संविधान के नीति निदेशक तत्वों के तहत सामाजिक और आर्थिक न्याय व स्वतंत्रता के द्वारा सामाजिक व्यवस्था को निर्देशित किया गया है. इसके तहत काम का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, समान नागरिक संहिता और गुड गवर्नेंस के अन्य सिद्धांतों से जुड़े मैटर शामिल किये गये हैं, जिन चीजों के बारे में राज्य स्वयं संज्ञान लेता है. देश की प्रतिष्ठित संविधान सभा के तहत गवर्नमेंट और पॉलिटिक्स व गुड गवर्नेंस के सिद्धांत को पहचाना गया है. और इसका प्रारूप 1940 के दशक में ही तैयार किया गया था.
अनुच्छेद 37 में खास तौर पर नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख किया गया है. राज्य के नीति निदेशक तत्वों का वास्तविक में इस्तेमाल कैसे किया जायेगा, इस संदर्भ में संविधान का प्रारूप तैयार होते समय प्रोफेसर केटी शाह ने आशंका जतायी थी. उन्होंने यह महसूस किया था कि डायरेक्टिव सिद्धांत न्यायोचित नहीं हैं. लेकिन डॉक्टर बीआर आंबेडकर ने नीति निदेशक तत्वों को इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ इंस्ट्रक्शन करार दिया था. उन्होंने इसे आर्थिक लाेकतंत्र हासिल करने की नीतियों और सिद्धांतों के रूप में व्याख्या की थी, जिसके कॉन्सेप्ट को कभी नहीं बदला जायेगा और वह समय व परिस्थितियों पर आधारित है.
मौजूदा दौर में भारत उस मोड़ पर खड़ा है, जहां उसे दुनिया के साथ कदमताल करते हुए आर्थिक विकास के लक्ष्यों को हासिल करना है और उसके साथ उसी समय में नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक न्याय के पक्ष में आगे बढ़ना है. ऐसे में भारतीय संविधान में चौथे खंड में उल्लिखित राज्य के नीति निदेशक तत्वों पर चर्चा करना प्रासंगिक बन जाता है, जिसमें सामाजिक और आर्थिक न्याय को हासिल करने के लिए मूलभूत सिद्धांतों पर चर्चा की गयी है. दरअसल, नीति निदेशक तत्वों के साथ उसकी प्रस्तावना और मौलिक अधिकारों को भारतीय संविधान की आत्मा कहा जा सकता है.
नीति निदेशक तत्वों के तहत सामाजिक और आर्थिक न्याय व स्वतंत्रता के द्वारा सामाजिक व्यवस्था को निर्देशित किया गया है. इसके तहत काम का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, समान नागरिक संहिता और गुड गवर्नेंस के अन्य सिद्धांतों से जुड़े मैटर शामिल किये गये हैं, जिन चीजों के बारे में राज्य स्वयं संज्ञान लेता है.
देश की प्रतिष्ठित संविधान सभा के तहत गवर्नमेंट और पॉलिटिक्स व गुड गवर्नेंस के सिद्धांत को पहचाना गया है. और इसका प्रारूप 1940 के दशक में ही तैयार किया गया था. अनुच्छेद 37 में खास तौर पर नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख किया गया है.
राज्य के नीति निदेशक तत्वों का वास्तविक में इस्तेमाल कैसे किया जायेगा, इस संदर्भ में संविधान का प्रारूप तैयार होते समय प्रोफेसर के टी शाह ने आशंका जतायी थी. उन्होंने यह महसूस किया था कि डायरेक्टिव सिद्धांत न्यायोचित नहीं हैं. लेकिन डॉक्टर बी आर आंबेडकर ने नीति निदेशक तत्वों को इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ इंस्ट्रक्शन करार दिया था. उन्होंने इसे आर्थिक लाेकतंत्र हासिल करने की नीतियों और सिद्धांतों के रूप में व्याख्या की थी, जिसके कॉन्सेप्ट को कभी नहीं बदला जायेगा और वह समय व परिस्थितियों पर आधारित है. इसे कैसे हासिल किया जायेगा, इस बारे में राज्य को उसके नागरिकों को जवाब देना होगा और इस तरह राज्य के नीति निदेशक तत्व महज एक पवित्र घोषणाभर नहीं हो सकते.
