जनादेश अखिलेश सरकार पर जनमत संग्रह

पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा- के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने कई स्तरों पर अनुमानों-आकलनों को गलत साबित किया है. उत्तर प्रदेश में भाजपा और पंजाब में कांग्रेस की भारी जीत तथा आम आदमी पार्टी का उम्मीद से बहुत कम प्रदर्शन करना निश्चित रूप से विश्लेषकों को कई दिनों तक उलझाये […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 12, 2017 6:18 AM
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पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा- के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने कई स्तरों पर अनुमानों-आकलनों को गलत साबित किया है. उत्तर प्रदेश में भाजपा और पंजाब में कांग्रेस की भारी जीत तथा आम आदमी पार्टी का उम्मीद से बहुत कम प्रदर्शन करना निश्चित रूप से विश्लेषकों को कई दिनों तक उलझाये रखने के लिए काफी हैं. भाजपा ने देश के सबसे बड़े सूबे में तीन-चौथाई से अधिक सीटें जीत कर इतिहास रच डाला है. इन नतीजों के विविध पहलुओं पर जानकारों की टिप्पणियां…
रामदत्त त्रिपाठी
वरिष्ठ पत्रकार
अगर उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस गंठबंधन नहीं भी हुआ होता, तो भी लगभग यही स्थिति होती. कांग्रेस और उसके 28 विधायकों को भी यह डर था कि अगर गंठबंधन नहीं होगा, तो हम चुनाव नहीं जीत पायेंगे. विधायकों की मांग अनुरूप ही कांग्रेस नेतृत्व गंठबंधन के लिए राजी हुआ था.
खाट सभाओं के दौरान कांग्रेस को यह एहसास हो चुका था कि हमें पर्याप्त जनसमर्थन नहीं मिल रहा है. दूसरी ओर, अखिलेश यादव को भी हारने का डर था, इसलिए उन्होंने कांग्रेस का सहारा लिया. यह जनादेश अखिलेश सरकार के पांच साल के कार्यकाल पर जनमत संग्रह ही है. उनके विकास के एजेंडे को जनता ने स्वीकार नहीं किया है. वे कानून-व्यवस्था और बेहतर शासन देने से चूक गये, जिसका मुद्दा बना कर भाजपा ने जीत दर्ज की. उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर ध्यान नहीं दिया, जबकि भाजपा ने रणनीति के तहत शहरों के साथ-साथ गांव-देहात तक अपनी पहुंच बनायी.
भाजपा ने गांव-गरीब, किसान और विकास को मुद्दा बना कर मतदाताओं को आकर्षित किया. नोटबंदी से हुई तकलीफों और कष्ट को दूर करने का भाजपा ने लोगों को भरोसा दिया. अखिलेश शहरी और मध्यम वर्ग को आकर्षित करने के चक्कर में गरीबों और किसानों की बात भूल गये. बिहार में हुए गंठबंधन का जहां तक मामला है, वहां नितीश की छवि और शासन-प्रशासन का रिकॉर्ड अच्छा था. बिहार में उन्होंने अपराध को काफी हद तक नियंत्रित कर दिया था.
सामाजिक न्याय की शक्ति को भांप कर नितीश और लालू एक रणनीति के तहत साथ आये. जबकि अखिलेश को यह गलतफहमी थी कि केवल मेरे नाम या मेरे चेहरे पर चुनाव जीता जा सकता है. उन्होंने अपनी अलग-अलग पृष्ठभूमि और समाज से आनेवाले अपनी पार्टी के बड़े नेताओं को दरकिनार कर दिया. बेनी प्रसाद वर्मा, रेवती रमन सिंह, माता प्रसाद पांडेय जैसे नेताओं की उन्होंने उपेक्षा की. यदि अखिलेश यादव ने खुद को लोगों से जोड़ा होता और लोगों के बीच गये होते तो, शायद ऐसे हालात नहीं होते.
