होली भारतीय दर्शन की अभिव्यक्ति

बल्देव भाई शर्मा ‘होली आयी रे उड़ाती रंग लाल/बाजे चंग आंगनिया’ पंडित हरिदत्त जी और उनकी होली मस्त होकर गा रही है और इसका उल्लास श्रोताओं की आंखों व हाव-भाव से छलक पड़ रहा है. भारत नृत्य और गान की संस्कृति का देश है. ये दोनों ही विधाएं आनंद का सृजन करती हैं. होली तो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 11, 2017 6:18 AM
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बल्देव भाई शर्मा

‘होली आयी रे उड़ाती रंग लाल/बाजे चंग आंगनिया’ पंडित हरिदत्त जी और उनकी होली मस्त होकर गा रही है और इसका उल्लास श्रोताओं की आंखों व हाव-भाव से छलक पड़ रहा है. भारत नृत्य और गान की संस्कृति का देश है. ये दोनों ही विधाएं आनंद का सृजन करती हैं. होली तो नृत्य-गान का ही उत्सव है. आज भी आधुनिकता के नाम पर चाहे जीवन के अर्थ बदल गये हों, रंग-ढंग और तौर-तरीकों में कितना ही बदलाव आ गया हो, पर गांव-कस्बों तक होली का वही आनंद बिखरा दिखता है. होली की मस्ती और हुड़दंग वहां चारों ओर फैल जाता है. महानगरीय जीवन की अभिजात्यता जरूर उसे कुछ औपचारिकता में ढाल देती है, पर समय के बदलाव ने होली के रंग फीके नहीं होने दिये.

श्रीकृष्ण तो नृत्य-गान के उपासक हैं. उन्होंने कुरुक्षेत्र के रण में भी गीता का गान गुंजाया जो हजारों वर्ष बाद भी मानवता को हर निराशा और चिंता से निकाल कर आनंद का मार्ग दिखा रहा है. नृत्य के बिना तो कृष्ण का स्वरूप ही पूर्ण नहीं होता. उनका अपनी आधाशक्ति श्रीराधा और गोपिका सखियों सहित महादास व ग्वाल-बालों सहित गऊएं चराते हुए बंसी बजाते-बजाते नाच उठने की लीलाएं ह्दय को उल्लास से भर देती है. इसलिए राधा-कृष्ण की ठिठोली के बिना होली का आख्यान पूरा कहां होता है. होली के अवसर पर गाये जानेवाले कितने ही फाग राधा-कृष्ण के रंग में सराबोर हैं. इस प्रेम रंग के बिना होली की संकल्पना ही अधूरी जान पड़ती है. होली वस्तुत: भारतीय दर्शन की ही अभिव्यक्ति है कि प्रेम और आनंद के बिना जीवन निरर्थक है.

प्रेम और आनंद शरीर मात्र का सुख नहीं है, ये तो आत्मा का शृंगार हैं. आत्मा की अनुभूति ही प्रेम और आनंदमय है. उसे हम अपनी अज्ञानता या दूषित मनोवृत्तियों से समझ या पहचान नहीं पाते. श्रीकृष्ण ने जिस तरह गीता में सब विषय योगों के बीच या अलिप्त रह कर या कर्तव्य करते हुए भी फल की कामना न करते हुए अपरिग्रह भाव से जीने का रास्ता बताया है, वही प्रेम और आनंद का मार्ग है. प्रेम राम नहीं है, माया या मोह नहीं है जो हमें जकड़े रहता है और कुमार्गगामी भी बनाता है. राधा और कृष्ण युगल होकर भी असंपृक्त हैं और असंपृक्त होकर भी एकात्म हैं. यह विरोधाभासी लग सकता है, लेकिन भारतीय चिंतन और दर्शन की वही विशेषता है जो हमें होकर भी नहीं होने का हुनर सिखाता है और न होते हुए भी होने की स्थिति में ला खड़ा करता है. यह सब विज्ञान बोध है, आध्यात्मिक चेतना विज्ञान का मर्म है जो जीवन को विभिन्न विरोधाभासों के बीच सार्थक रूप में जीना सिखाती है.

