आर्थिक सर्वेक्षण-2017 : पटरी पर रहेगी अर्थव्यवस्था
वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन द्वारा तैयार आर्थिक सर्वेक्षण को वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा संसद के पटल पर रख दिया गया है. इस दस्तावेज में मौजूदा वित्त वर्ष की स्थिति का विश्लेषण है तथा अर्थव्यवस्था को विकास की राह पर बनाये रखने के लिए नीतिगत व्याख्या है. हालांकि, इसके अनुरूप बजट […]
वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन द्वारा तैयार आर्थिक सर्वेक्षण को वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा संसद के पटल पर रख दिया गया है. इस दस्तावेज में मौजूदा वित्त वर्ष की स्थिति का विश्लेषण है तथा अर्थव्यवस्था को विकास की राह पर बनाये रखने के लिए नीतिगत व्याख्या है. हालांकि, इसके अनुरूप बजट बनाने की अनिवार्यता नहीं होती है, पर सर्वेक्षण की प्रतिध्वनि की उपस्थिति उसमें अवश्य होगी. आर्थिक समीक्षा के विविध पहलुओं पर आधारित आज की विशेष प्रस्तुति…
डिजिटल गरीब के लिए जूते-कपड़े
आलोक पुराणिक
वाणिज्य प्राध्यापक दिल्ली विश्वविद्यालय
आर्थिक सर्वेक्षण दो मायनों में खास तौर पर महत्वपूर्ण है. एक तो यह है कि इसने पहली बार एक टर्म की इजाद की है, जिसका आशय है-डिजिटल गरीब या डिजिटल वंचित. दूसरी बात यह कि इस आर्थिक सर्वेक्षण ने एक ऐसी बात की ओर इशारा किया है, जिस पर हाल के सालों में तमाम सरकारी दस्तावेजों में बात नहीं होती थी. सर्वेक्षण ने एक जगह लिखा है कि करीब 35 करोड़ लोग इस मुल्क में ऐसे हैं, जिनके पास मोबाइल नहीं हैं, ये लोग डिजिटल वंचित माने जा सकते हैं. सर्वेक्षण ने एक बात बहुत ही महत्वपूर्ण तौर पर चिन्हित की है, वह यह है कि जूतों और कपड़ों के जरिये ही वैसा रोजगार पैदा किया जा सकता है, जिसे करने के लिए उच्च स्तर के कौशल की जरूरत नहीं होती. यह दरअसल एक आर्थिक दर्शन है, जिसके मुताबिक भारत जैसे श्रमिक-बहुत देश में उद्योग-धंधे ऐसे होने चाहिए, जिनमें कम कौशल के लोगों को समाहित किया जा सके. आटोमोबाइल और कंप्यूटर निर्माण के धंधे में हर तरह के लोग समाहित नहीं हो सकते. पर जूतों और कपड़ों के कारोबार में कम पढ़े लिखों की भी समाहित किया जा सकता है.
यह काम भारत में होना चाहिए, ऐसा यह आर्थिक सर्वेक्षण बताता है. यह सलाह खास तौर पर तब बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है, जब विदेशी ब्रांडों की जीन्स के चार-पांच हजार रुपये भारतीय ग्राहकों से वसूले जाते हैं. और विदेशी ब्रांड के जूतों के छह हजार से बीस हजार तक वसूले जाते हैं. भारत में भी महंगे कपड़ों जूतों का बाजार है, इस बात को पहचानते हुए जूते और कपड़ों के भारतीय उद्योगों को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए, जो बंाग्लादेश, वियतनाम, इंडोनेशिया को कड़ी चुनौतियां दे सकें.
आर्थिक सर्वेक्षण को प्रामाणिक सरकारी दस्तावेज माना जाना चाहिए. इसने इंगित किया है कि नोटबंदी से जुड़ी सारी समस्याओं को खत्म होने में, स्थितियों को सामान्य में होने में अप्रैल तक का वक्त लग सकता है. आर्थिक सर्वेक्षण साफ तौर पर चिह्नित करता है कि नोटबंदी से काले धन में एक हद तक कमी आयी है, पर इससे शार्ट टर्म में मंदी का माहौल भी बना. खास तौर पर उन उद्योगों को मंदी का सामना करना पड़ा, जो नकद आधारित हैं.
