बदलता नहीं दिख रहा बीजिंग
भारत और चीन के बीच हुए पहले रणनीतिक संवाद से दोनों देशों के संबंधों में सुधार के नये चरण का सूत्रपात हुआ है. जैसा कि चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने रेखांकित किया है, दोनों पड़ोसी देश बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाएं होने के साथ वैश्विक राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और बातचीत का यह सिलसिला […]
भारत और चीन के बीच हुए पहले रणनीतिक संवाद से दोनों देशों के संबंधों में सुधार के नये चरण का सूत्रपात हुआ है. जैसा कि चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने रेखांकित किया है, दोनों पड़ोसी देश बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाएं होने के साथ वैश्विक राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और बातचीत का यह सिलसिला लगातार बना रहना चाहिए. विदेश सचिव एस जयशंकर ने भी रिश्तों को बेहतर करने के लिए भारत की प्रतिबद्धता दोहरायी है. एक तरफ भारत ने अपनी चिंताओं को सामने रखा है, तो चीन ने भी अपना पक्ष प्रस्तुत किया है. कूटनीतिक तनावों के मद्देनजर तुरंत नतीजे मिलने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए, पर यह संभावना जरूर बनी है कि दोनों देश सामरिक संवाद को आगे ले जाने, गलतफहमियों को दूर करने और भरोसे की बहाली की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं. भारत और चीन के बीच अच्छे संबंध न सिर्फ दोनों देशों के आर्थिक और राजनीतिक हितों के लिए जरूरी हैं, बल्कि दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की शांतिपूर्ण समृद्धि का आधार भी हैं. विदेश सचिव के चीन दौरे के महत्व और उसकी पृष्ठभूमि में चीन-भारत संबंधों के विभिन्न आयामों पर चर्चा आज के इन-दिनों में…
वैश्विक कूटनीति में आ रहे बदलावों और हितों के नये वैश्विक टकरावों को देखते हुए अब यह आवश्यकता महसूस होने लगी है कि भारत और चीन के बीच स्वस्थ व समृद्ध संबंध निर्मित हों. इस तथ्य से न केवल भारत, बल्कि चीन भी अनजान नहीं है, लेकिन इसके बावजूद चीन कूटनीतिक व सामरिक धरातल पर जिन उपायों का आश्रय लेता है या जिन गतिविधियों को संचालित करता है, उन्हें किसी भी दृष्टि से भारत-चीन मैत्री का प्रतीक नहीं माना जा सकता. ऐसे में विदेश सचिव एस जयशंकर का भारत-चीन रणनीतिक वार्ता में शामिल होने के लिए बीजिंग पहुंचना और मुख्य रूप से उन तीन मुद्दों पर चीन का ध्यान आकर्षित करना, जो भारत के लिए विशेष कूटनीतिक-सामरिक महत्व रखते हैं, समय की जरूरत के रूप में देखे जा सकते हैं. लेकिन, चीन की तरफ से उन पर कोई सकारात्मक संकेत न मिलना किसी बेहतर उपलब्धि का सूचक नहीं माना जा सकता. अब प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में भारत की जरूरतों को चीन समझता है और क्या वह भारत की भौगोलिक संप्रभुता का आदर करना चाहता है? क्या भारत को चीन के इस नजरिये के बावजूद स्वस्थ संबंधों के अपने प्रयासों को जारी रखना चाहिए?
भारत का तर्क
भारतीय विदेश सचिव एस जयशंकर की चीन यात्रा मुख्यतया तीन मुद्दों पर केंद्रित थी. प्रथम- पाकिस्तानी आतंकी एवं जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मसूद अजहर के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन का वीटो. द्वितीय- एनएसजी में भारत की सदस्यता को लेकर चीनी अड़ंगा और तृतीय- चीन की 46 अरब डॉलर वाली महत्वाकांक्षी परियोजना यानी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर भारत का नजरिया. ध्यान रहे कि अभी कुछ समय पहले ही भारत के जैश-ए-मुहम्मद के सरगना आतंकवादी मसूद अजहर पर प्रतिबंध लगाने संबंधी प्रस्ताव पर चीन ने वीटो कर दिया था. जैश-ए-मुहम्मद की आतंकी गतिविधियों और पठानकोट हमले में मसूद अजहर की भूमिका से जुड़े पक्के सबूत के साथ उसे प्रतिबंधित करने हेतु भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्् में एक प्रस्ताव लाया था. भारत की ओर से दिये गये बयान में कहा गया था कि वर्ष 2001 से जैश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की प्रतिबंधित सूची में शामिल है, क्योंकि वह आतंकी संगठन है और उसके अल-कायदा से लिंक हैं, लेकिन तकनीकी कारणों से जैश मुखिया मसूद अजहर पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सका. भारत का तर्क था कि इस तरह के आतंकी संगठनों को प्रतिबंधित न किये जाने का खमियाजा पूरी दुनिया को उठाना पड़ सकता है. इस तर्क पर कमेटी के 15 में से 14 सदस्य सहमत भी थे, लेकिन चीन की असहमति ने मसूद अजहर को प्रतिबंधित सूची में जाने से रोक लिया.