अखिलेश यादव ने खुद ही अपनी पार्टी को तोड़ा. मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव, जिन्होंने पार्टी की स्थापना की थी, उनको अपमानित किया. दूसरी ओर, भाजपा स्थिति मजबूत होने के बाद भी अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर की पार्टी से समझौता किया.
दूसरे दलों के लोगों को, जैसे लखनऊ में ही रीता जोशी, बृजेश पाठक और नीरज वोरा आदि को लेकर आये. अखिलेश लोगों को जोड़ने और सुशासन के मोर्चे पर असफल रहे, जिसका फायदा नरेंद्र मोदी और भाजपा ने उठाया. नरेंद्र मोदी के प्रति लोगों का आकर्षण हुआ, तो वह काम की वजह से ही हुआ. जबकि राहुल और अखिलेश दोनों ही यह दिखाते रहे कि हम राजा हैं और हम आपको देंगे. यह समझने में भूल कर गये कि जनता आपको प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करती है. इससे स्पष्ट है कि राजनीति अब राजा-रानी के खेल से नहीं चलेगी.
कांशीराम लोगों को जोड़ते थे और सबको नेतृत्व में हिस्सेदारी देते थे. मायावती ने स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी को जाने दिया, इससे होनेवाले नुकसान का उन्हें कोई अनुमान नहीं था. दूसरी बात अति पिछड़े समाज और दलितों में भी छोटी-छोटी जातियों को वह जोड़ने में असफल रहीं. उन्होंने सारी शक्ति अपने पास केंद्रित कर ली, यहां तक कि दलित बुद्धजीवियों से भी कट गयीं. पूरे पांच साल उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे उन्हें इस चुनाव में कोई फायदा मिल पाता.
मायावती ने जो पिछली सरकार जो चलायी थी, लोग उससे उत्साहित नहीं थे. रोजगार और विकास के मामले पीछे रह गये और भ्रष्टाचार के मामले तो मायावती पर सबसे अधिक थे.
वहीं अमित शाह लखनऊ, बनारस और गोरखपुर आदि स्थानों पर जाकर कार्यकर्ताओं से रात-रात भर मिलते रहते थे, जबकि मायावती सभा करके वापस आ जाती थीं. अगर आप कार्यकर्ताओं से मिलेंगे नहीं, जमीन की सच्चाई से रू-ब-रू नहीं होंगे, लोगों की अपेक्षाओं को समझेंगे नहीं, तो आपकी जमीन खिसकेगी ही. भाजपा के साथ अच्छी बात है कि जमीन पर कार्यकर्ताओं और आरएसएस का मजबूत संगठन है. यही कार्यकर्ता ही नरेंद्र मोदी का संदेश लेकर घर-घर गये और जीत उसी का परिणाम है.
भाजपा के सामने बेहतर और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने की चुनौती होगी. साथ ही, भगवा ब्रिगेड को काबू रख पाने की चुनौती होगी. तमाम बड़बोले लोगों काबू रखना होगा.
अब बढ़ जायेगी विरोधी दलों की चिंता
मनीषा प्रियम
राजनीतिक विश्लेषक
उत्तर प्रदेश में मंडल के उत्तरकाल की राजनीति का कमल अब खिल गया है. इस बड़े राज्य में सन 1966-67 में ही कांग्रेस-विरोध की राजनीति शुरू हो गयी थी, जिसमें जनसंघ और समाजवादियों की बराबर की भागीदारी थी. इसके बाद भी जनता पार्टी और जनता दल में यह भागीदारी बरकरार रही.
