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एक आंसू भी हुकूमत के लिए खतरा है

मुनव्वर राना से मुनव्वर राना शेरो-शायरी की दुनिया में बड़ा और परिचित नाम हैं. वह पिछले वर्ष देश में बढ़ती असहिष्णुता के मसले पर साहित्य अकादमी से मिला पुरस्कार लौटा कर सुर्खियों में रहे. मुनव्वर राना प्रभात खबर के निमंत्रण पर शेरो-शायरी के लिए शनिवार को गयावासियों के बीच थे. इसी दौरान प्रसनजीत ने उनसे […]

मुनव्वर राना से
मुनव्वर राना शेरो-शायरी की दुनिया में बड़ा और परिचित नाम हैं. वह पिछले वर्ष देश में बढ़ती असहिष्णुता के मसले पर साहित्य अकादमी से मिला पुरस्कार लौटा कर सुर्खियों में रहे. मुनव्वर राना प्रभात खबर के निमंत्रण पर शेरो-शायरी के लिए शनिवार को गयावासियों के बीच थे. इसी दौरान प्रसनजीत ने उनसे लंबी बातचीत की. पेश है बातचीत का खास अंश.
सवाल : मौजूदा दौर में हमारा समाज चारों तरफ से समस्याओं से घिरा दिख रहा है. ऐसे वक्त में साहित्य व साहित्यकारों की क्या भूमिका हो सकती है?
जवाब : साहित्यकार भी इसी समाज के अभिन्न हिस्सा हैं. ऐसे में उनकी भूमिकाएं हो ही सकती हैं. वे मददगार हो सकते हैं. खास वजह यह है कि साहित्य व साहित्यकार कभी आधा सच नहीं बोलते. ये पूरा बोलते हैं और जो भी बोलते हैं, सही व जायज बोलते हैं. समाज को चाहिए कि वह अपने स्तर पर साहित्यकारों की भूमिका बढ़ाये. इसमें सरकारों का भी एक रोल है. पर, साहित्यकारों को लेकर सोचने के मामले में सरकारें घोर उदासीन हैं.
आज देखिए चारों तरफ क्या हो रहा है? यह हद है कि अभी गदहे चर्चा में बने हुए हैं.
सवाल : आप यूपी इलेक्शन की ओर संकेत कर रहे हैं. यह सब क्यों हो रहा है? इसकी वजह क्या है?
जवाब : बताइए कि और क्या हो सकता है? देखिए, जैसा माहौल है, उसमें इससे अधिक क्या होगा. कोई किसी को कुछ भी कह दे रहा है. जिसको जो मन में आ रहा, बोल रहा है, कर दे रहा है. हर व्यक्ति को सोच-समझ कर कुछ भी बोलना-करना चाहिए. और वही बोलना-करना चाहिए, जो देश के भले के लिए हो, जिसमें समाज का हित हो. सोचिए कि पीएम हैं, तो वह पीएम हैं. अब वह चाहे जैसे भी हों, हमारे प्रधानमंत्री हैं, देश के प्रधानमंत्री हैं. उनके बारे में हम-आप जो-सो टीका-टिप्पणी कर दें, यह तो ठीक नहीं. पर, यही सब हो रहा है. इससे पता चलता है कि हमारी सामाजिक व साहित्यिक समझ लगातार कमजोर होती जा रही है.
सवाल : तो क्या आपको लगता है कि देश में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा?
जवाब : मेरी तो समझ है कि देश इस वक्त एक बड़े बम में बदला हुआ है. चारों तरफ इसके पलीतेनिकले हुए हैं. कोई कहीं भी आग लगा दे, तो बड़ा विस्फोट तय है. कहीं सांप्रदायिकता है, तो कहीं असहिष्णुता है. कहीं भ्रष्टाचार है, तो कहीं उग्रवाद-आतंकवाद का बोलबाला है. देखिए, दुश्मनों की कहीं कमी है क्या? अब हमारे प्रधानमंत्री छप्पन इंच के सीने की बात करते हैं, तो मुझे लगता है कि उन्हें इसे दिखाना भी चाहिए. बताना भी चाहिए कि हममें वह साहस है कि हम विपरीत परिस्थितियों में भी खुद को साबित कर देंगे.
