राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण पूरे देश में परिवारों के प्रातिनिधिक नमूनों के आधार पर किया जानेवाला एक व्यापक सर्वेक्षण है, जो कई चरणों में होता है. वर्ष 1992-93 में पहली बार यह सर्वेक्षण हुआ था. अब तक चार सर्वेक्षण हो चुके हैं. प्रजनन, नवजात शिशु, शिशु मृत्यु दर, परिवार-नियोजन, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, पोषण तथा परिवार नियोजन और स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोग जैसे बिंदुओं पर देश और राज्यों के स्तर पर सूचनाएं जुटायी जाती हैं. वर्ष 2015-16 के ताजा सर्वेक्षण में पहली बार जिला-स्तर के आंकड़े भी उपलब्ध कराये गये हैं. इसमें पहली बार सभी छह केंद्रशासित राज्यों को भी शामिल किया गया है. इस सर्वेक्षण को 20 जनवरी, 2015 और चार दिसंबर, 2016 के बीच पूरा किया गया, जिसमें देश के अलग-अलग हिस्से से 14 एजेंसियों ने 6,01,509 परिवारों से सूचनाएं जुटायीं. इस अध्ययन में 6,99,686 महिलाएं और 1,03,525 पुरुष शामिल हुए. ताजा अध्ययन के बड़े आकार और सूचना तकनीक के इस्तेमाल के कारण इसके आंकड़ों को पहले के सर्वेक्षण से तुलना करने की सीमाएं हैं तथा आगे के सर्वेक्षण नवीनतम सर्वेक्षण पर आधारित होंगे. उम्मीद है कि सरकारें अपनी नीति-निर्धारण की प्रक्रिया में इससे मिली सूचनाओं और निष्कर्षों को समुचित रूप से शामिल करेंगी. आज के संडे-इश्यू में पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण का विश्लेषण…
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, जिसके अंतर्गत प्रजनन, बाल एवं शिशु मृत्यु दर, परिवार नियोजन पर अमल, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, पोषण, स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता आदि का सर्वेक्षण किया जाता है, उसकी ताजा रिपोर्ट में महिलाओं के लिए कुछ खुशखबरी है, और कुछ चिंताएं.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की 2015-16 की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है. यह एक दशक में 55.1 से बढ़ कर 68.4 तक पहुंच गयी है. ध्यान रहे, पिछला सर्वेक्षण 2005-06 में संपन्न हुआ था. शिक्षण संस्थानों में छात्राओं की संख्या में बढ़ोत्तरी आसानी से सदृश्य हो चली है. यद्यपि अभी पुरुषों के साथ बराबरी के लिए काफी प्रयास करने हैं, इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि 13 फीसद से अधिक की बढ़ोत्तरी अच्छा बदलाव है.
महिलाओं के लिए एक और क्षेत्र में बेहतरी दर्ज की गयी है, वह है बाल विवाह के दर में गिरावट. ज्ञात हो कि हमारे देश में बाल विवाह एक गंभीर समस्या के तौर पर लंबे समय से मौजूद रहा है. कानूनन अपराध घोषित किये जाने तथा सामाजिक तौर पर लगातार जागरूकता फैलाने के सरकारी-गैरसरकारी दोनों तरह के प्रयासों के बावजूद कम उम्र में बच्चों की शादी अभिभावकों द्वारा किये जाने का चलन आज भी है. खास तौर पर उत्तर भारत में इस परंपरा का असर कम उम्र में जचगी मांओं की मृत्यु की सबसे बड़ी वजह रही है. 18 वर्ष से कम उम्र में शादी 2005-06 में 47.4 प्रतिशत से घट कर 2015-16 में 28.8 रह गयी है.
आंकड़े यह भी बता रहे हैं बैंकिंग व्यवस्था में स्त्रियों का समावेशन बढ़ा है, अगर दस साल पहले सिर्फ 15 फीसद महिलाओं के पास बैंक खाता था, तो आज 53 फीसद महिलाएं बैंक खाताधारी हैं, जो एक तरह से उनकी आर्थिक स्थिति में बेहतरी तथा परिवार के अंदर आर्थिक मामलों में निर्णय लेने की बढ़ती स्वतंत्रता को उजागर करता है. इसी का प्रतिबिंबन स्वास्थ्य के प्रति उनकी बढ़ती सतर्कता और घरेलू हिंसा में कमी के रूप में भी दर्ज किया गया है.