वीपी सिंह के मंडल के फरमान के बाद ही वहां कमंडल और कमल की राजनीति एक अलग ध्रुव पर शुरू हुई. लगभग 27 वर्ष के बाद अंतत: जनसंघ ने समाजवादियों का, मंडल का, और दलित राजनीति का एक साथ ही सफाया कर दिया. जहां की मंडल की राजनीति में समाजवादियों और कांशीराम दोनों का हिस्सा रहा, वहीं जनसंघ अपनेआप को राम जन्मभूमि और हिंदुत्व की राजनीति बरकरार रही. नतीजा यह हुआ कि बीते 25 वर्षों में उत्तर प्रदेश में सत्ता की भागीदारी मुलायम और मायावती के बीच ही रही. लेकिन, अब भाजपा ने 403 सीटों में 300 से ज्यादा सीटों पर जीत दर्ज कर इतिहास ही रच दिया है.
भारत की राष्ट्रीय राजनीति के लिए, उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए और विभिन्न राज्यों की राजनीति के लिए क्या मतलब निकालें इस जनादेश का? जहां तक यूपी की राजनीति का सवाल है, सबसे प्रमुख संदेश यह है कि समाजवादी और बहुजन समाजवादी दोनों ही किन्हीं चयनित जातियों के पक्षधर रहे. जबकि भाजपा ने विकास और भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात की. मोदी जी ने अपनी चुनावी रैली में एक भ्रष्ट अधिकारी का नाम लेते हुए, जिसने सपा और बसपा दोनों को फायदा पहुंचाया था, बसपा पर बहनजी संपत्ति पार्टी का आरोप ही जड़ दिया.
जहां तक अखिलेश का सवाल है, भाजपा की उन पर पिछले पांच वर्षों के कार्यकाल में कोई सरकारी भ्रष्टाचार का मामला तो नहीं आया, लेकिन वह विकास के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं कर पाये हैं, जिससे उन्हें नीतीश कुमार का दर्जा दे दिया जाये. इसका नतीजा यह है कि उत्तर प्रदेश की सड़कें, बिजली की कमी और स्कूलों की दुर्दशा बिहार की तुलना में कहीं ज्यादा बदतर है.
आखिर जनता इन तथ्यों से अनभिज्ञ नहीं है. आम जनमत यह था कि उत्तर प्रदेश को विकास की आवश्यकता है. नरेंद्र मोदी ने एक रैली में कहा था कि उत्तर प्रदेश में विकासवाद के बनवास को खत्म किया जाये. नतीजा यह हुआ कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही विकास ही प्रचार का आधार बना. बुंदेलखंड में भी भारतीय जनता पार्टी ने अपनी अच्छी पैठ बनायी. और जो इलाके मुलायम के गढ़ माने जाते हैं, वहां भी भाजपा की बहुत बढ़त मिली और पूर्वांचल तो मंदिर लहर में ओतप्रोत ही था. यही सब भाजपा की जीत के आधार बने.
कुल मिला कर, उत्तर प्रदेश की जिस राजनीति को अभी तक क्षेत्रीय दायरों में बंटा हुआ देखा जाता था, इस चुनाव में उन सभी क्षेत्रों को विकास के नजरिये से ही देखा गया. विकास के साथ भाजपा ने बखूबी इसे हिंदुत्व का भी अमलीजामा पहनाया. कहीं तो यह कहा कि बिजली के अावंटन में भी धर्म के आधार पर पक्षपात किया जाता है, वहीं श्मशान और कब्रिस्तान में सरकारी पक्षपात का ब्योरा दिया गया. यानी कि धर्म के आधार पर छींटाकसी और राजनीतिक बोल-बयानी का तरीका इस पूरे चुनाव में बना रहा. इन सब तथ्यों के आधार पर देखें, तो भाजपा का पक्ष मजबूत होता चला गया और वह जीत हासिल करने में ऐतिहासिक रूप से कामयाब हो पायी.
