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जयंती पर विशेष: खाक के परदे से निकला इंसान

जावेद अख्तर थम विश्वयुद्ध के दौरान रांची से सटे एक उपेक्षित गांव इरबा में असद अली के परिवार को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. मूलत: बुनकरों के कुनबे से संबंधित यह परिवार गरीबी से जूझ रहा था. नवजात शिशु के लिए दूध की व्यवस्था कैसे की जाती, जबकि मुट्ठी भर अनाज के भी लाले पड़े […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 24, 2017 7:58 AM

जावेद अख्तर

थम विश्वयुद्ध के दौरान रांची से सटे एक उपेक्षित गांव इरबा में असद अली के परिवार को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. मूलत: बुनकरों के कुनबे से संबंधित यह परिवार गरीबी से जूझ रहा था. नवजात शिशु के लिए दूध की व्यवस्था कैसे की जाती, जबकि मुट्ठी भर अनाज के भी लाले पड़े हुए थे. तब इस बच्चे का नामकरण अब्दुर्रज्जाक किया जाना इस बात को प्रमाणित कर गया कि पूत के पांव पालने में पहचाने जाते हैं.

गुदड़ी का लाल

दस साल की उम्र तक बालक अपने परिवार की विरासत के मुताबिक बुनकरगिरी के काम में लगा रहा. शिक्षा की कोई सहूलियत नहीं थी, चूंकि यह परिवार बहुत गरीब था. बुनाई कर जो भी थोड़ा मुनाफा हो पाता था, वह सब दो जून की रोटी जुटाने में ही खत्म हो जाता था. बालक अब्दुर्रज्जाक ने लगभग 15 किमी की दूरी तय कर छोटे से कस्बे इरबा से रांची की प्रतिदिन यात्रा करना इस मकसद से आरंभ किया कि उसके कुछ सामान वहां बिक जायें. सच्चाई यह है कि दिल से बुने हुए उसके कपड़े इतने बेहतरीन किस्म के होते थे कि चुटकियों में बिक जाया करते थे. लगभग 10 बजे तक अपने सारे कपड़ों की बिक्री करने के बाद वह पास के ही खान बहादुर हबीबुर्रहमान द्वारा खोले गये स्कूल के केट के पास कौतूहलवश खड़ा हो जाया करता था. एक दिन उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने उसे अंदर बुला लिया ओर प्रतिदिन उसके वहां खड़े रहने का मकसद पूछा. इस बालक ने बड़ी ही सरलता से पढ़ाई के प्रति अपनी इच्छा जाहिर कर दी. प्रधानाचार्य ने बच्चे के मर्म को समझा और तत्काल उसे पढ़ने की इजाजत इस छूट के साथ दे दी कि वह देर से आ सकता है और जल्दी जा सकता है, क्योंकि इस बच्चे को अपने गांव पैदल ही लौटना पड़ता था.

बालक रज्जाक के जीवन का यह महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ. उसकी बुनियादी शिक्षा यहीं हासिल हुई. इसके बाद उसे अपने गांव इरबा से लगभग 60 मील दूर स्थित एक मिडिल स्कूल जाकर आगे की पढ़ाई करनी थी. प्रारंभ में तो उसे इस आधार पर नामांकन देने से इनकार कर दिया गया कि वह भोजन के पैसे नहीं जुटा सकता था, न ही उसकी उम्र अन्य बच्चों के बराबर थी. बड़ी मिन्नत करके उसने स्कूल प्रबंधन को इस बात पर राजी कर लिया कि वह खाना बनाने की प्रक्रिया में मदद करेगा और बचे समय में पढ़ाई कर लेगा. इस प्रकार तंगी की इस हालत में भी पढ़ाई और काम दोनों चुनौतियों को स्वीकार करते हुए उसने अपने संकल्प को बिखरने से बचाने की कोशिश की. छोटानागपुर उर्दू मरकज उसी दौरान स्व पंडित जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आजाद के सपनों को साकार करने हेतु एक विख्यात प्रगतिशील लेखक सुहैल अजीमाबादी ने उर्दू संस्कृति और राष्ट्रवादी भावनाअों को उर्दू साहित्य द्वारा स्थापित करने का प्रयास ‘उर्दू मरकज’ द्वारा प्रारंभ किया था और ऐसे लोगों की तलाश में थे जिन्हें इससे जोड़ा जा सके. अब्दुर्रज्जाक अंसारी उस वक्त उनके संपर्क में आये और सामाजिक गतिविधियों से जुड़ गये. यह उनके जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण मोड़ था. सुहैल अजीमाबादी से अब्दुर्रज्जाक अंसारी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम और कांग्रेस की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेना आरंभ कर दिया. सुहैल अजीमाबादी ने अब्दुर्रज्जाक अंसारी को महान स्वतंत्रता सेनानी स्व अब्दुल क्यूम अंसारी से भी मिलवाया, जो नेशनलिस्ट मोमिन लीडर भी थे और तत्कालीन अल्पसंख्यक समुदाय के कांग्रेस से जुड़े मोमिन कांफ्रेंस के महत्वपूर्ण सदस्य भी.