आखिर शिक्षा में बढ़ती उपस्थिति, बाल विवाह दर में गिरावट, उनकी आर्थिक स्थिति में बेहतरी, घरेलू हिंसा में कमी आदि से क्या निष्कर्ष निकाला जा सकता है? यही कि बीत गये वे दिन जब महिलाएं हाशिये पर बनी रहती थीं, घर एवं समाज की निर्णय प्रक्रियाओं में दोयम दर्जा अख्तियार करती थीं. मगर, बढ़ती जागरूकता का यह आलम है कि वह केंद्र में पहुंच रही हैं, सत्ता प्रतिष्ठानों से लेकर समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी धमक दर्ज करा रही हैं.
मगर, सभी अच्छी खबरों के बीच कुछ खबरें ऐसी भी हैं, जो बताती हैं कि समाज की मानसिकता बदलने में अभी काफी दूरी तय करनी होगी. मिसाल के तौर पर लिंगानुपात के मसले को लें, जहां अभी भी संकट के बादल दूर हुए नहीं दिखते हैं. हालांकि, 2005-06 में संपन्न सर्वेक्षण की तुलना में राष्ट्रीय औसत में थोड़ी बेहतरी अवश्य हुई है और यह अनुपात 914 से 919 तक पहुंचा है, मगर इन आंकड़ों को हम बारीकी से देखें, तो शहरों के स्तर पर इस लिंगानुपात में काफी विषमता दिखायी देती है. यह जानी हुई बात है कि ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी इलाकों में लिंगानुपात हमेशा ही अधिक विषम रहता आया है, क्योंकि यहां आसानी से टेक्नोलॉजी उपलब्ध होती है तथा प्रशिक्षित डाॅक्टरों के जरिये ‘अवांछित’ कहे गये गर्भ का गर्भपात कराया जा सकता है.
यह खबर भी चिंतित करनेवाली है कि पिछले एक दशक में कामकाजी महिलाओं की संख्या में कमी दर्ज की गयी है, जिसकी पड़ताल जरूरी है. कहां तो यह कि समाज में एक तरफ बढ़ती जागरूकता तथा संचार क्रांति के युग में जहां महिलाएं सार्वजनिक दायरे में अपनी उपस्थिति अधिकाधिक बढ़ाती दिख रही हैं, वहीं वे नौकरी से पीछे क्यों जा रही हैं? पिछले दस सालों में यह 28.6 फीसद से घट कर 24.6 फीसद हो गया है, जबकि यह प्रतिशत तेजी से बढ़ना चाहिए था. इसकी एक वजह यह दिखती है कि विगत ढाई दशक से अधिक समय से जिन आर्थिक सुधारों को अंजाम दिया गया है, उसमें सरकारी क्षेत्रों में नौकरी के अवसर घट रहे हैं. केंद्र तथा राज्य सरकारें लगातार रोजगार मुहैया कराने की बात करती हैं, लेकिन वह पूरी तरह फेल दिख रही हैं. इसकी एक अन्य वजह क्या यह है कि औपचारिक क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति घटी है, मगर अनौपचारिक क्षेत्रों में अधिक बढ़ी है, जिसका ठीक से मापन नहीं हो पाता है.
वैसे रोजगार की विकराल होती समस्या न सिर्फ महिलाओं के लिए, बल्कि युवकों में भी गंभीर हालत में पहुंचती दिख रही है. मौजूदा सरकार के बारे में भी यह कहा गया था कि किस तरह विगत एक साल में वह महज डेढ़ लाख के करीब नये रोजगारों का सृजन कर सकी है, जो इसके पहले के सालों की तुलना में भी काफी कम है.