सवाल : इसमें हमारी कमी क्या है? हमसे चूक कहां हो रही है? हुकूमत से कोई उम्मीद?
जवाब : हमें देश के इतिहास को ठीक से पढ़ना चाहिए. उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझना होगा. मौकापरस्त लोग ताक में बैठे हैं. ऐसे लोगों को पहचानना होगा. ऐसे लोगों ने देश को इतिहास के दो पन्नों में बांट कर रख दिया है. एक हिंदू का पन्ना है, तो दूसरा मुसलमान का. देश में गरीबी है, अशिक्षा है, उग्रवाद और आतंकवाद है. इन्हें निर्मूल करने के लिए ठंडे दिमाग से सोच-समझ कर प्रभावी तरीके से उपाय किये जाने चाहिए. देखिये, हमारे देश की कानून व न्याय व्यवस्था कैसी है? न्याय के लिए अदालत पहुंचे लोगों के मामले वर्षों लटके रहते हैं. निबटारा नहीं होता. क्यों नहीं न्याय व्यवस्था में भी ठेके का इंतजाम होना चाहिए? क्यों न इसमें भी कंट्रैक्ट सिस्टम लागू किया जाना चाहिए, ताकि लोगों को समय पर न्याय मिल सके, उनका हक मिल सके? पर, यह सब कहां हो रहा है? सरकारें कहां गंभीर हैं इन मसलों पर? ऐसे में आप क्या उम्मीद कर सकते हैं? वैसे, बेहतर होगा कि हुकूमत की बागडोर थामे लोग इन दिक्कतों को समझें और सही दिशा में कदम उठाएं.
सवाल : इस माहौल में दिख रही गड़बड़ी को दूर करने के लिए समाज व सरकार को आपके सुझाव क्या हैं?
जवाब : बहुत बातें हैं. ध्यान देने की बात है कि भगवान को भी यहां पैदा होने के लिए नौ महीने का वक्त लगा. अब देखिए, आपके यहां रातों-रात नेता पैदा हो जाता है. एक अदना सा आदमी एक जुमला लिख देता है. मान लें कि लिख दिया, ‘काम बोलता है’. और किसी वजह से यह जुमला वोटों के बाजार में चल भी पड़ा. मजे की बात यह होती है कि इसके साथ यह मान लिया जाता है कि अब तो वही इंसान सबसे समझदार व्यक्ति है, वही सब कुछ जानता-समझता है. वही हर कुछ कर सकता है. उसी की हर जगह पूछ हो रही है, पूजा हो रही है. यही तो चल रहा है देश में. फिर और क्या हो सकता है?
सवाल: पर, एक साहित्यकार की दृष्टि से आप अपने सुझाव भी तो दें. होना क्या चाहिए?
जवाब: हर स्तर पर चीजें बदलें, इसके लिए हर व्यक्ति को प्रयास करना होगा. इसमें सबकी भूमिका जरूरी है. एक चीज यह होनी चाहिए कि लोकसभा व विधानसभाओं में 15 प्रतिशत जगह बुद्धिजीवियों के लिए आरक्षित होनी चाहिए. उन सीटों पर उन्हें ही नॉमिनेट किया जाना चाहिए या चुनाव लड़ाना चाहिए. जब वहां बुद्धिजीवी (कई चर्चित हस्तियों के नाम लेते हुए) खड़े होंगे, बोलेंगे, तो बातें कुछ और किस्म की होंगी. नेताओं की बातों का अब कोई भरोसा नहीं करता. साहित्यकारों के मामले में मैं पहले ही कह चुका हूं कि वे आधा सच नहीं बोलते. पर, दुर्भाग्य है कि उनकी यहां इज्जत नहीं है. सरस्वती पुत्रों की डेडबॉडी तो ठेले पर लद कर कब कहां चली जाती है, किसी को पता ही नहीं चलता. धनाभाव में उनकी पत्नियां भूख व बीमारी से तड़प कर मर जाती हैं. बच्चे स्कूल नहीं जा पाते. यह पाप सरकारों को खा रहा है और खायेगा भी. मेरा एक शेर है- एक आंसू भी हुकूमत के लिए खतरा है, तुमने देखा नहीं आंखों का समंदर होना.

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