जैसे रीयल इस्टेट, सोना और कृषि के क्षेत्र में मंदी दर्ज की गयी. आर्थिक सर्वेक्षण का यह चिन्हित करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि वित्त मंत्री अरुण जेटली तो लंबे अरसे नोटबंदी के नकारात्मक परिणामों को मानने से भी इनकार करते रहे हैं.
यह आर्थिक सर्वेक्षण बहुत विस्तार से एक कंसेप्ट की बात करता है, जिसकी चर्चा अब पूरी दुनिया में है और देर-सबेर भारत में इस पर गंभीर चर्चा होनी ही है. यह कंसेप्ट है-सबको न्यूनतम आय यानी यूनिवर्सल बेसिक इनकम. इस कंसेप्ट के तहत प्रस्ताव यह किया गया है कि हरेक को कुछ ना कुछ सरकार के द्वारा मिलना चाहिए. यानी पूरी व्यवस्था में हरेक की न्यूनतम आय सुनिश्चित की जानी चाहिए. आर्थिक सर्वेक्षण का चैप्टर- नौ विस्तार से सबको न्यूनतम आय के बारे में बताता है. एक दूसरे अध्ययन के मुताबिक भारत में करीब 25 करोड़ परिवार हैं इनमें 77 प्रतिशत परिवारों के पास किसी भी नियमित आय का इंतजाम नहीं है.
सबको न्यूनतम आय के तहत हरेक को सरकार द्वारा कुछ ना कुछ दिया जाना चाहिए. हालांकि इस तरह के इंतजाम की भी आलोचना भी अपनी जगह है. यह तो लोगों को एकदम से निकम्मा बनाने का इंतजाम है, लोग काम नहीं करेंगे. पर दूसरे नजरिये से देखें, तो लोकतंत्र में यह लंबे समय तक नहीं चल सकता है कि कुछ लोगों के पास अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा हो. कुछेक सौ लोगों के पास देश की संपत्ति का आधा हिस्सा हो, और कुछेक के पास महीने की कोई नियमित आय भी ना हो.
लोकतंत्र में ऐसी स्थितियों में कोई गैर-जिम्मेदार नेता अपनी तरह से गैर-जिम्मेदार राजनीति खेल सकता है. लोकतंत्र सबके पास पहुंचे बैंक खाते के जरिये ऐसा विचार यूनिवर्सल बेसिक इनकम के विचार में रखा गया है. आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक ऐसी किसी योजना में सकल घरेलू उत्पाद का करीब चार से पांच प्रतिशत हिस्सा जा सकता है. केंद्र सरकार की तमाम कल्याण योजनाओं में इससे ज्यादा की रकम लगती है और उनका एक बड़ा हिस्सा उन तक नहीं पहुंचता, जिन तक वह पहुंचना चाहिए.
सर्वेक्षण बताता है कि 2016-17 में अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.1 प्रतिशत रहेगी, पर कृषि का विकास 4.1 प्रतिशत की रफ्तार से होगा.
और देखने की बात यह है कि चार प्रतिशत की विकास दर कृषि के लिए भी बेहतरीन मानी जाती है, वरना कृषि ने तो एक प्रतिशत और दो प्रतिशत की विकास दर भी देखी है. बजट को इस सवाल का ठोस जवाब देना होगा कि पूरी अर्थव्यवस्था के मुकाबले लगभग आधी रफ्तार से बढ़नेवाली कृषि की बेहतरी कैसे हो. यह सवाल खासकर बिहार, यूपी और झारखंड जैसे राज्यों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, जहां औद्योगिकरण ने वो परिणाम नहीं दिये हैं, जो महाराष्ट्र और गुजरात में देखे गये हैं.