जैसा कि विद्वानों का कहना है कि नीति निदेशक तत्वों को अप्रवर्तनीय इसलिए बनाया गया था, क्योंकि सभी नीति निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए पर्याप्त संसाधन भारत के पास नहीं थे और इस तरह इसे लागू करने के लिए भविष्य की सरकारों की इच्छा पर छोड़ दिया गया था. लीगल रूप से कहा जाये, तो जब नीति निदेशक तत्वों का मसला अदालत में आता है, तो वह समय की महत्ता का ध्यान में रख कर वह उस पर जोर दे सकता है.
इससे एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि क्या इसके पीछे संविधान के ढांचे का इरादा क्या रहा होगा? राज्य के नीति निदेशक तत्वों को अदालत के द्वारा डायरेक्टिव्स के तहत लागू किया जा सकता है या वह उसे एेच्छिक कह सकता है? मौजूदा संदर्भ में यदि देखा जाये, तो
राज्य के नीति निदेशक तत्वों को लागू करना एक प्रकार से सरकार और देश के सीमित संसाधनों पर वित्तीय बोझ लादने के समान होगा. उदाहरण के तौर पर ज्यादातर राज्यों में शिक्षा का अधिकार अनिवार्य करना एक प्रकार से उन पर थोपा गया था. भले ही राज्यों के पास संसाधनों का अभाव रहा, जिससे इस पहल के अपेक्षित नतीजे सामने नहीं आये.
इसके अतिरिक्त ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि संविधान को अपनाये हुए साढ़े छह दशक से ज्यादा हो चुके हैं और नीति निदेशक तत्वों को लागू हुए इतना समय होने के बावजूद इनकी प्रासंगिकता बरकरार है. कल्याणकारी राज्य की
विचारधारा को अधूरा सिद्धांत नहीं कहा जा सकता. अनुच्छेउ 41 के तहत यह निर्देशित किया गया है कि राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि लोगों के काम और शिक्षा के अधिकार सुरक्षित रहें और बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी या शारीरिक अशक्तता समेत उन सभी प्रकार की दशाओं में उन्हें आर्थिक मदद मुहैया करायी जा सके, जिसके लिए वे उसके लायक समझे जायेंगे. सामाजिक नीतियों को लागू करते समय यह अनुच्छेद सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से उसकी व्याख्या करता हे. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के रूप में एकीकृत ग्रामीण विकास स्कीम्स जैसी सरकारी की योजनाएं इसी का एक हिस्सा हैं, जिसका मकसद लोगों को सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाना है. हालांकि, ये योजनाएं अपने मकसद में पूरी तरह सफल नहीं हो पायी हैं और इनके नतीजे निराशाजनक रहे हैं. लोगों तक इनके फायदे बहुत कम ही पहुंच पाये हैं. इस संदर्भ में सरकार द्वारा की गयी एक अन्य पहल पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली रही है, जो इच्छित सफलता नहीं दिला पाया है. अनुच्छेद 46 के तहत स्वास्थ्य के अधिकार की चर्चा की गयी है, जिस ओर अब तक जरूरी ध्यान नहीं दिया गया है. लेकिन, कुछ ऐसे अनुच्छेद भी हैं, जो केवल इसलिए अस्तित्व में हैं, क्योंकि वे पहले से चले आ रहे हैं. उदाहरण के तौर पर पशुपालन को संरक्षण देने का राज्य का कर्तव्य और उद्योगों के प्रबंधन में कामगारों की हिस्सेदारी.