अब राज्यों की इस वर्तमान राजनीतिक स्थिति का राष्ट्रीय राजनीति पर जो असर पड़ता है, वह यह है कि क्षेत्रीय दल अब अपना पांव जमाने में कठिनाई महसूस करेंगे. अपने लिए राजनीतिक काम के लिए धन इकट्ठा करना भी उन्हें मुश्किल होगा और मतदाता भी अब सक्षम विकास के लिए राष्ट्रीय दलों के साथ ही जायेंगे. ऐसे में भाजपा की कोई राष्ट्रीय विरोधी दल ही नजर नहीं आता है.
कुल मिला कर अब विरोधी दलों की चिंता का विषय यह है कि वे विरोध करें, तो कैसे करें. कांग्रेस डगमगा सी गयी है और क्षेत्रीय दलों का एकजुट होकर भाजपा को टक्कर दे सकना अब संभव नहीं दिखता है. ऐसे में आनेवाले दिनों में भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि नरेंद्र मोदी अपने वायदों पर कितने खरे उतरते हैं और सर्वजन हिताय की संकल्पना कैसे फलीभूत होती है.
कांग्रेस पार्टी और कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल की कमी
रािशद िकदवई
वरिष्ठ पत्रकार
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले कांग्रेस और सपा का गंठबंधन अचानक हुआ. इस गंठबंधन में कांग्रेस पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं की रायशुमारी नहीं ली. उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमिटी और कांग्रेस वर्किंग कमिटी के बीच इस गंठबंधन को लेकर कोई विधिवत रणनीतिक बैठक भी नहीं हुई.
राहुल गांधी, गुलाम नबी आजाद और प्रशांत किशोर ने दिल्ली में बैठ कर इतना बड़ा फैसला ले लिया. यही वजह है कि कार्यकर्ताओं के पास बहुत ज्यादा समय नहीं मिला कि वे जमीनी स्तर पर कुछ ठोस रणनीति बना सकें.
दूसरी बात यह है कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच निचले स्तर पर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते दोनों में आपस में कोई तालमेल नहीं रहा. इस तालमेल की कमी के चलते कांग्रेस की अगड़ी जातियों का वोट सीधे भाजपा को चला गया. जहां तक चुनाव प्रचार का सवाल है, दोनों पार्टियों ने एक साथ बहुत ही कम प्रचार किया.
इस वक्त कांग्रेस के लिए बहुत ही संवेदनशील मसला है. हालांकि, कांग्रेस ने गोवा और पंजाब में अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन उत्तर प्रदेश की जमीनी हकीकत पंजाब और गोवा से बिल्कुल अलग है.
हालांकि उत्तर प्रदेश के साथ-साथ कांग्रेस ने उत्तराखंड भी गंवा दिया है, लेकिन राहुल की पंजाब में सराहना की जायेगी कि उन्होंने कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में भाजपा को हरा दिया है. अमरिंदर सिंह के लिए बीते ढाई-तीन साल में दो बातें अहम हैं- एक, लोकसभा चुनाव में उन्होंने अमृतसर में अरुण जेटली को हराया. दो, विधानसभा चुनाव में उन्होंने बहुत मेहनत की.
कांग्रेस के लिए यह चिंतन-मनन का समय है, और राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य के बारे में भी. इस वक्त कांग्रेस के अंदर आपसी तालमेल और पारदर्शिता की सख्त जरूरत है. उसे इस मामले में बहुत जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है.
सिर्फ प्रशांत किशोर के भरोसे कोई भी चुनाव नहीं जीता जा सकता, क्योंकि किशोर प्रबंधन के विद्यार्थी हैं और वे सिर्फ माहौल खड़ा कर सकते हैं, लेकिन उस माहौल को जमीनी स्तर पर भुनाने का काम कांग्रेस और पार्टी कार्यकर्ता ही कर सकते हैं. यहीं राहुल गांधी की जिम्मेवारी बढ़ जाती है. अब राहुल गांधी को चाहिए कि वे कम-से-कम केंद्र में विपक्ष की भूमिका में बैठी कांग्रेस को मजबूत बनाने की कोशिश करें, जो बहुत ही कमजोर स्थिति में है. यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि कांग्रेस में इस वक्त सोच-विचार की सख्त जरूरत है. सोनिया गांधी ने उत्तर प्रदेश चुनाव में प्रचार नहीं किया, लेकिन कार्यकर्ताओं के बीच उनकी मांग ज्यादा थी. वहीं दूसरी बात यह भी है कि उत्तर प्रदेश से आनेवाले कांग्रेस के दर्जन भर नेताओं का चुनाव प्रचार में कहीं न दिखना भी पार्टी को मजबूती नहीं दे सका.