किसानों को कैश नहीं, संसाधन मुहैया कराने पर देना होगा जोर
ब्रजेश झा
अर्थशास्त्री, इंस्टीट्यूट ऑफ इकॉनोमिक ग्रोथ
केंद्र सरकार द्वारा मंगलवार को पेश किये गये आर्थिक सर्वेक्षण में कृषि उद्यम के बारे में भी उल्लेख किया गया है. कृषि से संबंधित उद्यमों के लिए जो व्यवस्था की गयी है, उसके सही दिशा में जाने के संकेत मिले हैं और इसमें काफी प्रगति हुई है. हालांकि, जो इंतजाम अब किये गये हैं, वे बहुत पहले किये जाने चाहिए थे. पिछले कुछ वर्षों के दौरान नॉन-फॉर्मल सेक्टर ने अच्छी प्रगति की है और इनके विकास करने से ही देश का समग्र विकास मुमकिन है. कृषि और ग्रामीण विकास के संदर्भ में माइक्रो इरिगेशन सिस्टम (लघु सिंचाई प्रणालियों) का भी भरपूर विकास हुआ है, जो इस लिहाज से बेहद अच्छी बात है. इस वर्ष कृषि विकास दर करीब 4.1 फीसदी रही है और कृषि आधारित उद्यमों ने भी अच्छी प्रगति की है.
जहां तक यूनिवर्सल बेसिक इनकम की बात है, तो अभी जिस तरह से इसके लागू करने का तरीका बताया जा रहा है, वह फिलहाल औचित्यपूर्ण नहीं लग रहा है और इसके कई व्यावहारिक कारण भी हैं. कार्यान्वयन के स्तर पर यह अव्यावहारिक प्रतीत हो रहा है. सरकार कही रही है कि वह इसके जरिये लाभार्थियों को खाते में नकदी ट्रांसफर करेगी, लेकिन इसमें यह स्पष्ट नहीं है कि यह किस चीज के विकल्प में होगा. यदि यह अनाज के विकल्प में है, तब तो ठीक है.
क्योंकि देश के तकरीबन सभी हिस्से में किसी-न-किसी तरह का अनाज उपलब्ध है और नकदी से लोग आसानी से अनाज खरीद सकते हैं. लेकिन, यदि यह खाद के विकल्प में दिया जायेगा, तो यह व्यावहारिक नहीं होगा, क्योंकि जरूरत के समय अक्सर किसानों को खाद नहीं मिल पाता. लिहाजा उन्हें जरूरत के समय खाद मुहैया कराने की मुकम्मल व्यवस्था करनी चाहिए. दूसरी बात यह कि कैश ट्रांसफर की व्यवस्था करने से पहले सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उस कैश से सभी को जरूरी संसाधन मिल सके. इसके बजाय, किसानों को खेती से संबंधित उद्यमों के जरिये प्रोमोट करना चाहिए. फिलहाल इस बारे में कुछ स्पष्टता भी नहीं है, इसलिए अभी इस बारे में इंतजार करना होगा. हालांकि, इससे अर्थशास्त्रियों के बीच एक नयी बहस छिड़ सकती है कि इसे लागू करना चाहिए या नहीं. जिस तरह से आज से करीब तीन-चार दशक पहले देश में गरीबी उन्मूलन के लिए गरीबी रेखा निर्धारित करने की बात की गयी और उस समय से लेकर आज तक इस पर बहस चली आ रही है, वैसा ही कुछ इस स्कीम के साथ होने की गुंजाइश रहेगी.
केंद्र सरकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था को डिजिटल सिस्टम से जोड़ रही है, जिसका फायदा किसानों को मिल रहा है. छोटे-छोटे बाजारों का विकास हो रहा है. सर्वेक्षण के तहत यह बताया गया है कि अनेक स्कीमों के जरिये कैसे गांवों तक लोगों को फायदा पहुंचाया जा रहा है. इसमें किसानों के हितों के लिए अनेक तथ्यों का जिक्र किया गया है. वित्तीय समावेशन के क्षेत्र में बेहतर रहा है. किसानों के विविध गतिविधियों के जरिये गैर-उद्यमिता से भी तरक्की हाे रही है. किसानों के संदर्भ में अनेक अच्छे काम हो रहे हैं. नयी तकनीकों के जरिये किसानों को नयी चीजों तक पहुंच कायम की जा रही है और उन्हें इसका फायदा भी मिल रहा है.