(स्रोत : लोगोस डॉट नेशनल इंटरेस्ट डॉट इन पर प्रकाशित सुरभि राव की रिपोर्ट का अनुवादित और संपादित अंश)
संविधान को अनोखी विशिष्टता प्रदान करते हैं नीति निदेशक तत्व
भारतीय संविधान के भाग- 4 में शामिल किये गये राज्य के नीति निदेशक तत्व संविधान को अनोखी विशिष्टता प्रदान करते हैं. आयरलैंड के संविधान के अलावा नीति निदेशक तत्वों के अध्याय के लिए मूल प्रेरणा कल्याणकारी राज्य के कॉन्सेप्ट से हासिल हुई. नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ संविधान के निर्माताओं की यह इच्छा थी कि भारतीय संविधान सामाजिक क्रांति के लिए एक प्रभावी साधन बने. व्यक्ति के अधिकारों व समुदायों की जरूरतों के बीच संभावित संघर्ष को टालने के लिए प्रयास करते हुए जहां एक ओर स्वयं मूल अधिकारों पर लोक हित जैसी जैसे नजरिये से जरूरी पाबंदी लगायी गयी, वहीं दूसरी ओर अपेक्षाकृत अधिक निश्चयात्मक राज्य-नीति के निदेशक तत्वों संबंधी अध्याय का समावेश कर दिया गया. अनुच्छेद 37 यह घोषणा करता है कि निदेशक तत्व देश के शासन के मूल आधार हैं और कानून के निर्माण में इन सिद्धांतों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा. लिहाजा यह स्पष्ट है कि ये संवैधानिक निर्देश कोरे नैतिक उपदेश नहीं हैं, बल्कि निश्चयात्मक समादेश हैं व संविधान के मानव अधिकारों संबंधी उपबंधों के अभिन्न अंग माने जाते हैं. लेकिन, निदेशक तत्वों से ऐसे काेई कानूनी अधिकार नहीं उपजते, जिनका उल्लंघन होने पर कोई व्यक्ति उसका उपचार करा सके और न ही वे विधायिक को कोई शक्ति प्रदान करते हैं.
ये समादेश न्यायलयों द्वारा अप्रवर्तनीय बनाये गये थे और इन्हें जानबूझकर ऐसे शब्दों में व्यक्त किया गया था, जिनसे विधायिका को क्रम, समय और उन्हें पूरा करने की रीति का निर्णय करने की कुछ हद तक छूट रहे, क्योंकि उनका कार्यान्वयन अनेक अति सूक्ष्म तत्वों पर निर्भर करता है- जैसे अपेक्षित संसाधन कहां तक उपलब्ध हैं, परिकल्पित सामाजिक-आर्थिक बदलावों को स्वीकार करने के लिए समाज कितना जागरूक है आदि.
डॉक्टर आंबेडकर ने संविधान सभा में स्पष्ट शब्दों में कहा था कि निदेशक तत्वों का आशय यह नहीं है कि वे ‘केवल पूजनीय घोषणाएं’ बन कर रह जायें. इसकी बजाय ये अनुदेशों के दस्तावेज के रूप में हैं और जो भी सत्ता में आयेगा, उसे इनका आदर करना ही होगा. उन्होंने कहा था, ‘संविधान सभा का आशय यह है कि भविष्य में विधायिका तथा कार्यपालिका, दोनों इस भाग में अधिनियमित इन तत्वों के प्रति केवल मौखिक सहानुभूति न जतायें, बल्कि इन्हें कार्यपालिका तथा विधायिका के उन सभी कार्यों का आधार बना दिया जाये, जो इसके बाद देश के शासन के मामले में किये जायें.’