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जब अखिलेश यादव ने एग्जिट पोल को देखते हुए कहा था कि जरूरत पड़ने पर वे बसपा के साथ भी जा सकते हैं, तो यह काम पहले ही होना चाहिए था. यानी अगर सपा को गंठबंधन करना ही था, तो कांग्रेस के साथ-साथ बसपा और राष्ट्रीय लोकदल को भी साथ लेना चाहिए था, तब दृश्य कुछ और ही होता. बहरहाल, कांग्रेस के लिए अब सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि वह अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ पारदर्शी रहे और जमीनी स्तर पर ज्यादा काम करने की कोशिश करे.
अभी भी कांग्रेस के पास दो साल का वक्त बचा हुआ है, जिसमें वह एक मजबूत विपक्ष की बड़ी और जिम्मेवार भूमिका निभा सकती है. अगर वह ऐसा नहीं कर पाती है, तो साल 2019 में उसके लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी हो जायेंगी.
अति आत्मविश्वास ले डूबा आम आदमी पार्टी को
ओम थानवी
वरिष्ठ पत्रकार
आम आदमी पार्टी का पंजाब में शुरू में उठाव बहुत ही अच्छा था. काफी समय तक आम आदमी पार्टी ने पंजाब में अपनी पकड़ बरकरार रखी हुई थी, लेकिन बाद इनमें अतिरिक्त आत्मविश्वास घर कर गया. आम आदमी पार्टी के नेता अपने आपको जीता हुआ मान कर बरताव करने लगे. ये लोग पहले ही तय करने लगे कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा और मंत्रिमंडल कैसा होगा, उपमुख्यमंत्री दलित समुदाय से होगा वगैरह. पहले ही मंत्रिमंडल बना कर बैठ गये. यही अतिआत्मविश्वास आम आदमी पार्टी की हार का कारण बना.
मैं चुनावों के दौरान पंजाब गया था. एक मित्र ने कहा कि पंजाब के मतदाताओं को अरविंद केजरीवाल की तरफ से रिकॉर्डेड संदेश आया है कि हमारी सरकार आयी, तो हम जेलों में बंद निर्दोष लोगों को रिहा कर देंगे. इसका लोगों ने अलग ही मतलब निकाला. लोगों को लगा कि ये जेलों में बंद किन लोगों को बरी करेंगे. पंजाब में प्रचार हुआ कि ये उग्रवाद के पक्षधर लोग हो सकते हैं.
बड़ी मुश्किल से पंजाब उग्रवाद से मुक्त हुआ है. समस्याओं से निकल कर बाहर आया है. ये अगर उग्रवादियों से मिल गये हैं, ऐसा संदेश लोगों के बीच खड़ा किया. हालांकि, इसका कोई आधार रहा होगा. जिस प्रकार से विदेश से एनआरआइ आये, उसका अलग तरह से प्रचार हुआ. लेकिन, जो अरविंद केजरीवाल का संदेश लोगों के बीच गया कि हम कैदियों को रिहा कर देंगे, उसे भी जोड़ कर देखा गया.
इसके अलावा पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल, जिन्होंने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी, उन्होंने चुनाव से पहले कुछ ऐसा ही बयान दिया था, जिससे लोगों को संदेश गया कि ‘आम आदमी पार्टी’ अलगाववादी लोगों के साथ मिल कर चुनाव लड़ रही है.