आजकल व्हाट्सएप सोशल मीडिया का बड़ा सक्रिय माध्यम बन गया है. हालांकि उसका सही उपयोग कम ही होता है, लेकिन कभी-कभी वहां कुछ बातें बड़ी रोचक और ज्ञान सम्मत मिल जाती हैं. मेरे एक मित्र हैदराबाद में हैं नारायण रेड्डी .उन्होंने एक अनगढ़ सा कार्टून भेजा है जिसमें दो लोग अंगरेजी में बातें कर रहे हैं. एक आदमी दूसरे से पूछ रहा है-क्या तुमने प्रसन्नता या सुख (हेप्पीनेस) को पा लिया है ? ये मिल नहीं रहे, मैं इन्हें हर जगह ढूंढ़ रहा हूं. दूसरा कहा है-मैंने तो इसे अपने अंदर खोज लिया है. कितना बड़ा दर्शन छिपा है इस साधारण बातचीत में. अब तो कुछ सरकारों ने हैप्पीनेस मंत्रालय बना दिये, उनकी बड़ी तारीफें भी अखबारों में छप रही हैं. लेकिन क्या वास्तव में मंत्रालय बना कर या हैप्पीनेस को तलाश कर कोई ‘हैप्पी’ या सुखी हो सकता है.

कबीर का एक दोहा बड़ा प्रसिद्ध है-‘कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूंढ़े माहि.’ कस्तुरी की सुगंध से बौराया हिरण उसे ढूंढ़ने के लिए में मारा-मारा फिरता है, लेकिन उसे कहीं नहीं मिलती जबकि वह उसके अंदर ही है. ऐसे ही सुख या प्रसन्नता साधनों में नहीं है, साधन केवल आपके जीवन को सुविधाजनक बना सकते हैं, सुखी नहीं. सुखी तो मन की वृत्ति बनाती है. फकीर या साधु-संतों के पास तो कुछ भी साधन नहीं होते, लेकिन लोग उनके पास अपना सुख ढूंढ़ने या मांगने जाते हैं. गाया भी जाता है-‘मन लागा राम फकीरी में/जो सुख पाउं राम भजन में सो सुख नाहिं अमीरी में.’

अगर सुख धन से ही मिलता तो केवल धनी लोग ही सुखी रहते, परंतु विडंबना देखिये कि अपनी लालसाओं के फेर में अमीर ही सुख के लिए सबसे ज्यादा तरसते हैं. भारत का दर्शन बड़ा विचित्र है, जिसने इसे समस्त लिया वह सब कुछ पा जाता है. हमारे यहां तो कहा गया-‘संतोष एवं पुरुषस्य परमनिधानम्’ यानी जब आबै संतोष धन सब धन धूरि समान.’ होली का पर्व मन की इसी धूल को जो हमें भरमाये रहती है, जीवन की सच्चाई को समझने के बीच भ्रम का परदा डाले रहती है, उसे झाड़ कर और उसकी साफ-सफाई करके मन को निर्मल बना लेना, उसे बुराइयों से मुक्त कर दूसरों के साथ प्यार से जोड़ लेना सिखाता है. गांवों में विशेष कर ब्रज में कीचड़ की होली सारी गंदगी को साफ कर पूरे गांव को साफ सुथरा बना जाती है. प्रह्लाद को गोद में बिठा कर आग के बीच दहकती हिरणकश्यपु की बहन होलिका का भस्म होना और भक्त प्रह्लाद का सुरक्षित बच निकलना बुराई पर अच्छाई की जीत का आख्यान है. इस विजय को ही अबीर-गुलाल उड़ा कर, ढोल-नगारे की थापों के बीच नाच-गाकर मनाया जाता है.

हजारों वर्ष बाद भी भारत में उल्लास के साथ यह परंपरा जीवित है तो इसका अर्थ है कि हम आधुनिकता के इस भौतिक दौर में भी जीवन के सत्य को याद रखे हुए हैं. जीवन का यह सत्य ही मनुष्यता है, धर्म है, आनंद है. होली की ठिठोली के बीच मस्ती और हुड़दंग में इसे न भूलें यही होली का संदेश है. देश में होली पर लोक कवि ईसुरी की फाग गायी जाती है.

उसी की एक पंक्ति है-‘फागें सुन आये सुख होई. देव देवता मोई.’ इसका अर्थ है कि ईसुरी की फागें सुन कर सुख मिलता है, प्रभु मुझे सुख देते रहे. एक फाग में ईसुरी जीवन के सत्य को रेखांकित करते हैं-‘राखै मन पंछी ना रानैं/इक दिन सबखौं जानैं/कर लो धरम करैं बा दिन खौं/जा दिन होत रमानैं. पंछी एक दिन उड़ दिन को सुखमय बनाने के लिए धरम-करम कर लो ताकि जिंदगी यादगार बन जाये. होली की ठिठोली में जीवन के इस मर्म को समझ लिया, तो बेड़ा पार है.

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