सर्वाधिक मुसलिमों को सीटें दी हैं. बसपा का कुल गणित यह है कि उसके 20 प्रतिशत कोर दलित वोट के साथ हर विधानसभा क्षेत्र में 10-12 हजार जीताऊ वोट चाहिए, जो मुसलमानों से मिल सकता है. बसपा यह मानती है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बने सांप्रदायिक माहौल के चलते आधे मुसलिमों को भी अपने साथ कर लेती है, तो वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सारी सीटें उसके खाते में आ सकती हैं, यह बसपा का सबसे बड़ा दांव है. लेकिन, खतरा यह भी है कि जिस तरह से बसपा पश्चिम में मुसलमानों की गोलबंदी में लगी हुई है, उससे हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की पृष्ठभूमि न तैयार हो जाये. यह हुआ तो बसपा को इससे नुकसान होगा. बसपा का दूसरा दांव भी प्रभावी है. मायावती ने जितने भी ठाकुरों को खड़ा किया है, उसमें से आधे से ज्यादा ऐसे हैं, जो अपने दम पर चुनाव जीतने का माद्दा रखते हैं. मायावती की सारी कोशिश यह है कि आरक्षित सीटों पर उसका प्रदर्शन बेहतर हो, जैसा कि पिछली बार साठ आरक्षित सीटों पर जीत हासिल की थी.

अपने विकास के दांवों के बावजूद भाजपा की सारी रणनीति यह है कि किसी तरह उत्तर प्रदेश में जातिगत और सामुदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति बन जाये. यह उसके लिए लाभ का सौदा होगा. आरक्षण का मुद्दा तो संघ की ओर से उछाल ही दिया गया है और शायद भाजपा राम जन्मभूमि का मुद्दा भी उठा सकती है. इस कोशिश के जरिये वह अगणी सीटों को जीतना चाहती है. वहीं बसपा की कोशिश यह है कि वह मुसलमानों को अपने पाले में ले आये और इसीलिए मायावती भयादोहन की राजनीति कर रही हैं, ताकि मुसलमान दिग्भ्रमित होकर बसपा की ओर चले जायें.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

रामेश्वर पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार

राजनीतिक स्वार्थ के बजाय विकास के लिए हो दलों का गंठबंधन

कहते हैं कि राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. भारतीय राजनीति में समीकरणों के बनने-बिगड़ने की परंपरा रही है और आगामी उत्तर प्रदेश चुनाव की तैयारियां इसकी मिसाल हैं. अखिलेश यादव को सपा और साइकिल दोनों ही मिल जाने के बाद प्रदेश की राजनीति में बड़े बदलाव के संकेत मिल रहे हैं. ऐसे में पिछले कई दिनों से जिस गंठबंधन की बात सपाई और कांग्रेसी दबे स्वरों में कर रहे थे, उसका खुलेआम ऐलान करने के बाद तस्वीर साफ हो गयी है. दरअसल, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जनाधार खो चुकी है और अपनी खोई हुई जमीन की तलाश में है. वह 27 सालों से सत्ता से दूर है. पार्टी का अगड़ी, दलित और मुसलिम वोटबैंक खिसक चुका है. इसलिए सपा से गंठबंधन कांग्रेस के लिए संजीवनी साबित हो सकता है. दूसरी ओर सपा को भी इसमें अपना राजनीतिक लाभ दिख रहा है. पारिवारिक उठा पटक के बाद उसे मुसलिम वोटबैंक बसपा की ओर खिसकने का डर सता रहा है. अखिलेश जानते हैं कि मुसलिम कांग्रेस के परंपरागत वोटर रहे हैं. लिहाजा मुसलिम वोट को बिखरने से बचाने के लिए सपा को भी कांग्रेस की जरूरत है. इस गंठजोड़ का एक अनूठा पहलू यह भी है कि यूपी विधानसभा चुनाव में 30 फीसद या उससे ज्यादा वोट सफलता की गारंटी मानी जाती है. सियासी रहनुमाओं की मानें, तो पिछले 15 सालों में जहां सपा को औसतन 25 फीसद मत मिलते रहे हैं, वहीं कांग्रेस को नौ फीसद. अगर इन दोनों को मिला दें, तो 34 फीसद वोट के साथ समीकरण इस गंठबंधन के पक्ष में जाता दिख रहा है. यही कारण है कि मुख्यमंत्री अखिलेश गंठबंधन को 300 सीट मिलने का दावा करते रहे हैं. इसके अलावा अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल और मोहम्मद अय्यूब की पीस पार्टी के भी साथ आने की संभावना है. पश्चिमी यूपी में जाट वोटबैंक पर रालोद की मजबूत पकड़ समझी जाती है, जबकि पूर्वी यूपी के मुसलिम वोटरों पर पीस पार्टी की पकड़. बिहार की तर्ज पर पूरी तरह महागंठबंधन का रूप लेने के लिए जदयू और राजद को भी साथ लाने की कोशिश हो रही है.