इल्म की इमारत

उन्होंने 1946 में अपने गुरु अब्दुल क्यूम अंसारी के नाम पर एक स्कूल इरबा में स्थापित किया. गांव-गांव घूम कर उन्होंने यह अलख जगाना शुरू किया कि लड़के हों या लड़कियां सबको स्कूल भेजो, वही इल्म की इबादतगाह हैं. उनकी धर्मपत्नी नफीरुन्निशा उनकी शादी के वक्त साक्षर नहीं थी. अब्दुर्रज्जाक अंसारी ने सबसे पहले उन्हें साक्षर और शिक्षित करने का काम घर से शुरू किया. उन्होंने मिडिल की पढ़ाई पूरी की और इलाके की तमाम लड़कियों को तालीम देने का काम शुरू किया. पति और पत्नी ने मिल कर धीरे-धीरे उस इलाके में 17 स्कूलों की स्थापना की. अब्दुर्रज्जाक अंसारी उस वक्त सामाजिक और राजनीतिक हल्के में अपनी मजबूत पकड़ बना चुके थे. उन्होंने ओरमांझी में एक हाइस्कूल की स्थापना भी की, जहां उन 17 स्कूलों के पास किये हुए बच्चे पढ़ने आते थे.

सहकारिता आंदोलन

अपने इर्द-गिर्द अवस्थित समाज के आखिरी बच्चे तक शिक्षा मुहैया करने का बीड़ा जब उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा कर लिया, तो अपने लक्ष्य के दूसरे मुहिम में जुट पड़े. और यह मुहिम था इन लोगों को रोजगार से जोड़ना. इसके लिए उन्होंने सबसे पहले इरबा गांव में ही बुनकर सहकारी समिति की नींव डाली. इस प्रकार के रोजगार की सुविधा उपलब्ध कराने का पहला लाभ यह हुआ कि गांवों के जो गरीब लोग रिक्शा चलाने जैसे कामों के लिए शहर जाया करते थे, वे अब बुनायी की कारीगरी सीख कर अपने ही गांवों में इज्जत की रोटी पाने लगे.

स्वास्थ्य का वादा

उन्होंने लोगों को स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं देने के लिए प्रक्रिया प्रारंभ कर दी. जिस दिन वह अस्पताल की आधारशिला रखने हेतु राज्यपाल से मिलने गये थे, दुर्भाग्यवश वह दिन उनकी जिंदगी का आखिरी दिन साबित हुआ. पटना से इरबा लौटते ही वे उसी शाम चल बचे. न तो वक्त पर दवाइयां मिल सकीं, न कोई डॉक्टर उपलब्ध हो सका. इस घटना ने यहां के लोगों को झकझोर कर रख दिया और बुनकर संघ ने यह तय कि अब्दुर्रज्जाक अंसारी वीवर्स हॉस्पिटल की स्थापना अब अपोलो हॉस्पिटल ग्रुप के सहयोग से ही होगा. इसके लिए उनके बेटे सईद अहमद अंसारी और मंजूर अहमद अंसारी पर समिति ने जोर बनाया. सईद अहमद अंसारी को इस कार्य के सारी तकनीकी और वित्तीय मामलों की देखरेख के लिए अधिकृत किया गया, जिसके चलते उन्हें सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के अपने सम्मानित पद से त्यागपत्र देकर अाना पड़ा. इन सारे लोगों की लगन का नतीजा था कि 7 अप्रैल 1996 को अपोलो प्रबंधन के साथ जुड़ कर एक उच्चस्तरीय केयर हॉस्पिटल की शुरुआत हुई.

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