महिलाओं की रोजगार में उपस्थिति को लेकर हमें निजी क्षेत्रों तथा काॅरपोरेट जगत में व्याप्त मानसिकता की भी बात करनी चाहिए. इस क्षेत्राें में स्त्री पुरुष समानता के प्रति संवेदनशीलता की कमी दिखती है, इतना ही नहीं वे भेदभाव करते हैं तथा समान अवसर उपलब्ध नहीं करते हैं. साथ ही जो महिलाएं काम पर आती हैं, उनके लिए भी ऐसा परिवेश निर्मित नहीं करते, जो जेंडर फ्रेंडली हो जहां महिलाएं सुरक्षा और सुकून महसूस कर सकें. ऐतिहासिक विशाखा जजमेंट के बाद, जबकि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को लेकर कमेटियों का निर्माण अनिवार्य कर दिया गया, उस मामले में भी यही देखने में आता है कि ऐसी कमेटियां निजी क्षेत्राें में लगभग न के बराबर हैं. निर्भया कांड के बाद देश भर में उठे आक्रोश से जहां सार्वजनिक दायरों को सुरक्षित बनाने की मांग उठी, वहीं यह सुनिश्चित नहीं करने तथा सुरक्षा की भावना जगाने में असफल प्रबंधन एवं प्रशासन ने महिलाओं को किसी भी प्रकार के रोजगार में अपनी किस्मत आजमाने के लिए हतोत्साहित किया होगा. वे कर्मचारी के तौर पर जब सुरक्षा, परिवहन की व्यवस्था आदि की शर्तों पर बात करती हैं, तब यही देखने में आता है कि मालिक इस तरह की जिम्मेवारियों से बचने के लिए आसान रास्ता यही अख्तियार करते हैं कि उनकी नियुक्ति ही सीमित हो तथा वह कुछ क्षेत्रों में ही हो.
कुल मिला कर चौथा नेशनल परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण हमें यह सोचने के लिए प्रेरित करता है कि फौरी बदलावों तक सीमित रहने के बजाय दूरगामी असर के लिए नीतिगत स्तर पर निर्णय हो और समाज की मानसिकता में वांछित बदलाव के लिए सक्रिय हस्तक्षेप हो.
अंजलि सिन्हा
सामाजिक कार्यकर्ता
महिलाओं के हाथों में धन अब कहीं ज्यादा
वर्षों से वित्तीय समावेशन की प्रक्रिया को तेज करने की कवायद के बीच अच्छी खबर यह है कि अब महिलाओं की आधी आबादी के पास खुद का बैंक खाता हो चुका है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की चौथी रिपोर्ट के दावों के मुताबिक एक दशक पहले मात्र 15 फीसद महिलाओं के पास बैंक खाते थे, अब 53 फीसद महिलाएं अपने बैंक खातों का संचालन कर रही हैं. अध्ययन में इस बात का भी खुलासा किया गया है कि महिलाओं की पारिवारिक फैसलों में भी धमक बड़ी है. ऐसी महिलाओं का तदाद बढ़ रही है, जिनके पास घर और जमीन का मालिकाना है. प्रसव पूर्व जांच और मासिक धर्म के समय सफाई बरतने के लिए सुविधाएं पहले से कहीं बेहतर हुई हैं.
महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों में गिरावट आयी है. आंकड़ों की मानें तो घरेलू हिंसा के मामले 37.2 प्रतिशत से घट कर 28.8 प्रतिशत पर आ गये हैं. हालांकि, अब भी इसे संतोषजनक स्थिति नहीं कही जा सकती.
अधिकारों के प्रति बढ़ी जागरूकता
महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ी है, साथ ही सामाजिक प्रतिष्ठा में सकारात्मक सुधार हुआ है. हालांकि, रिपोर्ट के अनुसार 3.3 प्रतिशत महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान हिंसा का सामना करना पड़ता है. सर्वेक्षण के अनुसार 15-49 वर्ष आयु की 84 प्रतिशत विवाहित महिलाओं की पारिवारिक फैसलों में महत्वपूर्ण भूमिका होती है, वर्ष 2005-06 के सर्वेक्षण में यह आंकड़ा 76 प्रतिशत पर था. इसके अलावा 38.4 प्रतिशत महिलाओं के पास अकेले या संयुक्त रूप से मकान या जमीन का मालिकाना हक होता है. इसमें कोई शक नहीं कि बैंक खातों के संचालन और पारिवारिक मामलों में बढ़ती भूमिका के पीछे बढ़ती साक्षरता दर सबसे बड़ा कारण है. दरअसल, गत सर्वेक्षण में महिला साक्षरत दर मात्र 55.1 प्रतिशत थी, जो अब 68.4 प्रतिशत हो चुकी है. पुरुषों की साक्षरता दर 85.6 प्रतिशत है, ऐसे में महिला साक्षरता दर के मामले में अभी लंबा सफर तय करना है. तीसरे और चौथे सर्वेक्षण की अवधि के बीच 10 वर्ष की स्कूली शिक्षा रखनेवाली महिलाओं की संख्या 22.3 प्रतिशत से बढ़ कर 35.7 प्रतिशत हो चुकी है.