मसूद पर पाबंदी लगाने की मुहिम
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हांग लेई की तरफ इस संदर्भ में कहा गया था कि चीन ‘आतंकवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सहयोग में संयुक्त राष्ट्र में एक केंद्रीय एवं समन्वित भूमिका निभाने का समर्थन करता है. लेकिन, ‘हम एक वस्तुनिष्ठ और सही तरीके से तथ्यों और कार्यवाही के महत्वपूर्ण नियमों पर आधारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् समिति के तहत मुद्दे सूचीबद्ध करने पर ध्यान देते हैं, जिसकी स्थापना प्रस्ताव 1267 के तहत की गयी थी.’ रणनीतिक वार्ता के दौरान विदेश सचिव ने चीन से स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मसूद अजहर पर सुबूत देना हमारा काम नहीं है. उनका कहना था कि मसूद अजहर की गतिविधियों को लेकर अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां उसकी गतिविधियों के बारे में काफी सूचनाएं जुटा चुकी हैं. अजहर पर पाबंदी लगाने की मुहिम में भारत अकेला नहीं है, दूसरे देश भी इसके पक्ष में हैं.
एनएसजी की सदस्यता में अड़चनें
न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में भारत के प्रवेश पर चीन का नजरिया नकारात्मक रहा है, जबकि ताशकंद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से आग्रह किया था कि चीन भारत के आवेदन पर एक निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करे तथा भारत की मेरिट के आधार पर निर्णय ले. लेकिन, शी जिनपिंग ने उस समय भी जवाब दिया था कि यह एक जटिल और नाजुक प्रक्रिया है. उस समय चीन के शस्त्र नियंत्रण विभाग के महानिदेशक वांग कुन का तर्क था यदि कोई देश एनएसजी का सदस्य बनना चाहता है, तो उसके लिए परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर करना ‘अनिवार्य है’. यह नियम चीन ने नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने बनाया है. उन्होंने चेतावनी भी दी कि ‘यदि यहां या फिर एनपीटी के सवाल पर अपवादों को अनुमति दी जाती है, तो अंतरराष्ट्रीय अप्रसार एक-साथ ढह जायेगा.’ कुल मिला कर चीन तब भारत के एनएसजी में प्रवेश के विरोध में हैं, जब तक भारत एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं कर देता. खास बात यह है कि इस रणनीतिक वार्ता के बाद भी इस विषय पर चीन में कोई परिवर्तन नहीं दिखा है.
चीन-पाक आर्थिक गलियारे के पेंच
चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीइसी) में भारत के शामिल होने संबंधी विषय भी विदेश सचिव की इस यात्रा के दौरान उठा. इस संबंध में भारत ने चीन से यह बताने को कहा कि वह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीइसी) में कैसे शामिल होगा, जबकि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) से गुजरनेवाली यह परियोजना उसकी संप्रभुता के खिलाफ है. उल्लेखनीय है कि इसी वर्ष मई में होनेवाले सम्मेलन में चीन ने भारत को भी शामिल होने का निमंत्रण दिया है. विदेश सचिव का कहना था कि ‘हम चीन के प्रस्ताव पर विचार कर रहे हैं. लेकिन, वास्तविकता यह है कि यह परियोजना एक ऐसे भौगोलिक हिस्से से गुजर रही है, जो भारत के लिए काफी संवेदनशील है. वैसे भी चीन भौगोलिक संप्रभुता को लेकर काफी संवेदनशील रहता है. लेकिन, उसे इस बात का जवाब देना चाहिए कि किस तरह से कोई देश इसमें शामिल हो सकता है, जिसकी संप्रभुता इससे प्रभावित हो रही हो.’