अनुच्छेद 37 में न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से मुक्त रखने का खंड केवल इस बात को स्पष्ट कर देना चाहता है कि न्यायपालिका राज्य को निदेशक तत्वों के तहत किसी ‘कर्तव्य’ को निभाने के लिए विवश नहीं कर सकती, क्योंकि जैसाकि डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था : जिस राज्य ने अपने मुख्य दायित्वों के भार से मुक्त होने के लिए अभी-अभी अंगड़ाई ली है, वह तो उनके बोझ तले पिस सकता है, यदि उन्हें पूरा करने का क्रम, समय, स्थान और रीति तय करने की छूट उसे नहीं दी जाती.
निदेशक तत्व संविधान के प्रभावी भाग हैं और इस दृष्टि से महत्वपूर्ण भाग हैं, क्योंकि उन्हीं के माध्यम से संविधान चाहता है कि उद्देशिका में निर्धारित लोकतंत्रात्मक कल्याणकारी राज्य के आदर्श को प्राप्त किया जाये और उस सामाजिक तथा आर्थिक क्रांति को साकार किया जाये, जिसका सपना हमारे गणराज्य के संस्थापकों ने देखा था. न्यायमूर्ति के एस हेगड़े के शब्दों में :
मूल अधिकारों का प्रयोजन है कि एक समतावादी समाज का सृजन हो, सभी नागरिकों को सामाजिक प्रपीड़न अथवा प्रतिबंध से मुक्ति मिले और सभी को स्वतंत्रता सुलभ हो. निदेशक तत्वों का प्रयोजन है कि कतिपय सामाजिक तथा आर्थिक लक्ष्य निर्धारित किये जायें और उन्हें तुरंत प्राप्त करने के लिए अहिंसक सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया जाये. ऐसी सामाजिक क्रांति के द्वारा संविधान आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने और हमारे समाज के सांचे-ढांचे को बदलने का प्रयास करता है. इसका लक्ष्य भारतीय जनता को सही अर्थों में स्वतंत्र बनाना है.
हालांकि, निदेशक तत्वों को न्यायालय में नहीं ले जाया जा सकता, फिर भी इन तत्वों ने सामाजिक सुधार संबंधी कानून बनाने में संघ तथा राज्यों के विधानमंडलों का अब तक मार्गदर्शन किया है. न्यायालयों ने संविधान के उपबंधों के अपने निर्वचन के समर्थन में इन तत्वों का उल्लेख किया है और योजना आयोग ने राष्ट्रीय पुनर्निर्माण तथा कायाकल्प के प्रति अपने दृष्टिकोण का निर्धारण करने के लिए इन्हें उपयोगी दिशानिर्देश के रूप में स्वीकार कर लिया है.
संविधान के महान सिद्धांतों की सकारात्मक व्याख्या हो
डॉ शिव शक्ति बक्सी
इतिहास के अध्येता
भारतीय संविधान पर बराबर बहस होती रही है और किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र की यह पहचान है कि वह समय-समय पर अपने आधारभूत सिद्धांतों का परीक्षण करता रहे. संविधान की व्यापकता, सर्वसमावेशी एवं भविष्योंन्मुखी चरित्र पर शायद ही किसी को शंका रही होगी, परंतु इसके विभिन्न पहलुओं पर व्याख्या को लेकर वैचारिक द्वंद्व होते रहे हैं.
किसी देश का संविधान उसके राजनीतिक जीवन और व्यवस्था का वह आधारभूत सांचा-ढांचा निर्धारित करता है, जिसके अंतर्गत उसकी व्यवस्था शासित होती है. संविधान को इसकी ऐसी आधारविधि भी कहा जा सकता है, जो उसकी राज्यव्यवस्था के मूल आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों को मूर्त करती है, जिसकी कसौटी पर राज्य की सभी विधियों तथा कार्यपालक कार्यों को उनकी नैतिक तथा कानूनी वैध्यता के लिए जांचा जाता है. अपने आदर्श रूप में प्रत्येक संविधान उसके संस्थापकों एवं निर्माताओं के आदर्शों, सपनों तथा मूल्यों का प्रतिबिंब होता है.
किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि संविधान के नियमों के अनुसार शासन-संचालन मात्र ही संविधानवाद है. एक निरंकुश तानाशाह या वैचारिक अंधत्व से चालित नेतृत्व भी इच्छानुसार संविधान बना कर जनता की इच्छाओं और आकांक्षाओं की अवहेलना करता हुआ उन पर बलपूर्वक संविधान लागू कर सकता है. चूंकि ऐसे संविधान से जनता के आदर्शों, मूल्यों और संस्कृति और परंपरा का समावेश नहीं होता. अतः उस शासन व्यवस्था को संविधानवाद के अनुरूप नहीं माना जा सकता है. अतः संवैधानिक शासन का आदर्श, संविधान का अर्थ, लिखित मूर्त संविधान से कुछ अधिक है. आदर्श संविधान वही है, जिसमें मनुष्य की संस्कृति, मान्यताओं, आस्थाओं और मूल्यों की व्यवहार में उपलब्धि संभव हो सके, से है. इन्हीं मूल कसौटियों पर हम भारतीय संविधान की सार्थकता और प्रासंगिकता को जांच सकते हैं. संविधान को एक स्थिर घोषणापत्र मात्र लेना ठीक नहीं होगा, उसे देश की संस्कृति और वैश्विक तथा समसामयिक चुनौतियों में दबाव के तहत निरंतर पल्लवनशील होना चाहिए.
भारतीय संविधान की उद्देशिका से आशा की जाती है कि जिन मूलभूत मूल्यों तथा दर्शन पर संविधान आधारित हो तथा जिन तथ्यों उद्देश्यों को प्राप्ति का प्रयास करने के लिए संविधान निर्माताओं ने राज्य-व्यवस्था को निर्देश दिया हो, उनका उसमें समावेश हो. हमारे संविधान की उद्देशिका में, जिस रूप में उसे संविधानसभा ने पास किया था, कहा गया है कि ‘हम भारत के लोग’ भारत को एक ‘प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य’ बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता दिलाने और उनमें बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं. हमारे संविधान की उद्देशिका में निःसंदेह बहुत ही भव्य और उदात्त शब्दों का प्रयोग हुआ है. हमारे संविधान निर्माता नहीं चाहते थे कि संविधान किसी विचारधारा या वाद-विशेष से जुड़ा हो या किसी आर्थिक सिद्धांत द्वारा सीमित हो. इसलिए वे उसमें, अन्य बातों के साथ, समाजवाद के किसी उल्लेख को सम्मिलित करने के लिए सहमत नहीं हुए थे. नवंबर 1948 में बिहार से सदस्य केटी शाह का प्रस्ताव कि संविधान की धारा 1, खंड 1 में ‘पंथनिरपेक्ष, संघ एवं समाजवाद’ जोड़ा जाये से बाबा साहेब अंबेडकर सहमत नहीं थे. जहां एक ओर उन्होंने पंथनिरपेक्षता को एक सार्वभौमिक मूल्य मानते हुए इसका संविधान में अलग से उल्लेख आवश्यक नहीं माना, समाजवाद के प्रश्न पर उनका मत था कि समय-समय पर आवश्यकतानुसार आनेवाली पीढ़ियां कैसे स्वयं को संगठित करना चाहती हैं, यह उन पर छोड़ देना चाहिए. संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा हमारे गणराज्य की विशेषता दर्शाने के लिए ‘समाजवाद’ शब्द का समावेश दिया गया, पर हम जानते हैं कि ‘समाजवाद’ की परिभाषा करना कठिन है.