आज के आम बजट से उम्मीदें
जहां तक आज पेश होनेवाले आम बजट से ग्रामीण विकास के क्षेत्र में उम्मीदें हैं, उसमें सबसे अहम मसला सब्सिडी का है. किसानों को कैश ट्रांसफर के जरिये रकम मुहैया कराने की बातें हो रही हैं.
लेकिन, इसके बजाय उनके लिए जरूरी संसाधन मुहैया कराना सुनिश्चित करना चाहिए. किसानों को संरक्षण मुहैया कराने के लिए सबसे अहम चीज है यूरिया की कीमत. लेकिन, चूंकि यूरिया की कीमत को सरकार प्रोटेक्ट कर रही है, इसलिए इसकी कीमत नहीं बढ. सकती है. खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में कैश ट्रांसफर ठीक है, लेकिन फर्टीलाइजर के लिए यह सही नहीं होगा. नाबार्ड को मुहैया करायी जानेवाली धनराशि में वृद्वि होनी चाहिए. उम्मीद की जानी चाहिए कि मौजूदा एनडीए सरकार किसानों को क्रेडिट गारंटी के जरिये तरक्की की राह पर आगे ले जायेगी.(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
यह बजट मोदी सरकार के लिए आखिरी मौका
संदीप बामजेई
आर्थिक पत्रकार
इ स आिर्थक समीक्षा में यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम के बारे में बात की गयी है. कहा गया है खानों वाले राज्यों में कोयले से मिलनेवाले टैक्स के पैसे को यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम में लगाया जायेगा. यह एक अच्छी पहल है. इसमें एक आंकड़ा दिया गया है कि हर साल 90 लाख लोग भारत से इंडिया यानी गांव से शहर की ओर ट्रेन पकड़ कर जा रहे हैं काम करने के लिए. यह आजादी के बाद से सबसे ज्यादा आंकड़ा है पलायन का. इस ऐतबार से यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम की पहल अच्छी मानी जा सकती है.
एक दूसरी बात यह भी है कि हर सौ वोटर के लिए सिर्फ सात व्यक्ति टैक्स भरता है. इसका अर्थ यह है कि लोग टैक्स नहीं देते हैं और सरकार का राजस्व नहीं बढ़ पाता है. इसके लिए सरकार बजट में कुछ जरूर लेकर आयेगी, इसका अनुमान तो है, लेकिन वहीं यह भी सुनने में आ रहा है कि टैक्स छूटी की सीमा भी बढ़ा दी जायेगी. यानी कुल मिला कर देखें, तो यह आर्थिक समीक्षा सरकार के एक संतुलन रवैये की ओर इशारा कर रही है.
बैंकों के एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) यानी गैर-निष्पादित संपत्तियों के मसले को सुलझने के लिए हम अरसे से कोशिश में थे, लेकिन हमारी यह कोशिश असफल हो गयी है. बीते सितंबर में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ग्रॉस एनपीए 12 प्रतिशत तक हो गये, जिसे कह सकते हैं कि घोड़ा लगाम से बाहर हो गया. इसको किसी तरह से व्यवस्थित करने के लिए पहली बार मैंने देखा कि आर्थिक समीक्षा में एक पहल की गयी है और वह है बैड बैंक (बीएडी बैंक) बना कर उसमें पूरे ग्रॉस एनपीए को ट्रांसफर करना. यह बहुत अद्वितीय-सी योजना है, जिसके तहत सरकार एक नयी कंपनी को लायेगी, जो कि बैड बैंक होगा और जिसका नाम होगा ‘पीएसएआरए’ (पब्लिक सेक्टर एसेट रिहैबिलिटेशन एजेंसी).