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलने के बाद गंठबंधन की राजनीति की संकल्पना क्षीण होती लग रही थी, लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में महागंठबंधन के सफल प्रयोग के बाद राजनीतिक दल महागंठबंधन की ओर अग्रसर होकर चुनाव परिणाम को एकतरफा करने की होड़ में लग गये हैं. लेकिन, इस गंठजोड़ के दूसरे पहलू पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है.

दरअसल, इस गंठबंधन में कई सैद्धांतिक सवाल हैं. सवाल है कि कांग्रेस ने ’27 साल, यूपी बेहाल’ का नारा दिया है, जिसमें सपा का भी 11 साल का शासन रहा है, तो क्या कांग्रेस यह नारा वापस लेगी? कांग्रेस अति पिछड़ों के विशेष आरक्षण की वकालत करती है और सपा इसे नापसंद करती है, तो क्या कांग्रेस इस पर खामोश बैठेगी? हालिया राहुल गांधी के किसान यात्रा म1989 ?? 1990 ें ‘बिजली हाफ और कर्ज माफ’ पर कांग्रेस ने खूब ताल ठोंका, तो क्या कांग्रेस इस घोषणा को भी वापस लेगी? सवाल है कि इतने सारे पेच फंसने के बाद भी यह गंठबंधन कितना सफल हो पायेगा? सत्ता में आने के बाद कांग्रेस अति पिछड़ों के आरक्षण की बात करना छोड़ देगी? कांग्रेस को इस पर अपना रुख स्पष्ट करना चाहिए. क्या ‘कर्ज हाफ और बिजली माफ’ केवल एक ‘चुनावी जुमला’ बन कर रह जायेगा या कांग्रेस-सपा में इस पर कोई सहमति बनेगी? चुनाव प्रचार के क्रम में एक पोस्टर में तो राहुल गांधी सपा को दंगाइयों और गुंडों की सरकार बताते दिख रहे थे, तो अब ‘ऐसे लोगों’ से गंठबंधन करने के पीछे क्या मजबूरी है? अगर इन सवालों पर कांग्रेस कोई स्पष्टीकरण नहीं देती है, तो यह गंठबंधन कांग्रेस के लिए सिवाय ‘राजनीतिक स्वार्थ’ के और कुछ भी नहीं रह जायेगा.

हालांकि, यह भ ारतीय राजनीति की विडंबना रही है कि राजनीतिक सुख पाने के लिए दो अलग विचारधारा वाली पार्टियां भी एक साथ आने से गुरेज नहीं करती. हालिया पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-कम्युनिस्ट पार्टी का गठजोड़ हुआ था, जबकि उसी दौरान केरल में दोनों पार्टियां आमने-सामने थीं. बिहार में राजद और जदयू भी 20 साल तक एक-दूसरे के कट्टर प्रतिद्वंद्वी रहे थे. अब सपा और कांग्रेस गले मिल रही हैं, जबकि अभी कुछ ही दिनों पहले ये एक-दूसरे को कोस रहे थे. दरअसल, गंठबंधन भारतीय राजनीति की एक विशेषता रही है, लेकिन वर्तमान संदर्भ में इसका प्रयोग एक हथकंडे के रूप में होने लगा है. बात 1989 और 1990 की है, जब परिस्थितिवश गंठबंधन द्वारा पहले वीपी सिंह और उसके पश्चात चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनाया गया, परंतु वर्तमान में गंठबंधन अवसरवाद के रूप में जानी जाती है. यह दीगर बात है कि बिहार में नीतीश कुमार एक साफ छवि के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन लालू यादव के साथ उनका गंठबंधन एक अवसरवाद के रूप में ही सामने आया था, क्योंकि दोनों ही दल नदी के दो किनारे समझे जाते थे. अब यूपी में भी सपा और कांग्रेस यह दोहराने के प्रयास में है. अगर ये दल राज्य में विकास करने और राज्य की छवि को सुधारने के उद्देश्य से गंठबंधन की कोशिश करें, तो यह लोकतंत्र की मूल भावना को तराशने जैसा होगा. लेकिन, केवल अपनी कुर्सी बचाने और समुदाय विशेष के वोट को पाने के उद्देश्य से गंठबंधन किया जाता है, तो यह लोकतंत्र के लिए कतई शुभ संकेत नहीं है.