भारत के सवाल को चीन ने टाला
बहरहाल, विदेश सचिव एस जयशंकर के नेतृत्व में भारतीय दल ने बीते बुधवार को बीजिंग में भारत-चीन रणनीतिक वार्ता की पहली बैठक में हिस्सा लिया और इस दौरान चीन को लेकर भारत की कूटनीतिक में कुछ दिनों से दिख रहे बदलाव को विदेश सचिव ने पूरी तरह से साफ किया. महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों देशों की तरफ से यह वक्तव्य दिया गया कि उनकी रणनीतिक बातचीत सफल और सकारात्मक रही है. लेकिन, चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने जैश-ए-मुहममद के सरगना मसूद अजहर और एनएसजी में भारत की सदस्यता से जुड़े सवाल टाल दिये. चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गैंग शुआंग ने कहा कि भारत और चीन के बीच हुई बातचीत में संभावित लक्ष्य हासिल कर लिये गये. लेकिन, सवाल यह उठता है कि जब प्रमुख तीन मुद्दों में दो पर चीन अपने पुराने निर्णय पर अडिग हो, तो फिर वार्ता के नतीजों को किस रूप में देखा जाना चाहिए.
रणनीतिक वार्ता के मायने
जब दो देश अपने विवादित पांरपरिक मुद्दों को भुला कर समान हितों पर सहमति बनाते हैं, दीर्घकालिक हितों को साधने के लिए ठोस कदम उठाते हैं, तो उसे रणनीतिक वार्ता कहा जाता है. विशेषकर तब, जब अमेरिकी नीति एशिया पीवोट से मास्को पीवोट की ओर शिफ्ट हो रही हो और मास्को का नजरिया नयी दिल्ली से इस्लामाबाद की ओर शिफ्ट हो रहा हो, तब यह जरूरी है कि नयी दिल्ली बीजिंग की गतिविधियों को गंभीरता से देखे और और उसे मास्को-इस्लामाबाद के बीच सेतु बनने से रोके. हालांकि, चीन पाकिस्तान को अपना ‘आॅलवेदर दोस्त’ मानता है और सीपीइसी तथा स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स में उसको रणनीतिक महत्व के केंद्र में रख कर आगे बढ़ रहा है, ऐसे में मुश्किल है कि बीजिंग का इस्लामाबाद प्रेम कम होगा या फिर वह नयी दिल्ली के प्रति अपना नजरिया बदलेगा. बीजिंग यदि नयी दिल्ली के प्रति अपना नजरिया बदल ले, तो वह कहीं अधिक लाभ की स्थिति में रहेगा, लेकिन शायद वह ऐसा करेगा नहीं.
डॉ रहीस सिंह
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
अंतरराष्ट्रीय समुदाय के जरिये चीन पर दबाव बनाने की जरूरत
साल 2005 के बाद से भारत और चीन के बीच संबंधों में कोई बड़ी प्रगति देखने को नहीं मिली है. इसकी वजह यह है कि इस दौरान भारत का झुकाव अमेरिका की तरफ हुआ और चीन को लेकर एक संतुलन बनाने की ही रणनीति अपनायी गयी. हालांकि, चीन और भारत के बीच कई स्तर पर वार्ताएं होती रही हैं. इसी का एक सिलसिला है भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर की चीन यात्रा, जिसका भी कुछ ठोस हासिल नहीं हुआ है. बीजिंग में संपन्न हुए इस वार्ता में कई अहम समझौतों पर सहमति तो बनी, लेकिन दो प्रमुख मुद्दों- एनएसजी में भारत की सदस्यता और मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने को लेकर भारत को कोई बड़ी सफलता नहीं मिली.
बीत कई वर्षों से भारत की यह कोशिश रही है कि उसे परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनसजी की सदस्यता मिल जाये. दरअसल, भारत इस उम्मीद से एनएसजी की सदस्यता चाहता है, ताकि वह अपनी परमाणु तकनीक की क्षमता का विस्तार कर सके और पर्याप्त मात्रा में यूरेनियम खरीद सके. लेकिन, चीन यह होने नहीं देना चाहता और इसीलिए वह अपने इस तर्क से अड़ंगा डाल रहा है कि जो देश परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर दस्तखत नहीं किये हैं, उन्हें एनएसजी की सदस्यता नहीं मिलनी चाहिए. चीन का यह भी तर्क है कि अगर भारत को एनएसजी में शामिल किया जा रहा है, तो पाकिस्तान को क्यों नहीं. यहां भारत का तर्क है कि पाकिस्तान एक जिम्मेवार राष्ट्र नहीं है और पाकिस्तान अपने परमाणु कार्यक्रम को गुप्त नहीं रखता है और ऐसे देशों के साथ साझा करता है जो विश्व शांति के लिए खतरे हैं, इसलिए उसे सदस्यता नहीं मिलनी चाहिए. चीन इसलिए भी नहीं चाहता कि भारत एनएसजी का सदस्य बने, क्यांेकि उसे डर है कि इससे भारत परमाणु तकनीक के मामले में चीन की बराबरी में आ जायेगा. इन सबके मद्देनजर ही जयशंकर का चीन दौरा अहम तो था, लेकिन यह अपने मकसद में कामयाब नहीं रहा.