सार्वजनिक बैंकों के पास एनपीए के जितने भी बड़े-बड़े मामले हैं, जो कंपनियां डूब गयी हैं, उन सभी को इस बैड बैंक में ट्रांसफर कर दिया जायेगा. सार्वजनिक बैंकों को पुनर्पूंजीकरण (रिकैपिटलाइजेशन) करने के लिए बहुत पैसा चाहिए, जो नहीं है. इसलिए सरकार ने बैड बैंक बना कर लोगों को भुलावा देने का काम किया है कि जो भी गलतियां हुईं, उन्हें माफ करें और ग्रॉस एनपीए को अब भूल जायें.
प्रधानमंत्री मोदी से लोगों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा रही हैं. पिछले तीन बजट यानी 2014-15-16 के दौरान जिस तरह से जन-अपेक्षाओं पर यह सरकार खरी नहीं उतर पायी है, उसके लिहाज से हम यह कह सकते हैं कि अब प्रधानमंत्री के पास यह बजट सत्र अच्छा मौका है देश को बहुत कुछ देने का.
ग्रोथ को इस बार आर्थिक समीक्षा में पौने सात से साढ़े सात प्रतिशत रखा गया है, जिसका अर्थ है कि सात प्रतिशत के आस-पास हमारी विकास दर रहेगी. एक और बात यह कही गयी है कि एक अप्रैल से लागू होनेवाले जीएसटी के बाद से राजस्व में कितना फायदा होगा, इसके बारे में अभी सोचने की जरूरत नहीं है. जाहिर है, इसका असर एक साल बाद ही दिखेगा.
मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि नरेंद्र मोदी के पास यह बजट आखिरी मौका है देश की अर्थव्यवस्था के लिए कुछ करने का. दरअसल, अगले साल का बजट आखिरी बजट होगा, क्योंकि उसके बाद 2019 आ जायेगा और तब वह बजट नहीं पेश कर सकते, बल्कि उन्हें अपनी उपलब्धियां ही गिनानी होंगी, क्योंकि तब देश में आम चुनाव होंगे.
वैसे भी आम चुनाव के पहले पेश होनेवाले बजट में सामान्यत: कुछ होता नहीं है. इसलिए मेरा मानना है कि आज पेश होनेवाला बजट अगर जन-अपेक्षाओं पर खरा उतर गया, तो ही नरेंद्र मोदी की कामयाबी दिखेगी, नहीं तो फिर अगले साल 2018 का बजट इस सरकार के लिए एक मुश्किलभरा बजट हो जायेगा. ऐसा इसलिए, क्योंकि पिछले तीनों बजट सत्र में सरकार ने सारे मौके गंवा दिये थे.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
क्या है आर्थिक सर्वेक्षण
प्रत्येक वर्ष संसद में प्रस्तुत किये जाने वाले केंद्रीय बजट से ठीक पहले केंद्रीय वित्त मंत्रालय आर्थिक सर्वेक्षण पेश करता है. इस सर्वेक्षण में देश के वार्षिक आर्थिक विकास के संदर्भ में मंत्रालय द्वारा समीक्षा की जाती है. आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सरकार के फैसलों का देश की अर्थव्यवस्था पर कैसा असर होता है. देश के किस क्षेत्र में कितना निवेश हुआ और कृषि समेत अन्य उद्योगों का कितना विकास हुआ, यह जानकारी भी आर्थिक सर्वेक्षण से मिलती है. इसके अलावा, बीते वित्तीय वर्ष में देश की संपूर्ण अर्थव्यवस्था की समीक्षा के बाद वित्त मंत्रालय यह वार्षिक दस्तावेज बनाता है. इसे बजट सत्र के दौरान संसद के दोनों सदनों में पेश किया
जाता है.