निश्चित ही ये बात आम आदमी पार्टी की छवि को खराब करने में बड़ा कारण रही होगी. लेकिन, आम आदमी पार्टी को जितनी सीटें मिली हैं, उससे दिल छोटा करने की बात नहीं है. अनजान जगह पर, जहां पहले कभी विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा, वहां मुख्य विपक्षी पार्टी बनना, कम नहीं है.
जहां तक अरविंद केजरीवाल के पंजाब जाने का सवाल था, तो उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि पंजाब का ही कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री बनेगा. हालांकि, कांग्रेस शुरू में ज्यादा सक्रिय नहीं थी, लेकिन बाद में कांग्रेस ने भी काफी मेहनत की. लोगों के दिमाग में अरविंद केजरीवाल को लेकर थोड़ा संदेह था, लेकिन कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं था. कांग्रेस के लोग अकाली-भारतीय जनता पार्टी के गंठबंधन को हराने के लिए लोग पहले से ही मन बना चुके थे. यही वजह है कि लोगों ने कांग्रेस का रुख किया.
आम आदमी पार्टी एक नयी पार्टी है, उन्हें पंजाब के चुनावों से सबक लेना चाहिए. उन्होंने इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किन लोगों का समर्थन लें और किस प्रकार का संदेश लोगों को दें, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है. जब आप नयी जगहों पर जाते हैं, तो आपका लक्ष्य ऐन-केन प्रकारेण नहीं होना चाहिए. वहां आपका पहला लक्ष्य जगह बनाने का होना चाहिए.
भारतीय जनता पार्टी को पूरे देश में जगह बनाने में समय लग रहा है. ऐसे कई प्रदेश हैं, जहां वे लोग अभी शुरुआत ही कर रहे हैं. इसके लिए धीरज चाहिए, अचानक कोई फैसला लेने से बचना चाहिए. ‘आप’ को लगता है कि जैसे दिल्ली में सत्ता मिली, वैसे ही हर जगह सफलता मिल जायेगी, ऐसा मान कर नहीं चलना चाहिए. कोई भी फैसला बहुत सोच-समझ कर करना चाहिए. अभी आम आदमी पार्टी को धैर्य भी सीखना चाहिए और निरंतर अलग-अलग क्षेत्रों में बेहतर काम करने की कोशिश की जानी चाहिए.
उत्तर प्रदेश का परिणाम लोकतंत्र के लिए बहुत कुछ चिंताजनक संदेश दे रहा है. भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति में चालीस फीसदी आबादी को अलग रख कर जातीय और सांप्रदायिक स्तर पर ध्रुवीकरण कर यह जीत हासिल की है. मुस्लिम, यादव और जाट तबकों के राजनीतिक वर्चस्व के विरुद्ध माहौल बना कर सवर्ण एकजुटता के नेतृत्व में विभिन्न समुदायों की लामबंदी का नतीजा है यह जीत. यह प्रवृत्ति लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरनाक है.
अब सामाजिक न्याय की ताकतों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार कर अपने पुनरोत्थान की राह तैयार करनी पड़ेगी. सामाजिक न्याय और समानता के लिए संघर्ष को निश्चित रूप से बड़ा धक्का लगा है. इसलिए इससे उबरने के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे. जहां तक राष्ट्रीय राजनीति की बात है, तो उत्तर प्रदेश में भाजपा की बड़ी जीत उसके हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने में बड़ा सहायक होगी. इस लिहाज से सामाजिक न्याय के पक्षधरों और प्रगतिशील खेमे के लिए मौजूदा स्थिति बेहद चुनौतीपूर्ण है.