भारत और चीन का आपस में आतंकवाद से लड़ने को लेकर अपनी-अपनी रणनीति है. भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहां मानवाधिकारों का ख्याल किया जाता है. वहीं चीन में एक पार्टी की सरकार है और उसका यह मानना है कि जहां भी आतंकवाद पनपेगा उसको जड़ से खत्म कर दिया जायेगा, भले ही वहां मानवािधकार का उल्लंघन हो. पठानकोट का मास्टरमाइंड मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने के संयुक्त राष्ट्र में यूके और अमेरिका की कोशिशों का चीन ने विरोध किया. ऐसा विरोध चीन पहले कर चुका है. चीन कह रहा है कि भारत के पास अजहर के खिलाफ ठोस सबूत नहीं है, जबकि भारत ने ठोस सबूत दिये हैं. बीते कुछ अरसे से पाकिस्तान और चीन की दोस्ती एक सदाबहार दोस्ती की तरह है और चीन किसी भी हाल में पाकिस्तान से दूरी नहीं चाहता, क्योंकि पाकिस्तान दक्षिण एशिया में भारत को काउंटरबैलेंस (संतुलन) करता है. दूसरी बात यह है कि भारत का चीन के साथ 72 बिलियन डॉलर का व्यापार है. भारत में चीन अपना निवेश बढ़ाना चाहता तो है, लेकिन वह अपने हिसाब से क्षेत्रों को चुनना चाहता है. मसलन, चीन मुंबई पोर्ट को विकसित करना चाहता है (मुंबई पोर्ट से नेवल बेस एक किमी दूर है और यह बहुत संवेदनशील क्षेत्र है), इसलिए भारत नहीं चाहता कि चीन यहां निवेश करे. भारत चाहता है कि चीन मध्य प्रदेश, तमिलनाडु आदि राज्यों में निवेश करे. इसलिए चीन से निवेश आ नहीं रहा है. बीजिंग वार्ता में इस मसले पर भी पहल करने की भारत ने कोशिश की.
इस साल ब्रिक्स देशों के सम्मेलन को चीन मेजबानी करने जा रहा है. इसमें क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय मामलों जैसे आतंकवाद या व्यापार घाटे आदि को शामिल करने के लिए भी जयशंकर की कोशिश रही है. लेकिन, किसी भी मामले में इस वार्ता से भारत के नजरिये से कोई ठोस फायदा नहीं हुआ. चाहे मसूद अजहर का मामला हो या एनएसजी में भारत की सदस्यता का, इन दोनों मामलों में दुनिया के कई देश भारत का साथ देते नजर आ रहे हैं, लेकिन अकेला चीन ही अड़ंगा लगा रहा है. ऐसे में भारत को अब दबाव की रणनीति अपनानी पड़ेगी कि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय के माध्यम से अपनी बात को मजबूती से रखे. भारत दो तरीके से चीन को दबाव में ला सकता है. भारत का बहुत बड़ा व्यापारिक सहयोगी है चीन, इस मुद्दे पर भारत मोल-तोल कर दबाव बना सकता है. दूसरा यह कि भारत वियतनाम के साथ एक नणनीतिक सहयोग स्थापित करे, म्यांमार से रिश्तों को मजबूत करे और बाकी दक्षिण एशियाई देशों के साथ अपने व्यापार को बढ़ाये, तभी मुमकिन है कि चीन पर दबाव बन पायेगा. क्योंकि, चीन की यह कोशिश रही है कि दक्षिण एशिया में उसका मिडिल किंगडम (मध्य साम्राज्य) बना रहे. इस स्तर पर चीन को चुनौती देकर ही भारत उस पर दबाव बना सकता है और तब मुमकिन है कि चीन अड़ंगे लगाना छोड़ देगा.