व्यक्ति के मूल अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ संविधान निर्माता यह भी चाहते थे कि हमारा संविधान सामाजिक शांति के लिए एक प्रभावी साधन बने. अनुच्छेद 37 घोषणा करता है कि निदेशक तत्व देश के शासन के मूलाधार है और निश्चय ही विधि बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा. किंतु विडंबना है कि निदेशक तत्वों से ऐसे कोई कानूनी अधिकार नहीं मिलते, जिनका उल्लंघन होने पर कोई व्यक्ति उसका उपचार कर सके और न यह विधायिका को कोई अतिरिक्त शक्ति प्रदान करता है. ये समादेश न्यायालयों द्वारा अप्रवर्तनीय बनाए गये थे और इन्हें जान-बूझ कर ऐसे शब्दों में व्यक्त किया गया था, जिनसे विधायिका को क्रम, समय और पूरा करने की रीति का निर्णय करने की कुछ हद तक छूट रहे, क्योंकि उनका कार्यान्वयन अनेक सूक्ष्म तत्वों पर निर्भर करता है.
संविधान सभा में डाॅ आंबेडकर ने स्पष्ट कहा था कि निदेशक तत्वों का आशय यह नहीं है कि वे केवल पूजनीय आदर्श बन कर रह जायें. उन्होंने कहा था कि संविधान सभा का आशय यह है कि भविष्य में विधायिका तथा कार्यपालिका, दोनों इस भाग में अधिनियमित इन तत्वों के प्रति केवल मौखिक सहानुभूति न जतायें, बल्कि इन्हें कार्यपालिका तथा विधायिका के उन सभी कार्यों का आधार बना दिया जाये, जो इसके बाद देश के शासन के मामले में किये जायें. निदेशक तत्व से संबंधित अनुच्छेद 48 कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को यह आदेश देता है कि कृषि और पशुपालन का संगठन हो तथा गो-वध का प्रतिषेध हो. अनुच्छेद 49 समूचे देश के लिए समान नागरिक संहिता को रेखांकित करता है. 2 दिसंबर 1948 को आंबेडकर ने समान नागरिक संहिता का समर्थन करते हुए कहा था कि यदि धर्म को कानून बनाने के आड़े आने दिया जायेगा, तब इस स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं रह जाता है. लेकिन आज वही हो रहा है, जिसकी कल्पना शायद हमारे संविधान निर्माताओं ने भी नहीं की होगी.
इस बात को समझा जाना चाहिए कि मूल अधिकार और निदेशक तत्व सभी एक ही संवैधानिक ढांचे के अभिन्न अंग हैं. वे सभी समान रूप से महत्वपूर्ण है और उन्हें एक-दूसरे के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए. हमारे देश के वामपंथी और प्रतिक्रियावादी तत्व उद्देशिका और मूल अधिकारों के प्रति तो अतिवादी रुख रखते हैं, पर नीति निदेशक तत्वों के प्रति नकारात्मक और प्रतिक्रियावादी दृष्टि रखते हैं. हमारे संविधान निर्माताओं ने व्यापक, सर्वसमावेशी एवं भविष्योन्मुखी संविधान हमें सौंपा है. संविधान की भविष्य की दिशा के लिए भी उन्होंने दिशा स्पष्ट की है और समाज के उत्तरोत्तर विकास के साथ देश की सामाजिक-आर्थिक आवश्यकता के सामंजस्य की संभावनाएं इसमें खुला छोड़ा है. ‘उदारवाद’ का चोला ओढ़े विभिन्न विचार के लोग आज संविधान के इस विराट स्वरूप में असहज महसूस करते हैं.
किसी भी संविधान प्रदत्त सकारात्मक परिवर्तन के लिए यह ‘उदारवादी’ तबका बड़ी ढिठाई से ‘अनुदार’ बन जाता है. इसका परिणाम अल्पसंख्यकवाद के नाम पर धर्मांधता के रूप में सामने आ रहा है, जिससे अल्पसंख्यकों के बीच सकरात्मक परिवर्तन की लड़ाई लड़नेवाले भी अकेले पड़ जाते हैं. अब समय आ गया है कि संविधान के महान सिद्धांतों की सकरात्म्क व्याख्या हो और ‘उदारवादी’ तबका सही में उदारवाद की ओर प्रवृत्त हों और देश सकरात्मक परिवर्तन की ओर बढ़ सके.