प्रो विवेक कुमार, समाजशास्त्री
उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत के मायने
आर राजगोपालन
वरिष्ठ पत्रकार
भाजपा उत्तर प्रदेश चुनाव में भारी जीत दर्ज कर चुकी है. अब सवाल यह है कि इस जीत के बाद राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी तस्वीर क्या उभरेगी. जुलाई, 2017 में भारत के राष्ट्रपति पद पर मोदी के पसंदीदा व्यक्ति आसीन होंगे, राज्यसभा में भाजपा की संख्या में बड़ी बढ़त हासिल होगी, अरविंद केजरीवाल का 2019 में प्रधानमंत्री बनने का सपना बिखर गया है, राहुल गांधी का नेतृत्व असफल साबित हुआ, जिस तरह से तमिलनाडु में द्रमुक और पश्चिम बंगाल में माकपा की हार हुई, और अब अखिलेश यादव अपनी हार के बाद 2019 के आम चुनाव में उन्हें कांग्रेस के नजदीक जाने से पहले दो बार सोचना होगा, क्योंकि कांग्रेस के साथ ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में उन्हें निराश किया है. की वजह से ही उत्तर प्रदेश में सपा की हवा निकल गयी. मोदी और भाजपा सुधार के और कदम उठायेंगे और कमजाेर तबके के साथ न्याय करेंगे. विमुद्रीकरण की तरह ही मोदी अब बेनामी सौदा विधेयक जैसे आक्रामक कदम भी उठायेंगे.
बड़ी तस्वीर का एक अन्य पहलू यह है कि बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती को नये तरीके से खुद को तैयार करना होगा तथा दलित और मुसलमान मतदाताओं के गठजोड़ पर अपने फोकस के बारे में पुनर्विचार करना होगा. रही बात कांग्रेस की, तो जैसा कि जैसा पी चिदंबरम कहते रहे हैं कि कांग्रेस कोई निजी उपक्रम नहीं है जिसका अगुवाई केवल एक परिवार करता रहे, आंतरिक स्तर पर शक्ति का विकेंद्रीकरण होना चाहिए. उत्तर प्रदेश के चुनाव से उभरते परिदृश्य के ये बड़े सबक हैं.
इन बिंदुओं पर कुछ विस्तार से चर्चा करते हैं.
भारत के राष्ट्रपति पद के लिए मोदी अब अपनी पसंद के व्यक्ति का चयन करेंगे. भारत में पहली बार विशुद्ध रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का कोई व्यक्ति राष्ट्रपति भवन में निवास करेगा. इस पद के लिए कई दावेदार हैं. यहां तक कि लोकसभाध्यक्ष सुमित्रा महाजन और केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत भी इस दौड़ में शामिल होंगे. लेकिन मोदी के मन में क्या है, वह तो अप्रैल में ही पता चलेगा. वर्ष 2014 में मोदी की जीत का एक मतलब यह भी था कि राष्ट्रपति भवन के लिए आरएसएस का कोई उम्मीदवार हो. उत्तर प्रदेश में जीत के बाद मोदी के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान के लिए अधिक विधायकों के होने से मोदी के पास चयन के लिए पूरी आजादी होगी.
मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस राज्यसभा में पेश होने वाले सभी विधेयकों और संशोधनों पर अड़ंगा लगाती रही है, उससे अब राहत मिलेगी और मोदी लगभग सभी विधेयकों और सुधारों को पारित करा लेंगे. मोदी राज्यसभा में बेनामी लेन-देन से संबंधित विधेयक पेश करेंगे, जिससे सबसे गरीब तबके को मदद मिलेगी.
अब कांग्रेस के वंशवादी शासन का अंत हो जायेगा. उदाहरण के लिए, राहुल गांधी को अधिक छुट्टियां लेनी होंगी और अब उन्हें 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले दो साल तक भविष्य के बारे में अध्ययन करना चाहिए. राष्ट्रीय परिदृश्य में सोनिया गांधी के नहीं रहने से जो खाली जगह होगी उसे राहुल गांधी को अधिक आत्मविश्वास के साथ भरना होगा.
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