इन लोगों के लिए है उपयोगी
आर्थिक सर्वेक्षण नीति-निर्धारकों , अर्थशास्त्रियों, नीति विश्लेषकों, कारोबारियों, सरकारी एजेंसियों, छात्रों, अनुसंधानकर्ताओं, पत्रकारों और अर्थव्यवस्था के विकास में रुचि रखनेवालों के लिए यह उपयोगी होता है. इस सर्वे रिपोर्ट में अल्पावधि से मध्यावधि के दौरान अर्थव्यवस्था की तमाम संभावनाओं का लेखा-जोखा मौजूद होता है.
नये वित्तीय वर्ष से सभी चीजें लागू होने की उम्मीद
हालांकि, अब तक की परंपरा से इतर इस वर्ष कुछ पहले बजट प्रस्तुत किया जा रहा है. इसका मुख्य कारण बताया गया है कि सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती है कि बजट संबंधी सभी प्रक्रियाओं को 31 मार्च तक पूरा कर लिया जाये, ताकि आगामी वित्तीय वर्ष के पहले दिन से ही इसे बेहतर तरीके से लागू किया जा सके. आम तौर पर अब तक होता यह रहा है कि बजट संबंधी प्रक्रियाएं मई माह के मध्यकाल में जाकर पूरी हो पाती थीं. ऐसे में ज्यादातर राज्य सरकारें अनेक योजनाओं का क्रियान्वयन अक्तूबर तक कर पाते थे, लिहाजा उन्हें इसे लागू करने के लिए महज छह माह का ही वक्त मिल पाता था.
आंकड़े और अनुमान
7.1 फीसदी की जीडीपी वृद्धि दर वित्त वर्ष 2016-17 के दौरान रहने का अनुमान. यह अनुमान मुख्यत: वित्त वर्ष के प्रथम 7-8 महीनों के आधार पर लगाया गया है. वित्त वर्ष 2015-16 में यह दर 7.6 फीसदी थी.
26.6 फीसदी नियत निवेश (सकल नियत पूंजी निर्माण) एवं जीडीपी का अनुपात (वर्तमान मूल्यों पर) वित्त वर्ष 2016-17 में रहने का अनुमान है, जबकि 2015-16 में यह अनुपात 29.3 फीसदी था.
6.75 फीसदी से लेकर 7.5 फीसदी तक 2017-18 वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था के बढ़ने का अनुमान लगाया गया है.
राजकोषीय
26.9 फीसदी की वृद्धि अप्रत्यक्ष करों के संग्रह में दर्ज की गयी है. यह वृद्धि अप्रैल-नवंबर 2016 के दौरान दर्ज की गयी.
23.2 फीसदी की वृद्धि और पूंजीगत परिसंपत्तियों के सृजन के लिए अनुदान में की गयी 39.5 फीसदी की वृद्धि के परिणामस्वरूप अप्रैल-नवंबर 2016 के दौरान राजस्व व्यय में खासी बढ़ोतरी दर्ज की गयी.
मूल्य
2.9 फीसदी औसतन थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर आंकी गयी अप्रैल-दिसंबर 2016 में.
व्यापार
0.7 फीसदी की वृद्धि के साथ वर्ष 2016-17 (अप्रैल-दिसंबर) में निर्यात में सुधार का रुख रहा और निर्यात 198.8 अरब अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच गया. जबकि वर्ष 2016-17 (अप्रैल-दिसंबर) के दौरान आयात 7.4 फीसदी घटकर 275.4 अरब अमेरिकी डॉलर के स्तर पर आ गया.
76.5 अरब अमेरिकी डॉलर वर्ष 2016-17 (अप्रैल-दिसंबर) के दौरान व्यापार घाटा रहा.
0.3 फीसदी के स्तर पर रहा वर्ष 2016-17 की प्रथम छमाही में चालू खाता घाटा (सीएडी). वित्त वर्ष 2015-16 की प्रथम छमाही में यह घाटा जीडीपी का 1.5 फीसदी और 2015-16 के पूरे वित्त वर्ष में 1.1 फीसदी रहा था.
15.5 अरब अमेरिकी डॉलर की वृद्धि बीओपी के आधार पर वित्त वर्ष 2016-17 की प्रथम छमाही में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में दर्ज की गयी.