जागरूकता बढ़ी, लेकिन गर्भनिरोधक इस्तेमाल में तीन प्रतिशत की गिरावट
भारत सरकार के स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अध्ययन के अनुसार देशभर में गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल में तीन प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी हैं. हालांकि, कुल प्रजनन दर में गिरावट दर्ज की गयी है और गर्भनिरोधक के इस्तेमाल को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी है. इस ‘बेमेल आंकड़ों’ पर स्वास्थ्य मंत्रालय की प्रतिक्रिया है कि शायद लोग गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल की बात को खुले तौर पर स्वीकार नहीं करते. मंत्रालय इस मामले में व्यापक अध्ययन की तैयारी में है. आंकड़ों में यह बात स्वीकार की गयी है कि लोगों में पिल्स और कंडोम के इस्तेमाल को लेकर जागरूकता बढ़ी है.
छह लाख परिवारों पर किये गये चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 2005-06 में गर्भनिरोधक इस्तेमाल 56.3 प्रतिशत से गिर कर 2014-15 में 53.5 प्रतिशत दर्ज किया गया. हालांकि, आधुनिक उपायों खास कर नसबंदी मामलों में मामूली कमी आयी है. पुरुष नसबंदी के मामले एक दशक में एक प्रतिशत से गिर कर 0.3 प्रतिशत और महिला नसबंदी 37.3 प्रतिशत से गिरकर 36 प्रतिशत दर्ज किया गया, जबकि आधुनिक उपायों का इस्तेमाल 48.5 से कम होकर 47.8 प्रतिशत के आंकड़े पर आ गया है. स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी इस बात को स्वीकारते हैं कि सर्वेक्षण के दौरान अक्सर लोग एेसे सवालों का जवाब देने से हिचकते हैं. जनसंख्या नियंत्रण को दर्शानेवाले कुल प्रजनन दर (टीएफआर) के आंकड़ों में 2.7 शिशु प्रति महिला से गिर कर 2.2 शिशु प्रति महिला दर्ज किया गया है. टीएफआर में गिरावट सभी 30 राज्यों में दर्ज की गयी है.
सर्वेक्षण की मुख्य बातें
सर्वेक्षण की मुख्य बातें
संकेतक एनएफएचएस-4 एनएफएचएस-3 (2015-16) (2005-06)
आबादी और परिवार प्रोफाइल शहरी ग्रामीण कुल कुल
छह वर्ष और उससे अधिक उम्र की
स्कूल में पढ़ाई करनेवाली महिलाएं (% में) 80.6 63.0 68.8 58.3
कुल जनसंख्या का लिंगानुपात
(प्रति 1000 पुरुष पर महिलाएं) 956 1009 991 1000
पिछले पांच वर्षों में जन्म लेनेवाले बच्चों का लिंगानुपात
(प्रति 1000 पुरुष पर महिलाएं) 899 927 919 914
कैरेक्टरिस्टिक्स आॅफ एडल्ट्स (15-49 वर्ष)
साक्षर महिलाएं (% में) 81.4 61.5 68.4 55.1
10 सा उससे अधिक वर्षों तक स्कूल
जानेवाली महिलाएं (% में) 51.5 27.3 35.7 22.3
विवाह व प्रजनन (फर्टिलिटी)
18 वर्ष से कम उम्र में जिनका विवाह हो गया हो,
20-24 वर्ष की वैसी महिलाएं (% में) 17.5 31.5 26.8 47.4
कुल प्रजनन दर (प्रति महिला बच्चे) (% में) 1.8 2.4 2.2 2.7
वर्तमान में परिवार नियोजन के तरीकों का प्रयोग (हाल ही में विवाह होने वाली 15-49 वर्ष की महिलाएं )
कोई भी तरीका (% में) 57.2 51.7 53.5 56.3