संजय भारद्वाज
प्राध्यापक, जेएनयू
चीन-भारत व्यापार के आंकड़े
(2015 से 2017)
70.8 बिलियन डॉलर मूल्य का द्विपक्षीय व्यापार हुआ दोनों देशों के बीच वर्ष 2016 में.
71.64 बिलियन डॉलर का कुल व्यापार हुआ दोनों देशों के बीच वर्ष 2015 में.
70.59 बिलियन डॉलर का कुल व्यापार हुआ दोनों देशों के बीच वर्ष 2014 में.
46.56 बिलियन डॉलर का भारत का व्यापारा घाटा बढ़ा वर्ष 2016 में.
44.87 बिलियन डॉलर का भारत का कुल व्यापार घाटा बढ़ा वर्ष 2015 में.
52.69 बिलियन डॉलर का वित्तीय वर्ष 2015-16 में भारत के व्यापार घाटे में वृद्धि हुई.
48.48 बिलियन डॉलर का वित्तीय वर्ष 2014-15 में भारत के व्यापार घाटे में वृद्धि हुई.
50 बिलियन डॉलर के आस-पास रहा वित्तीय वर्ष 2016-17 में भारत का कुल अंतरराष्ट्रीय व्यापार घाटा हुआ.
25.22 बिलियन डॉलर का अप्रैल-सितंबर, 2016 में चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा रहा.
118 बिलियन डॉलर का कुल व्यापार घाटा रहा वित्तीय वर्ष 2015-16 में भारत का.
58.33 बिलियन डॉलर मूल्य की वस्तुओं का वर्ष 2016 में चीन ने निर्यात किया था, जो कि 2015 की तुलना में 0.2 प्रतिशत ज्यादा था.
58.25 बिलियन डॉलर मूल्य की वस्तुओं का वर्ष 2015 में चीन ने निर्यात किया था.
11.76 बिलियन डॉलर मूल्य की वस्तुओं का वर्ष 2016 में भारत ने चीन को निर्यात किया था.
13.38 बिलियन डॉलर मूल्य की वस्तुओं का वर्ष 2015 में भारत ने चीन को निर्यात किया था.
16.4 बिलियन डॉलर का वर्ष 2014 में भारत ने चीन को निर्यात किया था.
1.59 बिलियन डॉलर का कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश चीन से हुआ अप्रैल, 2000 से सितंबर 2016 के बीच.
भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार (2011 से 2014)
राशि – अमेरिकी मिलियन डॉलर में
वर्ष आयात निर्यात कुल व्यापार व्यापार घाटा
2011-12 55,313.58 18,076.55 73,390.13 37,237.03
2012-13 52,248.33 13,534.88 65,783.21 38,713.45
2013-14 51,049.01 14,829.31 65,878.32 36,219.70
अप्रैल-मई, 2014
(प्रोविजनल) 9,219.00 2,213.10 11,432.10 7,005.90
(स्रोत: डायरेक्टोरेट जनरल आॅफ कॉमर्शियल इंटेलीजेंस एंड स्टेटिस्टिक्स, वाणिज्य मंत्रालय, भारत
भारत-चीन विवाद के मुख्य मुद्दे
सीमा विवाद
भारत और चीन को मैकमोहन लाइन अलग करती है, लेकिन यही लाइन इन दोनों देशों के बीच विवाद की वजह भी है. चीन इसे दोनों देशों के बीच की सीमा रेखा मानने से इनकार करता है. भारतीय सीमा क्षेत्र को लेकर चीन का पहला दावा अक्साई चीन को लेकर है. जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के इस क्षेत्र को भारत अपना मानता है, लेकिन इस क्षेत्र पर चीन का कब्जा है. कब्जे के बाद वाले हिस्स से ही चीन भारतीय सीमा मानता है. उसका दूसरा दावा पूर्वी क्षेत्र स्थित अरुणाचल प्रदेश को लेकर है. 1954 में भारत ने नॉर्थ इस्ट फ्रंटियर एजेंसी बनायी, जिसे बाद में अरुणाचल प्रदेश के तौर पर मान्यता दी गयी. लेकिन, चीन ने उसे मान्यता देने से इनकार कर दिया. चीन यह दावा करता है कि अरुणाचल प्रदेश की 90,000 वर्ग मील भूमि और भारत-चीन सीमा के बीच की 2000 वर्ग मील भूमि उसकी है. इतना ही नहीं, सिक्किम को लेकर भी चीन और भारत में मतभेद है. 1975 में सिक्किम राज्य द्वारा कराये गये जनमत संग्रह में भारत में विलय के पक्ष में मत पड़े. इस प्रकार सिक्किम भारत का अंग बन गया, लेकिन चीन ने इसे भी मानने से इनकार कर दिया.