विदेशी कर्ज
484.3 अरब अमेरिकी डॉलर सितंबर, 2016 के आखिर में भारत पर विदेशी कर्ज का बोझ आंका गया, जो मार्च 2016 के आखिर में दर्ज किये गये विदेशी कर्ज बोझ के मुकाबले 0.8 अरब अमेरिकी डॉलर कम है.
कृषि
4.1 फीसदी वृद्धि दर वर्ष 2016-17 में कृषि क्षेत्र में रहने का अनुमान लगाया गया है. वित्त वर्ष 2015-16 में यह दर 1.2 फीसदी थी.
616.2 लाख हेक्टेयर रबी फसलों का कुल बुवाई रकबा 13 जनवरी 2017 को वर्ष 2016-17 के दौरान आंका गया, जो पिछले वर्ष के समान सप्ताह में दर्ज किये गये रकबे के मुकाबले 5.9 प्रतिशत अधिक है.
उद्योग
5.2 फीसदी तक 2016-17 में औद्योगिक क्षेत्र की वृद्धि दर के रहने का अनुमान है. वर्ष 2015-16 में यह वृद्धि दर 7.4 फीसदी थी.
4.9 फीसदी की संचयी वृद्धि दर अप्रैल-नवंबर 2016-17 के दौरान
आठ प्रमुख ढांचागत सहायक उद्योगों ने दर्ज की, जबकि पिछले वर्ष की समान अवधि में यह दर 2.5 प्रतिशत थी.
सेवा क्षेत्र
8.9 फीसदी की वृद्धि वर्ष 2016-17 में सेवा क्षेत्र में रहने का अनुमान लगाया गया है, जो वर्ष 2015-16 में दर्ज की गई वृद्धि के लगभग बराबर है.
यूनिवर्सल बेसिक इनकम
गरीब-से-गरीब व्यक्ति के लिए न्यूनतम आधार आय सुनिश्चित करने के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम यानी सार्वभौम बुनियादी आय को लागू कर पाने में कई रुकावटें हैं. इसके लागू करने से पहले योजनागत तैयारियों की दिशा में बड़ी पहल करनी होगी. फिलहाल, दुनिया के किसी भी देश में यह व्यवस्था सार्वभौम रूप से लागू नहीं की जा सकी है. साल 2017 में आर्थिक गतिविधियों के रिपोर्ट कार्ड आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआइ) के लागू होने से गरीबी में 0.5 प्रतिशत की गिरावट आयेगी, लेकिन यह जीडीपी को 4-5 प्रतिशत तक प्रभावित करेगी. हालांकि, सर्वे के अनुसार, मध्य वर्ग को खाद्य, पेट्रोलियम, उर्वरक के रूप में दी जानेवाली सब्सिडी से जीडीपी तीन फीसदी तक प्रभावित होती है.
यूबीआइ के लागू होने में अड़चनें
– जिला स्तर पर छह प्रमुख केंद्रीय क्षेत्रों व उप-प्रायोजित योजनाओं (पीडीएस व उर्वरक सब्सिडी को छोड़ कर) के तहत संसाधनों के अव्यवस्थित आवंटन पर सर्वे बताता है कि जिला स्तर पर राजकीय क्षमता बेहद कमजोर है. ऐसे में गरीबों तक संसाधनों की पहुंच सुनिश्चित करने में यूबीआइ अहम हो सकता है. लेकिन, सर्वे में स्कीम के बारे में किसी प्रकार की योजनागत तैयारियों पर कोई सुझाव नहीं दिया गया है.
– केंद्र और राज्यों के बीच इस कार्यक्रम की लागत साझा करने में दिक्कतें आ सकती हैं. जीएसटी और उसके प्रभावों पर कुछ राज्यों की प्रतिक्रिया से स्पष्ट है कि इस कार्यक्रम को लागू करने से पहले राजनीतिक इच्छाशक्ति और परस्पर समझ विकसित करनी होगी.