रिजवान अंसारी

स्वतंत्र टिप्पणीकार

चुनाव में जाति या विकास?

उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में जाति और समुदाय के आधार पर मतदान होने को लेकर खूब चर्चाएं हो रही हैं. पर, दिसंबर में सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के सर्वेक्षण और अन्य अध्ययनों के आधार पर विश्लेषण करते हुए मिंट में रोशन किशोर ने लिखा है कि जाति बनाम विकास के विमर्श में कई खामियां हैं. इसके पक्ष में उन्होंने तीन कारण गिनाये हैं- पहला, खुद को जाति से ऊपर माननेवाली भाजपा और राज्य में उसके विरोधी दल दोनों ही जातिगत समर्थन पर निर्भर हैं तथा भाजपा उच्च जातियों के मतों पर बहुत हद तक भरोसा कर रही है. दूसरा, हालांकि सर्वेक्षणों में मतदाता महंगाई और बेरोजगारी जैसे आर्थिक कारणों को मुख्य चिंताओं में गिनते हैं, परंतु मतदान के लिए उनकी पसंद स्पष्ट रूप से जातिगत पूर्वाग्रहों से प्रभावित है. तीसरा, जहां सभी पार्टियां अपने वोट बैंक के भरोसे मैदान में कूद रही हैं, लेकिन जब उम्मीदवारों को उतारने की बात आती है, तो बिल्कुल भिन्न मानदंड काम करने लगते हैं. उम्मीदवारों के चयन में धनी लोग और धनी सामाजिक समूहों का वर्चस्व होता है.

क्या कहते हैं सर्वेक्षण के आंकड़े-

मुद्दे

विकास 33 21

महंगाई 18 11

बेरोजगारी 10 15

नोटबंदी 0 08

भ्रष्टाचार 04 07

बिजली, सड़क, पानी 03 02

किसानों की समस्या 02 01

अन्य मुद्दे 07 09

कोई राय नहीं 19 19

इसमें यह सवाल पूछा गया था कि अगर कल चुनाव हों, तो आप किस मुद्दे के आधार पर मतदान करेंगे. इसमें कोई विकल्प नहीं दिया गया था.

लेकिन, लोगों की पसंद की पार्टी के सवाल पर जाति/समुदाय ध्रुवीकरण का मुख्य कारण बन जाता है. इसमें सितंबर की तुलना में दिसंबर में आये बदलाव को भी देखा जा सकता है.

सामाजिक-धार्मिक समूह सपा बसपा भाजपा+ कांग्रेस

जाटव 7(-1) 74(-1) 8 4(+2)

मुसलिम 54(-8) 14(-4) 9(+5) 7(-1)

अन्य दलित 16(+2) 56 (0) 13 (-3) 11 (+8)

अन्य ओबीसी 23 (+4) 20 (-3) 34 (-4) 10 (+5)

उच्च जातियां 12 (-3) 8 (-1) 55 (0) 10 (5)

कुल 30 (0) 27 (0) 22 (-4) 8 (+3)

इन आंकड़ों से सीधे यह समझा जा सकता है कि जातिगत समर्थन के आधार पर पार्टियों के विधायकों की संख्या भी होनी चाहिए. लेकिन स्थिति ऐसी नहीं है. वर्ष 2002, 2007 और 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा पर नजर डालें, तो पता चलता है कि बसपा के जाटव और सपा के यादव विधायकों की संख्या कभी 20 फीसदी से अधिक नहीं रही. वर्ष 2000 के बाद से सर्वाधिक हिस्सेदारी ठाकुर विधायकों की रही है, जबकि यादव अन्य ओबीसी तबकों से कुछ अधिक अनुपात में रहे हैं. जाटव विधायक अन्य दलित समूहों से कम रहे हैं. मुसलिम समुदाय में भी उच्च जाति के मुसलिम विधायक बड़ी संख्या में रहे हैं, न कि पसमांदा, जिनकी संख्या बहुत अधिक है. 2012 में मुसलिम समुदाय के विधायक अपनी आबादी के अनुपात के निकट विधानसभा में पहुंचे थे.

सीएसडीएस के सर्वेक्षण के आधार पर विभिन्न समूहों की आबादी तकरीबन इस प्रकार है-

हिंदू उच्च जातियां 16 फीसदी (ब्राह्मण 08 फीसदी और ठाकुर 05 फीसदी)

अन्य िपछड़ा वर्ग 38 फीसदी (यादव 11 फीसदी)

अनुसूचित जातियां 20 फीसदी (जाटव 12 फीसदी)

मुसलिम 19 फीसदी Àस्रोत: सीएसडीएस

Next Article

Exit mobile version