भारत भारत-चीन के बीच सीमा रेखा निर्धारित करने के लिए 1913-14 में चीन, तिब्बत और ब्रिटेन के प्रतिनिधियों ने शिमला में एक सम्मेलन किया. इस सम्मेलन में ब्रिटिश इंडिया के तत्कालीन विदेश सचिव सर हेनरी मैकमोहन ने ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच 550 मील की लंबी सीमा रेखा निर्धारित की. इस रेखा को तिब्बत और ब्रिटिश प्रतिनिधियों ने स्वीकार किया और इस प्रकार तवांग और तिब्बत के दूसरे इलाके इंपीरियल ब्रिटिश एंपायर के अधीन हो गये. लेकिन, चीन के प्रतिनिधि ने मैकमोहन लाइन को दोनों देशों के बीच की सीमा रेखा मानने से इनकार कर दिया. उस समय चीन ने दावा किया कि उसका इलाका असम की सीमा तक है. तब से लेकर अब तक यह विवाद चलता आ रहा है.
चीन-पाक आर्थिक गलियारा (सीपीइसी)
सीपीइसी के तहत ऐसे अनेक इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स आते हैं, जो चीन और पाक के सहयोग से तैयार हो रहे हैं. इन प्रोजेक्ट्स में हाइवे व रेलवे, एपीजी व गैस ट्रांसपोर्ट के लिए पाइपलाइन के नेटवर्क सहित अनके परियोजनाएं शामिल हैं. इस परियोजना की घोषणा चीनी प्रमुख शी जिनपिंग ने वर्ष 2015 में अपने पाकिस्तान दौरे के समय की थी. 46 बिलियन डॉलर की इन परियोजनाओं का उद्देश्य दोनों देशों के व्यावसायिक हित को साधना है. सीपीइसी भले ही चीन-पाक की परियोजनाएं हैं, लेकिन इसे लेकर भारत को गंभीर अापत्ति है. आपत्ति का कारण इन परियोजनाओं का पाक कब्जे वाले कश्मीर से होकर गुजरना है. भारत का मानना है कि सीपीइसी के लिए पीओके का इस्तेमाल भारत की संप्रभुता में दखल देना है.
मसूद अजहर पर चीन का वीटो
जैश-ए-मोहम्मद का सरगना मसूद अजहर, 13 दिसंबर, 2001 को संसद पर हुए हमले, 26 नवंबर, 2008 को मुंबई स्थित ताज होटल और 2 जनवरी, 2016 को पठानकोट स्थित एयरबेस पर आतंकी हमलों का सूत्रधार माना जाता है. भारत चाहता है कि संयुक्त राष्ट्र मसूद अजहर को आतंकियों की सूची में शामिल करे और इसके कहीं भी आने-जाने पर पांबदी लगाये व इसकी संपत्ति को जब्त करे. भारत इसके लिए वर्ष 2009 से प्रयासरत है. अभी पिछले साल यानी 2016 में ही मार्च और अक्तूबर में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इसके लिए आवेदन किया था. संयुक्त राष्ट्र के अधिकतर सदस्यों के पक्ष में होने के बावजूद चीन बार-बार तकनीकी कारणों का हवाला देकर ऐसा करने से मना कर रहा है. चीन का यह कदम भी दाेनों देशों के के बीच विवाद की एक वजह है.
एनएसजी में भारत की सदस्यता का विरोध
एनएसजी परमाणु हथियार आपूर्ति करनेवाले देशों का समूह है. इस समूह का उद्देश्य परमाणु अप्रसार को बढ़ावा देना और परमाणु हथियारों के निर्माण को रोकना है, ताकि दुनिया में इसकी होड़ खत्म हो सके. वर्तमान में एनएसजी के 48 सदस्य हैं. चीन भी समूह में शामिल है. एनएसजी में भारत को शामिल करने को लेकर यूएस, फ्रांस, यूके, रूस, स्विटजरलैंड, जापान सहित अनेक देश भारत के पक्ष में हैं. इस ग्रुुप में शामिल होने से भारत को कई तरह का फायदा मिलेगा, लेकिन चीन इसका विरोध कर रहा है. चीन का कहना है कि इस ग्रुप में शामिल होने के लिए परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर हस्ताक्षर करना जरूरी है.