कोई भी आधुनिक तरीका (% में) 51.3 46.0 47.8 48.5
महिला बंध्याकरण (% में) 35.7 36.1 36.0 37.3
अंतर्गर्भाशयी यंत्र
(आइयूडी/ पीपीआइयूडी)(% में) 2.4 1.1 1.5 1.7
गोली (% में) 3.5 4.3 4.1 3.1
गर्भावस्था के दाैरान देखभाल (पिछले पांच वर्षों में आखरी बार प्रसव)
पहली तिमाही में जिन गर्भवतियों की
प्रसव पूर्व जांच हुई हो (% में) 69.1 54.2 58.6 43.9
कम-से-कम चार बार प्रसव पूर्व
जांच करवाने वाली गभर्वती (% में) 66.4 44.8 51.2 37.0
आखिरी प्रसव के समय गर्भ की सुरक्षा के लिए
प्रसव पूर्व टिटनेस लेनेवाली गर्भवती महिलाएं (% में) 89.9 88.6 89.0 76.3
गर्भावस्था के दौरान 100 दिनों तक आयरन,
फोलिक एसिड लेनेवाली गर्भवती महिला (% में) 40.8 25.9 30.3 15.2
वैसी गर्भवती महिलाएं जिनकी गर्भावस्था के
दौरान पूरी तरह देखभाल हुई हो (% में) 31.3 16.7 21.0 11.6
वयस्क महिलाओं की पोषणीय स्थिति (न्यूट्रीशनल स्टेटस)
सामान्य बीएमआइ (बॉडी मास इंडेक्स)
से कम बीएमआइ वाली महिलाएं (% में) 15.5 26.7 22.9 35.5
मोटी या बहुत ज्यादा मोटी महिलाएं (% में) 31.3 15.0 20.7 12.6
महिलाओं में खून की कमी
खून की कमी से जूझ रहीं 15-49
वर्ष की महिलाएं (% में) 50.9 54.3 53.1 55.2
खून की कमी से जूझ रहीं 15-49 वर्ष
की गर्भवती महिलाएं (% में) 45.7 52.1 50.3 57.9
खून की कमी से जूझ रहीं 15-49
वर्ष की कुल महिलाएं (% में) 50.8 54.2 53.0 55.3
वयस्क महिलाओं (15-49 वर्ष) का ब्लड शुगर स्तर
हाइ ब्लड शुगर स्तर (% में) 6.9 5.2 5.8 एनए
वेरी हाइ ब्लड शुगर स्तर (% में) 3.6 2.3 2.8 एनए
15-49 वर्ष की महिलाओं के बीच हाइपरटेंशन की शिकायत
सामान्य से थोड़ा अधिक (% में) 7.3 6.5 6.7 एनए
बहुत अधिक (% में) 0.7 0.7 0.7 एनए
15-49 वर्ष की वैसी महिलाएं, जिन्होंने कभी भी अपने इन अंगों की जांच करवायी हो
सर्विक्स (% में) 25.3 20.7 22.3 एनए
ब्रेस्ट (% में) 11.7 8.8 9.8 एनए
ओरल कैविटी (% में) 15.6 10.7 12.4 एनए
15-49 वर्ष की महिलाओं को एचआइवी/ एड्स की जानकारी
विस्तृत ज्ञान (% में) 28.1 16.9 20.9 17.3
महिला सशक्तिकरण व लिंग आधारित हिंसा (15-49 वर्ष)
घरेलू मामलों में लिए जाने वाले निर्णयों में
शामिल होनेवाली नवविवाहिता (% में) 85.8 83.0 84.0 76.5
वैसी कामकाजी महिलाएं जिन्हें पिछले
12 महीनों में नकद में पैसा मिला हो (% में) 23.2 25.4 24.6 28.6
पति द्वारा की जाने वाली हिंसा का
शिकार होनेवाली महिलएं (% में) 23.6 31.4 28.8 37.2
गर्भावस्था के दौरान हिंसा का शिकार
होने वाली महिलाएं (% में) 2.9 3.5 3.3 एनए
खुद के नाम घर या जमीन
(अकेले या दूसरे के साथ संयुक्त रूप से)(% में) 35.2 40.1 38.4 एनए
खुद के नाम बैंक या सेविंग्स अकाउंट जिसे
महिलाएं खुद ही इस्तेमाल करती हों (% में) 61.0 48.5 53.0 15.1
तंबाकू व शराब का सेवन करनेवाली
वयस्क महिलाएं (15-49 वर्ष)
किसी भी प्रकार के तंबाकू का सेवन (% में) 4.4 8.1 6.8 10.8
शराब का सेवन (% में) 0.7 1.5 1.2 2.2